विचार / लेख

कनक तिवारी लिखते हैं- आपकी चुप्पी संविधानसम्मत नहीं है
10-Jul-2023 7:25 PM
कनक तिवारी लिखते हैं- आपकी चुप्पी संविधानसम्मत नहीं है

photo : twitter

मणिपुर जल रहा है। आजादी के बाद इससे भयंकर, वीभत्स और लगातार चल रहा संविधान विरोधी नरसंहार नहीं हुआ है। आजादी के पहले और बाद में भारत में विलय के संबंध में कश्मीर में पाकिस्तानी हमले के कारण बहुत हिंसक गतिविधि हुई है। छुटपुट घटनाएं हैदराबाद, नागालैंड तथा अन्य कई स्थानों सहित अन्य इलाकों में र्हुइंं। तब भारत सरकार के खिलाफ  बाहरी तत्व संविधान की गैरमौजूदगी में हिंसा को लेकर अपनी हैसियत और हद तलाशने में लगे रहे थे। 

मणिपुर का किस्सा बिल्कुल अलग है। आज़ादी और संविधान के करीब 75 वर्ष बाद संविधान स्वीकृत राज्य में केन्द्र और राज्य सरकारों की गफलत के कारण हिंसा परवान चढ़ी है। मणिपुर में मुख्य आदिवासी जातियां, कुकी और मैती सीधे आपसी संघर्ष में उलझ गई हैं बल्कि उन्हेंं उलझाया जा रहा है। संविधान के अनुच्छेद 1 और 4 के तहत पूर्वोत्तर क्षेत्र पूर्वोत्तर अधिनियम 1971 के तहत मणिपुर को पूर्ण राज्य का दर्जा है। संविधान बनने के बाद विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की जिम्मेदारियों का सीधा और सुस्पष्ट बंटवारा हुआ है। केन्द्र की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है और उनके नाम से लागू होती है। 
केन्द्र सरकार की हुकूमत का अर्थ केन्द्रीय मंत्रिपरिषद की हुकूमत से नहीं है। संविधान कहता है राष्ट्रपति इसका प्रयोग संविधान के अनुसार खुद या अपने मातहत अधिकारियों द्वारा करेगा। संविधान की भाषा बहुत साफ, चुस्त, प्रत्यक्ष और परिमाणात्मक है। राष्ट्रपति का संवैधानिक दायित्व और कर्तव्य हैै कि कार्यपालिका शक्ति का इस्तेमाल खुद या मातहत अधिकारियों के द्वारा करे लेकिन चुप नहीं बैठे और उदासीनता नहीं दिखाए। राष्ट्रपति को विवेक नहीं है कि जब चाहे कार्यपालिका षक्ति का अपनी समझ और हैसियत में इस्तेमाल कर सके। जब चाहे चुप बैठ जाए। देष, इतिहास और समय चुप नहीं बैठते। राष्ट्रपति को अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन करना ही होगा। कर्तव्यों से उसे कोई छुट्टी, अनदेखी या गफलत नहीं मिल सकती। 

संविधान में स्पष्ट है कि राष्ट्रपति के मातहत जो अधिकारी हैं उनमें केन्द्रीय मंत्रिपरिषद अनुच्छेद 74 के अनुसार बाध्य है कि राष्ट्रपति के निर्देषों के अनुसार संवैधानिक कृत्य करे। मंत्रिपरिषद को राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने का अधिकार है। राष्ट्रपति पर संवैधानिक बाध्यता है कि मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सलाह के अनुसार कार्य करेगा। संविधान में नहीं लिखा है कि मंत्रिपरिषद चाहे तो सलाह दे, चाहे तो नहीं दे। अगर सलाह नहीं दी जाएगी तो राष्ट्रपति क्या करेगा? संविधान निर्माताओं ने ऐसा सोचा ही नहीं था कि जब चाहे राष्ट्रपति अपने कर्तव्यों से छुट्टी ले लें और सरकार से जानकारी लेने से इंकार कर दें। यह भी नहीं लिखा है कि मंत्रिपरिषद चाहे तो सलाह दे या सलाह देने में अपनी मर्जी के अनुसार कोताही कर दे। राष्ट्रपति और मंत्री जनता के लोकसेवक हैं। 

जनता अर्थात देश नींद, गफलत या उन्माद में नहीं जीते। इसीलिए संविधान के अनुच्छेद 77 में लिखा है कि भारत सरकार की सभी कार्यपालिका शक्ति कार्यवाही राष्ट्रपति के नाम से की हुई कही जाएगी। राष्ट्रपति भारत सरकार का कार्य अधिक सुविाधापूर्वक किए जाने के लिए और मंत्रियों में उक्त कार्य के आवंटन के लिए नियम बनाएगा। 

मणिपुर की सरकारी नादिरशाही के खिलाफ के सबसे उल्लेखनीय प्रावधान अनुच्छेद 78 में साफ लिखा है यह प्रधानमंत्री का कर्तव्य होगा कि वह (क) संघ के कार्यकलाप के प्रषासन संबंधी और विधान सम्बन्धी प्रस्थापनाओं संबंधी मंत्रिपरिषद के सभी विनिश्चय राष्ट्रपति को संसूचित करे, (ख) संघ के कार्यकलाप के प्रशासन संबधी और विधान विषयक प्रस्थापनाओं संबंधी जो जानकारी राष्ट्रपति मांगे, वह दे, और  मणिपुर के संदर्भ में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के दो कर्तव्य हैं। 

पहला तो यह कि प्रधानमंत्री का कर्तव्य है कि प्रषासन संबंधी और विधायिका द्वारा पारित अधिनियमों और नियमों आदि की नियमित जानकारी राष्ट्रपति को दे। यदि ऐसा नहीं किया जाएगा तो प्रशासन का कोई आदेश और विधायिका की कोई अंतिम कार्यवाही राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बिना प्रमाणित और अधिसूचित नहीं की जा सकती। 

यहां सवाल उठता है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री किसके प्रतिनिधि हैं। मणिपुर को लेकर जो हो रहा है, क्या वह संविधान के अनुच्छेद 78 के परे की कोई कार्यवाही है। मणिपुर में भीषण नरसंहार हो रहा है। सरकारी और निजी संपत्ति नष्ट हो रही है। सैकड़ों, हजारों लोग घर छोडक़र भागने मजबूर हैं। आगजनी हो रही है। हिंसा और तरह तरह के गुटों के संघर्ष को लेकर बल्कि पुलिस और सेना की भी हिंसात्मक गतिविधि के चलते मणिपुर में षांति स्थापित नहीं हो रही है। जीवन सामान्य नहीं है। लगता है, जो सही है, कि वहां कोई सरकार ही नहीं चल रही। संविधान की मषीनरी ठप्प है। जनता की निगाह में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री खुट्टी किए बैठे हैं। कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है कि प्रधानमंत्री अपने कर्तव्य का पालन कर भी रहे हैं। यदि नहीं तो राष्ट्रपति मौन व्रत में क्यों हैं। अनुच्छेद 78 के तहत राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच संवाद या पत्र व्यवहार, षासकीय सूचनाओं का आदान प्रदान गोपनीय नस्ल का नहीं हो सकता। जनता की मौत या हत्याएं प्रषासन की गोपनीय गतिविधि में षामिल नहीं होतीं। 

यह एक तरह का संवैधानिक संकट है। इसमें मौन व्रत धारण करने के कारण चुुनौती और चोट तो संविधान को ही दी जा रही है। राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिपरिषद से जानकारियां हासिल की जाती हैं। उन्हें लेकर संविधान का अनुच्छेद 74 (2) बचाव करता है कि इस प्रश्न की किसी न्यायालय में जांच नहीं की जाएगी कि क्या मंत्रियों ने राष्ट्रपति को कोई सलाह दी और यदि दी तो क्या दी। यह एक सुरक्षा कवच है राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों के लिए। मणिपुर की बिगड़ चुकी हालत में यदि प्रधानमंत्री राज्य की जनता के संदर्भ में कोई जानकारी राष्ट्रपति को देते हैं। तो उसका संज्ञान कोई अदालत नहीं ले सकती कि क्या सलाह दी गई है। इतनी सुरक्षा और इतने सारे प्रावधानों के रहते भारत के संविधान निर्माताओं ने आज जैसे हालात की कल्पना भी नहीं की। संविधान सभा के तीन साल चले वाद विवाद में उक्त वाक्य नहीं बदला है। किसी सदस्य को शक नहीं हुआ हो कि कभी स्थिति आएगी कि राष्ट्रपति को मौन रहना अच्छा लगेगा और प्रधानमंत्री को तो राष्ट्रपति को कुछ बताना नागवार गुजरेगा।

अफवाह तो यहां तक है कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू अपने शासकीय आवास में किससे मिलेंगी।   इसकी सूची प्रधानमंत्री कार्यालय तय करता है। देश ने देखा है कि संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार संसद के अविभाज्य अंग होने के बावजूद संसद भवन के उद्घाटन समारोह का श्रेय प्रधानमंत्री कार्यालय ने नदारद कर दिया था। संविधान में तो यह भी है कि यदि संविधान के अतिक्रमण के लिए स्थिति है तो राष्ट्रपति पर महाभियोग भी चलाया जा सकता है। संविधान में तो यह भी है यदि राष्ट्रपति का किसी राज्यपाल से प्रतिवेदन मिलने पर या अन्यथा समाधान हो जाता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें उस राज्य का शासन संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है। तो राष्ट्रपति उद्घोषणा द्वारा प्रशासन संचालन की शक्तियां अपने हाथ में ले सकेंगे। 

ये सब प्रावधान हमारे पुरखों ने बहुत सोच समझकर और दुनिया के बड़े और पुुराने संविधानों के प्रावधानों पर दिनों दिनों तक बहस के बाद निर्धारित किए। संविधान में प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और राज्यपाल सबके लिए षपथ लेने के प्रारूप में भी है कि मैं संविधान द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रक्खूंगा। मैं भारत की प्रभुता और अखंडता, अक्षुण्ण रक्खूंगा। आज मणिपुर की जनता अर्थात संविधान पर हत्यारों का सीधा हमला हो रहा है। लगातार हो रहा है। भारत की अखंडता और सार्वभौमिकता भूगोल, धरती, कुदरत और पशु-पक्षियों में नहीं है। 

भारत में कोई सार्वभौम नहीं है, न राष्ट्रपति, न प्रधानमंत्री, न राज्यपाल, न मुख्यमंत्री और न ही खुद संविधान। सार्वभौम केवल भारत की जनता है अर्थात मणिपुर के लोग हैं। वे संविधान और सरकार के निर्माता हैं। उन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति और राज्यपाल को चुना है। राष्ट्रपति, राज्यपाल और मंत्रिपरिषद की जवाबदेही संविधान के इलाके, भाषा और जिम्मेदारियों के लिए सीधे तौर पर है। वे चुप हैं, मौन हैं और अपनी जिम्मेदारियों को जनता की समझ में ठीक से निर्वाह नहीं कर रहे हैं। राष्ट्रपति द्रौपदी, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, मणिपुर के राज्यपाल और केंद्रीय और राज्य मंत्रिपरिषद की पहल पर निर्भर नहीं हैं। 

अतीत में कई अवसर आए होंगे जब राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद और कभी राज्यपाल से किसी भी घटना को लेकर सीधी रिपोर्ट मांगी होगी और सभी मातहत संवैधानिक अधिकारी राष्ट्रपति को ऐसी जानकारी देने के लिए पूरी तौर पर बाध्य हैं। अगर संविधान के प्रावधानों पर अमल नहीं होगा तो सरकारी कार्य का संचालन हो ही नहीं सकता। यह इतिहास का काला परिच्छेद होगा यदि मणिपुर की जनता और भारत के संविधान को संवैधानिक अधिकारियों की चुप्पी का अभिशाप झेलना पड़़ेगा। संविधान को सरकारी तौर पर जिबह कैसे किया जा सकता है?

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news