विचार / लेख

क्या पुलिस एवं जाँच ऐजेंसियाँ सत्ताधारियों के हाथ की कठपुतली हैं?
15-Jul-2023 2:31 PM
क्या पुलिस एवं जाँच ऐजेंसियाँ सत्ताधारियों के हाथ की कठपुतली हैं?

photo facebook

डॉ. सुरेश गर्ग

राज्य में कानून एवं व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदारी पुलिस की होती है, जिसके लिए उसका एवं उससे जुड़ी  जाँच ऐजेंसियों का निरंतर सक्रिय एवं प्रभावशाली बने रहना जरूरी होता है। बिन भय होय न प्रीत! बिना इस व्यवस्था के राज्य का मुखिया सत्ता सिंहासन पर बैठे दूर-दूर तक राज नहीं कर सकता! इसे ही धर्मशास्त्र में ‘राजदण्ड’ व्यवस्था कहा गया है और राजा को ‘दण्ड’!

सामंती या प्रजातांत्रिक हर व्यवस्था में मुखिया का पहला ‘राजधर्म’ अपने राज्य की सीमा की सुरक्षा करते हुए आंतरिक स्तर पर कानून- व्यवस्था बनाये रखना होता है; और यह सब प्रारंभिक रूप से पुलिस और जाँच ऐजेंसियों का अपने अनुसार उपयोग किये बिना संभव नहीं है! एक समय दुनिया में स्कॉटलैंड पुलिस का नाम हुआ करता था और हिंदुस्तान में बंबई (अब वह मुंबई है)पुलिस का। उस राज्य की जनता के बीच पुलिस और अन्य ऐजेंसियों की साख और विश्वसनीयता पर ही राज्यमुखिया का सर्वशक्तिशाली दण्डाधिकारी का रुतबा कायम रहता है। मात्र उसके इशारे पर ये संस्थाएं अपनी संपूर्ण क्षमता से सक्रिय होकर उसकी आज्ञा का पालन करती हैं। वरना इसके विपरीत बिना जनसमर्थन की व्यवस्था एकाधिकारवाद की परिचायक होती है!  प्रत्येक प्रशासनिक व्यवस्था का यह मूल एवं स्थायी तत्व है कि अपने से ऊपर के अधिकारी के आदेश का बिना प्रश्न किये पालन करना उसके मातहत का पहला कर्तव्य है! यदि उसे वह आदेश राज्य व्यवस्था नीति के हित में अनुचित लगता है तो वह अपना विरोध प्रकट कर सकता है , फिर भी वह उसको क्रियान्वय करने के लिए बाध्य है,जिसकी जिम्मेदारी संबधित आदेशकर्ता की होगी! यदि मातहत की अंतरात्मा वह कार्य करने में असमर्थ लगे तो वह विरोध करते हुए उस व्यवस्था से बाहर होकर अपने को अलग कर सकता है! जिसके लिए वह जिम्मेदार होगा! यदि इतना कठोर अनुशासन न हो तो प्रशासनिक व्यवस्था अराजक हो जाये! जंगलराज बन जाये! इस कठोर व्यवस्था के कारण ही राजा द्वारा मात्र आँखें तरेरने भर से संपूर्ण राज्य में उसका संदेश पहुँच जाता है, रुतबा कायम रहता है। यह व्यवस्था हिंदुस्तान में ही नहीं, दुनिया में सैंकड़ों बरसों से चली आ रही है। अंग्रेजों की सेना और पुलिस में अधिकांश हिंदुस्तानी हुआ करते थे, परन्तु उन्हें अपने बरिष्ठ का आदेश मानकर जानते हुए भी अपने भाई-बहिनों के विरुद्ध अमानवीय कार्यवाही करनी पड़ती थी। जलियांवाला कांड में बरिष्ठ अधिकारी भी हिंदुस्तानी थे और पुलिस कर्मी भी...! भारतीय शास्त्रों में इसे राजशास्त्र, नृपशास्त्र , दण्डनीति आदि नाम दिये गये हैं। इसके लिए शान्तिपर्व (59/79) में कहा गया है-‘यह विश्व- दण्ड के द्वारा अच्छे मार्ग पर लाया जाता है, या यह शास्त्र दण्ड देने की व्यवस्था करता है, इसी से इसे दण्डनीति की संज्ञा मिली है और यह तीनों लोकों में छाया हुआ है।’

वर्तमान राजनीति में कुशल सफल राजनेता को चाणक्य नाम के संबोधन से अलंकृत किया जाता है, उसी कौटिल्य के अनुसार-‘दण्ड वह साधन है जिसके द्वारा आन्वीक्षिकी, त्रयी (तीन वेद) एवं वार्ता का स्थायित्व, रक्षण अथवा योगक्षेम होता है, जिसमें दण्ड-नियमों की व्याख्या होती है, वह दण्डनीति है; जिसके द्वारा अलब्ध की प्राप्ति होती है,लब्ध का परिरक्षण होता है, रक्षित का विवर्धन होता है और विवर्धित का सुपात्रों में बँटवारा होता है।’

इस व्यवस्था के लिए तुलसीदास जी कह गये हैं-‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं!’ मतलब जिसकी लाठी उसकी भैंस! राजा के लिये कौन रक्षित है, कौन सुपात्र है और कौन विवर्धित (संपन्न को और अधिक संपन्न बनाना) है, यह राजा और राज्य की तात्कालीन जरूरत पर निर्भर करता है! इसीलिए राजनीति में साम दाम दण्ड भेद नीति अपनाने की वकालत की गई है। इसके बावजूद साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे सबसे उत्तम नीति मानी गई है। इस नीति पर खरा उतरने का उदाहरण महिला पहलवान प्रकरण में दिल्ली पुलिस ने बहुत होशियारी से दिया है। यही नहीं उसने दुनिया को दिखा दिया कि हिंदुस्तान पुलिस की ‘आत्मा’ अभी भी वही है! जब पूरा विपक्ष दिल्ली पुलिस पर उंगली उठा रहा था, ना ना प्रकार के लांछन लगा रहा था, तब वह अपना काम बिना किसी प्रतिक्रिया दिया अपनी तरह से कानूनी व्यवस्था के अंदर रह कर ही करती रही। यह बात अलग है कि उसने इस प्रकरण में जो तरीका अपनाया वह सामान्य पद्धति से अलग था! लेकिन उसने ऐसा करके मुखिया एवं राजतंत्र का धर्मसंकट टाल दिया।

मतलब सत्तातंत्र के इशारे का भी मान रख दिया और सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से अतिप्रभावशाली तथाकथित आरोपी पर सामान्य नागरिक की तरह कार्यवाही न करके उसके अहं को कोई नुकसान न पहँचाते हुए ऐसी चार्जशीट बनायी कि फरियादियों एवं जन भावनाओं का पूरा ख्याल रखा हो गया। उनके साथ भी अन्याय नहीं हुआ! वरना यह प्रकरण देश की राजनीति एवं सामाजिक व्यवस्था में भूचाल ला सकता था। अब गेंद माननीय न्यायालय के हाथ में है, जहाँ का निर्णय कोई माने या न माने, पर अकाट्य होता है। अंतिम होता है। भारतीय संस्कृति में यह माना जाता है कि अंत में विजय सत्य की होती है। प्रजातंत्र में सत्य यह है कि जैसी प्रजा वैसा राज्य! यदि हम वोट रूपी बीज बबूल का डालेंगे तो आम कहाँ से पैदा होंगे? जैसी करनी वैसी भरनी!

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news