विचार / लेख

कबहु बढ़ेगी चोटी
19-Nov-2023 9:55 PM
कबहु बढ़ेगी चोटी

-सच्चिदानंद जोशी
साठ वर्ष पूरे होने पर बहुत मित्रों और परिवारजनों के शुभकामना संदेश मिले ( जी हां आपका भी मिला, बताने ही वाला था)।सभी को यथा समय उनके संदेश मिलने की पहुंच भी दी गई। जो फिर भी छूट गए किसी कारण से उनसे क्षमा याचना।

मुद्दा वह नहीं है। शुभकामना संदेश में कुछ ऐसे थे जिनमे कहा गया ‘लगता नहीं कि तुम साठ के हो गए। ‘इससे पहले कि इस संदेश में अभिव्यक्त प्रशंसा की खुशी मना पाता कि दूसरा संदेश आ पहुंचा ‘अब हुए हो साठ के, हमें तो लगा कब के हो चुके हो।’ समझना कठिन था किस कथन को सही माना जाए और तय करना कठिन था कि कैसे व्यवहार किया जाए।

वैसे अपनी उम्र के आकलन के बारे ऐसे हादसे जिंदगी भर होते रहे हैं। बचपन में कहा जाता था कि बहुत नाजुक दिखते थे इसलिए मां ने अपनी लडक़ी की सारी हसरते हम ही पर पूरी कर डाली और तीन साल तक फ्रॉक पहना कर रखा। अब तो शायद इस बात की कल्पना करना भी किसी हादसे से कम न हो लेकिन उस समय कहा जाता है कि कई लोग धोखा खा जाते थे।

जरा बड़े हुए तब भी ऐसे बड़े नहीं हो पाए कि बड़े दिखें। इसलिए लोग हम दोनो भाइयों को देखकर कहते ‘बड़ा तो ठीक बड़ा है, लेकिन छोटा जरा ज्यादा ही छोटा है। ‘तब लगता कि मैं बड़ा कब हो पाऊंगा। भगवान से मनाता कि मुझे जल्दी बड़ा कर दे। जैसे कृष्ण अपनी मां से पूछते ’ कबहु बढ़ेगी चोटी’ तब कृष्ण को लगता कि दूध पीने से उनकी चोटी बड़ी होकर बलराम भैय्या की तरह हो जाएगी।

भगवान ने एक दिन सुन ली। उस दिन शायद भगवान के पास एक के साथ एक फ्री वाली स्कीम चल रही थी। बड़ा करने की गुहार शायद दो बार सुन ली। इसलिए बड़ा नहीं किया, कुछ ज्यादा ही बड़ा कर दिया। कुछ साल तक लडक़ी की तरह नाजुक दिखने वाले हम इतने बड़े दिखने लगे कि उम्र को लेकर भयानक हादसे होने लगे।

आठवी पास करके नवीं कक्षा में गए ही थे । पिताजी के एक परिचित घर आए । मैंने उनका स्वागत किया। पिताजी अंदर तयार हो रहे थे तो अतिथि धर्म निभाते हुए उनके पास बैठा। उन्होंने औपचारिकता वश पूछा ‘आप क्या करते हैं।’ऐसे प्रश्न का सामना पहली बार हुआ था। मैने गड़बड़ी में उत्तर दिया ‘हम नवीं में होते हैं। ‘वे पहले तो चक्कर खा गए इस उत्तर से , फिर जरा देर में सम्हल कर बोले ‘मेरा मतलब था काम क्या करते हैं। ’ उन्हें निराश करने का इरादा तो नही था फिर भी कहना पड़ा ‘काम तो कुछ नही करता नवीं में पढऩे के अलावा।’ उन परिचित के चेहरे के भाव देखने लायक थे। उन्हे अवश्य लगा होगा कि जोशी जी का ये बेटा एकदम डफर है और नवीं में ही लगातार फेल हो रहा है।

स्कूल में पढ़ते हुए ‘कौन से कॉलेज में हो बेटा’ या ‘किस ईयर में हो बेटा’ ऐसे सवालों का सामना कई बार किया। बार बार भगवान से मनाता कि किसी तरह कॉलेज में पहुंचा दो ताकि इस सवाल का सही उत्तर देकर आत्म ग्लानि से मुक्त हो सकूं। लेकिन कॉलेज में आते ही नए सवाल ने सताना शुरू कर दिया ‘आप कहां काम करते हैं’ या ‘आप कहां सर्विस करते हैं।’

एक बार तो पराकाष्ठा हो गई। इंदौर से एक परिचित प्रोफेसर साहब को मद्रास( अब चेन्नई) जाना था । उन दिनों मद्रास के लिए इंदौर वासियों को भोपाल से ट्रेन लेनी पड़ती थी। पिताजी की तबियत ठीक नहीं थी और वे अस्पताल में भर्ती थे। उन दिनों में कॉलेज के फर्स्ट ईयर में था और इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहा था। उन प्रोफेसर साहब की इन दोनो बातों की जानकारी थी।।वे जैसे ही ट्रेन से उतरे मैंने उन्हे पहचान कर उनका सामान हाथ में ले लिया और आगे चलने लगा। प्रोफेसर साहब संकोच से बोले ‘रहने दीजिए जोशी साहब , आप अभी अभी बीमारी से उठे है। ‘मुझे उन्हे समझा कर कहना पड़ा कि जो अस्पताल में हैं वे मेरे पिता हैं और मैं उनका बेटा।’ अच्छा अच्छा तुम हो जो इंजीनियरिंग प्रवेश की तैयारी कर रहे हो। ‘मैंने उनकी बात का जो समझ में आया जवाब दिया क्योंकि मैं बेहद गुस्से में आ गया था। अब बताइए भला एक ही समय में मैं अपना पिता और मैं स्वयं कैसे दिख सकता हूं। ऐसा तो लोग सिनेमा में ही देखते और स्वीकार करते हैं। तभी तो खराब मेकअप के बावजूद दर्शकों ने शाहरुख को बाप और बेटे दोनो के रूप में झेल लिया ‘जवान’ में।

नौकरी मिली तो ऐसी जगहों पर जहां ज्यादातर सहयोगियों से बड़ा ही दिखा इसलिए भाई साहब की जगह चाचा ने ले ली। सब्जी वालों ने, दूध वालों ने अंकल कहना शुरू कर दिया। फिर एक वक्त ऐसा भी आया कि ‘कबहु बढ़ेगी चोटी’ अप साइड डाउन हो गई। बड़े भाई साहब का परिचय कराया तो सामने वाले ने पूछा ‘सचमुच आपसे बड़े हैं , लगते तो छोटे हैं।’ लगने लगा कि कब मैं सचमुच अंकल के स्टेटस को प्राप्त करूंगा। मैं उम्र के मकाम हासिल करता और उस उम्र का स्टेटस मुझसे दूर छिटक कर खड़ा हो जाता।

जब लगा कि अपन अंकल की कक्षा (ऑर्बिट) में स्थिर हो गए हैं और उस परिस्थिति से समझौता करना शुरू किया उसी समय एक और हादसा हो गया। ट्रेन से भोपाल से दिल्ली आ रहा था। ए सी कंपार्टमेंट की अपनी लोअर बर्थ पर बैठे सामने वाली बर्थ के सहयात्री का इंतजार कर रहा था। 

तभी एक युवती अपने तीन चार साल के बेटे और ढेर सारे सामान के साथ दाखिल हुई। अपन ने अपनी जींस टी शर्ट ठीक किया ‘मेन विल बी मेन’ की तर्ज पर सांस रोक कर पेट अंदर किया। कुली के साथ उसका भारी भरकम सामान उतरवाने में और बर्थ के नीचे जमवाने में मदद की। ट्रेन चलने लगी तो उसने मुस्कुराकर अभिवादन किया जिसके उत्तर में अपन ने भी सांस रोक कर पूरी मुस्कुराहट बिखेरी। इसके पहले कि मैं कुछ और बोलकर संभाषण आगे बढ़ा पाता वह अपने बेटे से बोली ‘शोनू से नमस्ते टू दादू।’ शोनू ने भी अपनी माता की आज्ञा का पालन करते हुए मेरे पैर छुए और कहा ‘प्रणाम दादू।’ इसके बाद का सफर कैसा हुआ होगा इसका विवरण देने की शायद अब कोई आवश्यकता नहीं है।

इसलिए लगा कि साठ का हो जाऊंगा तो कम से कम इस जंजाल से तो मुक्ति मिलेगी। किसी एक स्टेटस में स्थिर हो पाऊंगा।लेकिन लगता है उम्र के स्टेटस में स्थिर होना किस्मत में नही है। अब किसी और मित्र ने कह दिया कि साठ के हो गए हो तो हो जाओ, लेकिन बताओ मत इतनी जोर से , इससे बात खराब होती है।

उम्र को थामना संभव नहीं है वह तो बढ़ती ही है, लेकिन वे भाग्यवान होते है जो हर समय अपनी उम्र के दिखते है और स्कूल में रहते हुए ‘आप क्या काम करते हैं’ जैसे प्रश्नों का सामना नहीं करते।

अपनी किस्मत में तो सूरदास जी का पद ही गाना बदा है ‘कबहु बढ़ेगी चोटी।’

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