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बिहार चुनाव: चिराग़ पासवान कैसे आगे बढ़ाएंगे पिता की राजनीतिक पूँजी
11-Nov-2020 9:09 AM
बिहार चुनाव: चिराग़ पासवान कैसे आगे बढ़ाएंगे पिता की राजनीतिक पूँजी

- अनंत प्रकाश

चिराग पासवान को इस चुनाव से क्या मिला? ये एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब देना थोड़ा मुश्किल है. विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को सिर्फ़ एक सीट ही नसीब हुई है.

दिवंगत पिता रामविलास पासवान की बनाई लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) ने 147 विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. लेकिन जीत उन्हें एक ही सीट पर मिली है. सियासी उठापटक में इस बार चिराग पासवान नाकाम नज़र आ रहे हैं.

चुनाव से पहले तक एनडीए में शामिल रही एलजेपी ने नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला था लेकिन अब एनडीए के पास स्पष्ट बहुमत है और नीतीश उनके मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार.

चिराग ने भले ही बीजेपी नेताओं के ख़िलाफ़ ज़्यादा कुछ न कहा हो लेकिन राघोपुर जैसी वीवीआईपी सीट पर बीजेपी ने तेजस्वी यादव की टक्कर में सतीश कुमार को चुनाव मैदान में उतारा लेकिन लोजपा ने भी एक ठाकुर उम्मीदवार राकेश रोशन को टिकट दिया.

हालांकि राघोपुर से तेजस्वी विजेता हैं.

लेकिन क्या इन नतीज़ों को चिराग पासवान के लिए भला कहा जा सकता है? क्या चिराग अपने पिता रामविलास पासवान की सौंपी हुई विरासत को आगे ले जा पाए हैं?

रील से रियल लाइफ़ तक चिराग

उनकी ज़िंदगी का पहला सपना बिहार और राजनीति से बहुत दूर फ़िल्मी दुनिया में अपनी जगह बनाना था. बकौल चिराग, उन्होंने मुंबई में कई डांस और एक्टिंग की ट्रेनिंग भी ली थी. चिराग ने एमिटी यूनिवर्सिटी से बीटेक कोर्स में दाखिला ले लिया लेकिन सिनेमा के पर्दे का आकर्षण इतना मजबूत था कि चिराग ने बीटेक की पढ़ाई अधूरी छोड़ दी.

4 जुलाई 2011 को उनकी एक फ़िल्म रिलीज़ भी हुई जिसका नाम था 'मिले न मिलें हम', फ़िल्म में उनकी हीरोइन कंगना रनौत थीं. फ़िल्म को स्टार कास्ट के लिहाज से मजबूत माना जा रहा था, क्योंकि कंगना तब तक तनु वेड्स मनु से ख़ासी मशहूर हो चुकी थीं.

पिता राम विलास पासवान और माँ रीना शर्मा पासवान भी फ़िल्म के प्रमोशन में शामिल थे. उस दौर की एक तस्वीर काफ़ी लोकप्रिय है जिसमें चिराग पासवान के पिता राम विलास पासवान, माँ रीना पासवान और कंगना रनौत एक ही फ्रेम में खड़े दिखाई देते हैं लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद ये फ़िल्म बुरी तरह फ़्लॉप हुई.

लेकिन कहा जाता है कि ग़लती करने के बाद कुछ लोग ज़्यादा समझदार हो जाते हैं. संभवत: चिराग ने एक फ़्लॉप फिल्म से ही सीख ले ली कि फ़िल्म इंडस्ट्री उनके लिए नहीं है. संभव है कि एक फ़्लॉप फ़िल्म के अनुभव ने एक राजनेता के रूप में उन्हें अंदर से मजबूत किया.

इसके संकेत उनके एक इंटरव्यू में मिलते हैं. इस इंटरव्यू में जब उन्हें बताया जाता है कि पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी उनकी फ़िल्म के प्रीमियर में पहुँचे थे. इस पर चिराग हंसते हुए जवाब देते हैं, "ये उनकी हिम्मत थी कि वे गए."

पहला दाँव ही सुपरहिट

2014 में चिराग ने अपने राजनीतिक जीवन का ऐसा दाँव खेला जिसने उन्हें राजनीतिक जीवन में बेहतरीन शुरुआत दी. ये फ़ैसला था अपने पिता यानी राम विलास पासवान को एक बार फिर एनडीए में शामिल होने के लिए मनाना.

ये एक ऐसा काम था जो कि राजनीतिक और व्यक्तिगत रूप से भी काफ़ी मुश्किल था क्योंकि राष्ट्रीय राजनीति में दलितों के लोकप्रिय नेता कहे जाने वाले राम विलास पासवान ने साल 2002 में गुजरात दंगों के बाद एनडीए को छोड़ने का फ़ैसला किया था.

और राम विलास पासवान की तत्कालीन गुजरात सीएम यानी नरेंद्र मोदी को लेकर राय स्पष्ट थी. टाइम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक़, साल 2012 में राम विलास पासवान ने कहा था कि 'गुजरात दंगों में मोदी की भूमिका स्पष्ट है.'

लेकिन राम विलास पासवान के इतने मजबूत स्टैंड के बावजूद चिराग अपनी पार्टी को एनडीए की ओर मोड़ने में कामयाब हो गए. इसके बाद एनडीए ने पूरी ताक़त के साथ सत्ता में वापसी की. चिराग पासवान पहली बार बिहार की जमुई सीट से सांसद बने.

राम विलास पासवान केंद्रीय मंत्री बने और एलजेपी के छह नेता सांसद बनकर संसद भवन पहुँचे. एनडीए के साथ जाने की बात मानकर एलजेपी को जो कुछ हासिल हुआ उससे चिराग का धाक जम गई.

वरिष्ठ पत्रकार लव कुमार मिश्रा रामविलास पासवान के अंतिम वर्षों की राजनीति पर चिराग के असर को रेखांकित करते हुए एक किस्सा सुनाते हैं. लव कुमार कहते हैं, "साल 2014 में रामविलास पासवान जी ने एक दिन अपने श्रीकृष्णापुरी वाले आवास पर नाश्ते के लिए बुलाया. उस वक़्त रामविलास जी एनडीए में पावरफुल नहीं हुए थे क्योंकि कांग्रेस छोड़कर इधर आए ही थे. इस मुलाक़ात पर मैंने उनसे पूछा कि आप क्यों अलग हो गए कांग्रेस से. सोनिया गाँधी जी तो पैदल चलकर भी गईं थीं, आपको मनाने के लिए."

"इस पर रामविलास जी बोले कि 'वो मेरा डिसिज़न नहीं था, चिराग का फ़ैसला था. चिराग ने राहुल गाँधी को दस बार फ़ोन किया कि हमको कितना सीट दीजिएगा, इस पर बैठकर बात करना है लेकिन राहुल गाँधी ने कोई रिस्पॉन्स नहीं दिया. तो एक दिन उसने रात में मुझको बताया कि ये अभी हमें इतना नज़रअंदाज़ कर रहे हैं, बाद में क्या करेंगे."

महानगरीय नेता की छवि

चिराग पासवान को पहली नज़र में देखें तो ऐसा लगता है कि दिल्ली और बेंगलुरु जैसे किसी शहर का युवा नेता आपके सामने आ गया हो. कुर्ते के साथ जींस पहनने का अंदाज़, दिन में कई-कई बार कपड़े बदलने की आदत और दिल्ली वाले अंदाज़ में बातचीत करना.

ये सब वो बाते हैं जो दिल्ली के टीवी स्टूडियो में बैठकर बात करने वाले किसी प्रवक्ता को आगे बढ़ा सकती हैं लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति में सफल होने के लिए खांटी देसी अंदाज़ की ज़रूरत पड़ती है.

चिराग की राजनीति को क़रीब से देखने वाले कहते हैं कि उनकी भाषा में बिहारी महक, संवेदनशीलता और अपनापन नहीं है, वे दिल्ली मुंबई की राजनीति करने वाले किसी नेता जैसे सुनाई पड़ते हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बिहार के समाज में वे अपने पिता की तरह मजबूत जगह बना पाएंगे.

लव कुमार मिश्रा इस सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं, "आप चिराग को देखें तो नीचे रहेगी जींस और ऊपर होगा कुर्ता, इसके ठीक उलट हैं तेजस्वी यादव. वह कुर्ता पायजामा और गमछे के साथ नज़र आते हैं. चिराग जहां जाएंगे, वहां लोगों से दूरी बनाकर बैठते हैं. वहीं, तेजस्वी में ये बात नहीं है. पब्लिक मीटिंग में भी वह लोगों को अपने मंच के पास बुला लेते हैं. और देर से सोकर उठने की आदत है. जो पहले तेजस्वी की भी थी लेकिन अब वे 9 बजे उठकर चले जाते हैं, चुनाव प्रचार पर. एक और बात ये है कि तेजस्वी कई लोगों को पहचानते हैं. वहीं चिराग ज़्यादा लोगों को जानते नहीं हैं. यही नहीं, अपने परिवार में भी सभी से इनके संबंध मधुर नहीं हैं. इनके चाचा पशुपति नाथ पारस रामविलास जी के श्राद्ध के बाद से घर नहीं गए हैं. इस मामले में चिराग अपने पिता से भी अलग हैं क्योंकि राम विलास जी भी सभी को साथ लेकर चलते थे."

"इसके साथ ही चिराग में अनुभव और मेच्योरिटी की कमी है और सबसे अहम बात है कि बिहारी अंदाज़ नहीं है उनमें. और बिहार की राजनीति के लिए स्थानीय भाषा में बात करना बेहद ज़रूरी है. ये दिल्ली की राजनीति नहीं है, टाउन की. यहां गाँव देहात में जाएंगे तो दादा दादी, चाचा चाची करना ही पड़ेगा. उन्हीं की भाषा में बोलना पड़ेगा, उन्हीं की खटिया पर बैठकर खाना पड़ेगा. चिराग ये सब नहीं कर पाते हैं. रामविलास जी ठीक इसके उलट थे. उन्हें अगर कोई पत्रकार अपने यहां छठी में भी बुला लेता था तो चले जाते थे. कोई शिकायत करता था कि आप हमारे यहां तिलक में नहीं आए तो वह अगले दिन ही पहुंच जाते थे. ऐसे में व्यक्तिगत संबंध स्थापित करने को लेकर चिराग में अनुभव की कमी है."

रामविलास पासवान के संबंधों की बात करें तो उनके हर पार्टी में दोस्त हुआ करते थे. राजनीतिक दल ही नहीं, उनके कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी में हर जगह उनको जानने वाले लोग हुआ करते थे. खाट पर बैठकर दलितों की राजनीति करने से लेकर वे अपने स्टाइल के लिए जाने जाते थे.

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अपनी स्टाइल के लिए चर्चा में आने वाले चिराग पासवान संवेदनशील होकर बिहार और भारत के दलित समाज के नेता बन पाएंगे. या सरल शब्दों में कहें तो क्या चिराग पासवान अपने पिता की दी हुई विरासत को और समृद्ध कर पाएंगे?

बिहार के दोनों राजनीतिक परिवारों से निकले तेजस्वी यादव और चिराग पासवान के सामने अपनी विरासत को समृद्ध करने की चुनौती है. लेकिन चिराग पासवान के सामने एक बड़ी चुनौती तेज़ी से बदलती ज़मीनी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपने पिता की छोड़ी हुई राजनीतिक पूँजी को आगे बढ़ाना है.

राजनीतिक विरासत का बोझ

राम विलास पासवान भले ही 1996 के बाद से लेकर 2020 तक किसी न किसी सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे हों लेकिन बिहार की राजनीति में वे हमेशा लालू और नीतीश के बाद तीसरे नंबर पर ही गिने गए. इसकी वजह उनकी पार्टी का राजनीतिक कद और वोट शेयर रहा है.

साल 2005 में भले ही रामविलास पासवान ने लालू को सत्ता से बाहर कर दिया हो लेकिन वे कभी भी खुद अपने दम पर सत्ता में आने जितना समर्थन नहीं जुटा सके. अब रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान जात की जगह जमात की बात करते नज़र आते हैं.

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या उनका ये दाँव एलजेपी का जनाधार बढ़ाएगा.

वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद बताते हैं, "बिहार में दलितों की डेमोग्राफ़ी थोड़ी अलग है. उत्तर प्रदेश में मायावती को एक फायदा मिल गया तो उनकी राजनीति हो गई. वहां 21.3 फ़ीसद दलित हैं. इसमें से 14 फ़ीसद रविदासी हैं जो कि बहुत बड़ा तबका है. ऐसे में वह कभी ब्राह्मणों से तो कभी मुसलमानों से समर्थन लेकर सत्ता में आ गईं. राम विलास के साथ में 15 से 16 फ़ीसद दलित हैं. इसमें से पासवान मात्र 5 से 6 फ़ीसद हैं. और यहां बिहार में रविदास जाति सामान्यत: इनके साथ नहीं आते हैं. मुसहर जाति जीतन राम माँझी के साथ जाती है. ऐसे में दलित उपजातियों में लोजपा की पकड़ नहीं है. ऐसे में अन्य जातियों पर पकड़ रामविलास भी नहीं बना पाए थे और संभवत: ये भी नहीं बना पाएंगे."

राजनीतिक समझ

चिराग पासवान किसी समझदार और अनुभवी नेताओं की तरह भविष्य की संभावनाओं से इनकार करते हुए नज़र नहीं आते हैं.

राहुल गाँधी से लेकर तेजस्वी यादव और बीजेपी के शीर्ष नेताओं मोदी, शाह और नड्डा के प्रति किसी तरह का द्वैष नहीं ज़ाहिर करते हैं लेकिन जब ज़मीनी राजनीति की बात आती है तो चिराग पासवान अपनी ही पार्टी से बीजेपी के बाग़ी नेताओं को एलजेपी का टिकट सौंप देते हैं.

सुरूर अहमद बताते हैं, "बिहार में बीजेपी तीन भागों में बंटती दिख रही है. एक धड़ा सुशील मोदी के नेतृत्व में काम कर रहा है, ये चाहता है कि कह रहे हैं कि नीतीश सत्ता से चिपके हुए हैं, पार्टी को बर्बाद कर दिया है. दूसरा धड़ा है-गिरिराज़ सिंह और अश्विनी चौबे जैसे लोगों का जो केंद्र में हैं. ये तबका भी नीतीश को अब बर्दाश्त नहीं करना चाहता. अब बात आती है तीसरे धड़े की. ये वो धड़ा है जिसे टिकट ही नहीं मिल पाए, और इनमें काफ़ी सम्मानित लोग जैसे राजेंद्र सिंह, रामेश्वर चौरसिया. ये वो बड़े बड़े लोग थे जो आरएसएस में तीस-तीस पैंतीस-पैंतीस साल रहे. पिछले बार उन्हें मुख्यमंत्री पद का दावेदार बना दिया गया. अब ये जो आख़िरी धड़ा था, ये लोजपा में चला गया."

चिराग जहां वे अपने मंचों से नीतीश पर निशाना साध रहे थे, वहीं इंटरव्यू में पीएम मोदी की तारीफ़ कर रहे थे.

दस नवंबर को मिलेंगे कितने अंक

चिराग पासवान बार-बार हर इंटरव्यू में दावा कर रहे हैं कि इस चुनाव में अकेले लड़ने का सपना उनके पिता ने देखने को कहा था. वे कहते हैं कि राम विलास जी कहा करते थे कि जब वो 2005 में ये कर सकते थे तो वह 2020 में क्यों नहीं करते, वे तो अभी काफ़ी युवा हैं.

वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर मानते हैं कि इस चुनाव के रास्ते चिराग एलजेपी के जनाधार को दलित से आगे बढ़कर दूसरे तबकों तक पहुंचाना चाहते हैं.

वे कहते हैं, "चिराग पासवान का जो रुख दिख रहा है, उससे ऐसा लगता है कि वह अपनी पार्टी का जनाधार सभी जातियों, समाजों में बढ़ाना चाहते हैं. वह एक युवा नेता के रूप में अपनी संभावना देख रहे हैं क्योंकि बिहार में उभरते हुए युवा नेता अभी सिर्फ तेजस्वी यादव हैं. तेजस्वी लालू यादव परिवार से आते हैं तो चिराग पासवान परिवार से आते हैं. और बिहार की जनता को लग रहा है कि ये दोनों युवा नेता बिहार की राजनीति में नई पीढ़ी के लिए जो खाली जगह है, उसे भरना चाहते हैं. इन दोनों नेताओं को भी बिहार में अपना एक राजनीतिक भविष्य दिख रहा है. और इस चुनाव ने एक कैटेलिस्ट की भूमिका निभाई है."

चिराग का दावा था कि जब दस नवंबर को चुनाव नतीजे आएंगे तो उनकी पार्टी सामान्य से ज़्यादा वोट प्रतिशत हासिल करेगी. लेकिन इन चुनावों में भी लोक जनशक्ति पार्टी छह फ़ीसद वोट शेयर पर सिमटती दिख रही है.

मगर लव कुमार की मानें तो चिराग भले ही अपने पिता की दी हुई विरासत को आगे न बढ़ा पाए हों लेकिन उन्होंने पिता की विरासत को संभाल ज़रूर लिया है. वे कहते हैं, "समझने की बात ये है कि चिराग ने नीतीश कुमार को नुकसान पहुंचाने की बात कही थी. और वह ये करने में सक्षम हो गए हैं."

साल 2015 में महागठबंधन के साथ लड़ने वाली जदयू ने 71 सीटों पर जीत हासिल की थी लेकिन इस बार एनडीए के साथ लड़ने वाली जदयू 71 का आँकड़ा छूती नहीं दिख रही है. लेकिन एक सवाल रह जाता है कि इक्का-दुक्का सीटें हासिल करके चिराग पासवान अगले पाँच साल तक अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता को कैसे बचाकर रख पाएंगे.

इस सवाल के जवाब में लव कुमार बताते हैं कि "चिराग ने ये कभी नहीं कहा है कि उन्होंने दिल्ली में एनडीए छोड़ी है, ऐसे में वह दिल्ली में अपनी संभावनाएँ तलाश सकते हैं."

लेकिन इन चुनावी नतीजों से इतना साफ़ है कि अब वो सिर्फ राम विलास पासवान के बेटे नहीं हैं बल्कि बिहार में खड़े होकर नीतीश कुमार को सीधे निशाने पर लेने वाले युवा नेता की छवि बना चुके हैं.(bbc)

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