विचार / लेख
-रुचिर गर्ग
आज एक वॉट्सएप ग्रुप में many times forwarded मैसेज पढ़ने को मिला।
बेकाबू महंगाई को सही ठहराने के संदेश के साथ शुरू हुई इस सामग्री में कहा गया था पिछले तीन वर्षों में एम्स में 231 अंग दान करने वालों में एक भी मुस्लिम नहीं है जबकि अंग प्राप्त करने वालों में 39 मुस्लिम हैं।
उसमें इस बात का खास जिक्र था
"मैं अंध मोदी प्रेमी नहीं हूं"
यहां उस many times forwarded मैसेज का विश्लेषण नहीं कर रहा हूं बस इतना बता रहा हूं कि अगर आप गूगल पर सर्च करेंगे तो एक ताजा खबर नजर आएगी कि कैसे हरियाणा के एक गरीब मजदूर मुस्लिम परिवार ने अपने बच्चे के अंग दान किए जिससे दो लोगों को नई जिंदगी मिली। इस बच्चे की एक दुर्घटना में बात मृत्यु हो गई थी।
जो आंकड़े इस forwarded मैसेज में दिए गए थे जाहिर है वो पूरी तरह से फर्जी ही थे क्योंकि अंगदान से जुड़े आंकड़े तो मिल जाएंगे लेकिन उसमें प्राप्तकर्ता हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध कौन है यह शायद नहीं मिलेगा।
हिंदू की आंखें मुसलमान को लगीं या मुसलमान की किडनी ईसाई को अगर इस नजरिए से देखना हो तो ज़िंदगी की क्या अहमियत है और मानवीय मूल्यों को तो कूड़ेदान में डाल देना चाहिए !
लेकिन सवाल अलग है।
सवाल यह है कि ऐसे मैसेज बनते कहां हैं?
इन्हें फैलाने वाला नेटवर्क किसके पास है?
कौन हैं जो इस देश में मानवीय मूल्यों को तबाह कर उन्मादी राष्ट्र बनाने में लगे हैं ?
किन्हें इस देश में इंसानियत की भाषा खटक रही है,सद्भाव खटक रहा है और वो कौन हैं जो देश को नफरत में डुबोने की साजिश रचते हुए कहते हैं, "मैं अंध मोदी भक्त नहीं हूं !"
संयोग यह है कि इसी रात मैंने फिल्म "अफवाह" देखी।
जरूर देखिए।
डायरेक्टर सुधीर मिश्रा और प्रोड्यूसर वही शानदार अनुभव सिन्हा!
इस फिल्म की कहानी सोशल मीडिया की अफवाहों पर ही नेंद्रित है।
फिल्म की चर्चा कम होनी थी क्योंकि यह अफवाहबाजों को आइना दिखाती है, क्योंकि यह बेनकाब करती है कि इस देश में कौन लोग हैं जो अफवाहबाजी को एक घातक राजनीतिक औजार बनाए हुए हैं, क्योंकि फिल्म यह समझाती है कि अफवाहबाजी का किसी खास राजनीतिक समूह से क्या नाता है!
इसलिए ऐसी फिल्म को हमारा समाज क्यों देखना पसंद करेगा ?
बात एक अफवाह भरे वॉट्सएप मैसेज से शुरू हो कर फिल्म अफवाह तक आती है।
क्या हम देश को अफवाहों की आग में जलने देना चाहते हैं?
क्या हम भी इस आग का हिस्सा बनना चाहते हैं?
अगर हां तो अपने बच्चों को जोर शोर से लगाइए इस काम में !
छुड़ाइए उनकी पढ़ाई,रोजगार और बनाइए उन्हें एक उन्मादी राष्ट्र का निर्माता!
क्योंकि उनके बच्चे तो विदेशों में या देश के बड़े शिक्षा संस्थानों में ऊंची तालीम पाने में व्यस्त हैं!
आपके बच्चे अफवाह फैलाएंगे तभी तो उन्हें सत्ता मिलेगी,उनकी औलादों की जिंदगी जन्नत बनेगी!
एक स्मार्ट फोन का खर्चा,थोड़ा पेट्रोल ..इतना ही तो चाहिए उन्मादी राष्ट्र बनाने के लिए!
नहीं तो बस इतना कीजिए कि आप जिस भी वाट्सएप ग्रुप में हों उसमें आने वाले ऐसे मैसेज की हकीकत की पड़ताल कर लीजिए और दो लाइन वहीं लिख दीजिए।
गूगल सर्च कर लीजिए,भेजने वाले से ऐसे आंकड़ों का स्त्रोत पूछ लीजिए,वो स्त्रोत गलत बताएंगे, आप उसे वेरिफाई कर लीजिए।
कुछ नहीं तो संबंधित विषय के जानकार या आधिकारिक लोगों से पूछ लेना चाहिए।
हमारे आपके हाथों में भी स्मार्ट फोन है।
अगर कोई इस देश को नफरत और उन्माद की आग में धकेलना चाहता है तो हमको आपको कम से कम एक छोटे से प्रयास से इस आग को फैलने से रोकना चाहिए।
आज इस देश को सीमा से ज्यादा भीतर ही ऐसे सिपाही चाहिए जो इंसानियत को बचाना चाहते हैं।
एक नागरिक के तौर पर हमको आपको इतना तो करना ही चाहिए।
(लेखक एक भूतपूर्व पत्रकार, और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के वर्तमान मीडिया सलाहकार हैं।)