विचार / लेख
-अपूर्व भारद्वाज
मोदी सरकार का महिलाओं की शादी की उम्र 18 से 21 साल करने का फैसला बिल्कुल बचकाना और नासमझी भरा है। भारत में आज भी 30 प्रतिशत महिलाओं की शादी 18 वर्ष से पहले हो जाती है। 1978 में यह कानून बाल विवाह को रोकने के लिए लाया गया था पर आज भी बाल
विवाह की दर 27 से 47 फीसदी तक है। अगर शादी की उम्र 21 साल हो गई तो यह दर 10 फीसदी तक और बढ़ जाएगी, विवाह से पहले गर्भवती होने की दर 30 फीसदी बढ़ सकती है।
बहुत कम लोग जानते हैं कि बाल विवाह की दर ज्यादा होने का कारण अशिक्षा और कम जागरूकता नहीं बल्कि इसके पीछे बड़े आर्थिक और सामाजिक कारण है जिसको एड्रेस किए बगैर इस कानून का कोई फायदा नहीं है और उल्टे नुकसान होने की ज्यादा संभावना है। जिन खाते-पीते परिवारों और समाजों में आज भी महिलाओं का बाहर काम करना अच्छा नहीं समझा जाता है। जैसे ही अच्छा बंदा मिलता है वो उनकी शादी कर देते हंै। यहां शिक्षा वाला लॉजिक फेल है।
ग्रामीण और मजदूरों के परिवार में जहाँ दोनों माता-पिता काम करते है वहां लडक़ी 10वीं तक भी पढ़ ली तो माता-पिता उसकी सुरक्षा के कारण उसकी शादी जल्दी ही कर देते हैं। सोचिए अगर वो लडक़ी 12वीं तक भी पढ़ ले तो उसकी उम्र 17-18 हो जाएगी और बहुत से गाँव और कस्बों में कॉलेज नहीं है और 70 फीसदी गरीब ग्रामीण लोग आज भी अपनी बच्चियों को पढऩे नहीं भेजते, शहर नहीं भेजते तो ऐसे में लडक़ी 21 वर्ष तक इंतजार करेंगे क्या? नहीं बिल्कुल नहीं करेंगे और इस कानून की धज्जियां उड़ा देंगे?
अब आप पूछोगे कि इस समस्या का हल क्या है तो सीधा सा उत्तर है जब तक उस शोषित समाज को यह यकीन नहीं हो जाता कि महिलाएं भी पुरुषों के समान आर्थिक रूप से योगदान कर सकती हंै और परिवार को आर्थिक रूप से परिवार को सुरक्षा प्रदान कर सकती हंै तब वो उन्हें कोई बोझ नहीं समझेंगे। इसलिए महिलाओं को रोजगार, शिक्षा और राजनीति में समान भागीदारी और समान प्रतिनिधित्व के अलावा कोई उपाय नहीं है। इसलिए अगले 10 साल तक मैं हर फील्ड में 50 फीसदी महिला आरक्षण का कट्टर समर्थक हूँ।
अगर महिलाएं सुरक्षित और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होंगी तो उन्हें किसी कानून की आवश्यकता नहीं होगी। अगर किसी कानून की देश को आवश्यकता है तो वो है महिला आरक्षण। क्योंकि लडक़ी है तो लड़ सकती है और अपने मर्जी से जब चाहे शादी भी कर सकती है।