विचार / लेख
मनीष सिंह
दुनिया में फिलॉसफी का सबसे शानदार दौर ईसा के चार सौ साल पहले का है। तब वेस्टर्न फिलॉसफी में ग्रीस विश्व गुरु बनकर उभरा। सुकरात, प्लेटो, अरस्तू, थेल्स, डायोनिसिस, हेरोकलिट्स, पाइथागोरस.. इस दौर में हुए।
ये कुछ सौ साल, विचारकों के स्वर्ण युग थे। इनके विचार बहस मुबाहिसे का हिस्सा बने। काटे, जोड़े, इम्प्रूव किये गए। आज भी प्राचीन ग्रीस का दर्शन, पश्चिमी फिलॉसफी का बेडरॉक है।
ठीक इस समय, भारत में भी दर्शन आये। सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व और उत्तर मीमांसा वैदिक दर्शन माने गए। इसके साथ जैन, बौद्ध और चार्वाक के भी दर्शन हुए। हम इन्हें आस्तिक और नास्तिक दर्शनों के रूप में विभाजित करते हैं।
इतने दर्शन भला इसी दौर में क्यों बने। इसके बाद क्यों नहीं आये। क्या मानव समाज की बुद्धि थम गई?
दरअसल इसका कारण, धर्म की सत्ता, ताकतवर होने से मिलता है।
जब पंथ छोटे थे, बहुतेरे थे, तो पुजारियों पण्डो का एकाधिकार नहीं था। आगे चलकर क्रिश्चिनिटी ताकतवर हो गयी। यानी चर्च की सत्ता सुप्रीम हो चली।
दर्शन का अर्थ है-देखना। आप किसी चीज को देखते कैसे हैं, आपका दृष्टिकोण क्या है, कैसे आप घटनाओं, रिश्तों, समाज और व्यक्ति के जीवन के अर्थ को समझते है। यह दर्शन हुआ।
फिलोसोफी का अर्थ तो और गहरा है। फीलो का मतलब है- प्रेम, सॉफी का अर्थ है-ज्ञान, या विज्डम !! यानी मोहब्बत को समझना फिलोसोफी है। और जो मोहब्बत को खोज रहा हो, फिलॉसफर है।
दृष्टिकोण, और मोहब्बत की खोज तब तक चली जब तक धर्म ने बन्दिशें न लगा दी। भारत में तो दर्शन को सीधे सीधे धर्म से जोड़ लिया गया। हिन्दू दर्शन, जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन.. ये सारे दर्शन, जो आजाद मनुष्य के विचार थे, एक एक पंथ के ‘कैप्टिव दर्शन’ हो गए।
दरअसल भारत में धर्म और दर्शन ऐसे लट्ट-पट्ट कर दिए गए हैं कि आधे से ज्यादा पाठकों को यह समझना कठिन है, कि धर्म और दर्शन अलहदा कैसे हो सकते हैं। यहाँ पर हिन्दू धर्म वैदिक दर्शन है, और बौद्ध धर्म ही बौद्ध दर्शन..
उधर पश्चिम में कुछ अलग हुआ।
वहाँ धर्म और दर्शन अलग अलग रहे।
चर्च का उदय हुआ। उसने अपनी एनसाइक्लोपीडिया लिखी- बाइबल। उसमे सारे सवालो के जवाब लिख दिए। अब इसके बाद सारे दर्शन खारिज। अब कोई सवाल नहीं, नजरिया नही। बाइबल के जवाबों पर शुब्हा न किया जाए। किया तो आप पापी, धर्मद्रोही, शैतान हो।
न मानने पर चर्च आपको मौत की सजा दे सकता था, जिंदा जलवा सकता था। तो पहली सदी के बाद ही सोच पर पहरे, बुद्धि पर ताला लगा दिया गया।
नए नजरिये से दर्शन पाप हुआ, तो दर्शन का विकास खत्म हो गया। इंसानी समाज मे प्यार की खोज, याने फिलॉसफी का स्पेस खत्म हो गया। विज्डम थमा तो डेढ़ हजार साल थमा रहा।
सोलहवीं सदी तक यूरोप में अंधकार का युग रहा। इसके बाद जो हुआ, उसे पुनर्जागरण कहते हैं।
मार्टिन लूथर ने शुरुआत की। बाइबिल की धारणाओं पर सवाल किए। कोपरनिकस और गैलीलियो ने किए। बताया धरती गोल है, चांद सितारे बेजान हैं। उन्होंने इसकी सज़ा भुगती। लेकिन धर्म के प्रति अंध श्रद्धा का दौर अब जा रहा था।
नवयुग आ रहा था। बाइबिल की जेनेसिस को ऑर्गेनिक इवोल्यूशन ने झुठलाया। धरती चांद सितारे, ईश्वर की मर्जी से नही, न्यूटन और आइंस्टीन के सिद्धातों पर चलने लगे। डार्विन ने बन्दर को मनुष्य का पूर्वज बना डाला।
हर चीज पर सवाल करना, डाउट करना, उसके कारण को खोजना- एक अभियान हो गया। विज्ञान हो गया।
जब यूरोप ने धर्म की जकडऩ को तोड़ा, तो विज्ञान का विकास हुआ। तब जाकर पिछले 300 सालों में नए अविष्कार हुए, जो 1500 साल में हो जाने चाहिए थे। विज्ञान दैनिक जीवन मे उपयोग शुरू किया। दवाइयां बनी, जिंदगियां बची, संचार आसान हुआ। कार बनी, विमान बने, टीवी रेडियो, बिजली... आधुनिक संसार का निर्माण हुआ।
और भारत- वह धर्म की जकडऩ से आज तक नही निकला।
क्या ही विडंबना है कि आजादी की पहली लड़ाई, पहला ग़दर, इस डर से हुआ कि कारतूसों की चर्बी हमारा धर्म भ्रस्ट कर देगी?
आज हम भले कहें, कि विमान से लेकर सर्जरी, एटॉमिक स्ट्रक्चर से लेकर परमाणु बम, सब हम वैदिक काल मे हासिल कर चुके थे, तो वह सिवाय आत्मप्रवंचना के कुछ नही।
आप वेद पढक़र लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर नही बना सकते। वेंटिलेटर, या एक्सरे मशीन नही बना सकते। आप सिर्फ, मानव के - अपने खुद के समाज के बौद्धिक विकास पर ताला लगा सकते हैं। आगे जाती दुनिया से अलहदा राह पर, जहां पत्ता ईश्वर की मर्जी से खडक़ता है। जहां ब्राह्मण मुख और शूद्र, ब्रह्मा के पैरों से पैदा होता है।
हमारी लीडरशिप, हमारा समाज औऱ राजनीति, जब पंथ की स्थापना का बीड़ा उठाती है, तो उसी अंधकार युग मे ले जाती है, जिससे मुश्किल से हाथ पांव मारकर हम निकलकर आये हैं।
2000 साल के बाद तो समाज ऐसा बने, जो नए दर्शन को स्पेस दे। वर्तमान की धारणाओं को चैलेंज करने दे, शुब्हा करने दे, और नए जवाब खोजने की आजादी दे।
हम जिस दोराहे पर हैं, वहां जरूरत यही है, कि जिस प्रेम के विज्डम को खोजकर इंसान फिलॉसफर कहलाता है, उस मार्ग के कांटे हटाये जायें।
पंथ को, मंदिर, मस्जिद, चर्च को भले ही प्रणाम किया जाये,पर यात्रा वहां जाकर खत्म न जाये। वहां से शुरू की जाये।