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हार्दिक पटेल को गुजरात की कमान देकर कांग्रेस ने अपने पैरों पर एक और कुल्हाड़ी तो नहीं मार ली है?
22-Jul-2020 9:37 AM
हार्दिक पटेल को गुजरात की कमान देकर कांग्रेस ने अपने पैरों पर एक और कुल्हाड़ी तो नहीं मार ली है?

-पुलकित भारद्वाज

राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच चल रही जबरदस्त खींचतान के बीच पड़ोसी राज्य गुजरात से आई एक बड़ी ख़बर दब सी गई. वहां कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व ने पाटीदार नेता हार्दिक पटेल को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया है. पटेल ने बीते साल ही कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण की थी. हार्दिक पटेल को मिली इस नई ज़िम्मेदारी को जानकार अलग-अलग नज़रिए से देख रहे हैं. विश्लेषकों का एक धड़ा कांग्रेस हाईकमान के इस फ़ैसले को गुजरात में पार्टी के कद्दावर नेता अहमद पटेल के कमज़ोर होने से जोड़कर देख रहा है. ऐसा मानने वालों का तर्क है कि हार्दिक पटेल को आगे कर कांग्रेस आलाकमान ने यह इशारा दिया है कि आने वाले दिनों में संगठन की बागडौर वरिष्ठ नेताओं के बजाय युवाओं के हाथ में जाने वाली है.

लेकिन गुजरात की राजनीति पर नज़र रखने वाले कुछ अन्य जानकार इस मसले पर बिल्कुल विपरीत राय रखते हैं. उनके मुताबिक हार्दिक पटेल की शक्ल में अहमद पटेल ने पार्टी के पूर्व अध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी के ख़िलाफ़ एक बड़ा दांव खेला है. दरअसल अन्य राज्यों की तरह गुजरात में भी कांग्रेस कई गुटों में बंटी हुई है. इनमें से सबसे प्रमुख गुट अहमद पटेल और भरत सिंह सोलंकी के माने जाते हैं. सोलंकी गुजरात कांग्रेस के शायद इकलौते नेता हैं जो अहमद पटेल की आंखों में आंखें डालने की कुव्वत रखते हैं. प्रदेश कांग्रेस से जुड़े सूत्र बताते हैं कि इस वजह से गुजरात में पटेल समर्थक कांग्रेसी नेता भरत सिंह सोलंकी को कमज़ोर करने की कोई कसर नहीं छोड़ते.

अहमदाबाद स्थित गुजरात कांग्रेस कमेटी के कार्यालय यानी राजीव गांधी भवन में दबी आवाज़ में यह चर्चा भी सुनी जा सकती है कि बीते आम चुनाव में भरत सिंह सोलंकी की हार के पीछे भी यही वजह सबसे बड़ी रही थी. कहा तो यह तक जा रहा है कि यदि कांग्रेस हाईकमान चाहता तो हाल ही में गुजरात राज्यसभा चुनाव से पहले पार्टी से बाग़ी हुए आठ विधायकों में से कुछ को जाने से रोक सकता था. इससे सोंलकी की दावेदारी इस चुनाव में अपेक्षाकृत मजबूत हो सकती थी. लेकिन उसने ऐसा करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. नतीजतन सोंलकी को चुनाव में शिकस्त का सामना करना पड़ा. यहां हाईकमान से कुछ नेताओं का इशारा अहमद पटेल की तरफ़ ही है.

अब सवाल है कि हार्दिक पटेल के आगे बढ़ने से भरत सिंह सोलंकी पर क्या प्रभाव पड़ सकता है? इसका जवाब भरत सिंह सोलंकी के पिता और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी के राजनीतिक इतिहास से जुड़ता है. माधव सिंह सोलंकी 1980 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे और तभी से उन्होंने सूबे में बेहद प्रभावशाली पाटीदार समुदाय को दरकिनार करना शुरु कर दिया था. 1981 में माधव सिंह सोलंकी ने बक्शी आयोग की सिफारिश पर 86 जातियों को ओबीसी में शामिल करने का फैसला करते हुए ‘खाम’ (केएचएएम) सिद्धांत दिया. इसमें ‘के’ का मतलब क्षत्रियों से था, ‘एच’ का हरिजनों से, ‘ए’ यानी आदिवासी और ‘एम’ मुसलमान. पाटीदारों को इससे बाहर रखा गया. इसके बाद जो कसर बची थी वह सोलंकी ने अपने मंत्रिमंडल में किसी पटेल नेता को शामिल न करके पूरी कर दी थी.

इसके बाद अपने दूसरे कार्यकाल (1985-90) में माधव सिंह सोलंकी ने सार्वजनिक मंचों से पाटीदारों के खिलाफ ऐसी कई बातें कहीं जिन्होंने इस समुदाय में भयंकर आक्रोश भर दिया. इसके बाद नाराज पटेल राज्यव्यापी आंदोलन पर उतर आए जिसमें 100 से ज्यादा लोग मारे गए. कई लोगों का कहना है कि आरक्षण के विरोध में शुरू हुए इस आंदोलन को बाद में कुछ फिरकापरस्त लोगों ने पहले पाटीदार-ओबीसी और बाद में हिंदू-मुसलमान दंगों की शक्ल दे दी. माना जाता है कि पाटीदारों की नाराज़गी के चलते ही कांग्रेस 1990 के बाद से अब तक गुजरात में सत्ता की सीढ़ियां नहीं चढ़ पाई हैं. और शायद यही कारण था कि 2017 के विधानसभा चुनावों में सोलंकी हाईकमान के इशारे पर चुनावी दंगल में नहीं उतरे थे. तब आरक्षण आंदोलन और हार्दिक पटेल की वजह से पाटीदारों का झुकाव वर्षों बाद कांग्रेस की तरफ़ देखा गया था. लिहाजा माना जा रहा है कि हार्दिक पटेल को तवज्जो देकर कांग्रेस ने पटेलों को यह संदेश देने की कोशिश की है कि पार्टी में सोलंकी परिवार का प्रभाव अब घटने लगा है.

गुजरात की राजनीति पर नज़र रखने वालों के मुताबिक हार्दिक पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाने से कांग्रेस को हाल-फिलहाल दो फ़ायदे होते नज़र आ रहे हैं. इनमें से एक तो यही है कि पार्टी से बहुत ज़्यादा ख़ुश न रहने वाले पाटीदारों और खास तौर पर इस समुदाय के युवाओं का नजरिया पार्टी के प्रति थोड़ा और नरम होगा. और दूसरा यह कि बीते साल लोकसभा चुनावों के बाद से राजनीतिक चर्चाओं से तक़रीबन ग़ायब हो चुकी या फ़िर नकारात्मक कारणों के चलते ख़बरों में रहने वाली गुजरात कांग्रेस इस बहाने थोड़ी बहुत सुर्ख़ियां बटोर पाने में सफल हुई है. जानकारों के मुताबिक इससे प्रदेश संगठन के कार्यकर्ताओं पर एक सकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ सकता है. हालांकि ये जानकार हार्दिक पटेल के जुड़ने से कांग्रेस को होने वाले अंतिम और निश्चित लाभों के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं कह पाते हैं.

इसके कई कारण हैं. गुजरात कांग्रेस से जुड़े एक वरिष्ठ सूत्र इस बार में कहते हैं कि ‘ये एक मिथ है कि हार्दिक पटेल के पास कोई बड़ी संख्या में पाटीदारों का समर्थन बचा है. इसे इससे समझा जा सकता है कि जिस हार्दिक के इशारे पर कुछ साल पहले तक गुजरात रुक जाया करता था, उसने 2018 में जब पाटीदार आरक्षण और किसानों की कर्ज़माफ़ी को लेकर आमरण अनशन किया तो कुछ बड़े नेताओं और मीडिया को छोड़कर वहां प्रतिदिन कुछ सौ लोगों की भी भीड़ नहीं जुट पाती थी. ऐसा लगता था कि किसी को इस बात से कोई फर्क ही नहीं पड़ता था कि इस अनशन से उसकी जान भी जा सकती है. हारकर हार्दिक को 18 दिन बाद अपना अनशन वापिस लेना पड़ा था. तब ये बड़ा सवाल उठा था कि क्या पाटीदारों ने हार्दिक के नाम पर घरों से निकलना छोड़ दिया है?’

ग़ौरतलब है कि बीते कुछ समय से हार्दिक भी अपनी छवि को पाटीदार नेता के बजाय ऐसे युवा नेता के तौर पर स्थापित करने में जुटे हैं जो किसी समुदाय को आरक्षण दिलवाने के बजाय रोजगार, कृषि और अन्य सामाजिक मुद्दों को तवज्जो देता हो.

कांग्रेस से जुड़े ये सूत्र आगे जोड़ते हैं, ‘यह ठीक है हार्दिक को साथ लेने से पाटीदारों के एक वर्ग का झुकाव कांग्रेस की तरफ़ बढ़ेगा. लेकिन यदि जातिगत समीकरण के लिहाज से देखें तो इस निर्णय से घाटा ही नज़र आता है.’ दरअसल गुजरात में पटेलों की अनुमानित आबादी कुल जनसंख्या की करीब 14 फीसदी है. वहीं अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के मामले में यह आंकड़ा 60 प्रतिशत से ज़्यादा है. माना जाता है कि प्रदेश कांग्रेस में भरतसिंह सोलंकी इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं. वहीं, पाटीदार समुदाय भारतीय जनता पार्टी का परंपरागत वोटर रहा है. यह सही है कि 2017 के गुजरात विधानसभा में पटेल मतदाताओं वजह से भाजपा के कब्जे वाली कई विधानसभा सीटें कांग्रेस की झोली में आ गिरी थीं. लेकिन यह बात भी सही है कि उस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी से तमाम नाराज़गियों के बावजूद भी पटेल समुदाय के बड़े हिस्से ने उससे मुंह नहीं मोड़ा था.

इसके सटीक उदाहरण के तौर पर गुजरात के उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल की मेहसाणा सीट को लिया जा सकता है. मेहसाणा पाटीदार बहुल इलाका है और हार्दिक पटेल के आंदोलन का केंद्र रहा है. नितिन पटेल को हराना हार्दिक ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था लेकिन वे अपनी इस कवायद में नाकाम रहे.

फ़िर 2019 का लोकसभा चुनाव आते-आते बहुत हद तक पाटीदार भाजपा की ही तरफ़ झुकते चले गए थे. इसमें पटेलों के हक़ में भाजपा द्वारा शुरु की गई योजनाओं ने भी बड़ी भूमिका निभाई थी. हमारे सूत्र के शब्दों में, ‘पाटीदार समुदाय हमेशा से सत्ता का भागीदार रहा है. इस बात की गवाह पाटीदार राजनीति के प्रमुख स्तंभ रहे केशुभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी (जीपीपी) है. 2002 के विधानसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी की वजह से भाजपा से अलग हुए केशुभाई की यह पार्टी गुजरात में सिर्फ़ दो सीटें जीत पाने में सफल रही थी. ऐसे में पटेलों के एक हिस्से को साथ लेने के लिए ओबीसी के मतदाताओं के समर्थन को दांव पर लगाना कितना ठीक है, ये वक़्त बताएगा!’ यहां इस बात पर भी ग़ौर करना ज़रूरी है कि गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से जुड़ने वाले अल्पेश ठाकोर, जो राज्य में पिछड़ा वर्ग के एक और प्रमुख युवा प्रतिनिधि माने जाते हैं, पहले ही पार्टी से छिटक चुके हैं.

जैसा कि हमने रिपोर्ट में ऊपर ज़िक्र किया कि हार्दिक पटेल की नियुक्ति के तार गुजरात कांग्रेस की आपसी फूट से भी जुड़ते हैं. जानकार आशंका जताते हैं कि उनकी मौज़ूदगी प्रदेश संगठन में खेमेबंदी को और बढ़ावा देने वाली साबित हो सकती है. कांग्रेस के एक मौजूदा विधायक इस बारे में कहते हैं कि पटेल की नियुक्ति से संगठन के उन नेताओं में भी अंदरखाने रोष महसूस किया जा सकता है जो किसी भी बड़े धड़े में नहीं बंटे हैं. नाम न छापने के आग्रह के साथ वे विधायक कहते हैं, ‘पार्टी में ऐसे कई लोग हैं जो कई सालों से ज़मीन पर सिर्फ़ संगठन के हितों के लिए काम कर रहे हैं. लेकिन उनको दरकिनार करते हुए जिस तरह साल भर पहले पार्टी में शामिल हुए हार्दिक पटेल को बड़ी जिम्मेदारी मिली है, इसने हमारे कई कार्यकर्ताओं और नेताओं को हताश और नाराज़ किया है.’ हालांकि ये विधायक आगे जोड़ते हैं कि ‘कार्यकर्ताओं की शिकायत को हाईकमान तक पहुंचा दिया गया है. जल्द ही कुछ और कार्यकारी अध्यक्षों की नियुक्ति की उम्मीद है जो अलग-अलग समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे.’

विश्लेषक इस बारे में यह भी कहते हैं कि किसी युवा नेता को आगे बढ़ाने से किसी भी संगठन को एक बड़ा फायदा यह भी होता है कि कोई खास राजनीतिक इतिहास न होने की वजह से विरोधियों की पकड़ में उनकी पुरानी ग़लतियां या कमजोरियां नहीं आ पाती हैं. लिहाजा आम तौर पर नए नेताओं को घेर पाना विरोधियों के लिए टेड़ी खीर साबित होता है. लेकिन हार्दिक पटेल के मामले में ऐसा नहीं है. वे युवा तो हैं. लेकिन ऐसे जो कई मामलों को लेकर पहले ही आलोचनाओं का सामना करते रहे हैं. उनके करीबी उन पर पाटीदार अनामत आंदोलन की आड़ में बड़ी मात्रा में धनराशि बटोरने का आरोप लगाते आए हैं.

पटेल पर यह इल्ज़ाम लग चुका है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने पाटीदार आंदोलन से जुड़े काबिल नेताओं के बजाय गलत लोगों को कांग्रेस की टिकट दिलवाने में मदद की थी. फ़िर इन चुनावों से ठीक पहले उनका एक कथित सेक्स वीडियो भी सामने आया था जिससे पाटीदार आंदोलन से जुड़े कई लोगों को धक्का लगा था. इस सब के अलावा उनके ख़िलाफ़ हार्दिक पटेल पर राजद्रोह और दंगा भड़काने जैसे मामलों में क़़रीब सत्रह मुकदमे दर्ज़ हैं जिनमें से कुछ में वे दोषी भी साबित हो चुके हैं.

गुजरात के राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा बहुत आम है कि लगातार डेढ़ दशक से राज्य की सत्ता में रहने के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने प्रदेश कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं के कच्चे-चिठ्ठे इकठ्ठे कर लिए हैं और इनका इस्तेमाल वह चुनावों से पहले करती है. ऐसे में कांग्रेस के कई नेता अलग-अलग तरह से चुनाव के दौरान भाजपा के लिए फ़ायदेमंद ही साबित होते हैं. आरक्षण आंदोलन के दौरान हार्दिक पटेल के बेहद करीबी सहयोगी रहे एक अन्य युवा पाटीदार नेता इस बारे में घुमाकर कहते हैं कि ‘बहुत कम समय में ही हार्दिक इतनी ग़लतियां कर चुका है जो उसे जिंदगी भर राजनैतिक दलों की कठपुतलियां बनाकर रखने के लिए काफ़ी हैं. विधानसभा चुनाव से पहले जो देखने को मिला वह तो ये मान लो कि कुछ भी नहीं था.’

हार्दिक पटेल की राजनीति पर शुरुआत से नज़र रख रहे गुजरात के एक वरिष्ठ पत्रकार हमें बताते हैं कि ‘वो समय दूसरा था जब हार्दिक के पास खोने के लिए कुछ नहीं था. तब मध्यमवर्ग से ताल्लुक रखने वाला ये लड़का किसी सरकार से नहीं डरता था. लेकिन आज उसके पास खोने के लिए बहुत कुछ है. सार्वजनिक मंच से वो चाहे जो कहे, लेकिन अब उसमें वो धार नहीं रही है.’ फ़िर हार्दिक पटेल को करीब से जानने वाले उन्हें जबरदस्त महत्वाकांक्षी भी बताते हैं. आरक्षण आंदोलन में उनके सहयोगी रहे अधिकतर लोगों की शिकायत है कि ये हार्दिक की महत्वाकांक्षाएं ही थीं जिन्होंने पाटीदार आंदोलन को कुंद कर दिया. यदि इन लोगों के आरोपों को सही मानें तो देखने वाली बात यह होगी कि कांग्रेस की उम्मीदों पर हार्दिक पटेल कितना खरा उतरते हैं और हार्दिक की महत्वाकांक्षाओं को कांग्रेस कितना पूरा कर पाती है.(satyagrah)

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