विचार / लेख
- डॉ. आर.के. पालीवाल
संविधान में राज्यपाल के प्रतिष्ठित पद की अवधारणा बहु दलीय लोकतंत्र में केंद्र और राज्यों में अलग अलग विचारधाराओं के राजनीतिक दलों की सरकारों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने वाले निष्पक्ष सेतु के रुप में की गई थी। दुर्भाग्य से सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीतिक दलों के किसी भी हद तक गिरने की प्रक्रिया में सबसे ज्यादा फजीहत राज्यपाल के प्रतिष्ठित पद की हुई है।
वर्तमान दौर में अधिकांश राज्यपाल ब्रिटिश दौर के ब्रिटिश रेजिडेंट बनकर रह गए हैं जिनका काम राज्यों में विरोधी दलों की सरकारों को कमजोर कर केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी को मजबूत करना हो गया है। ताजा मामला तमिलनाडू के राज्यपाल आर एन रवि के खिलाफ मुख्यमंत्री एम के स्टालिन का राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को लिखा पत्र है। मुख्यमंत्री का आरोप है कि राज्यपाल बार-बार संविधान का उल्लंघन कर रहे हैं। वे प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर रहे हैं। अपने आरोप के समर्थन में उन्होंने यह तर्क भी दिया है कि विगत में जब वे नागालैंड के राज्यपाल थे तब वहां के मुख्यमंत्री भी उनकी कार्यशैली से असंतुष्ट थे।
पिछले कुछ वर्षों में यह भी देखने में आया है कि जिन राज्यपालो ने संबंधित राज्य में विरोधी दल की राज्य सरकार को जितना ज्यादा परेशान किया है उन्हें निकट भविष्य में उतनी ही तरक्की मिली है और जिन राज्यपालों ने केन्द्र सरकार की कठपुतली बनने में आनाकानी की है उन्हें विविध रुप में सजा मिली है। राज्यपालों की तरक्की के लिए जो महत्वपूर्ण रास्ते बन गए हैं, उनमें एक बेहतर माने जाने वाले राज्य में राज्यपाल बनाया जाना और दूसरा उप राष्ट्रपति या राष्ट्रपति बनाना हैं। सजा के तौर पर राज्यपालों की सेवा को एक्सटेंशन नहीं दिया जाना और छोटे एवम सुदूर राज्यों में ट्रांसफर के रूप में सामने आया है। ऐसा लगता है कि नौकरशाही की तरह राज्यपालों पर भी केन्द्र सरकार की कैरट एंड स्टिक नीति लागू होती है।
यदि वर्तमान दौर के राज्यपालों के व्यक्तित्व और कार्यशैली की तुलना आज़ादी के तुरंत बाद के राज्यपालों से करें तो साफ पता चलता है कि विगत चार-पांच दशक से राज्यपालों के चुनाव में बहुत गिरावट आई है।अब अधिकांशत: या तो केन्द्र में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के ऐसे खांटी राजनीतिक लोगों को यह पद दिया जाता है जो दल बदल आदि में सहयोग कर डबल इंजन सरकार बनवाने में केन्द्रीय भूमिका निभा सकें या फिर जिन नेताओं को सक्रिय राजनीति से अलग किया जाता है उन्हें इस पद पर बैठाकर किनारे लगाया जाता है। दोनों ही स्थिति में राज्यपाल केंद्र और राज्य सरकारों के मध्य सौहार्द्र और सामंजस्य सेतु नहीं बन पा रहे हैं। यह लोकतंत्र के लिए भी दुखद स्थिति है और संविधान निर्माताओं की परिकल्पना के अनुकूल भी नहीं है।
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार और केंद्र सरकार के प्रतिनिधि लेफ्टिनेंट गवर्नर के बीच विवाद समय के साथ गहराता ही जा रहा है। कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने शिवसेना की याचिका पर सुनवाई करते हुए महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल की भूमिका पर गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़े किए हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल में भी तृणमूल सरकार के साथ पिछले राज्यपाल के संबध सौहार्द्रपूर्ण नहीं थे। बहु दलीय लोकतंत्र की हमारी व्यवस्था में अधिकांश राज्यों में एक ही दल की सरकार नहीं होने से केंद्र और राज्यों में मधुर संबंध स्थापित करने के लिए राज्यपाल ही एक मात्र सबसे प्रभावी कड़ी है। यदि वही कड़ी कमजोर होगी तो वह किसी भी दृष्टि से राष्ट्रहित में नहीं है। यह सभी दलों के लिए चिंता का विषय है इसलिए इस पर सभी को मिल बैठकर विमर्श करना चाहिए। यदि यही हालात रहे तो निकट भविष्य में मजबूरी में सर्वोच्च न्यायालय को ही इस दिशा में मापदंड निर्धारित करने पड़ेंगे।