विचार / लेख
-ध्रुव गुप्त
दो साल पहले आज ही के दिन दिलीप कुमार के जाने के साथ हिंदी सिनेमा के सुनहरे दौर की आखिरी कड़ी भी टूट गई थी। उनके जाने से साथ उनके अभिनय के कई-कई आयाम देख चुके कई-कई पीढ़ियों के लोग भावनात्मक तौर पर दरिद्र हुए। पिछली सदी के चौथे दशक में उनका उदय भारतीय सिनेमा की ऐसी घटना थी जिसने सिनेमा की दिशा ही बदल दी थी। अति नाटकीयता के उस दौर में वे पहले अभिनेता थे जिन्होंने साबित किया कि बगैर शारीरिक हावभाव और संवादों के सिर्फ चेहरे की भंगिमाओं, आंखों और यहां तक कि ख़ामोशी से भी अभिनय किया जा सकता है।
अभिनय का वह अंदाज़ शोर में आहिस्ता,-आहिस्ता उठता एक मर्मभेदी मौन जैसा था जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को अपने साथ बहा ले गया।अपनी छह दशक लंबी अभिनय-यात्रा में उन्होंने अभिनय की जिन ऊंचाईयों और गहराईयों को छुआ वह समूचे भारतीय सिनेमा के लिए असाधारण बात थी। हिंदी सिनेमा के शुरुआती तीन महानायकों में जहां राज कपूर को प्रेम के भोलेपन के लिए और देव आनंद को प्रेम की शरारतों के लिए जाना जाता है, दिलीप कुमार के हिस्से में प्रेम की व्यथा आई थी। इस व्यथा की अभिव्यक्ति का उनका अंदाज़ कुछ ऐसा था कि दर्शकों को उस व्यथा में भी एक ग्लैमर नज़र आने लगा था। इस अर्थ में दिलीप कुमार पहले अभिनेता थे जिन्होंने प्रेम की असफलता की पीड़ा को स्वीकार्यता दिलाई। 'देवदास' उस पीड़ा का शिखर था।
आज भी उदासी जैसे मर्ज़ की थेरेपी लेनी हो तो दिलीप साहब की फिल्मों से बेहतर कोई और नर्सिंग होम नहीं। खिराज़-ए-अक़ीदत।