विचार / लेख

गीता प्रेस के इतिहास को नकारात्मक ढंग से देखना क्या उचित होगा ?
29-Jun-2023 7:24 PM
गीता प्रेस के इतिहास को नकारात्मक  ढंग से देखना क्या उचित होगा ?

 - हितेंद्र पटेल
अक्षय मुकुल की गीता प्रेस पर लिखी किताब बहुत मेहनत से लिखी गई है लेकिन भ्रामक है। इसमें तथ्य हैं लेकिन तत्त्व को ठीक से समझा नहीं गया है। हनुमान पोद्दार बहुत ही जटिल व्यक्ति हैं। उनको इस तरह सांप्रदायिक सिद्ध करके अंतत: एक प्रतिक्रियावादी सोच को ही बढ़ावा मिलता है, जिससे भारतीय भाषाओं के  पढ़े लिखे लोग आपस में लड़ते हैं और चालाक एलीट पढ़े लिखे लोग मलाई खाते हैं।  (यह एक भद्दा भाषिक प्रयोग लगे, लेकिन थोड़ी तल्खी जरूरी है। जिन विद्वानों की अनुशंसा इस पुस्तक को प्राप्त है उनको उत्तर भारत के साहित्य, इतिहास और समाज की कितनी समझ है? क्या कोई वासुदेव शरण अग्रवाल, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह जैसे विद्वान इस तरह से देखते जैसे ये दोनों अनुशंसा करने वाले देखते हैं?) 

आप ध्यान रखें कि पोद्दार इस तरह के भक्त थे कि अपने को निमित्त मात्र मानते थे। जब उनको भारत रत्न देने की पेशकश की गई तो उन्होंने इंकार कर दिया! 

हिंदू और मुसलमान की लड़ाई और भारतीय राष्ट्रवाद की कहानियां इतने सीधे रूप में चित्रित नहीं की जा सकती कि 1870 से 1947 तक की कहानी को इस तरह कहा जा सके कि एक तरफ हिंदू हिन्दी हिंदुस्तान वाले लोग थे और दूसरी तरफ लिबरल, इन्क्लूसिव और लोकतांत्रिक लोग थे। इस बाइनरी ने बड़ा अहित किया है। 

एक समय था जब गीता के महत्त्व  को भी ठीक से नहीं समझा जाता था। तिलक, गांधी और सहजानंद को गीता के महत्त्व को समझने के लिए ध्यान में रखना जरूरी है। 
हनुमान प्रसाद पोद्दार, गोयन्दका जैसे लोगों को जिस तरह से अक्षय मुकुल ने देखा है वह उनके प्रति चरम अन्याय है। असहमतियां हैं और उसे कहा जाना चाहिए, लेकिन उनके उद्देश्य को इस तरह नकारात्मक तरीके से देखना ठीक नहीं।
 
भक्त साम्प्रदायिक नहीं होता। ये लोग भक्ति में विश्वास करने वाले लोग थे, उनको सांप्रदायिक लेबल के साथ पेश करना बहुत ही खराब दृष्टि है। 

निश्चित रूप से गीता प्रेस ने हिंदू जीवन दर्शन से चीजों को देखा। इसमें छपी चीजें भिन्न भिन्न प्रकार की हैं। इसमें विभिन्न प्रकार के लोग लिखते थे, इसका ध्यान रहे। एक खास तरीके से देखने के कारण भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर गांधी तक सभी साम्प्रदायिक मान लिए गए थे। यहां तक कि प्रेमचंद में भी सांप्रदायिकता के तत्वों को खोजने की एक जबरदस्त मुहिम भी चली थी। 

यह घातक इतिहास दृष्टि है, जिसको सुनियोजित ढंग से भारतीय भाषा के विद्वानों के माध्यम से भी फैलाया गया है। अब इसपर विचार करके एक सम्यक दृष्टि से विचार करना होगा। 

राष्ट्रवादी दृष्टि और सांप्रदायिक दृष्टि एक दूसरे से गुंथी हुई थी। कालांतर में एक भारतीय दृष्टि का निर्माण हुआ। इस भारतीय दृष्टि में एक हिंदू राष्ट्रवादी दृष्टि भी रही और एक राष्ट्रवादी मुसलमान दृष्टि भी रही। बहुत ही पेचीदा मामला है। ऐसे में बहुत शोध की जरूरत है। 
शोध का एक धर्म है। नीर 
क्षीर का विवेक होना चाहिए। अपने आर्गुमेंट को भी बार बार परिष्कृत करना पड़ता है। 

सरकार जो कर रही है और जिन जिन को पुरस्कृत कर रही है उसकी आलोचना जरूरी है। एम जी रामचंद्रन को दे दिया था। सचिन तेंदुलकर को दिया। उनकी मर्जी, आखिर सरकार है उनकी। उसकी जिम्मेवारी सरकार की है। उसके पक्ष और विपक्ष में बंटकर बौद्धिक क्यों चले। उसका मूल्यांकन कार्य अलग तरीके से होना चाहिए। कोई भी सरकार क्या किसी को महान बना सकी है?

क्या अशोक बौद्ध धर्म को या अकबर दीन ए इलाही को बढ़ा सके ? 
सत्ता की अपनी भूमिका होती है, उसपर आलोचना करना उचित है। यह हमारा धर्म भी है। पर गीता प्रेस के इतिहास को इस तरह नकारात्मक ढंग से देखना क्या उचित होगा ? उसके अंतर्निहित मूल्यों की आलोचना करें लेकिन उसके अवदान को भी स्मरण में रखें।

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