विचार / लेख
कुछ शब्द बहुत नामचीन बनने की कोशिश करते हैं, जबकि शब्दकोष में उनका महत्व नहीं होता। ये शब्द अपनी जिच और जिद नहीं छोड़ते। हिन्दी तर्जुमा किए बिना इन्हें अंगरेजी में ‘वाइस’ ‘डेपुटी’ ‘असिस्टेंट’ या ‘एडिशनल’ वगैरह कहना मुनासिब होगा। ये भूमिकाएं दो नंबरी होती हैं। जब तक मुख्य भूमिका वाला व्यक्ति या ओहदा इन्हें जगह नहीं दे, इन बेचारों को तब तक प्रतीक्षारत रहना होता है। बिहार में अनुग्रह नारायण सिंह दबंग नेता हुए। वे मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिन्हा के बाद दूसरे नंबर पर वित्त मंत्री थे। बहुत कोशिश करने पर भी उपमुख्यमंत्री नहीं बन पाए, भले ही राजनीतिक ठसक मुख्यमंत्री के बराबर रही। यही भूमिका सी.पी. और बरार में कलह विशेषज्ञ द्वारिका प्रसाद मिश्र की रही। तमाम वरिष्ठता के बावजूद दो प्रधानमंत्रियों की मृत्यु के बाद कार्यकारी प्रधानमंत्री गुलजारी लाल नंदा दो नंबर पर ही रहे। चरित्रवान नेता प्रधानमंत्री के ओहदे पर परवान नहीं चढ़ सका। दूसरे नंबर की कुर्सी दरअसल तलवार की धार की तरह होती है।
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी कोलकाता से दिल्ली हवाई जहाज में आ रहे थे। दादा प्रणव मुखर्जी ने अस्फुट स्वरों में सुझाया कि दो नंबर में होने के कारण उन्हें ही एक्टिंग प्राइम मिनिस्टर बनना होगा। राजीव मंडली ने पर ऐसे कतरे कि प्रणव मुखर्जी वहीं रह गए। कांग्रेस में दो नंबर की कुर्सी लेकिन कोषाध्यक्ष की मानी जाती है। उस पर सीताराम केसरी और मोतीलाल वोरा भी विराजमान रहे। दिग्विजय सिंह को अर्जुन सिंह डेपुटी समझकर लाए। समधी अपने दामाद के पिता पर भारी पड़ गया।
दो नंबरी का सांस्कृतिक शोषित बेचारा तबला है। अधिकतर लोग डीलडौल के कारण डग्गा को ही तबला समझते हैं। माओ त्से तुंग का दो नंबरी लिन पिआओ दुश्मन उन्मूलन नीति का जनक था। तोहमत माओ के माथे पर लगती थी। अमेरिकी लोकप्रिय राष्ट्रपति केनेडी की हत्या के पीछे अफवाह वाइस प्रेसिडेन्ट जॉनसन के खिलाफ उड़ी थी। मोरारजी देसाई, चरण सिंह, जगजीवन राम और लालकृष्ण आडवाणी ने मुस्कें ही कस ली थीं कि हर हाल में डेपुटी प्राइम मिनिस्टर बनाया जाए। भारत के एक बड़े ओहदेदार अपने पद वाइस प्रेसीडेन्ट को लेकर कहते वाइस का अंगरेजी अर्थ बुराई से होता है। मजाक में पूछते ‘क्या मैं प्रेसीडेन्ट की वाइस हूं?’ रूस वाले स्टालिन ने दो नंबर के नेता बेरिया को विश्वासघात के आरोप में दस हजार आदमियों के साथ कटवा दिया था।
हिन्दी में ‘कुलपति’ शब्द है। उसका अंगरेजी अनुवाद लेकिन ‘वाइस चांसलर’ हो जाता है। अंगरेजी में उन्हें चांसलर का वाइस क्यों बनाया जाता है? वाइस रहने के बाद बड़ी कुर्सी पर योग्यता के आधार पर धमक के साथ तो डॉ. राधाकृष्णन बैठे थे। उन पर प्रधानमंत्री नेहरू इतने फिदा थे कि राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को दूसरी पारी देने के पक्ष में नहीं थे। राजेन्द्र बाबू की जिद से ही दोबारा राष्ट्रपति बनना संभव हुआ। कद्दावर काठी और कांग्रेस कार्य समिति में बहुमत के बावजूद सरदार पटेल को डेपुटी प्रधानमंत्री बनना पड़ा। संविधान अद्भुत फलसफा है। राज्यपाल का पद लिखा है। फिर भी कई बेचारों को उप राज्यपाल शब्द से समझौता करना पड़ता है। वाइस प्रेसिडेन्ट के पद को कमतर महसूस करते उन्हें पदेन राज्यसभा का सभापति बना दिया ताकि वे कुछ काम तो करें। वैश्वीकरण के कारण व्यापारिक कंपनियों में वाइस प्रेसीडेन्ट का खूब चलन बढ़ा। यह ओहदेदार मालिक का नौकर होता है और अमूमन किसी सरकारी कंपनी के बड़े मुलाजिम रहते निजी उद्योगपति को सब तरह की मदद कर चुके होते हैं। असली वाइस चेयरमैन तो होता था योजना आयोग में। मोन्टेक सिंह अहलूवालिया की जितनी चलती उतनी तो किसी मंत्री की भी नहीं चलती थी। कांग्रेस संविधान में उपाध्यक्ष पद नहीं था। फिर भी अर्जुन सिंह के लिए भी एक बार ईजाद किया गया और उन्हें भावी प्रधानमंत्री तक प्रचारित किया जाता रहा।
दो नंबर के एक शिकार छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ अधिकारी बी.के.एस.रे बार-बार कहते रहे मैं मुख्य सचिव के ठीक बाद हूं। लेकिन दो बार सुपरसीड कर दिए गए। अच्छा हुआ नगर पालिक निगमोंं में डेपुटी मेयर पद समाप्त कर दिया गया। उसके बदले सभापति पद ईजाद हुआ है। वाइस या डेपुटी की जगह एक्जीक्यूटिव अध्यक्ष बनाकर दो नंबर के अधिकारी के चेहरे पर तेज लाने के लिए नए विषेषण का रंग रोगन मल दिया जाता है। जैसे बूढ़ी होती हुई फिल्म अभिनेत्रियां करती हैं। विधानसभा में उपाध्यक्ष का पद हॉस्टल के वॉर्डन जैसा होता है। वहां अध्यक्ष नामक प्रिंसिपल ही सब कुछ होता है। बद्रीधर दीवान ने मंत्री नहीं बन पाने से निष्क्रिय उपाध्यक्ष पद पर आराम फरमाना मुनासिब समझा। गंगा प्रसाद उपाध्याय कवर्धा के प्रभावशाली नेता और विधायक मेरे पिता के मित्र थे। बचपन में उन्हें चिढ़ाता चाचाजी आपके सरनेम का अंगरेजी अनुवाद डेपुटी चेप्टर कहा जाएगा। वे ठहाका लगाते। एक मित्र उपासने हैं और दूसरे उपरीत। जो लोग उपमन्यु गोत्र में पैदा हुए हैं, उन सबकी शुरुआत क्या प्रथम पंक्ति का नेता बनने के लिए नहीं हुई है?
एडिशनल शब्द की बड़ी महिमा है। जैसे एडिशनल सालिसिटर जनरल या एडिशनल एडवोकेट जनरल। ये संविधान की रक्षा के लिए हैं जबकि इनके पद नाम संविधान में हैं ही नहीं। मेरे मित्र दुर्ग के एडिशनल कलेक्टर विजय सिंह ने वरिष्ठ धाकड़ कलेक्टर वी.एन. कौल को लिखकर दिया था कि मैं आपात काल में किसी व्यक्ति को आंतरिक सुरक्षा के नाम पर गिरफ्तार नहीं करूंगा क्योंकि मैं तो खुद ही कलेक्टर का एडिशनल हूं। अच्छा हुआ संविधान ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश के बाद डेपुटी या एडिशनल शब्द का उल्लेख नहीं किया। वहां प्रशासनिक न्यायाधीश का नामकरण कर लिया गया है। ‘उप’ नाम का संबोधन दो जगह बड़ी मशक्कत वाला है। समाचार पत्रों में बेचारा डेपुटी एडिटर दिन रात मेहनत करता है और श्रेय संपादक लूट लेते हैं। जैसे रसोई देवरानी पकाए और जेठानी परोस दे। यही हाल बेचारे वाइस प्रिंसिपल का स्कूलों कॉलेजों में होता है। लेकिन दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगांव में मेघनाथ कनोजे ने उप-प्राचार्य पद को एक संस्था के रूप में विकसित किया। जैसे रणवीर सिंह शास्त्री ने दुर्गा महाविद्यालय में। सचिवालय में ऐसी झंझटों से निपटने ‘असिस्टेन्ट‘‘डेपुटी’ और ‘एडिशनल’ के साथ संयुक्त याने ‘ज्वाइंट’ नामक शब्द भी है। भ्रष्टाचार में बहुत से सचिव संयुक्त हो जाते हैं। भ्रष्टाचार तो मंत्रिपरिषद में भी हो रहा है। राज्य और डेपुटी शब्दों के साथ लेकिन ‘असिस्टेंट’ और ‘ज्वाइंट’ शब्दों में वह महिमा नहीं है, जो ‘वाइस‘ ‘डेपुटी‘ या ‘एडिशनल’ में है। दो नंबर की सम्भावित या डेपुटी चीफ मिनिस्टर बनने की असली लड़ाई मंत्रिपरिषदों में तो होती रहती है। यह भी है कि उप मुख्यमंत्री उसे भी बनाया गया जिसके पास विधायकों का बहुमत रहा और मुख्यमंत्री उसे जिसके पास विधायकों का अल्पमत। संदर्भ शिव भानु सोलंकी और अर्जुन सिंह। इसके लिए लेकिन समर्थन की डंडी खोजनी होती है। मध्यप्रदेश में अपने वोट अर्जुन सिंह को देकर वह डंडी कमलनाथ ने मारी थी। आगे भी हर मुख्यमंत्री को किसी उभरते उप मुख्यमंत्री से ज्यादा सरोकार डंडी मारने वाले को खोजने से ही होता रहेगा।