विचार / लेख
-मणिकांत ठाकुर
तेजस्वी यादव बिहार में सरकार नहीं बना सके, यह तो ज़ाहिर है. लेकिन कई मायनों में तेजस्वी ने राष्ट्रीय जनता दल को नई ताक़त दी है, नया भरोसा दिया है. लेकिन उनके कई फ़ैसलों पर सवाल भी उठे हैं.
तेजस्वी की कुछ रणनीतियाँ उनके ख़िलाफ़ भी गई हैं. इन सबके बीच अब उनकी अनुभवहीनता की नहीं, कड़ी मेहनत के बूते विकसित संभावनाओं वाली नेतृत्व-क्षमता की चर्चा हो रही है. चुनाव परिणाम भी यही बताते हैं कि 'महागठबंधन' को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सामने मज़बूती से खड़ा कर देने में उन्होंने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है.
राज्य की सत्ता पर डेढ़ दशक से क़ब्ज़ा बनाए हुए नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के सामने सबसे बड़े दल के रूप में आरजेडी को जगह दिलाना कोई आसान काम नहीं था.
वो भी तब, जब उनके पिता और आरजेडी के सर्वेसर्वा लालू यादव जेल में हों और परिवारवाद से लेकर 'जंगलराज' तक के ढेर सारे आरोपों से उन्हें जूझना पड़ रहा हो.
ऐसी सूरत में 31 साल के तेजस्वी की सराहना उनके सियासी विरोधी भी खुलकर न सही, मन-ही-मन ज़रूर कर रहे होंगे.
तेजस्वी ने मोड़ा चुनाव अभियान का रूख़
सबसे बड़ी बात कि जातिवादी, सांप्रदायिक और आपराधिक चरित्र के राजनीतिक माहौल में लड़े जाने वाले चुनाव को जन सरोकार से जुड़े मुद्दों की तरफ़ मोड़ने में तेजस्वी पूरी कोशिश करते दिखे.
इस कोशिश में वह कम-से-कम इस हद तक तो कामयाब ज़रूर हुए कि बेरोज़गारी, शिक्षा/चिकित्सा-व्यवस्था की बदहाली, श्रमिक-पलायन और बढ़ते भ्रष्टाचार के सवालों से यहाँ का सत्ताधारी गठबंधन बुरी तरह घिरा हुआ नज़र आया.
बार-बार पुराने लालू-राबड़ी राज के कथित जंगलराज और उसके 'युवराज' की रट लगाने में भाषाई मर्यादा की सीमाएँ लांघी गई. व्यक्तिगत आक्षेप करने में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तो आगे रहे ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी तेजस्वी पर हमलावर हुए.
इतने आक्रामक उकसावे पर भी तेजस्वी यादव का उत्तेजित न होना, संयम नहीं खोना और 'गालियों' को भी आशीर्वाद कह कर टाल देना, उनके प्रति लोगों में सराहना का भाव पैदा कर गया.
ख़ासकर जब तेजस्वी अपने तूफ़ानी प्रचार अभियान के दौरान '10 लाख सरकारी नौकरी' समेत कई समसामयिक मसलों से जुड़े मुद्दों वाला चुनावी एजेंडा सेट करने लगे थे, तो सत्तापक्ष की चिंता काफ़ी बढ़ने लगी थी.
इसके अलावा तेजस्वी की चुनावी सभाओं में भीड़ भी ख़ूब उमड़ी और इसने सत्ता पक्ष में चिंता भी पैदा कर दी थी.
पूरे प्रचार के दौरान तेजस्वी का जाति और धर्म से ऊपर उठकर सबको जोड़ने जैसी बातें करना और 'मुस्लिम-यादव जनाधार' पर लंबे समय तक टिकी लालू-राजनीति से थोड़ा बाहर निकल कर व्यापक सोच में उतरना, तेजस्वी को एक अलग पहचान दे गया है.
वो चूक जिसके कारण सत्ता तक नहीं पहुंच सके
बेतरीन तरीक़े से चुनाव लड़ने के इतर तेजस्वी से कुछ ऐसी चूकें भी हुई हैं, जो 'महागठबंधन' को सत्ता तक पहुँचने में बाधक साबित हुईं. ख़ासकर कांग्रेस के दबाव में आ कर उसे 70 सीटों पर उम्मीदवारी देने के लिए राज़ी हो जाना, उनकी सबसे बड़ी चूक मानी जा रही है.
इस बाबत आरजेडी ने दबे-छिपे अंदाज़ में ही सही, अपनी जो विवशता ज़ाहिर की है, वो यह है कि कांग्रेस मनचाही संख्या में सीटें नहीं दिए जाने की स्थिति में 'महागठबंधन' से अलग हो जाने तक का संकेत देने लगी थी.
इतना ही नहीं, जेडीयू अध्यक्ष नीतीश कुमार से भी कांग्रेस के संपर्क-सूत्र बन जाने और चुनाव परिणाम के बाद समीकरण बदलने तक की चर्चा सरेआम होने लगी थी.
दूसरी वजह यह भी थी, कि जीतनराम माँझी, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी से जुड़ी पार्टियों को 'महागठबंधन' से जोड़े रखना जब संभव नहीं रहा, तब कांग्रेस को किसी भी सूरत में साथ रखना तेजस्वी की विवशता बन गई. ऐसा नहीं होता, तो मुस्लिम मतों में कुछ विभाजन और सवर्ण मतों की उम्मीद घट जाने की आशंका थी.
दूसरी कमज़ोरी यह मानी जा रही है कि 'महागठबंधन' ने उत्तर बिहार में अति पिछड़ी जातियों (पचपनिया कहे जाने वाले वोटबैंक) के बीच एनडीए की गहरी पैठ को उखाड़ने या कम करने संबंधी कोई कारगर प्रयास नहीं किया. सिर्फ़ इस समुदाय के लिए चुनावी टिकट देने में थोड़ी उदारता दिखा कर तेजस्वी निश्चिंत से हो गए.
उधर सीमांचल में उम्मीदवार चयन को लेकर आरजेडी पर कई सवाल उठे और वहाँ मुस्लिम समाज में इस नाराज़गी का फ़ायदा असदुद्दीन ओवैसी ने उठाया. दूसरी बात ये भी कि 'जंगलराज' की वापसी जैसा ख़ौफ़ पैदा करने वाले प्रचार का पूरी प्रखरता के साथ प्रतिकार करने में तेजस्वी कामयाब नहीं हो सके.
वैसे तो कमोबेश हरेक दल आपराधिक छवि वालों को चुनाव में उम्मीदवार बनाने का दोषी रहा है, फिर भी आरजेडी पर ऐसे दोषारोपण ज़्यादा होने के ठोस कारण साफ़ दिख जाते हैं. इस बार तेजस्वी भी दाग़ी छवि वालों को, या उनके रिश्तेदारों को उम्मीदवार बनाने के दबाव से मुक्त नहीं रह सके. तो आरजेडी को स्वीकार करने वालों की तादाद बढ़ाने में तेजस्वी को मुश्किलें होंगी ही.
क्या होगी आगे की राह
अब सवाल उठता है कि राज्य में सत्ता-शीर्ष तक पहुँचने से कुछ ही क़दम दूर रह जाने वाले इस युवा नेता की दशा-दिशा क्या होने वाली है. इसका जवाब ज़ाहिर तौर पर यही है कि तेजस्वी यादव अपनी पार्टी को बिहार की राजनीति में आगे बढ़ाने को तैयार दिख रहे हैं.
लालू यादव ने पिछले विधानसभा चुनाव में जेडीयू नेता नीतीश कुमार के साथ एक मज़बूत गठबंधन में रहते हुए 80 सीटों के साथ आरजेडी को सत्ता तक पहुँचाया था. तब सियासी हालात उनके बहुत अनुकूल इसलिए भी बने, क्योंकि नीतीश कुमार के तैयार किए हुए वोट बैंक भी उनके काम आ रहे थे.
अब ऐसा भी नहीं लग रहा कि लालू यादव के सहारे के बिना तेजस्वी अपनी सियासत को मज़बूती दे पाने में समर्थ नहीं हैं. अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते हुए उन्होंने यहाँ सत्ताधारी गठबंधन को अकेले अपनी मेहनत और सूझबूझ से कड़ी टक्कर दी है. ये यही दिखाता है कि आगे भी बिहार में बीजेपी की मौजूदा बढ़त को तेजस्वी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल से ही चुनौती मिल सकती है.
अपने 'महागठबंधन' से जुड़े वामदलों को जिस कुशलता के साथ तेजस्वी ने जोड़ कर रखा, उसका चुनाव में आरजेडी और वामदल, दोनों को लाभ हुआ. इसलिए ऐसा लगता है कि आगे भी यह रिश्ता दोनों निभाना चाहेंगे. लेकिन कांग्रेस और आरजेडी के रिश्ते में ज़रूर दरार आई है.
एक बात और ग़ौरतलब है कि लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के अध्यक्ष चिराग़ पासवान अगर और उभर कर बिहार की राजनीति में असरदार बने, तो यह तेजस्वी के लिए भी एक चुनौतीपूर्ण स्थिति होगी. ख़ासकर इसलिए, क्योंकि दलित वर्ग से आरजेडी में कोई असरदार नेतृत्व अभी भी नहीं है.
दूसरी बात कि चिराग़ भी युवा हैं और उन्होंने बिहार में अपनी राजनीतिक ज़मीन को दलित-दायरे से निकाल कर विस्तार देने वाली भूमिका बाँध चुके हैं. दोनों एकसाथ भी नहीं आ सकते, क्योंकि नेतृत्व और वर्चस्व की चाहत आड़े आ जाएगी.
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि इस चुनाव-परिणाम ने तेजस्वी को सत्ता-प्राप्ति के बिल्कुल क़रीब ले जाकर मौक़ा चूक जाने का सदमा तो दिया है, लेकिन उनके लिए अवसर ख़त्म हो गए हैं, ऐसा भी नहीं है. इसी में उनके लिए संभावना भी छिपी हो सकती है. (bbc.com/hindi)