विचार / लेख
डॉ. सुरेश गर्ग
1 जुलाई देश भर में डॉक्टर्स डे के रूप में मनाया गया। यह हिंदुस्तान ही है जहाँ डॉक्टर्स को इतना प्यार एवं सम्मान दिया गया है। इसका कारण है कि भारतीय सनातन संस्कृति में चिकित्सा क्षेत्र एवं चिकित्सकों का विशेष महत्व रहा है- श्री धन्वंतरि जी को आयुर्वेद चिकित्सा का जनक ही नहीं ‘देव’ तुल्य माना जाता है। ‘अश्विनी कुमार’ देवलोक के सर्जन चिकित्सक माने जाते हैं। असुरों के संकटमोचक महर्षि शुक्राचार्य हुआ करते थे। वे मरे असुर को भी जिंदा कर देने का ज्ञान जानते थे। ‘ययाति’ को सैंकड़ों वर्ष (हजार वर्ष) तक अपने बेटे की जवानी लेकर ‘ग्रहस्थ जीवन’ का आनन्द लेने का मौका मिला। ऋषि च्यवन के नाम का च्यवनप्राश आज भी लोगों को जवानी देने के नाम पर बेचा जा रहा है। ‘सुश्रुत संहिता’ वैदिक-पौराणिक काल में होती रही सर्जरी का अद्वितीय दस्तावेज़ आज उपलब्ध है।
मतलब भारतीय संस्कृति में चिकित्सा विज्ञान और चिकित्सकों का महत्व आदिकाल से चला आ रहा है। चिकित्सक की जरूरत सुर-असुरों को ही नहीं भगवान राम को भी पड़ गई थी, जब लक्ष्मणजी को शक्ति लगी थी। इसीलिए हिंदुस्तान में एक समय तक डॉक्टर को दूसरा भगवान या भगवान के बाद का दर्जा समाज में दिया जाता रहा है। यह बात अलग है कि ‘बाजारवाद और भूमंडलीकरण’ के जमाने में आज चिकित्सा क्षेत्र एवं चिकित्सक इसके विपरीत नजरिये से देखे जाते हैं ! यह बात अलग है कि कभी-कभी कहीं-कहीं जब कोई मरीज गंभीर बीमारी से ठीक होने के बाद जाते समय भावुकता में शिष्टाचारवश कृतज्ञता प्रगट करते हुए उसे भगवान बता जाता है! प्रदर्शित करता है। वरना घर पहुँचने पर जब उसे यह पता चलता है कि उस पर कितना खर्च हुआ है और परिजनों को क्या-क्या सहना पड़ा है , तब उसकी मानसिकता बदल जाती है।इसलिए चिकित्सा क्षेत्र की सनातन गरिमा पुनर्स्थापित करने के लिए डॉक्टर्स डे पर इन कारणों पर विचार-विमर्श करना जरूरी है!
डॉक्टर्स डे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, शिक्षाविद एवं गांधीजी के निजी चिकित्सक और लम्बे समय तक पश्चिम बंगाल के सफलतम मुख्यमंत्री रहे डॉ. बिधान चन्द्र रॉय के जन्म दिन के रूप में मनाया जाता है। आजादी की लड़ाई और आज़ादी के बाद ऐसे एक नहीं अनेक चिकित्सकों ने अपनी जान की परवाह न करके देश एवं समाज के लिए अनेक प्रेरणादायी कार्य किये हैं; उनमें से एक डॉ. मणिधर प्रसाद व्यास को डॉक्टर्स डे पर विशेष रूप से याद करना समसामयिक लगता है। क्योंकि इस वर्ष की ‘थीम’ कोराना काल में चिकित्सकों के योगदान के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना रही है।
डॉ. मणिधर का जन्म 3अगस्त 1886 को अहमदाबाद में हुआ था। उनके पिता भी डॉक्टर थे इसलिए उन्हें बचपन से ही चिकित्सा क्षेत्र में सेवाधर्म आत्मसात करने का मौका मिला। जैसे ही उन्होंने चिकित्सा शिक्षा पूरी की शासकीय नौकरी में आ गये। उस समय वहाँ प्लेग जोरों से फैल हुआ था। बीमार का इलाज और मृतकों की बॉडी का पोस्टमार्टम करना जरूरी होता था। यह काम आज भी स्थानीय शासकीय चिकित्सक को ही करना पड़ता है। नौकरी में आते ही डॉ.मणिधर एवं उनके दो साथियों को यह काम करना पड़ा। परिवार और समाज के लोगों ने उन्हें इसके खतरे बताते हुए उससे बचने की सलाह दी। परन्तु वे और उनके साथी राष्ट्रभक्ति और चिकित्सा क्षेत्र की श्रेष्ठता बनाये रखने के लिए यह काम अपना प्रथम कर्तव्य मान कर करते रहे! दुर्भाग्य से उनके दोनों साथी उस बीमारी से पीडि़त होकर कम उम्र में ‘शहीद’ हो गये। ये भाग्य से बच गये और फिर पूरी जिंदगी निस्वार्थ भावना से चर्मरोगियों एवं कुष्ठरोग मरीजों के बीच मिशनरी भावना से कार्य करते रहे।यही नहीं , वे निरंतर गांधीजी के आंदोलन से जुड़े रहे। नतीजतन अंग्रेज सरकार के कोपभाजन के शिकार बने। एक तरफ आज भी डॉ. मणिधर एवं उनके साथियों जैसे डॉक्टर हैं जो कोरोना काल में अपना कर्तव्य पूरी इमानदारी से निबाहते रहे और दूसरी तरफ वे हैं जो छिप कर घर में बैठ गये! यही नहीं, इस विपदा में भी बिना कुछ किए से बटोरते रहे!
विडंबना यह है कि डॉक्टर्स डे पर उन विज्ञापनी व्यापारी चिकित्सकों के बड़े पैमाने पर अखबारी विज्ञापनों के साथ प्रायोजित सम्मान होते रहे, और वहीं जो डॉक्टर्स अपनी जान की बाजी लगाकर कोरोना काल में कार्य करते रहे, उन्हें शायद ही कहीं उस तरह से सम्मानित किया गया!
वर्तमान में चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्त बाजारवाद, कट, कमीशन, दवा कंपनियों एवं विक्रेताओं से सांठगांठ को देख और भोग कर ऐसा लगता है कि जैसे मीडिया को तथाकथित ‘गोदी मीडिया’ कहा जाता है, कहीं वैसा ही ‘गोदी चिकित्सा’ क्षेत्र तो नहीं बनता जा रहा ?