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भारत की अदालतों का भी क्या धार्मिक झुकाव हो रहा है
03-Jul-2023 12:15 PM
भारत की अदालतों का भी क्या धार्मिक झुकाव हो रहा है

-मनीष सिंह
धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश की अदालतों पर धर्म आधारित रुख अपनाने के आरोप लग रहे हैं। फिल्म ‘आदिपुरुष’ पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि ‘कुरान’ पर फिल्म बना कर देखिये क्या होता है।

फिल्म ‘आदिपुरुष’ पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि ‘कुरान’ पर फिल्म बना कर देखिये क्या होता है।

मामला फिल्म ‘आदिपुरुष’ पर प्रतिबंध लगाने की मांग करने वाली दो याचिकाओं का है, जिन पर इलाहाबाद हाईकोर्ट में सुनवाई चल रही है। 28 जून को सुनवाई के दौरान अदालत ने सेंसर बोर्ड से फिल्म को प्रमाण पत्र देने पर अचरज जताया और कहा कि यह एक ‘भारी गलती’ थी।

अदालत के मुताबिक इस फिल्म ने व्यापक रूप से लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाया है। अदालत ने सेंसर बोर्ड के साथ ही सूचना और प्रसारण मंत्रालय को इन याचिकाओं पर जवाब देते हुए निजी हलफनामे दायर करने के लिए कहा।

धार्मिक समुदायों की तुलना
अदालत की कार्रवाई सिर्फ नोटिस भेजने तक ही सीमित नहीं है। वेबसाइट लाइव लॉ डॉट इन के मुताबिक न्यायमूर्ति राजेश सिंह चौहान और श्रीप्रकाश सिंह की पीठ ने कहा, ‘मान लीजिये कुरान पर एक छोटी सी डॉक्यूमेंटरी बनी होती, गलत चीजें दिखाते हुए, तो आप देखते कि फिर क्या होता है।’

समाचार चैनल एनडीटीवी के मुताबिक पीठ ने इस मामले में आगे कहा, ‘फिल्म बनाने वालों की भारी गलती के बावजूद, हिंदुओं की सहिष्णुता की वजह से हालात खराब नहीं हुए।’ हालांकि पीठ ने आगे यह भी कहा कि अदालत का कोई धार्मिक झुकाव नहीं है और अगर उसके सामने कुरान या बाइबल पर ऐसा कोई मसला आया होता तो भी अदालत का रुख यही होता।

बार एंड बेंच डॉट कॉम के मुताबिक पीठ ने सेंसर बोर्ड के सदस्यों पर भी टिप्पणी की और कहा, ‘आप कह रहे हैं कि संस्कार वाले लोगों ने इस मूवी को सर्टिफाई किया है जहां रामायण के बारे में ऐसा दिखाया गया है तो वो लोग ‘धन्य’ हैं।’

इलाहाबाद हाईकोर्ट की इस टिप्पणी की कई जानकारों ने आलोचना की है। दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज न्यायमूर्ति आर एस सोढ़ी का कहना है कि हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच इस तरह तुलना करना ठीक नहीं है और हाई कोर्ट का यह बयान सोच की अपरिपक्वता को दिखाता है।

डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने यह भी कहा, ‘दुनिया के बड़े धर्म इस अपरिपक्वता से ऊपर उठ चुके हैं कि वो इस बात की परवाह करें कि कोई उनके भगवानों के बारे में क्या कह रहा है।’
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने एक ट्वीट में अदालत की भाषा को लेकर आलोचना की है।

कुछ विश्लेषकों ने अदालत की टिप्पणी को धार्मिक मामलों में पक्षपात से भी जोड़ा है। बर्लिन की ‘फ्री यूनिवर्सिटी’ के फेलो अनुज भुवानिया ने एक ट्वीट में कहा, ‘ऐसा लग रहा है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट की इस पीठ ने फैसला कर लिया है कि वो हिंदू राष्ट्र की संवैधानिक अदालत की तरह पेश आएगी।’

पहले भी हो चुका है ऐसा
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इससे पहले भी कई मामलों में ऐसे बयान दिये हैं जो भारत की धर्मनिरपेक्षता के ताने बाने में फिट नहीं बैठते। सितंबर 2021 में अदालत ने गोकशी के आरोप का सामना कर रहे एक व्यक्ति से जुड़े मामले पर सुनवाई के दौरान कहा था कि गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित कर देना चाहिए और ‘गाय की सुरक्षा को हिंदू समाज का मूलभूत अधिकार बना देना चाहिए क्योंकि हम जानते हैं कि जब एक देश की संस्कृति और विश्वास को ठेस पहुंचती है तो देश कमजोर होता है।’

इसी तरह फरवरी 2021 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ही वेब सीरीज ‘तांडव’ के खिलाफ धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोपों से जुड़े मामले पर सुनवाई करते हुए एमेजॉन प्राइम के कार्यक्रमों की भारत में प्रमुख अपर्णा पुरोहित की अग्रिम जमानत की अर्जी खारिज कर दी थी।

ऐसा करते हुए अदालत ने पुरोहित को ‘देश के बहुसंख्यक नागरिकों के मौलिक अधिकारों के खिलाफ एक फिल्म को स्ट्रीम करने की अनुमति देने में सतर्कता नहीं बरतने’ का दोषी ठहराया था।

अदालत ने यह भी कहा था, ‘पश्चिमी देशों में फिल्में बनाने वाले तो ईशा मसीह और पैगंबर मोहम्मद का मजाक नहीं उड़ाते, लेकिन हिंदी फिल्मकार धड़ल्ले से बार बार हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाते हैं।’

अदालत का कहना था कि यह हिंदी फिल्म उद्योग की एक आदत बन चुकी है और इसे समय रहते रोकना होगा।

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