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जम्मू कश्मीर : परिसीमन आयोग के दौरे पर टिकी निगाहें
06-Jul-2021 9:42 AM
जम्मू कश्मीर : परिसीमन आयोग के दौरे पर टिकी निगाहें

मोदी के साथ हुई बैठक की तस्वीरइमेज स्रोत,PIB

-मोहित कंधारी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हाल ही में जम्मू-कश्मीर के नेताओं के साथ हुई सर्वदलीय बैठक के बाद से ही परिसीमन आयोग लगातार चर्चा में बना हुआ है.

जम्मू-कश्मीर के सियासी दलों के साथ-साथ आम जनता का ध्यान भी परिसीमन आयोग के छह जुलाई से शुरू होने वाले चार दिवसीय दौरे पर टिका हुआ है.

न्यायमूर्ति (रिटायर्ड) रंजना प्रकाश देसाई की अगुवाई में आयोग पहले दो दिन कश्मीर संभाग और अगले दो दिन जम्मू संभाग में रहेगा.

केंद्र सरकार ने मार्च 2020 में सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जज रंजना प्रकाश देसाई के नेतृत्व में परिसीमन आयोग का गठन किया था. पूर्व जज रंजना प्रकाश देसाई के अलावा चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा और जम्मू-कश्मीर के चुनाव आयुक्त केके शर्मा इस परिसीमन आयोग के सदस्य हैं.

राज्य में 1991 में जनगणना नहीं हुई थी. इस वजह से 1996 के चुनावों के लिए 1981 की जनगणना को आधार बनाकर सीटों का निर्धारण हुआ था.

जम्मू-कश्मीर में परिसीमन जम्मू-कश्मीर रीऑर्गेनाइजेशन एक्ट के प्रावधानों के तहत होगा. इसे अगस्त 2019 में संसद ने पारित किया था. इसमें अनुसूचित जनजाति के लिए सीटें बढ़ाने की बात भी कही गई है.

परिसीमन की तैयारियां
परिसीमन आयोग ने जून महीने में जम्मू-कश्मीर के 20 ज़िला अधिकारियों को पत्र लिख कर उनसे 18 बिंदुओं पर जानकारी माँगी थी.

इसमें टोपोग्राफ़िक सूचना, डेमोग्राफ़िक पैटर्न और प्रशासनिक चुनौतियां शामिल हैं. यह जानकारी महत्वपूर्ण है क्योंकि कमीशन ख़ानाबदोश समुदायों की जनसंख्या देखना चाहता है, जिसके आधार पर रिज़र्व सीटें तय होंगी.

फ़रवरी 2021 में परिसीमन आयोग ने प्रक्रिया पर पहली बैठक बुलाई थी. पर पाँच में से दो सदस्य ही शामिल हुए थे. केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह और भाजपा सांसद जुगल किशोर शर्मा तो बैठक में आए थे, पर अन्य सदस्यों ने दूरी बना ली थी.

नेशनल कॉन्फ्रेंस के सांसद और पार्टी चीफ़ फ़ारूक़ अब्दुल्लाह ने उस समय कहा था कि उन्होंने JKRA को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है और जब तक सुनवाई पूरी नहीं हो जाती, तब तक वे परिसीमन की प्रक्रिया में शामिल नहीं होंगे.

अब्दुल्ला के साथ-साथ नेशनल कॉन्फ्रेंस के सांसद मोहम्मद अकबर लोन और हसनैन मसूदी भी इस पैनल के सदस्य हैं. लेकिन दिल्ली में 24 जून की बैठक के बाद नेशनल कॉन्फ़्रेंस ने कहा है कि वो परिसीमन की प्रक्रिया में हिस्सा लेंगे.

कोविड महामारी की वजह से पिछले साल परिसीमन आयोग अपना काम शुरू नहीं कर पाया था इसलिए सरकार ने उन्हें इसी साल मार्च में एक साल का एक्सटेंशन दिया है और परिसीमन की प्रक्रिया को पूरा करने के आदेश जारी किये हैं.

इस दौरान आयोग के सदस्य विभिन्न राजनीतिक दलों के नुमाइंदों और प्रशासनिक अधिकारियों के साथ बैठक करेंगे और उनसे उनके सुझावों पर चर्चा करेंगे.

कश्मीर घाटी की तुलना में जम्मू संभाग में इस दौरे को लेकर बड़ी उम्मीदें जगी हैं.

परिसीमन के बाद सीटों की संख्या बदलेगी
परिसीमन होने के बाद विधानसभा सीटों की संख्या और क्षेत्र में परिवर्तन होना तो तय है लेकिन लोगों को इस बात की चिंता है कि आख़िर क्या बदलाव होंगे.

जम्मू-कश्मीर में आख़िरी परिसीमन साल 1995 में हुआ था.

फ़िलहाल जम्मू-कश्मीर विधानसभा में 83 सीटें हैं जिनमें 37 सीटें जम्मू क्षेत्र में और 46 सीटें कश्मीर क्षेत्र में आती हैं. इसके साथ ही 24 सीटें पाक प्रशासित कश्मीर के लिए भी आरक्षित हैं.

ऐसे में राजनीतिक दल ही नहीं केंद्र शासित प्रदेश की जनता भी इस मामले को बड़ी उत्सुकता से देख रही है और अंतिम रिपोर्ट का इंतज़ार कर रही है.

परिसीमन की पूरी प्रक्रिया समाप्त होने के बाद उम्मीद है कि जम्मू कश्मीर में विधान सभा के चुनाव करवाने के लिए रास्ता साफ़ हो जाएगा.

प्रक्रिया की गंभीरता
इसी वजह से हर सियासी दल इस आयोग की कार्यवाही को बड़ी गंभीरता से ले रहा है. हालाँकि अभी यह साफ़ नहीं है कि परिसीमन आयोग से मिलने कश्मीर घाटी में कौन-कौन से सियासी दल अपना प्रतिनिधि मंडल भेजेंगे.

उम्मीद है कि नेशनल कांफ्रेंस, जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी, पीपल्स कांफ्रेंस के सदस्य अपना पक्ष रखने के लिए आयोग के सदस्यों से मुलाक़ात ज़रूर करेंगे लेकिन महबूबा मुफ़्ती ने अभी अपनी पार्टी का रुख़ साफ़ नहीं किया है.

आयोग से मिलने का अंतिम फ़ैसला उन्हें ख़ुद करना है.

इस बीच जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रीय दलों के नेता भी आयोग के सामने पेश होंगे और अपने सुझाव प्रस्तुत करेंगे.

उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा ने कहा है कि जिसका लोकतंत्र में विश्वास है और जो विधानसभा चुनाव चाहते हैं वो निश्चित रूप से इस प्रक्रिया में शामिल होंगे.

आम लोगों की क्या है राय?
लेकिन अगर बात जम्मू और कश्मीर के आम नागरिकों की करें तो कश्मीर घाटी में बड़ी संख्या में लोगों का मानना है कि जब धारा 370 के निरस्त होने के बाद से राज्य का विशेष दर्जा ही समाप्त हो गया फिर ये परिसीमन आयोग विधान सभा की सीटों का बंटवारा कर के क्या हासिल करना चाहता है.

उनके मन में इस बात को लेकर भी शक पैदा हो रहा है कि जब पूरे देश में परिसीमन की प्रक्रिया 2026 में होने वाली है फिर जम्मू-कश्मीर को उससे अलग क्यों किया गया है.

जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह भी कई बार यह सवाल उठा चुके हैं.

इसी सवाल के जवाब में जम्मू में कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता रविंदर शर्मा ने बीबीसी हिंदी से कहा, "जब पूरे देश में परिसीमन पर 2026 तक रोक लगी है फिर क्या वजह है कि सरकार जम्मू कश्मीर में अलग से परिसीमन करवाने पर ज़ोर दे रही है."

उन्होंने 24 जून को दिल्ली में प्रधानमंत्री द्वारा आयोजित सर्वदलीय बैठक का हवाला देते हुए बताया कि जम्मू कश्मीर के नेताओं ने सर्वदलीय बैठक में भी यही सवाल उठाया था.

शर्मा के अनुसार इस सवाल के जवाब में सरकार ने कहा था, "केंद्र शासित प्रदेश बन जाने के बाद जम्मू और कश्मीर में परिसीमन करवाना लाज़मी था. इसलिए यह निर्णय लिया गया है ताकि जम्मू कश्मीर विधान सभा से जो लद्दाख क्षेत्र की चार सीटें कम हो गईं थीं और जो महिला सदस्यों के लिए सीटें आरक्षित थीं उनका भी हिसाब पूरा करना था."

कश्मीर में लंबे समय से पत्रकारिता कर रहे हारून रशीद ने बीबीसी हिंदी से बातचीत में बताया, "5 अगस्त 2019 को जिस प्रकार से जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किया गया उससे न सिर्फ़ कश्मीर घाटी में बल्कि बड़ी संख्या में जम्मू संभाग में भी लोग ख़ुश नहीं थे और अब ऐसे माहौल में परिसीमन की कार्यवाही उनके मन में शक पैदा करती है कि आख़िर अब क्या नया होने वाला है".

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परिसीमन पर सवाल
यह पूरी प्रक्रिया उसी पुनर्गठन अधिनियम के तहत है जिसके तहत अनुच्छेद 370 और 35-A रद्द कर दिया गया था और राज्य का दर्जा भी छीन लिया गया था.

हारून रशीद ने बीबीसी हिंदी को बताया कि अभी तो इस बात पर आम राय नहीं बन पाई है कि परिसीमन आयोग जनसंख्या व क्षेत्रफल के आधार पर अपनी कार्यवाही करेगा या फिर कोई और फ़ॉर्मूला लागू होगा. उनका मानना है कि परिसीमन आयोग को अपना काम संविधान के मुताबिक़ करना चाहिए न कि किसी विशेष समुदाय या इलाक़े को नज़र में रखकर इस कार्यवाही को अंजाम दिया जाना चाहिए.

परिसीमन की इस प्रक्रिया पर सिर्फ़ कश्मीर घाटी के ही लोग सवाल नहीं उठा रहे हैं, जम्मू-कश्मीर की वरिष्ठ पत्रकार और स्थानीय अख़बार की कार्यकारी सम्पादक अनुराधा भसीन भी इस पूरी प्रक्रिया पर कई सवाल उठाती हैं.

अनुराधा भसीन ने बीबीसी से कहा, "सबसे पहले बुनियादी मुद्दा ये है कि क्या इस समय परिसीमन करवाया जाना चाहिए या नहीं? पाँच अगस्त, 2019 के फ़ैसलों के आधार पर इस आयोग का गठन किया गया है, तो जब वही फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है तो सरकार को यह फ़ैसला भी नहीं लेना चाहिए था?"

अनुराधा भसीन ने बीबीसी हिंदी से कहा, "भाजपा सरकार ने 2019 के बाद जो भी नीतियां अपनाई हैं उससे साफ़ लगता है कि उनका एजेंडा बस इतना है कि किस तरह से मुस्लिम आबादी वाले जम्मू-कश्मीर में हिन्दू मेजोरिटी लागू कर दी जाए."

"उनकी महत्वाकांक्षा है कि यहाँ एक हिन्दू मुख्यमंत्री होना चाहिए. इन फ़ैसलों की वजह से कश्मीर घाटी में एक अजीब क़िस्म की घबराहट महसूस की जा रही है. घाटी के लोगों को इस बात का डर सता रहा है कि जम्मू संभाग को ज़्यादा सीटें मिलेंगी और कश्मीर को कम."

अनुराधा भसीन ने बीबीसी हिंदी से कहा भाजपा की सरकार ने अलग-अलग राज्यों के लिए अलग मापदंड अपना रखें हैं. जम्मू-कश्मीर में चुनी हुई सरकार मौजूद नहीं है. यहाँ एक डर का माहौल है, लोग खुल के बोल नहीं रहे हैं ऊपर से 2021 की जनगणना का इंतज़ार किए बिना 2011 की जनगणना के अनुसार परिसीमन की प्रक्रिया करवाना कहाँ तक जायज़ माना जाएगा.

अनुराधा भसीन कहती हैं, "अगर असम के चुनाव बिना परिसीमन के कराए जा सकते हैं तो जम्मू कश्मीर में क्यों नहीं, यहाँ किस बात की इमरजेंसी है."

क्या कहते हैं जम्मू के लोग?
जम्मू संभाग में हमेशा से यह माँग उठती रही है कि जनसंख्या और क्षेत्रफल के आधार पर जितनी सीटें जम्मू के हिस्से में आनी चाहिए थीं वो उन्हें कभी नहीं मिलीं. अब 26 सालों के बाद जब परिसीमन आयोग गठित किया गया है तो उसे 2011 कि जनसंख्या के आधार पर परिसीमन की प्रक्रिया को अंजाम देने के लिए कहा गया है. 2011 की जनगणना के अनुसार कश्मीर घाटी की जनसंख्या 68,88,475 है जबकि जम्मू की जनसंख्या 53,78,538 है.

कांग्रेस के प्रवक्ता रविंदर शर्मा भाजपा से सवाल करते हैं, "जब आप विपक्ष में थे 2011 के सेन्सस के आंकड़ों पर सवाल खड़े करते थे और अब जब केंद्र में भाजपा की सरकार क़ाबिज़ है, उन्होंने 2011 के सेन्सस के आधार पर परिसीमन करवाने के आदेश दिए हैं. ऐसे में जम्मू-कश्मीर के अलग-अलग हिस्सों को कैसे इंसाफ़ मिलेगा?"

शर्मा अपना तर्क रखते हुए कहते हैं, "सीटों का बंटवारा करने के लिए सिर्फ़ आबादी ही पैरामीटर नहीं है. इसके लिए भूभाग, आबादी, क्षेत्र की प्रकृति और पहुँच को आधार बनाया जाना चाहिए ताकि पिछड़े इलाक़ों को भी उनका हक़ मिल सके."

उन्होंने कहा कि बड़ी संख्या में जम्मू संभाग में लोग यह आरोप लगाते हैं कि कश्मीर घाटी में सत्ता का संतुलन बनाए रखने के लिए जम्मू संभाग की अनदेखी की गई है जिसके चलते दूरदराज़ के इलाक़े में रह रही आबादी को लम्बे समय तक उनके अधिकारों से वंचित रखा गया.

परिसीमन किस आधार पर?
कांग्रेस प्रवक्ता ने कहा कि सबको उनका बराबरी का हक़ मिलना चाहिए.

जम्मू में विशेषज्ञों का मानना है कि यदि निष्पक्ष परिसीमन हुआ तो सात सीटों में से अधिकतर जम्मू के खाते में जाने की संभावना नज़र आ रही है.

इसके पीछे उनका तर्क है कि सीट बढ़ाने के लिए सिर्फ़ आबादी ही पैरामीटर नहीं है. इसके लिए भूभाग, आबादी, क्षेत्र की प्रकृति और पहुँच को आधार बनाया जाएगा.

जम्मू में जानकार बताते हैं कि पूर्व की कश्मीर केंद्रित सरकारों ने कश्मीर में सत्ता का संतुलन बनाए रखने के लिए जम्मू संभाग की अनदेखी की है और यहां दूरदराज़ के इलाक़े में रह रही आबादी को लम्बे समय तक उनके अधिकारों से वंचित रखा है.

पूरे राज्य में जम्मू का क्षेत्रफल 25.93% है और आबादी में हिस्सेदारी 42.89% है. दूसरी तरफ़ क्षेत्र में कश्मीर की हिस्सेदारी 15.73% और आबादी में हिस्सेदारी 54.93% है.

जम्मू भाग में छह ज़िले मुस्लिम बहुल हैं, इनमें 16 सीटें हैं.

ये ज़िले पुंछ, राजौरी, डोडा, किश्तवाड़, रियासी, रामबन हैं. इन छह ज़िलों में मुस्लिम आबादी 50 से 91% तक है.

परिसीमन से इन क्षेत्रों में बदलाव होने की संभावना है. इन इलाक़ों में सीटों की सीमाओं को नए सिरे से गढ़ा जाएगा. ऐसे में कश्मीरी नेताओं को संदेह है कि कुछ सीटों की डेमोग्राफ़ी में बदलाव हो सकता है. इससे कुछ सीटें हिंदू बहुसंख्यक वाली निकल सकती हैं, जिससे उन्हें नुक़सान हो सकता है. लेकिन यह परिसीमन की क़वायद पूरी होने के बाद ही पता चलेगा.

जम्मू यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर हरिओम कहते हैं, "जम्मू संभाग को आज तक विधानसभा में उसके हिस्से की सीटें नहीं मिलीं. आज तक किसी भी परिसीमन आयोग ने तय मानकों के आधार पर सीटों का बंटवारा ना कर, मनमाने ढंग से जनगणना के आंकड़ों को तोड़-मरोड़ कर कश्मीर के हक़ में फ़ैसला सुनाया है."

प्रोफ़ेसर हरिओम का दावा है कि 2002 तक जम्मू संभाग में कुल मतदाता कश्मीर की तुलना में हमेशा अधिक थे लेकिन फिर भी जम्मू संभाग को उसके हक़ से महरूम रखा गया.

प्रोफ़ेसर हरिओम कहते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनावों के आंकड़ों के मुताबिक़ जम्मू संभाग में 3733078 मतदाता पंजीकृत हैं और कश्मीर में 4009570 जिसमें 1.20 लाख कश्मीरी पंडित मतदाता भी शामिल हैं.

उनके मुताबिक़ जम्मू संभाग की दो लोकसभा सीटों के लिए लगभग 18.66 लाख मतदाता अपने मत का प्रयोग करते हैं और कश्मीर में तीन लोकसभा सीटों के लिए 12.96 लाख मतदाता अपने मत का प्रयोग करते हैं. इसी प्रकार से जम्मू कश्मीर की विधान सभा में 37 सीटों के लिए जम्मू संभाग से एक उमीदवार के हक़ में 100894 मतदाता अपने मत का प्रयोग करते हैं और कश्मीर घाटी में 84338 मतदाता अपना एक उमीदवार चुनते हैं.

सीधे शब्दों में कहें तो कश्मीर संभाग जिसका क्षेत्रफल जम्मू संभाग से कम है और जहाँ जम्मू से सिर्फ़ 1.56 लाख अधिक मतदाता हैं वो जम्मू की तुलना में नौ विधायक अधिक चुनते हैं.

प्रोफ़ेसर हरिओम को इस बात पर भी यकीन नहीं होता कि इस दफ़ा परिसीमन आयोग जम्मू संभाग को उस का हक़ दे पाएगा. उनका कहना है कि जब तक 2011 के जनगणना के आंकड़ों के आधार पर गठित परिसीमन आयोग अपनी कार्यवाही करेगा जम्मू संभाग को उसका हक़ दिलाना मुश्किल होगा.

वो कहते हैं कि जम्मू संभाग को उसका हक़ तभी मिल पाएगा अगर परिसीमन आयोग हाल ही में जुटाए गए जनगणना के आकड़ों के आधार पर अपनी कार्यवाही करेगा.

दूसरी ओर 1947 से वेस्ट पाकिस्तान से विस्थापित होकर जम्मू संभाग में रह रहे वेस्ट पाकिस्तानी शरणार्थी इस बात से तो ख़ुश हैं कि अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद उन्हें जम्मू-कश्मीर की नागरिकता मिल गयी लेकिन आज भी इन लोगों को अपने वोटर आईडी कार्ड बनवाने के लिए लंबा इंतज़ार करना पड़ रहा है.

रिफ्यूजी नेता लाभाराम गाँधी ने बीबीसी हिंदी को बताया कि वो सरकार से अपील करते हैं कि जम्मू, साम्बा, कठुआ और बाक़ी ज़िलों में रह रहे वेस्ट पाकिस्तानी शरणार्थियों के वोटर आईडी कार्ड बनाने की प्रक्रिया तेज़ की जाए.

गांधी ने बताया कि वो परिसीमन आयोग के सामने भी अपना पक्ष रखेंगे ताकि वो भी आने वाले समय में अपना नुमाइंदा चुन सकें.

वो कहते हैं, "हमारी जनसंख्या के अनुपात में हमारे लिए कम से कम जम्मू-कश्मीर असेंबली में दो सीटें रिज़र्व होनी चाहिए ताकी 70 वर्षों के बाद हम अपनी मनमर्ज़ी से अपने वोट का इस्तेमाल कर सकें."

राज्य में अनुसूचित जनजाति के लिए रिज़र्व सीट नहीं
ट्राइबल मामलों के जानकार और लेखक जावेद राही ने बीबीसी हिंदी को बताया कि राज्य में अनुसूचित जनजाति के लिए अभी एक भी सीट रिज़र्व नहीं है. उन्होंने बताया कि वो परिसीमन आयोग के सामने अपना पक्ष रखेंगे और जम्मू-कश्मीर में रह रहे अनुसूचित जनजाति के लिए राजनीतिक सशक्तिकरण की माँग करेंगे.

उनके अनुसार जम्मू-कश्मीर में गुज्जर, बकरवाल, सिप्पी, गद्दी आदि को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है. इसमें गद्दी समुदाय आबादी सबसे कम है और यह ग़ैर-मुस्लिम है जो किश्तवाड़, डोडा, भद्रवाह और बनी के इलाक़े में ही हैं जबकि अन्य पूरे प्रदेश में हैं. राजौरी, पुंछ, रियासी, बनिहाल, कुलगाम, बारामुला, शोपियां, कुपवाड़ा, गांदरबल में जनजातीय समुदाय की एक अच्छी ख़ासी तादाद है.

ये लंबे समय से अपने लिए रिज़र्व सीटें माँग रहे हैं. लेकिन उनके अनुसार 1991 से लेकर अब तक किसी ने भी इन्हें इनका हक़ नहीं दिया.

जावेद राही कहते हैं, "हम परिसीमन आयोग से उम्मीद करते हैं कि वो सिर्फ़ जनसँख्या के हिसाब से नहीं बल्कि भूभाग के हिसाब से हमारी अनुसूचित जनजाति के लिए विधान सभा में सीटें आरक्षित करेंगे जिससे कश्मीर घाटी में रह रहे बड़ी संख्या में गुज्जर बकरवाल समुदाय के लोगों को फ़ायदा मिलेगा."

उन्होंने परिसीमन आयोग का जम्मू-कश्मीर में स्वागत करते हुए कहा, "प्रधानमंत्री जी ने सर्वदलीय बैठक में भी परिसीमन की प्रक्रिया समय पर कराने का वादा किया है इससे हमें उम्मीद जगी है कि हमारे समुदाय के साथ हो रही नाइंसाफ़ी समाप्त होगी.''

इस वजह से जम्मू और कश्मीरी क्षेत्रों के अन्य निवार्चन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति के लोग प्रतिनिधित्व करने से वंचित हैं. कश्मीरी नेताओं को अंदेशा है कि यदि इन सीटों का रोटेशन विपक्षी सीटों को लक्षित कर किया जाएगा तो इससे उन्हें नुक़सान हो सकता है.

कश्मीर घाटी में लम्बे समय से रह रहे सिख नेता जगमोहन रैना ने बीबीसी हिंदी से बातचीत में कहा, "हम परिसीमन आयोग का जम्मू-कश्मीर में स्वागत करते हैं और इस बात की उम्मीद करते हैं कि बंद कमरों में बैठ कर तैयार की गई रिपोर्ट को यहां लागू नहीं किया जाएगा."

रैना कहते हैं कि बड़ी संख्या में सिख समुदाय के लोग कश्मीर घाटी के विभिन्न हिस्सों में रहते हैं लेकिन आज तक उनके लिए एक भी सीट रिज़र्व नहीं की गई है. वो कहते हैं, "जब जम्मू-कश्मीर रियासत का गठन हुआ था उस समय भी सिख समुदाय के नेता असेंबली में थे लेकिन 1990 के दशक से जब से कश्मीर घाटी के हालात बिगड़े हैं सिख समुदाय को विधान सभा में हिस्सेदारी नहीं मिली है."

बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा कि परिसीमन आयोग को पूरी प्रक्रिया से जुड़ी जानकारी सार्वजनिक करनी चाहिए और ज़मीनी स्तर से जुड़े नेताओं को विश्वास में लेकर परिसीमन की कार्यवाही को अंजाम देना चाहिए ताकि किसी धर्म, जाती, और संभाग के नाम पर होने वाली सियासत पे विराम लगाया जा सके और दूर दराज़ के इलाक़ों में रह रही जनता को उनके हक़ मिल सकें, उनके इलाक़े में विकास की जा सके और उनका राजनीतिक सशक्तिकरण किया जा सके.

विस्थापित कश्मीरी पंडितों के नेता वीरेंदर रैना ने कहा है कि परिसीमन आयोग को कश्मीर से आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों के लिए पाँच निर्वाचन क्षेत्रों को आरक्षित करना चाहिए.

लेखक डॉ रमेश तामीरी ने बीबीसी से कहा, "जम्मू-कश्मीर में परिसीमन करवाया जाना अपने आप में ऐतिहासिक क़दम है. आयोग को इस कार्य को अंजाम देते समय जनसंख्या, भूभाग, क्षेत्रफल का विशेष ध्यान रखना चाहिए क्योंकि बिना इसके परिसीमन की प्रक्रिया अधूरी रहेगी."

डॉ रमेश तामीरी आगे कहते हैं परिसीमन की प्रक्रिया 2011 की जनगणना के आधार पर नहीं होनी चाहिए क्योंकि उसपर पहले से सवाल खड़े किये गए हैं. इसलिए परिसीमन आयोग को जनसँख्या के 2021 सेन्सस के आंकड़े जुटाने चाहिए ताकि पारदर्शी तरीक़े से प्रक्रिया संपन्न की जा सके.

डॉ तामीरी ने एक और सुझाव देते हुआ कहा कि जब तक विस्थापित कश्मीरी पंडित समाज के सदस्यों को बसाया नहीं जाता तब तक उनके लिए परिसीमन की प्रक्रिया लंबित रखा जाए.(bbc.com)

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