विचार / लेख
-रमेश अनुपम
लोहंडीगुड़ा गोली कांड स्थानीय प्रशासन और मध्यप्रदेश सरकार के लिए एक ऐसा सबक था, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता था। लोहंडीगुड़ा गोली कांड के बाद बस्तर के आदिवासियों की न्यायोचित मांगों और प्रवीर चंद्र भंजदेव के प्रति संवेदनशील दृष्टि से विचार किए जाने की जरूरत थी। पर दुर्भाग्यवश ऐसा कुछ नहीं हुआ।
लोहंडीगुड़ा गोली कांड के बाद आदिवासियों की मांग पर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को जेल से रिहा तो कर दिया गया पर कोर्ट ऑफ वार्ड्स से उनकी संपत्ति को मुक्त नहीं किया गया ।
गैर आदिवासी व्यापारियों का बाजारों में आदिवासियों को लूटना भी बंद नहीं हुआ और न ही उनके विकास की किन्हीं ठोस योजनाओं को मूर्त रूप देने की कहीं कोई कोशिश ही की गई।
परिणामस्वरूप आदिवासियों में असंतोष बढ़ता चला गया। स्थानीय प्रशासन और सरकार इस सबसे आंखें मूंदे बेखबर बनी रही।
लोहंडीगुड़ा गोली कांड 31 मार्च सन 1961 को हुआ था। दो वर्ष बीतने को आ रहे थे लेकिन अब तक बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की संपत्ति को सरकार ने कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त करना जरूरी नहीं समझा था।
पिछले दो वर्षों से आदिवासियों के भीतर फिर से गुस्से की आग सुलगने लगी थी। स्थानीय प्रशासन और सरकार पर उनका भरोसा उठता जा रहा था।
9 अप्रैल सन 1963, लगभग सौ आदिवासी नेताओं ने बस्तर कलेक्टर मोहम्मद अकबर से मुलाकात की और उनसे निवेदन किया कि महाराजा की संपत्ति को कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त किया जाए।
10 अप्रैल सन 1963 की शाम को आदिवासी नेता मंगल मांझी ने भोपाल ट्रंक कॉल कर प्रदेश के राज्यपाल हरि विनायक पाटस्कर को आदिवासियों के असंतोष की जानकारी और इस पर तत्काल कार्रवाई किए जाने का निवेदन किया साथ ही राज्यपाल को बस्तर आकर वस्तुस्थिति को स्वयं देखने का आग्रह भी।
प्रदेश के सर्वोच्च मुखिया ने शायद आदिवासी नेता मंगल मांझी की बात को गंभीरता से लेने की कोई जरूरत नहीं समझी।
11 अप्रैल 1963 को आदिवासी एक-एक कर जगदलपुर में एकत्र होने लगे। हेड पोस्ट ऑफिस जगदलपुर के सामने आदिवासियों की भीड़ लगनी शुरू हो गई।
मध्यप्रदेश के राज्यपाल और मुख्यमंत्री को टेलीग्राम भेजा गया कि उनकी मांगों को सरकार 13 अप्रैल तक पूर्ण करें।
स्थानीय प्रशासन ने 13 अप्रैल की सुबह से ही जगदलपुर में धारा 144 लगा दिया। बस्तर के तत्कालीन कलेक्टर मोहम्मद अकबर ने प्रेस को बताया कि जगदलपुर में आदिवासियों की बढ़ती हुई भीड़ को देखकर प्रशासन को यह निर्णय लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।
जगदलपुर में स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही थी, पर शासन-प्रशासन को जैसे इसकी कोई चिंता ही नहीं थी।
कमिश्नर, कलेक्टर चाहते तो आने वाली अप्रिय स्थिति को रोक सकते थे। आदिवासियों को समझा-बुझा कर शांत कर सकते थे। उनकी मांगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार कर सकते थे, पर ऐसा कुछ नहीं किया गया।
मध्यप्रदेश के राज्यपाल हरि विनायक पाटस्कर और मुख्यमंत्री डॉ . कैलाश नाथ काटजू महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की संपत्ति को चाहते तो कोर्ट ऑफ वार्ड्स से रिलीज करवा सकते थे।
किंतु शासन ने शायद पहले से ही मन बना लिया था कि महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव और आदिवासियों को मज़ा चखाना है।
भोपाल को बस्तर से न कोई सहानुभूति थी और न ही किसी तरह का कोई लेना देना। इसे निष्ठुरता की पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है।
कुल मिलाकर बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव और बस्तर के आदिवासियों की पीड़ा को समझने की कोशिश न स्थानीय प्रशासन को थी और न ही राज्य सरकार या केंद्र सरकार को।
सरकार के लिए न प्रवीर चंद्र भंजदेव उपयोगी थे और न ही उनसे अथाह प्रेम करने वाले बस्तर के भोले-भाले आदिवासी ।
बस्तर के नृशंस गोली कांड की पूरी भूमिका लगभग तैयार हो चुकी थी। दावानल की चिंगारी भडक़ चुकी थी, पत्तियां जल उठी थीं पूरे जंगल का सुलगना अभी बाकी था। मध्यप्रदेश सरकार के दिग्गज नेता और स्थानीय प्रशासन तो शायद यही चाहते भी थे।
(बाकी अगले हफ्ते)