विचार / लेख

एनसीपी, महाराष्ट्र और राष्ट्र
12-Jul-2023 7:19 PM
एनसीपी, महाराष्ट्र और राष्ट्र

- डॉ. आर.के. पालीवाल
अगर किसी मुहावरे की संक्षिप्त भाषा में कहा जाए तो एनसीपी के आदि पुरुष शरद पवार की स्थिति घर में नहीं दाने अम्मा चली भुनाने जैसी हो गई है।एनसीपी के संकट की जड़ में इसके प्रमुख नेताओं की महत्वाकांक्षा है। कभी राष्ट्रीय रहे लेकिन हाल ही में प्रादेशिक हुए इस दल के मुखिया शरद पवार तिरासी साल के हो गए , वे गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं लेकिन उनकी महाराष्ट्र के साथ साथ देश में किंग नहीं तो किंग मेकर बनने की महत्वाकांक्षा अभी भी बाकी है। उनके भतीजे अजित पवार भी पार्टी की कमान संभालने की महत्वाकांक्षा पालते हुए इंतजार करते करते तिरसठ साल के वरिष्ठ नागरिक हो गए। 

अब जब उन्हें साफ दिखने लगा कि चाचा शरद पवार उन्हें अपने जीवन में कभी पार्टी की कमान नहीं सौंपेंगे तो उनके पास बगावत के अलावा कोई विकल्प नहीं था। शरद पवार ने अजित पवार को पूरी तरह नकारकर पुत्री सुप्रिया सुले और प्रहलाद पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर यह साफ कर दिया था कि एन सी पी में अजित पवार की वैसी ही हैसियत है जैसी अन्य क्षेत्रीय दलों में नाभिकीय परिवार से इतर रिश्तेदारों की होती है। महाराष्ट्र में ही बाला साहब ठाकरे काफी पहले राज ठाकरे के लिए यह कर चुके हैं और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में यही हुआ है।

एनसीपी में अजित पवार की बगावत के बाद इस वक्त सबसे ज्यादा किरकिरी शरद पवार की हो रही है। उन पर तिहरा संकट है। एक तरफ उम्र के इस पड़ाव पर दो फाड़ हुई पार्टी को तिनका तिनका बिखरने से बचाना मुश्किल काम है, दूसरी तरफ महाराष्ट्र की राजनीति में खुद की प्रासंगिकता बरकरार रखनी है और तीसरे राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र में भाजपा विरोधी गठबंधन में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका बचाए रखनी है। जहां तक पहली चुनौती पार्टी की अपनी शाखा और शाख बचाने की बात है वह फिलवक्त सबसे कठिन है। 

अजित पवार के सत्ताधारी गठबंधन की डबल इंजन सरकार में शामिल होने से पार्टी के अधिकांश विधायक और सांसद सत्ता की नजदीकी के लोभ में शरद पवार का साथ छोड़ रहे हैं। इसी तरह संगठन के महाराष्ट्र के पदाधिकारी भी अजित पवार के साथ रहकर ही स्वार्थ साध सकते हैं। हालांकि शरद पवार कह रहे हैं कि देश के अन्य प्रदेशों के पदाधिकारी उनके साथ हैं लेकिन उनका पार्टी में कोई महत्व नहीं है क्योंकि वर्तमान समय में महाराष्ट्र के अलावा किसी अन्य प्रदेश में पार्टी बेहद कमजोर है।

जब किसी व्यक्ति या संगठन की स्थिति अपने घर, गृह नगर और गृह प्रदेश में कमजोर होती है तब बाहर भी उनकी इज्जत और महत्व पर ग्रहण लग जाता है। शरद पवार में अब इतनी शक्ति नहीं है कि उम्र के इस पड़ाव पर कई कई मोर्चों पर एक साथ लड़ सकें। उन्होंने अजित पवार को एक तरफ करने के लिए और अपनी पुत्री सुप्रिया सुले को पार्टी की विरासत सौंपने के लिए अपने सबसे विश्वस्त प्रफुल्ल पटेल को बैसाखी और ढाल के रुप में इस्तेमाल किया था। प्रफुल्ल पटेल को सुप्रिया सुले के साथ पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर उन्होंने यह दिखाने का प्रयास किया था कि वे पूरी कमान पुत्री को नहीं सौंप रहे। प्रफुल्ल पटेल उनके इस झांसे में नहीं आए। वे यह समझ गए कि एक दिन उन्हें भी अजित पवार की तरह बाहर निकलना पड़ेगा। शायद इसीलिए वे भी अजित पवार के साथ सत्ता सुख की लालसा में शरद पवार से अलग हो गए।

शरद पवार कभी भी किसी विचारधारा से संबद्ध नहीं रहे। उनके साथ अवसरवादिता और सत्ता की महत्वकांक्षा उनके कद से बडी रही है। चाहे बिना क्रिकेट खेले क्रिकेट बोर्ड ऑफ इंडिया की अध्यक्षता हो या बिना राष्ट्रीय लोकाप्रियता के प्रधानमंत्री पद की महत्वकांक्षा हो शरद पवार हमेशा ऊंचे अवसर की तलाश में रहे। उम्र के इस पड़ाव पर उनके भतीजे अजित पवार और पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल आदि ने भी उनसे सीखकर उनका दांव उन्हीं पर चला है।

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