विचार / लेख

भारत में हर 25 मिनट पर एक हाउसवाइफ क्यों ले लेती है अपनी जान
17-Dec-2021 1:26 PM
भारत में हर 25 मिनट पर एक हाउसवाइफ क्यों ले लेती है अपनी जान

-गीता पांडेय
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के हालिया आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल 22,372 गृहिणियों ने आत्महत्या की थी। इसके अनुसार हर दिन 61 और हर 25 मिनट में एक आत्महत्या हुई है। देश में 2020 में हुईं कुल 153,052 आत्महत्याओं में से गृहिणियों की संख्या 14.6 प्रतिशत है और आत्महत्या करने वाली महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत से ज़्यादा है। ये स्थिति केवल पिछली साल की नहीं है। 1997 में जब से एनसीआरबी ने पेशे के आधार पर आत्महत्या के आंकड़े एकत्रित करने शुरू किए हैं तब से हर साल 20 हजार से ज्यादा गृहणियों की आत्महत्या का आंकड़ा सामने आ रहा है। साल 2009 में ये आंकड़ा 25,092 तक पहुंच गया था। रिपोर्ट में इन आत्महत्याओं के लिए ‘पारिवारिक समस्याओं’ या ‘शादी से जुड़े मसलों’ को जिम्मेदार बताया गया है। लेकिन, क्या वजहें हैं कि जिनके कारण हजारों गृहणियां अपनी जान ले लेती हैं?

घरेलू हिंसा झेलती महिलाएं
मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि इसका एक प्रमुख कारण बड़े पैमाने पर घरेलू हिंसा है। हाल ही में हुए एक सरकारी सर्वे में 30 प्रतिशत महिलाओं ने बताया था कि उनके साथ पतियों ने घरेलू हिंसा की है। रोज की ये तकलीफें शादियों को दमनकारी बनाती हैं और घरों में महिलाओं का दम घुटता है।
वाराणसी में क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर उषा वर्मा श्रीवास्तव कहती हैं, ‘महिलाएं बहुत सहनशील होती हैं लेकिन सहने की भी एक सीमा होती है।’
‘18 साल होते ही अधिकतर लड़कियों की शादी हो जाती है। वह पत्नी और बहू बन जाती हैं और पूरा दिन घर पर खाना बनाते, सफाई करते और घर के काम करके बिताती हैं। उन पर सभी तरह की पाबंदियां लगी होती हैं, उन्हें बहुत कम आजादी होती है और अपने लिए उन्हें कभी-कभी ही पैसे मिल पाते हैं।’
वह कहती हैं, ‘उनकी शिक्षा और सपने कोई मायने नहीं रखते और उनकी महत्वाकांक्षा धीरे-धीरे खत्म होने लगती है और उन पर निराशा छा जाती है। उनका अस्तित्व ही प्रताडऩा बन जाता है।’
डॉक्टर उषा वर्मा कहती हैं कि बुज़ुर्ग महिलाओं में आत्महत्या का कारण अलग होता है।
उन्होंने बताया, ‘कई महिलाएं अकेलेपन का सामना करती हैं। उनके बच्चे बढ़े हो जाते हैं और घर से अलग हो जाते हैं। कई मेनोपॉज़ से पहले के लक्षणों का सामना करती हैं जिससे अवसाद और उदासी आती है।’

डॉक्टर के मुताबिक आत्महत्या को आसानी से रोका जा सकता है और ‘अगर आप किसी को एक सेकेंड के लिए भी रोक देते हैं तो वो रुक सकते हैं।’

मनोचिकित्सक सौमित्र पठारे इसे समझाते हैं कि भारत में अधिकतर आत्महत्याएं आवेश में होती हैं। ‘पति घर आता है, पत्नी को मारता है और वो अपनी जान ले लेती है।’

डॉक्टर सौमित्र बताते हैं कि स्वतंत्र शोध के मुताबिक आत्महत्या करने वालीं एक तिहाई भारतीय महिलाएं घरेलू हिंसा झेल चुकी होती हैं। लेकिन, एनसीआरबी के आंकड़ों में घरेलू हिंसा का जि़क्र भी नहीं किया गया है।

मेंटल हेल्थ ऐप वायसा के साथ जुड़ीं मोनोचिकित्सक चैताली सिन्हा कहती हैं, ‘घरेलू हिंसा झेलने वाली महिलाएं अनौपचारिक सहयोग से ही अपना हौसला बनाए रख पाती हैं।’

चैताली सिन्हा तीन साल तक मुंबई में एक सरकारी मनोरोग अस्पताल में काम कर चुकी हैं। वो आत्महत्या का प्रयास कर चुके लोगों की काउंसलिंग करती थीं।
डॉक्टर चैताली बताती हैं कि उन्होंने पाया कि महिलाएं ट्रेन में सफर करते या पड़ोसियों के साथ सब्जी खरीदते अपना एक ग्रुप बना लेती हैं जिससे उन्हें थोड़ा बहुत सहयोग मिलता है। जहां वो अपने मन की बात रख पाती हैं।

वह बताती हैं, ‘उनके पास मन हल्का करने के लिए कोई और जगह नहीं होती। कभी-कभी उनकी हिम्मत किसी एक व्यक्ति से होने वाली बातचीत पर ही निर्भर करती है।’

‘पति के घर से चले जाने पर गृहणियों के लिए घर में रहना सुरक्षित होता है लेकिन महामारी के दौरान ये भी ख़त्म हो गया। महिलाएं घरेलू हिंसा करने वाले पति के साथ दिनभर घर में रहने को मजबूर थीं। उनका बाहर आना-जाना भी कम हो गया और अपना सुख-दुख बांटकर मिलने वाली खुशी और शांति भी छिन गई। ऐसे में उनके अंदर गुस्सा, दुख और उदासी इक_े होते गए और आत्महत्या उनके लिए आखऱिी सहारा बन गया।’

वैश्विक स्तर पर भारत में सबसे ज़्यादा आत्महत्याएं होती हैं। भारत में आत्महत्या करने वाले पुरुषों की संख्या दुनिया की एक चैथाई है। वहीं, 15 से 39 साल के समूह में आत्महत्या करने वालों में महिलाओं की संख्या 36 प्रतिशत है।

आत्महत्या का सही आंकड़ा
लेकिन, मानसिक विकृतियों और आत्महत्या रोकथाम पर पर शोध करने वाले डॉक्टर पठारे कहते हैं कि भारत की आधिकारिक संख्या को गलत समझा जाता है और वो समस्या को पूरी तरह सामने नहीं लाते हैं।

वह कहते हैं, ‘अगर आप मिलियन डेथ स्टडी (जिसने 1998-2014 के बीच 24 लाख घरों में लगभग एक करोड़ 40 लाख लोगों की निगरानी की) या लैंसेट के अध्ययन को देखें, तो भारत में आत्महत्याओं की संख्या 30 फीसदी और 100 फीसदी के बीच कम रिपोर्ट की जाती हैं।’

‘आत्महत्या पर अब भी खुलकर बात नहीं होती। इसे कलंक के तौर पर देखा जाता है और अधिकतर परिवार इसे छुपाने की कोशिश करते हैं। ग्रामीण भारत में अटॉप्सी की कोई जरूरत नहीं होती और अमीर स्थानीय पुलिस के जरिए आत्महत्या को आकस्मिक मृत्यु दिखाने के लिए जाने जाते हैं। पुलिस की प्रविष्टियां सत्यापित नहीं होती हैं।’

डॉक्टर पठारे कहते हैं कि ऐसे समय में जब भारत राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति विकसित कर रहा है तो आंकड़ों की गुणवत्ता को ठीक करना प्राथमिकता होना चाहिए।

वह कहते हैं, ‘अगर भारत में होने वाली आत्महत्याओं की संख्या देखें तो वो बहुत कम है। दुनिया भर में आमतौर पर वास्तविक संख्या चार से 20 गुना ज़्यादा होती है। इस तरह भारत में देखें तो पिछले साल आत्महत्या के डेढ़ लाख मामले दर्ज किए गए तो इस तरह आंकड़ा छह लाख और 60 लाख तक हो सकता है।’

डॉक्टर पठारे के मुताबिक ये जोखिम वाली पहली आबादी है जिसे आत्महत्या से रोकने के लिए लक्षित किया जाना चाहिए लेकिन खराब आंकड़ों के कारण हम ये काम ठीक से नहीं कर पाते।

डॉक्टर ने कहा, ‘संयुक्त राष्ट्र का लक्ष्य है कि 2030 तक दुनिया भर में होने वाली आत्महत्याओं को एक तिहाई तक कम किया जाए। लेकिन, पिछले साल के मुकाबले हमारे यहां ये संख्या 10 प्रतिशत बढ़ गई है। ऐसे में इसे घटना एक सपने जैसा है।’ (bbc.com/hindi/india)
 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news