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भारत की विशालतम जनसंख्या अब दायित्व कम, बाजार की ताकत अधिक
11-Jul-2023 4:30 PM
भारत की विशालतम जनसंख्या अब  दायित्व कम, बाजार की ताकत अधिक

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 अंतरराष्ट्रीय जनसंख्या दिवस ११ जुलाई पर विशेष 

 डॉ. लखन चौधरी

हमारे देश की विशालतम जनसंख्या हमारी सबसे बड़ी समस्या एवं चिंता बनी हुई है, बल्कि इस समय हमारे देश की सबसे बड़ी चुनौती और सबसे बड़ा दायित्व भी है। अब तो हम चीन को भी पार कर चुके हैं। १४२ करोड़ से अधिक की विशालतम आबादी के लिए जीवनयापन की तमाम बुनियादि सुविधाएं उपलब्ध कराना, करवाना सरकारों के लिए भी आसान एवं सरल नहीं है। भोजन, पानी, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार-आजीविका आदि जीवन की आधारभूत और बुनियादि जरूरतों की उपलब्धता सुनिश्चित करना ही बहुत बड़ी चुनौती है। इसलिए भारत की विशालतम जनसंख्या को अक्सर दायित्व के रूप में देखा एवं परिभाषित किया जाता रहा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह अवधारणा बदलने लगी है, बदली है और लगातार बदल रही है।

अब हमारी विशालतम जनसंख्या दायित्व ही नहीं बल्कि हमारी आतंरिक एवं बाहरी दोनों स्तर पर बाजारों की ताकत बनकर उभरी और लगातार उभर रही है। देश की विशालतम आबादी हमारी संघीय राज्यों के अर्थव्यवस्थाओं की संभावनाएं बन रही है, बल्कि बन चुकी है। देश की विशालतम जनसंख्या हमारी अर्थव्यवस्था के लिए अब दायित्व नहीं अपितु हमारी ताकत एवं हमारी एसेट्स बनकर अर्थव्यवस्था के विकास में महती भूमिका अदा कर रही है। देश की विशालतम जनसंख्या हमारी अर्थव्यवस्था के लिए अब बाजार पैदा कर रही है।

आज जब दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाओं में सुस्ती और मंदी का वातावरण है। दुनिया की तमाम विकसित अर्थव्यवस्थाएं विकास दर में स्थिरता का रोना रो रहे हैं, ऐसे समय में भी हमारी अर्थव्यवस्था में पर्याप्त मांग एवं खपत बनी हुई है। यह इसलिए संभव हो पा रहा है, क्योंकि हमारी विशालतम जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करने के लिए बाजार में उत्पादन भरपूर मात्रा में हो रहा है या किया जा रहा है। चूंकि बाजार में पर्याप्त मांग एवं खपत बनी हुई है, इसलिए हमारी अर्थव्यवस्था में मांग एवं खपत की कमी नहीं है, जो निवेश को लगातार आकर्षित कर रहे हैं।

इस समय देश की विशालतम आबादी को संसाधन के रूप में तब्दील करने की जरूरत है, जिससे हमारी जनसंख्या समस्या एवं दायित्व न होकर संपत्ति एवं संसाधन बन जाए। चीन ने यही किया है, जिसके कारण आज चीन अमेरिका को आंखे दिखा रहा है। चीन ने अपनी विशालतम जनसंख्या को संसाधन के रूप में तब्दील करते हुए आर्थिक विकास का एक ऐसा आंतरिक ढ़ांचा खड़ा कर लिया है, जिसे आज दुनिया का कोई भी देश चुनौती नहीं दे सकता है। इस विशालतम आबादी का चीन को यह फायदा हुआ कि उसने दुनिया की सबसे सस्ती चीजें, वस्तुएं बनाने में विशेषज्ञता, दक्षता हासिल कर ली। घर-घर में कुटीर उद्योधंधों की तरह सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगधंधे एवं कारोबार का विकास एवं विस्तार कर लिया।

घरेलु एवं स्थानीय उद्यमिता, उद्यमशीलता के विकास का भरपूर विदोहन करते हुए चीन ने अपनी आर्थिक ताकत इतनी बढ़ा ली है कि आज यूरोप-अमेरिका का कोई भी देश उसका मुकाबला नहीं कर सकता है। इसी कारण आज पूरी दुनिया चीन की हरकतों से परेशान होते हुए भी उसका कुछ नहीं कर पा रहे हैं। आने वाले दशक में भी दुनिया का कोई मुल्क चीन का मुकाबला कर सकेगा ? फिलहाल असंभव ही लगता है, क्योंकि चीन की विशालतम जनसंख्या की उद्यमशीलता का मुकाबला करने के लिए भारत को छोडक़र दुनिया में किसी के पास उतनी बड़ी आबादी नहीं है। इस वक्त हमारा यही दुर्भाग्य है कि हम संभावनायुक्त होने के बावजूद बेबस, बेकार एवं लाचार पड़े हैं। हमारी विशालतम आबादी संभावनायुक्त होते हुए दायित्व मात्र बनकर समस्याओं की जड़ बनी हुई है। (बाकी पेज ५ पर)

सरकार ने योजना आयोग का नाम बदलकर नीति आयोग कर दिया, लेकिन नीति आयोग की नीतियां, योजनाएं, कार्यक्रम एवं उपलब्धियां धरातल पर कहीं नजर नहीं आती हैं। वास्तविकता यह है आज क्रय शक्ति समता के आधार पर सुदृढ़ एवं सम्पन्न होने के बावजूद देश की जनता गुणात्मक शिक्षा, उत्तम स्वास्थ्य एवं रोजगार-आजीविका के मामले पर पिछड़ी हुई है। दुनिया की ५वीं सबसे बड़ी, शक्तिशाली अर्थव्यवस्था होने के बावजूद गरीबी, बेकारी, आय एवं धन के वितरण में असमानता जैसी सामाजिक-आर्थिक विषमताएं एवं समस्याएं गंभीर एवं विकराल बनी हुई हैं।

आज दुनिया का शायद कोई देश होगा जहां का आम जनमानस घोर संकटों, समस्याओं, कठिनाईयों से घिरा होने के बावजूद अपने राजनीतिक अधिकारों का इस्तेमाल अपनी चिंताओं, परेशानियों, चुनौतियों से निपटने के बजाय अपने अधिकारों का प्रयोग नितांत विवेकशून्यता से भावुकता के लिए करता होगा। यह सब इसलिए क्योंकि हमारी सरकारों ने हमारी बहुसंख्यक जनसंख्या को कभी भी संसाधन एवं सभावनाओं के तौर पर शिक्षित, प्रशिक्षित एवं विकसित करने का प्रयास ही नहीं किया। इसका नतीजा यह रहा है कि हमारी विशालतम आबादी देश के लिए हमेशा बोझ बनी रही। इसलिए प्रगति एवं विकास की अपार संभावनाओं के बावजूद हमारा देश आज तक विकसित देशों की श्रेणी में नहीं आ सका है।

वैसे किसी देश के लिए ७५ साल का वक्त तरक्की, प्रगति, उन्नति के हिसाब से बहुत अधिक नहीं माना जाता है या नहीं हेाता है, लेकिन जब वह देश अर्थव्यवस्थाओं के आकार, क्षमता एवं संभावनाओं की दृष्टि से दुनिया का ५वां बड़ा देश हो तो उम्मीदें तो अवश्य ही बढ़ ही जाती हैं, और बढऩी चाहिए। जब अर्थव्यवस्थाओं के आकार, क्षमता एवं संभावनाओं के अनुसार इतनी बड़ी दुनिया के केवल चार विकसित देश शीर्ष पर हों, तो उम्मीदें बढऩा स्वाभाविक है। सरकार से सवाल-जवाब क्यों नहीं हो कि इतने सालों में इतनी संभावनाओं के बावजूद आमजन की आकांक्षाएं पूरी क्यों नहीं हो रही हैं ? देश के साधनों, संसाधनों का इस्तेमाल कहां, कैसे हो रहा है? ये सवाल तो आमजन को पूछना चाहिए। यदि जनमानस से यह सवाल नहीं उठ रहा है तो भी उसके लिए क्या, कौन जिम्मेदार है? यह भी एक स्वाभाविक सवाल है।

बात देश की इतनी बड़ी जनसंख्या की जो लगातार बेहिसाब बढ़ती जा रही है, और देश के लिए बोझ बनते-बनते, दायित्व निभाते-निभाते अब समस्या बन चुकी है। ऐसी समस्या जिसके कारण देश को अन्य कई तरह की जैसे गरीबी, बेकारी, अशिक्षा, अज्ञानता, असमानता, गंदगी, बीमारी, अस्वच्छता जैसी अनगिनत समस्याएं घेरे हुए हैं, और विकास का सारा प्रयास एवं उपक्रम इन्हीं निरर्थक प्रयासों में व्यर्थ चला जाता हो, चला जा रहा हो। तब स्वााभाविक तौर पर लगता है लेकिन अब भारत की यही जनसंख्या बोझ, चिंता, चुनौती एवं दायित्व नहीं अपितु संपत्ति, संसाधन, परिसंपत्तियां के रूप में विकास का, आर्थिक सुधारों का वाहक एवं सूत्रधार बन रही है। आज जब पूरी दुनिया आर्थिक सुस्ती एवं मंदी की मार से त्रस्त हैं, तब भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसकी आंच नगण्य है, इसलिए आज पूरी दुनिया की नजरें भारत की ओर टिकने लगीं हैं।

भारत अब केवल एक देश नहीं दुनिया के नजरों में एक बड़ा बाजार है। आज हर भारतवासी एक ग्राहक, एक खरीदार, एक उपभोक्ता है, जिससे सभी दोस्ती चाहते हैं। दुनिया का हर विकसित देश अब भारतीयों को अपना सामान बेचना चाहता है। अब भारतीय अर्थव्यवस्था में इतनी अपार संभावनाएं आ चुकीं हैं कि दुनिया का हर विकसित देश भारत को अपने व्यापार और कारोबार का साझेदार एवं भागीदार बनाना चाहता है, क्योंकि अब हमारी विशालतम जनसंख्या केवल दायित्व नहीं दुनियाभर के बाजारों के लिए बहुत बड़ी ताकत बन चुकी है, और लगातार बनती जा रही है।

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