संपादकीय
यूक्रेन में फंसे हुए हिंदुस्तानी छात्र-छात्राओं को वापस लाने के लिए भारत सरकार ने कई विमान भेजे हैं, और उनमें भारतीय वायुसेना के विमान भी शामिल हैं। इसके अलावा केंद्र सरकार ने 4 मंत्रियों को तैनात किया है जो कि इन्हें वापस लाने के लिए यूक्रेन के अगल-बगल के देशों तक जाकर वहां से उन्हें विमान में चला रहे हैं। केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के वीडियो कल से तैर रहे हैं जिनमें वे छात्र-छात्राओं को मदद करते दिख रहे हैं, और एक जख्मी छात्रा को सहारा देकर विमान पर चढ़ा रहे हैं। भारत सरकार ने यह घोषणा भी की है कि इन सभी को सरकार अपने खर्च पर वापिस लेकर आएगी। यह एक अच्छी बात है कि सरकार अपने देश के नागरिकों की मदद करने के लिए दुनिया भर में जाकर अपने, या किराए के, और वायु सेना तक के, विमान भेजकर, मंत्रियों को भेजकर, इन छात्र-छात्राओं को मुफ्त में हिफाजत से घर लेकर आ रही है। यूक्रेन जाकर अप्लाई करने वाले हिंदुस्तानी छात्र-छात्राओं में अधिकतर ऐसे हैं जिन्हें हिंदुस्तान के मेडिकल कॉलेजों में दाखिला नहीं मिल पाया, और यहां के निजी मेडिकल कॉलेजों की करोड़ों रुपए तक जाने वाली फीस देने की उनकी ताकत नहीं थी, इसलिए वे कम फीस वाले यूक्रेन जाकर वहां डॉक्टर बन रहे हैं। यूक्रेन में कुछ साल रहकर डॉक्टर बनने का कुल खर्च शायद 25-50 लाख के भीतर ही होता है, जो कि हिंदुस्तान के मुकाबले खासा कम है, लेकिन है तो सही। इनमें से बहुत से बच्चे ऐसे परिवारों के थे जो कि महंगी हवाई टिकट भी खरीदने को तैयार थे लेकिन फिर यूक्रेन से विमान उडऩे बंद ही हो गये। पढऩे के लिए दूसरे देश जाने वाले या खासी रकम खर्च करने वाले छात्र-छात्राओं का भी महफूज रहने का अपना अधिकार है, और भारत सरकार की यह जिम्मेदारी भी है। इसलिए आज खबरें सरकार की कोशिशों से भरी हुई हैं। अब जब हर दिन सरकारी विमान यूक्रेन के आसपास के देशों से भारतीय छात्र-छात्राओं को लेकर वापस लौट रहे हैं तो इन खबरों की अहमियत खत्म हो गई है कि समय रहते हुए भारत सरकार ने वहां से भारतीयों को निकलने की न तो चेतावनी दी थी, और न ही कोई इंतजाम किया था।
केंद्र सरकार की यह कोशिशें देखकर याद पड़ता है कि करीब 2 बरस पहले जब हिंदुस्तान में लॉकडाउन हुआ, और एकाएक रेलगाडिय़ां, बस, सबको बंद कर दिया गया, तब किस तरह मजदूर तकलीफें झेलकर महानगरों से और दूसरे प्रदेशों से हिंदुस्तान तक लौटे, अपने गांव वाले हिंदुस्तान तक लौटे। जैसा कि पिछले कुछ समय से लोग लिख भी रहे हैं कि हिंदुस्तान के भीतर भी दो तरह के हिंदुस्तान हैं, तो एक हिंदुस्तान में रहने वाले गरीब लोग उस दूसरे हिंदुस्तान में काम करने गए थे जहां उन्हें काम हासिल था, लेकिन लॉकडाउन के दौर में बिना काम के उन्हें वहां रहने का कोई सहारा नहीं था, महामारी का डर था, और आम लोगों से लेकर केंद्र और राज्य सरकारों तक हर किस्म की अनिश्चितता फैली हुई थी, तो वैसे में लोग अपने बच्चों को गोद में लिए हुए पैदल और साइकिल पर हजार-हजार मील के सफर पर निकल गए थे. उनकी दर्दनाक तस्वीरें इतनी दर्दनाक हैं कि अभी जब फेसबुक पर बहुत से लोगों ने इन्हें पोस्ट करने की कोशिश की तो फेसबुक ने उन्हें एक-एक महीने के लिए ब्लॉक भी कर दिया। जाहिर है कि इन तस्वीरों के खिलाफ फेसबुक पर शिकायतों का सैलाब पहुंचा होगा और उसने इन तस्वीरों को फेक, नकली, दर्ज कर लिया होगा। खैर वह एक अलग बात है मुद्दा यह है कि हिंदुस्तान के ताजा इतिहास में वे दर्दनाक तस्वीरें और वीडियो बहुत अच्छी तरह दर्ज हैं जब इस देश के करोड़ों गरीब मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया था, उनके पास न सिर छुपाने को जगह बची थी, और न अगले वक्त के खाने के लिए पैसे थे, और तो और खाना खरीदने की जगह भी बंद थीं।
अगर लोगों की याददाश्त थोड़ा भी साथ देती होगी तो यह भी दो बरस पहले की ही बात है जब केंद्र सरकार ने फैसला लेकर यह घोषणा की थी कि राज्य सरकारें अपने-अपने राज्यों के मजदूरों को अपने खर्च पर वापस लेकर जाएं। हर राज्य ने अपने अफसरों की तैनाती भी की थी और रेलगाडिय़ों के लिए भारत सरकार को एडवांस में भुगतान करके अपने राज्य के मजदूरों को वापस लाने का काम किया था। दो बरस के भीतर की इन दो घटनाओं को देखें तो यह साफ दिखता है कि जो लोग बिना रिजर्वेशन वाले रेल डिब्बे में ही सफर करने की ताकत रखते हैं, उन्हें सब कुछ अपनी जेब से करना है, या फिर वे अपने राज्य की सरकार के रहमो-करम पर छोड़ दिए जाएंगे। दूसरी तरफ 25-50 लाख रुपए खर्च करके जो लोग अपने बच्चों को यूक्रेन या ऐसे किसी दूसरे देश पढऩे के लिए भेज सकते हैं, उन्हें वापस लाना भारत सरकार की अपनी जिम्मेदारी है, और उन्हें सरकार अपने पैसों पर वापिस लेकर आएगी, उसके मंत्री जाकर इन छात्र-छात्राओं को सहारा देकर विमान में चढ़ाएंगे, और भारतीय वायुसेना के विमान भी इस काम के लिए जाएंगे।
लोगों को अच्छी तरह याद होगा कि चाहे-अनचाहे हिंदुस्तानी मीडिया का कुछ हिस्सा उस वक्त लगातार लॉकडाउन के वक्त की घर वापिसी की खबरों को दिखा रहा था, और उन खबरों को लेकर सबके दिल जले हुए थे, लेकिन उस वक्त की केंद्र सरकार की ऐसी कोई अपील याद नहीं पड़ती कि रास्ते की सरकारें लोगों की मदद करें, केंद्र सरकार की रेलगाडिय़ां मुफ्त में लोगों को उनके गांव के पास के स्टेशन तक पहुंचाएं, केंद्र सरकार की तरफ से लोगों को खाना भी मिल जाए, और खुले में हजार मील चलने वाले बच्चों को दूध मिल जाए। ऐसी कोई भी कोशिश सरकार के तरफ से की गई हो ऐसा याद नहीं पड़ता, और ऐसा दर्ज नहीं है। बिहार में तो डबल इंजिन की सरकार ने तो राज्य की सरहद पर पहुंचे अपने मजदूरों पर लाठियां भी बरसाई थीं. पता नहीं तथाकथित हिंदुस्तानी जनचेतना को यह याद है या नहीं कि किस तरह मध्य प्रदेश लौटते मजदूर थके हुए महाराष्ट्र में पटरियों पर सो गए थे और ट्रेन तले थोक में कट गए थे।
आज यूक्रेन से अपने बच्चों को वापस लाने के लिए सरकार की कोशिश खबरों में तारीफ पा रही है, लेकिन हिंदुस्तानी याददाश्त इतनी कमजोर है कि वह मजदूरों की घर वापसी को पूरी तरह भूल चुकी है और वैसे भी उन मजदूरों के साथ हिंदुस्तान की जनता के एक हिस्से की हमदर्दी कभी भी नहीं रहती जिन्हें मजदूरी के लिए दूर-दूर दूसरे प्रदेश तक जाना पड़ता है। इतने कमजोर लोगों के साथ तो उस तथाकथित ईश्वर की भी हमदर्दी नहीं रहती जो सर्वशक्तिमान है, और जिसने इन मजदूरों की ऐसी हालत देखी हुई है, तय की हुई है। एक लोकतंत्र का इतिहास कई किस्मों की मिसालों की तुलना दर्ज करता है। आज यह छोटी सी बात हमारे दिमाग में आ रही है, और आगे जाकर जब कभी हिंदुस्तानी लोकतंत्र का इतिहास लिखा जाएगा तो इस देश के ताजा, नवोदित इतिहासकारों से परे, इस देश के बाहर के कुछ ऐसे इतिहासकार भी होंगे, जिन्हें यूक्रेन से घर वापिसी और मुंबई दिल्ली से घर वापिसी में सरकार के रुख और नजरिये का फर्क दिखेगा। लोकतंत्र में तंत्र तो अपनी मनमर्जी कर सकता है, लेकिन लोक को तो तमाम बातों को जोडऩा, और उन पर सोचना चाहिए। उसके बिना उनका तंत्र में पिस जाना तय रहता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दी के एक टीवी अभिनेता ने दिल्ली हाईकोर्ट में अपील लगाई है कि उनसे जिंदगी में हुई एक गलती का जिक्र इंटरनेट से हटाया जाए। बहुत बरस पहले जब यह अभिनेता एक नौजवान था, उसने एक बार शराब पीकर गाड़ी चलाई थी और उसका केस बना था। तबसे अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है, लेकिन शराबी ड्राइविंग का यह मामला इंटरनेट पर बना हुआ है, और इस अभिनेता का नाम सर्च करने पर तुरंत सामने आ जाता है। अब क्या लोगों की पुरानी जिंदगी की बातों को उसी तरह मिटाया जा सकता है जिस तरह हिन्दुस्तान के इतिहास की जानकारियों को इन दिनों मिटाया जा रहा है? या फिर उन्हें मिटाने का किसी को हक नहीं हो सकता। जैसा कि सोशल मीडिया और इंटरनेट को लेकर बाकी मामलों में है, हिन्दुस्तान पश्चिम के विकसित और सभ्य लोकतंत्रों से खासा पीछे चलता है, और इसलिए अभी हिन्दुस्तान में न किसी को शादीशुदा जिंदगी में बलात्कार की परवाह है, और न ही इंटरनेट से अपना इतिहास हटवाने के मुद्दे पर गौर करने की।
लेकिन अब सवाल यह उठता है कि क्या एक कानूनी सजा या जुर्माना ही किसी की गलती या गलत काम के लिए काफी रहते हैं, या फिर उन्हें लेकर समाज और सोशल मीडिया में होने वाली बदनामी भी जरूरी होती है? अब जैसे किसी परिवार के किसी व्यक्ति ने घर के बाहर कहीं बलात्कार कर दिया, तो उसके परिवार की इसमें सहमति तो नहीं रहती है, लेकिन बदनामी तो पूरे परिवार की होती है, पिछली पीढ़ी की अगली पीढ़ी की या साथ-साथ जीवन साथी की भी। कुछ मामलों में किसी जाति या धर्म के लोग कोई जुर्म करते हैं, और पूरे समुदाय की बदनामी होती है, पूरे समुदाय को अविश्वास से देखा जाता है। इसलिए सजा सिर्फ कानून की सुनाई हुई नहीं होती, सिर्फ मुजरिम को नहीं मिलती, और सिर्फ वक्ती तौर पर नहीं रहती, बल्कि वह साये की तरह जिंदगी भर साथ-साथ भी चलती है।
पुराने वक्त से चली आ रही सामान्य समझबूझ भी यह कहती है कि साख राख, और खाक तक साथ जाती है, यानी इंसान का बदन राख हो जाता है, या खाक में मिल जाता है, फिर भी साख बनी रहती है। इसलिए दिल्ली हाईकोर्ट में दायर इस अपील से परे भी आम सोच यही कहती है कि जिंदगी भर बदनामी या तोहमत को झेलना सजा का एक हिस्सा होता है। लोगों को कुछ भी करने के पहले आगे की अपनी लंबी जिंदगी की साख या बदनामी भी सोचनी चाहिए, अपने आसपास के लोगों की इज्जत के बारे में भी सोचना चाहिए जो कि बेकसूर रहते हुए भी बदनामी की सजा भुगतते हैं। कई मामलों में तो यह हो जाता है कि बलात्कारियों की आल-औलाद की शादियां भी आसानी से नहीं हो पातीं, या कई किस्म के समझौते करके ही हो पाती हैं। दुनिया के इतिहास में लोगों को बड़े बन जाने पर अपने बचपन की भी छोटी-छोटी गलतियों की साख ढोनी पड़ती है क्योंकि ऊंचाई पर पहुंचने वाले लोगों की नींव को इतनी गहराई तक खोदा जाता है कि उनके बचपन की गलतियां तक उजागर हो जाती हैं। हमने पहले भी इस जगह यह लिखा है कि सोशल मीडिया पर हिंसा और अश्लीलता लिखने वाले लोगों को याद रखना चाहिए कि आगे जब कभी वे किसी नौकरी के लिए अर्जी देंगे, या किसी बड़े विश्वविद्यालय में दाखिला चाहेंगे तो उनका सोशल मीडिया खंगाला जा सकता है, और यह देखा जा सकता है कि वे लोगों को किस तरह की धमकियां देते आए हैं।
वैसे आज की विकसित और कारोबारी दुनिया में बहुत सी ऐसी डिजिटल एजेंसियां काम कर रही हैं जो भुगतान करने की ताकत रखने वाले लोगों के सार्वजनिक-डिजिटल इतिहास की अप्रिय और अनचाही बातों को हटवाने का काम करती हैं। मतलब यह कि अगर आपकी ताकत है तो आप अपनी बदनामी भी कुछ या काफी हद तक मिटवा सकते हैं। लेकिन यह सहूलियत हर किसी को हासिल नहीं रहती, और जो लोग आज सोशल मीडिया पर किसी धर्म, जाति, या राजनीतिक विचारधारा के तहत, या ऐसे तबकों से मिलने वाले किसी भुगतान के एवज में अगर सोशल मीडिया पर जुर्म करते चल रहे हैं, तो उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि उनका यह जुर्म रिकॉर्ड से हट नहीं सकता। लोगों को यह जानकर हैरानी होगी कि दुनिया की पेशेवर और माहिर खुफिया एजेंसियां इंटरनेट की शुरूआत से अभी तक का इतिहास खंगाल कर कई लोगों के बारे में यह जानकारी भी निकालकर रखती है कि जब 25 बरस पहले इंटरनेट पर बच्चों से सेक्स के चैटरूम हुआ करते थे, उस वक्त की चैट भी आज खुफिया एजेंसियों के पास है, और इसका इस्तेमाल बहुत से लोगों को धमकाने या ब्लैकमेल करने के लिए किया जाता है। इसलिए कुल मिलाकर रास्ता यही है कि राह से भटकने से ही बचा जाए, वरना अगर आप आम हैं, तो आम बदनामी के शिकार रहेंगे, और अगर खास हैं, तो खास जासूसों की खास निगरानी का शिकार रहेंगे। आज की दुनिया में इंटरनेट और सोशल मीडिया से किसी के बारे में सब कुछ मिटा पाना नामुमकिन है। इसलिए शराफत में ही समझदारी है...
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पश्चि एशिया के एक अरब देश जॉर्डन की एक महिला, हदील दवास अपने बच्चों को जंगल, पहाड़, और नदी किनारे घुमाने ले जाती हैं। एक बच्चे को पीठ पर, और दूसरे का हाथ थामकर, और खाने की बॉस्केट लिए हुए वे अक्सर कुदरती खूबसूरती की जगहों पर अपने बच्चों को ले जाती हैं, और फिर जाने लायक ऐसी जगहों के बारे में, वहां के रास्ते के बारे में वे अपने इंस्टाग्राम अकाऊंट पर लोगों को जानकारी भी देती हैं कि बच्चे कहां ले जाए जा सकते हैं, कहां वे खुद चल सकते हैं। दस बरस से वे अपना यह शौक पूरा कर रही हैं, और बहुत से दूसरे लोगों को उनसे एक रास्ता भी दिख रहा है। उनका यह कहना है कि कुदरत के पास जाकर बच्चे बहुत खुश होते हैं, खूब खेलते हैं। हदील पेशे से आर्किटेक्ट हैं, और उन्होंने अमरीका से मास्टर्स डिग्री भी ली हुई है, और वे ट्रैवल फॉर पीस नाम की एक संस्था चलाती हैं जो कि ऐसे कुदरती पर्यटन को बढ़ावा देती है।
आज हिन्दुस्तान में अपने आसपास के लोगों को देखते हैं तो बहुत से लोग तो जिंदगी की मजबूरियों के बोझ से इस तरह लदे हुए रहते हैं कि वे अपने बच्चों के लिए अधिक कुछ नहीं कर पाते। लेकिन ऐसे तबके भी मौजूद हैं जो ठीकठाक कमा लेते हैं, जो बच्चों पर कुछ वक्त और कुछ पैसा खर्च भी करते हैं, लेकिन उनके बीच भी बच्चों को प्रकृति को दिखाने ले जाना, प्रकृति के साथ उन्हें वक्त गुजारने देना कम ही सुनाई पड़ता है। कुछ हद तक लोग साल-छह महीने में एक बार कहीं पर्यटन पर जाने पर बच्चों को नदी-पहाड़ या समंदर दिखा देते हैं, या फिर कुछ मामलों में पिकनिक पर जाने पर बच्चों को जंगल या नदी के किनारे देखने मिल जाते हैं। लेकिन सिर्फ कुदरत के करीब ले जाने के हिसाब से शायद ही कोई अपने बच्चों को ले जाते हैं। शहरों में तो लोगों की पहली प्राथमिकता अपने बच्चों को कारोबारी मॉल ले जाने की रहती है, जहां वे फिल्में देखें, खरीददारी करें, बड़े ब्रॉंड का कुछ खाना खाएं, या फिर वहां के किसी प्ले जोन में महंगे खेल खेल लें। हर बच्चे पर सैकड़ों या हजारों रूपए खर्च करके आधा दिन गुजारकर लोग इस तसल्ली से लौट आते हैं कि आज उन्होंने बच्चों के साथ अच्छा वक्त गुजार लिया। दरअसल बाजार की सारी साजिश यही रहती है कि लोगों को ऐसी संतुष्टि मिले कि बच्चों पर खर्च उनकी बेहतर देखरेख है। बच्चों के लिए महंगे सामान खरीदना लोगों को उनकी फिक्र करना लगता है। ऐसे में जॉर्डन की इस महिला की चर्चा करना हमें जरूरी लग रहा है कि जिन लोगों के पास साधन और सुविधाएं हैं, कम से कम वे लोग तो अपने बच्चों को कुदरत से रूबरू करवाते चलें, और यह बात महज एक नमूने के लिए नहीं है बल्कि जब समय रहे बार-बार करने के लिए है ताकि बच्चों को प्रकृति का महत्व समझ आए, और उसके साथ जीना सीख सकें।
आज घरों में छोटे-छोटे बच्चे भी टीवी पर कॉर्टून फिल्मों, या मोबाइल पर किसी वीडियो गेम के ऐसे आदी हो चुके हैं कि वे दूध पीने या खाना खाने के लिए भी इन चीजों की जिद करते हैं, और मां-बाप को मजबूर करते हैं कि वे स्क्रीन शुरू करके उन्हें दें। ऐसे में कमउम्र से ही बच्चों को स्क्रीन और शहरी-आधुनिक उपकरणों के बिना भी जीना सिखाना चाहिए, और यह काम अधिक मुश्किल भी नहीं है अगर मां-बाप खुद फोन और कम्प्यूटर छोडक़र बच्चों को लेकर बाहर निकलें, और स्क्रीन से परे की जिंदगी उन्हें दिखाएं। नदी और पहाड़ तक ले जाना, समंदर या जंगल तक ले जाना, और वहां पर पशु-पक्षियों की आवाजें सुनने देना, ऊंचे पेड़ों से लेकर पतझड़ के बिखरे पत्तों तक से उन्हें रूबरू करना, सुरक्षित-उथली नदी के किनारे उनके पांव पानी में उतारकर उन्हें यह प्राकृतिक पानी महसूस करने देना जैसी कई बातें हो सकती हैं जो इन बच्चों को पहली बार देखने, सुनने, और छूने मिलें, और हर बार उन्हें इनका अलग-अलग तजुर्बा हो। हो सकता है कि वे वहां से कोई चिकना पत्थर लेकर लौटें, और घर पर उस पर चित्रकारी करते हुए कुछ वक्त गुजारें। ऐसी बहुत सी बातें बच्चों को कुदरत के करीब ले जाने से उनकी कल्पना और सोच को विकसित करने में मदद कर सकती हैं, शर्तिया करेंगी, और वे एक बेहतर इंसान बनेंगे। लेकिन आज अधिकतर मां-बाप अपनी अधिकतम सहूलियत के मुताबिक बच्चों को शहर के किसी मॉल या किसी प्ले जोन ले जाकर, आइस्क्रीम पॉर्लर या किसी फास्टफूड सेंटर ले जाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते हैं, जिनसे बच्चों का कोई भी विकास नहीं हो पाता।
इंस्टाग्राम पर जॉर्डन की इस हिजाबधारी मुस्लिम महिला ने अपने बच्चों की ऐसी प्राकृतिक सैर की जो तस्वीरें और वीडियो पोस्ट करना शुरू किया है तो उसने दसियों हजार लोगों को प्रेरणा दी है, और लोग अपने बच्चों को वक्त गुजारने और मनोरंजन का एक बेहतर विकल्प दे पा रहे हैं। साल में एक या दो बार किसी दूसरे प्रदेश या देश जाना एक अलग बात है, लेकिन हर हफ्ते-पन्द्रह दिन में आसपास के किसी नदी-पहाड़, जंगल-झरने तक बच्चों को ले जाना उनकी जिंदगी का रूख बदल सकता है, और अब तो ऐसे सैर-सपाटे की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट करके लोग दूसरे लोगों के बीच भी इस सकारात्मक पहल को बढ़ावा दे सकते हैं। हो सकता है कि लोग अपने दोस्तों के बीच इस किस्म के समूह बनाएं जिनमें वे आसपास की ऐसी जगहों की चर्चा करें, और यह भी हो सकता है कि कुछ परिवार मिलकर भी बच्चों को ऐसी जगहों पर ले जाएं। यह इतनी सामान्य समझ की बातें हैं कि इस बारे में हमें अधिक खुलासे से यहां लिखने की जरूरत नहीं है, लेकिन लोगों को मॉल से बाहर निकालने के लिए इस मुद्दे पर चर्चा की जरूरत जरूर लगी थी, इसलिए आज जॉर्डन की इस महिला की मिसाल देकर यह बात छेड़ी गई।
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हिन्दुस्तान के एक सोलह बरस के शतरंज खिलाड़ी, ग्रैंडमास्टर आर प्रागननंदा ने अभी लोगों को हैरान कर दिया जब उन्होंने एक अंतरराष्ट्रीय ऑनलाईन शतरंज टूर्नामेंट में दुनिया के नंबर एक खिलाड़ी मैग्नस कार्लसन को हरा दिया। माथे पर सफेद तिलक लगाए हुए प्रागननंदा की तस्वीरें पूरी दुनिया में फैल रही हैं, और लोग इस जीत पर हैरान हैं। लेकिन इतनी कमउम्र में दुनिया के एक सबसे माहिर शतरंज खिलाड़ी को हराने की इस खबर की दो छोटी-छोटी और बातें बड़ी दिलचस्प हैं। पहले से तय इस ऑनलाईन शतरंज टूर्नामेंट के ठीक पहले प्रागननंदा ने दिमागी आराम के लिए भारत और वेस्टइंडीज के खिलाफ टी-20 मैच देखा था। और फिर इस शतरंज मुकाबले में दुनिया के नंबर वन खिलाड़ी को हराकर वह चैन से सोने चला गया था, बिना कोई जश्न मनाए।
अब यह सोचने की बात है कि शतरंज मुकाबले के ठीक पहले यह किशोर खिलाड़ी क्रिकेट मैच देख रहा था। हिन्दुस्तान में आमतौर पर औसत छात्र-छात्राएं इम्तिहान के मिनट भर पहले तक कॉपी-किताब में डूबे रहते हैं, पिछली रात जागकर पढ़ते रहते हैं, और दिमाग को आराम जरा भी नहीं देते। किसी काम में कामयाब होने के लिए मेहनत के साथ-साथ आराम की भी जरूरत होती है, इसके महत्व को वे लोग नहीं समझ पाते जो लोग मेहनत को ही सब कुछ मानकर चलते हैं। मेहनत का अपना एक महत्व होता है, लेकिन मेहनत के बीच आराम का भी एक महत्व होता है। जो लोग कसरत करते हैं उन्हें यह बात मालूम रहती है कि हफ्ते में एक या दो दिन का आराम भी जरूरी रहता है। अधिक गंभीरता से कसरत करने वाले महीने में तीसों दिन कसरत नहीं करते क्योंकि बदन को आराम की जरूरत होती है तभी वह आगे काम के लायक तैयार हो पाता है। ठीक इसी तरह शतरंज जैसा दिमागी काम करने वाले लोगों को भी इस खेल से परे के आराम या मनोरंजन की जरूरत होती है, और इसीलिए कोई क्रिकेट टीम चाहे आलोचना का शिकार होती रहे, वह किसी बड़े मैच के पहले कभी स्वीमिंग पूल में खेलते दिखती है, तो कभी किसी और तरह का मनोरंजन करते।
लोगों को जिंदगी में विविधता का भी सम्मान करना चाहिए, और अपने खास मकसद में लगे हुए भी उन्हें अपने तन-मन को आराम देने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि लगातार मेहनत से जो नुकसान होता है, उसकी भरपाई भी बीच-बीच में होते रहनी चाहिए। शायद यही वजह थी जो यह किशोर शतरंज खिलाड़ी शतरंज की बिसात पर और मेहनत करने के बजाय क्रिकेट मैच देखकर अपने को तरोताजा कर रहा था। पढ़ाई के किसी इम्तिहान या किसी दाखिला-इम्तिहान की तैयारी में रात-दिन लगे हुए बच्चों के मां-बाप को भी यह समझना चाहिए कि इन बच्चों को बीच-बीच एक ब्रेक की जरूरत होती है तभी वे आगे की मेहनत करने के लायक तैयार हो सकते हैं। आम हिन्दुस्तानी मां-बाप की दिक्कत यह है कि वे न सिर्फ अपने बच्चों की पढ़ाई तय करते हैं, उनका रोजगार तय करते हैं, बल्कि वे उनका मनोरंजन भी तय करने पर आमादा रहते हैं कि उन्हें किस तरह का मनोरंजन करना चाहिए। इससे बच्चों की मौलिकता पूरी तरह खत्म हो जाती है, और आज अगर कोई हिन्दुस्तानी लडक़ा दुनिया के सबसे बड़े शतरंज खिलाड़ी को हरा रहा है, तो यह महज किसी तकनीक को सीखकर नहीं कर पाया है, बल्कि अपनी कुछ मौलिक चालों की वजह से वह उस्ताद को शिकस्त दे पाया है। इसलिए लोगों को खुद भी अपनी मौलिकता का सम्मान करना चाहिए, और अपने आसपास के लोगों की मौलिकता को भी बनाए रखना चाहिए। संगीत के छात्र शास्त्रीय संगीत की बारीकियों की तकनीक को सीख सकते हैं, बने बनाए राग को सीख सकते हैं, लेकिन एक अनोखा संगीत बनाने के लिए उन्हें अपने मौलिक संगीत पर ध्यान देना होता है, तभी जाकर कोई संगीत उल्लेखनीय बन पाता है और चर्चा पाता है।
प्रागननंदा की इस जीत की खबर में यह भी देखने की जरूरत है कि किस तरह वह जिंदगी की सबसे बड़ी जीत को पाकर बिना इसकी खुशी मनाए सोने चले गया। लोगों में अपनी कामयाबी पर भी अपने दिमाग को काबू में रखना आना चाहिए। इतनी बड़ी कामयाबी के बाद भी अगर कोई चैन से सो सकता है, तो ऐसा लगता है कि वह उससे भी बड़ी कामयाबी के लायक है। कुछ लोगों को लग सकता है कि हम बड़ी मामूली और छोटी-छोटी बातों के बड़े-बड़े मतलब निकालने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन लोगों को अपनी जिंदगी में ऐसी छोटी-छोटी बातों पर ध्यान भी देना चाहिए, और अपने आसपास के लोगों को भी उनके मनचाहे तरीकों से मनोरंजन करने या आराम करने की रियायत देनी चाहिए जो कि लोग देना नहीं चाहते हैं।
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हिन्दुस्तान में जिस हिन्दी भाषा को हम समझते हैं उसमें बच्चों के साहित्य का मामला हमेशा से कुछ गड़बड़ रहा है। एक तो बच्चों के लिए अच्छा साहित्य लिखने वाले लोग कम रहते हैं, और जो रहते हैं उनकी अपनी राजनीतिक समझ और सामाजिक सरोकार दोनों ही कमजोर रहते हैं। नतीजा यह होता है कि वे कमल को घर चलने कहते हैं, और कमला को जल भरने कहते हैं। पहला लैंगिक भेदभाव बचपन की सबसे कच्ची उम्र में ही शुरू होता है जहां स्कूली किताबों से लेकर कहानियों तक मां और बहन को घर का काम करने वाला बताया जाता है, और पिता बाहर काम करने वाले, और बेटा राजा भैया रहता है। लेकिन लैंगिक भेदभाव से परे भी हिन्दुस्तान बाल साहित्य की संवेदनाएं बड़ी कमजोर हैं, और उनसे मिलने वाली चेतना बच्चों को एक कमजोर नागरिक ही बना पाती है। दरअसल बहुत से लोग इस मामले को बच्चों के विकास से जोडक़र देखते भी नहीं हैं, और अधिकतर लोगों को यह समझ ही नहीं आता कि बाल साहित्य से बच्चों के विकास का कुछ खास लेना-देना होता है।
संपन्न तबका तो अपने बच्चों को अंग्रेजी की कार्टून फिल्मों से लेकर अंग्रेजी के बाल साहित्य तक और अंग्रेजी स्कूली किताबों तक को देकर छुट्टी पा लेता है, जो कि लैंगिक समानता के पैमाने पर हिन्दी के मुकाबले कुछ बेहतर रहती हैं। लेकिन हिन्दी का मामला तो बहुत ही गड़बड़ है। और लैंगिक समानता से परे भी बाल साहित्य के साथ दिक्कत यह है कि उसे सतही तुकबंदी से बनाया गया सामान मान लिया जाता है। हिन्दी में नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए, बाकी जो बचा वो काले चोर ले गए, सबको बहुत पसंद आने वाला गाना है। लेकिन इस गाने पर हावी रंगभेद को अगर देखें तो यह समझ पड़ता है कि यह गाना हिन्दी में ही लिखा जा सकता था, और दक्षिण भारत में यह मुमकिन नहीं था। चोर काला होता है, यह बताते हुए बच्चों के दिमाग में यह भी बिठा दिया जाता है कि काले लोग चोर होते हैं, या हो सकते हैं। ऐसी बात उत्तर भारत के अपेक्षाकृत कम काले या गोरे हिन्दीभाषी ही लिख सकते थे। अभी एकलव्य नाम की एक प्रतिष्ठित संस्था की प्रकाशित बच्चों की एक किताब देखने मिली जिसमें एक कविता है, मोटी अम्मा, मोटी अम्मा पिलपिली, बच्चा लेकर गिर पड़ी, बच्चे ने मारी लात, चल पड़ी बारात, बारात के नीचे अंडा, खेलें गिल्ली-डंडा। अब मासूम से दिखने वाले इन शब्दों को अगर देखें तो उनके पीछे भारी बदन वाली किसी महिला की उसके बदन के आकार के लिए सीधे-सीधे खिल्ली उड़ाना सिखाया गया है। मोटी महिला गिर रही है, और बच्चा लात मार रहा है, और कवि इसे पिलपिली महिला कह रहा है! आज सोशल मीडिया पर अंग्रेजी भाषा में जिसे बॉडी-शेमिंग कहा जाता है, शरीर के आकार को लेकर धिक्कारना या खिल्ली उड़ाना, वह कविता के इन गिने-चुने शब्दों में भरा हुआ है। एकलव्य की इसी किताब में बॉडी शेमिंग की एक दूसरी मिसाल भी है, एक प्लेट में दो आलू, मोटू बोला मैं खा लूं, खाते-खाते थक गया, रोटी लेकर भग गया, रोटी गिर गई रेत में, मोटू रोया खेत में। जाहिर है कि इस किताब को तैयार करने वाले लोगों को मोटापे की खिल्ली उड़ाने से कोई परहेज नहीं है, और इसे पढऩे वाले बच्चे अपनी क्लास के किसी मोटे बच्चे की खिल्ली अगर उड़ाएंगे, तो वे अपनी नजरों में कुछ भी गलत काम नहीं करेंगे। इसी किताब की एक और कविता कहती है, टेसू बेटा बड़े अलाल, खाते बासी-रोटी-दाल, बासी दाल ने किया धमाल, टेसू की मुंडी से उड़े बाल, चिकनी मुंडी चाय गरम, टेसू राजा बेशरम। अब दस-बीस शब्दों की इस कविता में बासी खाने वालों को अलाल भी बता दिया गया, बासी खाने से सिर के बाल उडऩा भी बता दिया गया, सिर के बाल उडऩे वाले को चिकनी मुंडी वाला बेशरम भी बता दिया गया! यह सिलसिला बहुत ही खतरनाक है।
हिन्दी की पाठ्य पुस्तकों में बच्चों के लिए बनाई गई कहानियों और कविताओं में से बहुतों का यह हाल रहता है। और यह सिलसिला बदलने की जरूरत है। भाषा को न्यायसंगत और सामाजिक सरोकार का बनाना बहुत ही जरूरी है क्योंकि बच्चों की सोच की बुनियाद से ही अगर उनके मन में सामाजिक भेदभाव या शरीर को लेकर हिकारत भर दी जाए, तो वे जिंदगी भर वैसे ही पूर्वाग्रहों के साथ जीने का खतरा रखते हैं। आज जब हिन्दुस्तान में एक संकीर्णतावादी सोच छोटे बच्चों से लेकर बड़ों तक की पढ़ाई को एक खास धर्म और तथाकथित संस्कृति के मुताबिक ढालने पर आमादा है, उस वक्त ऐसी महीन बातों पर सोचने की किसी को फुर्सत भी नहीं है, और सरकारी किताबों से परे निजी किताबों के लेखकों-प्रकाशकों में भी सामाजिक-चेतना की भारी कमी है। ऐसे में जिम्मा समाज के जागरूक तबकों का बनता है कि वे जहां कहीं गैरबराबरी और बेइंसाफी की बातों को लिखा देखें, उनका विरोध करें।
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अभी भारत के क्रिकेट सितारे सचिन तेंदुलकर की पत्नी अंजलि की कही हुई कुछ बातें एक खबर में छपी हैं कि किस तरह उन्होंने परिवार का ख्याल रखने के लिए अपनी मेडिकल प्रैक्टिस छोड़ी ताकि सचिन तेंदुलकर पूरी तरह से क्रिकेट में ध्यान लगा सकें। यह कतरन कुछ लोगों ने फेसबुक पर पोस्ट की तो लोगों ने अंजलि के त्याग की बड़ी तारीफ की, लेकिन कुछ लोगों ने यह भी लिखा कि त्याग हर बार महिला को ही क्यों करना होता है? खासकर हिन्दुस्तान में यह बात और तल्खी के साथ नजर आती है कि लोग आमतौर पर पढ़ी-लिखी बहू चाहते हैं, और साथ ही यह भी चाहते हैं कि वह अगर बाहर काम करती है तो भी उसके साथ-साथ घर को भी अच्छी तरह सम्हाले, और अगली-पिछली सभी पीढिय़ों का भी ठीक से ख्याल रखे। यह गैरबराबरी अगर हिन्दुस्तान जैसे देश में ही रहती तो भी समझ में आता, लेकिन यह सबसे विकसित और लोकतांत्रिक देशों में भी जिस हद तक सामने आती है वह बात चौंकाने वाली है।
अभी दो दिन पहले ही जर्मनी की कामकाजी महिलाओं के बारे में एक रिपोर्ट आई है जो बताती है कि योरप के एक सबसे सभ्य और विकसित लोकतंत्र में भी बराबर पढ़ी-लिखी हुई महिलाएं आगे बढऩे की अपनी संभावनाओं के मामले में बराबरी के पुरूषों से किस हद तक पीछे रह जाती हैं। गैरबराबरी का यह फासला घट जरूर रहा है, लेकिन अभी भी यह काफी बड़ा है। पढ़ाई और काबिलीयत के मामले में जर्मन महिलाएं आदमियों से आगे हैं, कामगारों के बीच भी उनका अनुपात बराबरी से थोड़ा ही कम है, लेकिन नौकरियों में सबसे सीनियर ओहदों पर उनकी हिस्सेदारी आदमियों के मुकाबले बहुत कम है। 160 बड़ी जर्मन कंपनियों के बोर्ड स्तर पर कुल 11 फीसदी महिलाएं हैं, और आम जर्मन महिलाओं की तनख्वाह भी पुरूषों के मुकाबले करीब 20 फीसदी कम है। तनख्वाह का फर्क घट रहा है लेकिन औसत रूप से महिलाओं को पुरूषों के मुकाबले रिटायरमेंट पेंशन 49 फीसदी कम मिलती है। लेकिन इसकी पूरी तोहमत लैंगिक भेदभाव पर डालना सही नहीं होगा क्योंकि परिवार का ख्याल रखने या बच्चों को बड़ा करने के लिए महिलाएं अपना करियर ठीक उसी तरह कुर्बान कर रही हैं जिस तरह की बात अंजलि तेंदुलकर के बारे में अभी सामने आई है।
हिन्दुस्तान के बारे में कुछ समय पहले एक आंकड़ा सामने आया था कि 2005 में भारतीय मजदूरों में महिलाओं का अनुपात 26 फीसदी था जो कि 2019 में घटकर 20 फीसदी रह गया है। विश्व बैंक के इन आंकड़ों को इस संदर्भ में देखना बेहतर होगा कि भारत के इस 20 फीसदी के मुकाबले बांग्लादेश में महिला कामगारों की भागीदारी 30.5 फीसदी है, और श्रीलंका में यह संख्या 33.7 फीसदी है। भारत के कामगारों में 30 फीसदी महिलाएं संख्या में जरूर काम कर रही हैं, लेकिन वे सबसे निचली मजदूरी पाने वालों में हैं। हिन्दुस्तानी उद्योग-धंधों की एक तकलीफदेह हकीकत यह भी है कि शादी या बच्चों के लिए कुछ लंबी छुट्टी लेने वाली महिलाओं का काम खो बैठने का खतरा बहुत अधिक होता है। अब सवाल यह है कि शादी के बाद नए घर जाकर रहने, शहर बदलने की समस्या महिला की ही रहती है, हिन्दुस्तान में तो आदमियों की यह दिक्कत नहीं रहती है। और गर्भवती भी महिलाएं ही होती हैं, इसलिए उन्हीं को प्रसूति अवकाश लेना होता है, कानूनन उन्हें ही मिलता है, और बच्चे बड़े करने की जिम्मेदारी भी उन पर होती है, परिवार के बुजुर्गों का ख्याल रखने की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर रहती है। इस तरह उनके कामकाज की जगहों पर उन्हें लेकर अनिश्चितता का खतरा अधिक रहता है, और यह अनिश्चितता उनके वेतन-भत्तों से लेकर नौकरी की सुरक्षा की गारंटी तक सभी पर असर डालता है।
तो क्या यह मान लिया जाए कि देश कैसा भी, अर्थव्यवस्था कैसी भी हो, बच्चे पैदा करने और परिवार देखने की जिम्मेदारियां महिलाओं को कभी भी बराबरी का हक और बराबरी की संभावनाएं नहीं पाने देंगी? यह गैरबराबरी तब और अधिक बढ़ जाती है जब कोई समाज या इलाका महिलाओं को सुरक्षित आवाजाही और काम की सुरक्षित जगह नहीं दे पाता। ऐसे में एक महिला का कामकाज के लिए रात-दिन का आना-जाना मुमकिन नहीं हो पाता, और काम की उनकी जगहों पर वे बराबरी की संभावनाएं नहीं छू पातीं। पुरूष कर्मचारियों के साथ यह सहूलियत रहती है कि उनकी दिन-रात कभी भी ड्यूटी लगाई जा सकती है, वे काम पर आ-जा सकते हैं, लेकिन महिलाओं को ऐसा सुरक्षित वातावरण नहीं मिल पाता, और हिन्दुस्तान जैसे देश में तो अधिकतर जगहों पर उन्हें रात में अकेले आने-जाने की हिफाजत भी हासिल नहीं रहती।
इस मुद्दे पर चर्चा करते हुए इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है कि घर पर काम करने वाली महिला की उत्पादकता को आर्थिक पैमाने पर नापने की कोई परंपरा नहीं है। घर पर उसके किए हुए रोजाना के दस-बारह घंटे या और अधिक के काम का कोई मूल्यांकन नहीं होता है, और उसे मिलने वाली सिर छुपाने की जगह, दो वक्त का खाना, और सामाजिक सुरक्षा को ही उसकी मजदूरी मान लिया जाता है। जबकि एक महिला के किए जाने वाले अलग-अलग तरह के रोजाना के काम, और परिवार की सुरक्षा में उसकी लगने वाली मेहनत को अगर देखा जाए, तो इन सबको हासिल करने के लिए किसी भी परिवार को बहुत बड़ी रकम खर्च करनी होती, लेकिन ऐसी मेहनत का कोई मूल्यांकन नहीं होता। महिलाओं से जुड़े हुए इन तमाम मुद्दों पर अलग-अलग मंचों पर बार-बार चर्चा करने की जरूरत है क्योंकि महिला के हाथ में उसकी मेहनत का जायज मेहनताना चाहे न आए, कम से कम परिवार और समाज में उसे यह महत्व और सम्मान तो मिलना ही चाहिए कि वह नगदी मेहनताना पाए बिना भी अपनी सहूलियतों से सौ गुना अधिक योगदान परिवार और समाज को देती है। अंजलि तेंदुलकर ने अगर काम छोडक़र परिवार सम्हाला, और सचिन तेंदुलकर को परिवार की तरफ से बेफिक्र रहकर हिन्दुस्तान का सबसे अधिक कमाऊ भारत रत्न बनने मिला, तो इसमें घरवाली के योगदान का मूल्यांकन जरूरी है।
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अभी अनायास एक ऐसा वैज्ञानिक संयोग हुआ जिसने यह अंदाज लगाने का मौका दिया है कि इंसान अपने आखिरी कुछ पलों में क्या करते हो सकते हैं? अमरीका की एक यूनिवर्सिटी, लुईसविले, में न्यूरोसर्जन एक ऐसे व्यक्ति की दिमागी हलचलों को रिकॉर्ड कर रहे थे जो कि मिर्गी के दौरों का शिकार था। उसके दिमाग की तरंगें दर्ज हो ही रही थीं कि वह अचानक दिल के दौरे से मर गया। अब मौत के कुछ पल पहले, और दिल की धडक़न बंद हो जाने के बाद के कुछ पलों तक उसके दिमाग में जो हलचल चल रही थी उसे कम्प्यूटर रिकॉर्ड करते चल रहा था। अब वैज्ञानिकों के पास ऐसी तकनीक है कि वे ऐसी रिकॉर्डिंग का यह विश्लेषण कर सकते हैं कि उस वक्त दिमाग में क्या चल रहा था। इस व्यक्ति के मौत के वक्त की रिकॉर्डिंग बतलाती है कि वह सपने देखते हुए या पुरानी यादों को ताजा करते हुए दर्ज होने वाली रिकॉर्डिंग सरीखी थीं। इसका एक मतलब यह भी हो सकता है कि मौत के वक्त उस इंसान के दिमाग में अपनी जिंदगी की यादों का सैलाब चल रहा था। अब यह बात एक वैज्ञानिक अध्ययन के एक मानवीय विश्लेषण से निकली हुई है, और यह अपने किस्म की एक अनोखी और अकेली रिकॉर्डिंग है इसलिए इससे बहुत अधिक निष्कर्ष निकालना भी जायज नहीं होगा। आज इस जगह पर इस मुद्दे को लेकर लिखने का मतलब ऐसे वैज्ञानिक विश्लेषण की गहराई में जाना नहीं है, बल्कि इसके एक मानवीय पहलू पर चर्चा करना है।
अगर यह बात और कई लोगों की रिकॉर्डिंग में साबित होती है कि मौत के पल इंसान की जिंदगी की यादों को दुहराने के पल रहते हैं, तो फिर लोगों को यह सोचना चाहिए कि वे अपने ऐसे पलों के लिए अपनी जिंदगी में किस किस्म की यादें रखना चाहते हैं? वैसे भी धर्म से जुड़े हुए लोग भी यह कहते हैं कि मौत के बाद ऊपर जाकर तमाम चीजों का हिसाब देना होता है। अगर ऐसा कोई ऊपर है, और वहां ऐसा कोई हिसाब होता है, तो उस हिसाब में भी लोगों को जिंदगी की तमाम अच्छी और बुरी यादों से गुजरना ही होगा। इसलिए आज बेहतर यही है कि वैज्ञानिक निगरानी में दर्ज होने वाले आखिरी पलों की बात हो, या ऊपर जाकर किसी काल्पनिक ईश्वर के सामने हिसाब देने की बात हो, लोगों को अपनी जिंदगी के अंत के लिए अपनी यादों को बेहतर रखना चाहिए। कुछ लोगों को यह भी लग सकता है कि केवल किस्से-कहानियों में चल रही ईश्वर की अदालत की परवाह करके भला क्यों पूरी की पूरी जिंदगी ईमानदारी की तकलीफ में गुजारें, या बेईमानी का मजा पाने से परे रहें। लेकिन कुछ लोग ऐसा जरूर सोच सकते हैं कि आखिरी वक्त अपनी छाती पर इतना बोझ न रहे कि यादें ही अपना गला घोंट दें।
जो बात हम लिख रहे हैं यह बहुत ही महीन बात है, और मोटी समझ वाले, नैतिकता से बेफिक्र अधिकतर लोगों के लिए यह बेवकूफी की एक गैरजरूरी बात होगी। लेकिन फिर भी हमें जो सूझ रहा है वह यह है कि लोगों को अपनी पूरी जिंदगी ऐसे काम भी करने चाहिए जो कि आखिरी वक्त पर अपनी छाती का बोझ हल्का कर पाएं। लोगों को यह भी सोचकर जिंदगी गुजारनी चाहिए कि कुछ अच्छी यादें भी इन आखिरी पलों के लिए साथ रहें, और जिनका भरोसा स्वर्ग और नर्क में है, उन्हें भी उन जगहों की सहूलियत का फर्क याद रखते हुए अपनी जिंदगी बेहतर रखनी चाहिए। फिर यह भी है कि आज की बात तो एक अकेले वैज्ञानिक प्रयोग के विश्लेषण को लेकर है जो कि किसी और मकसद से किया जा रहा था, और जिसमें कोई और बातें दर्ज हो गईं, आगे चलकर हो सकता है कि विज्ञान कई दूसरे किस्म के नतीजों पर पहुंचने लगे, और यह साबित होने लगे कि आज के किए हुए अच्छे या बुरे काम का कल क्या नतीजा हो सकता है, कल उसका कैसा फर्क पड़ सकता है। विज्ञान अंधाधुंध रफ्तार से आगे बढ़ रहा है, और जो बातें अब तक सिर्फ विज्ञान कथाओं में होते आई हैं, हो सकता है कि अगले कुछ हफ्तों में वे हकीकत भी बन जाएं। अभी-अभी 2022 के पहले पचास दिनों की वैज्ञानिक कामयाबियों को लेकर बनाई गई एक लिस्ट सामने आई है जिसमें कहा गया है कि महज इतने ही दिनों में विज्ञान ने यह देखा कि परमाणु टेक्नालॉजी में एक बड़ी खोज हुई है जिससे साफ-सुथरी ऊर्जा में मदद मिलेगी, पहली बार एक महिला एचआईवी के इलाज से ठीक हुई है, एमआईटी के इंजीनियरों ने एक नया ऐसा असंभव-पदार्थ बनाया है जो स्टील से अधिक मजबूत है लेकिन प्लास्टिक से भी हल्का है, एंटीबायोटिक के खिलाफ बदन में बनने वाले प्रतिरोध से निपटने में एक बड़ी कामयाबी हुई है, हवा से कार्बन कैद करने की एक बड़ी तकनीक 2022 में ही तैयार हुई है, अब डीएनए तकनीक में इतनी रफ्तार आ गई है कि वह इंसानी जीनोम कुल पांच घंटे दो मिनट में कर ले रही है, रीढ़ की हड्डी में अभी एक ऐसा इम्प्लांट लगाया गया है जिससे लकवाग्रस्त लोग फिर से चल रहे हैं, साइकिल चला रहे हैं, और तैर रहे हैं, एक इंसान को जानवर का हृदय प्रत्यारोपित किया गया है, 25 बरस की मेहनत से और 10 बिलियन डॉलर की लागत से बनाए गए एक अंतरिक्ष टेलीस्कोप ने अपनी पहली तस्वीरें दी हैं, स्वीडन के वैज्ञानिकों ने सौर ऊर्जा से कार्बनडाइऑक्साइड को ईंधन में बदलने की तकनीक विकसित की है। ये सारी कामयाबियां 2022 से पहले पचास दिनों की हैं, और यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि ऐसी तकनीक किसी भी दिन सामने आ सकती हैं जो ये साबित करें कि आज के अच्छे या बुरे काम का नफा या नुकसान कल किस तरह दर्ज हो सकता है। इसलिए एक वैज्ञानिक प्रयोग से निकली हुई एक दार्शनिक किस्म की बात की भावना को समझने की जरूरत है, और उसके मुताबिक अपनी भावनाओं को बदलने की, ताकि अपनी जिंदगी के आखिरी पल सुख देने वाले हों, न कि छाती पर बोझ बनने वाले। और अगले किसी वैज्ञानिक प्रयोग के नतीजे जिंदगी के आखिरी पलों के पहले की पूरी जिंदगी को भी किसी तरह रिकॉर्ड कर सकते हैं, इसलिए आज से ही अपने तौर-तरीकों को बेहतर बनाने की जरूरत है।
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बिहार के नवादा जिले का थालपोश गांव इन दिनों उबल रहा है क्योंकि हफ्ते भर पहले पुलिस ने वहां रहते हुए फोन और इंटरनेट पर साइबर जुर्म में लगे हुए 33 लोगों को गिरफ्तार किया है जिनमें से 31 लोग इसी गांव के हैं। इनमें से अधिकतर ऐसे नौजवान हैं जो पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए, या पढ़-लिखकर बेरोजगार हैं, और वे मामूली लैपटॉप और मोबाइल फोन पर तरह-तरह का झांसा देकर पूरे देश में धोखाधड़ी और जालसाजी का जाल फैला चुके थे, और तरह-तरह की एजेंसी दिलाने के नाम पर लोगों से रकम ऐेंठ लेते थे, अपने बैंक खातों में पैसे बुलवा लेते थे, और वहां से बाहर निकाल लेते थे। अब तीन हजार की आबादी वाले छोटे से गांव में एक साथ इतने लोगों की गिरफ्तारी से जाहिर है कि हंगामा मचा हुआ है। लेकिन लोगों को याद होगा कि झारखंड में भी जामताड़ा नाम की एक ऐसी जगह है जहां के लोग बड़ी संख्या में साइबर मुजरिम हो गए हैं, और रात-दिन टेलीफोन करके देश भर में लोगों को ठगते रहते हैं।
अब आज जब हिन्दुस्तान में हर मोबाइल सिमकार्ड, हर इंटरनेट कनेक्शन, और हर मोबाइल हैंडसेट या लैपटॉप की शिनाख्त बड़ी आसान हो गई है, और पुलिस के थानेदार तक कुछ घंटों में ही किसी मोबाइल की लोकेशन निकाल सकते हैं, तब किसी एक जगह से संगठित अपराध के ऐसे कुटिर उद्योग चलना हैरान करता है। सरकार की क्षमता तो जाहिर तौर पर बहुत अधिक है, लेकिन सरकार की तैयारी अपने देश के अर्धशिक्षित और अशिक्षित बेरोजगार ग्रामीणों के मुकाबले भी बहुत कम है, खासकर साइबर-जुर्म के मामले में। देश का सबसे कड़ा साइबर कानून रहते हुए भी उस पर अमल सबसे कमजोर चल रही है, तभी देश भर में हर दिन दसियों हजार लोग साइबर ठगी और धोखाधड़ी के शिकार हो रहे हैं। जिस रफ्तार से हिन्दुस्तानी जिंदगी में डिजिटल लेन-देन और साइबर कामकाज बढ़ा है, उस हिसाब से लोगों का रातोंरात साइबर-शिक्षित हो जाना मुमकिन भी नहीं था। ऐसे में डिजिटल कामकाज को बढ़ावा देने वाली सरकार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह लोगों को जागरूक करने का अभियान भी लगातार चलाती रहे, और अपने कम्प्यूटर-औजारों से यह भी नजर रखे कि संगठित जुर्म किन फोन और कम्प्यूटरों से किए जा रहे हैं। आज हालत यह है कि बहुत से ऐसे अशिक्षित और गरीब लोग हैं जो कि साइबर ठगी की शिकायत तक करने की हालत में नहीं हैं। इन लोगों को आज सरकार की लागू की गई साइबर-बैंकिंग या दूसरे डिजिटल-इंतजाम का इस्तेमाल तो करना पड़ रहा है, लेकिन उनके पास जालसाजी-धोखाधड़ी से बचने की समझ नहीं है। यह नौबत तेजी से बदलनी चाहिए।
साइबर जालसाजी और ठगी से परे कई दूसरे किस्म के साइबर जुर्म भी चल रहे हैं जिनमें नकली आईडी बनाकर दूसरे लोगों की फोटो लगाकर सोशल मीडिया अकाऊंट बनाना और लोगों को धमकी देना, ब्लैकमेल करना जैसे काम चल रहे हैं। इनको रोकने की ताकत भी सिर्फ सरकार के हाथ है क्योंकि देश में साइबर सुरक्षा को लागू करना किसी नागरिक के हाथ में नहीं है। यह काम भी बहुत बुरी तरह चल रहा है कि लोगों को सोशल मीडिया पर ब्लैकमेल करके, उनकी निजी तस्वीरें पोस्ट करके, या मैसेंजर सर्विसों से फैलाकर उन्हें खुदकुशी के लिए मजबूर किया जा रहा है। ऐसी खबरें हर हफ्ते सामने आती हैं, और इन पर सजा की खबरें भूले-भटके ही दिखती हैं। जबकि साइबर सुबूत पुख्ता रहते हैं, इनके बाद गवाही की जरूरत नहीं रहती है, और अदालती फैसले तेजी से हो सकते हैं। लेकिन साइबर-जुर्म 21वीं सदी की रफ्तार से चल रहे हैं, और उन पर अदालती कार्रवाई 19वीं सदी की रफ्तार से। यह नौबत मुजरिमों के लिए मजे की है, और जुर्म के शिकार लोगों के लिए खुदकुशी की मजबूरी की। देश की साइबर एजेंसियों और राज्यों की पुलिस में अगर कोई साइबर शाखा है, तो उसे भी तेजी से काम करना चाहिए, और ऐसे जुर्म को तेजी से सजा तक पहुंचाना चाहिए। हो सकता है कि परंपरागत ढर्रे पर काम करने वाली वर्दीधारी पुलिस खुद भी साइबर-क्राईम की रोकथाम और उसकी शिनाख्त के लिए पर्याप्त प्रशिक्षित न हो, ऐसे में पुलिस को विभाग से बाहर के साइबर-जानकार नौजवानों की सेवाएं लेने के बारे में भी सोचना चाहिए जिससे कि जुर्म की जांच एकदम तेज हो सकेगी। देश की पुलिस कई पीढ़ी पहले के तौर-तरीकों पर काम करती है, और देश के अनपढ़ साइबर-मुजरिम भी आज के कानून की समझ से आगे जाकर जुर्म करते हैं। गैरबराबरी के इस सिलसिले में फासला बढ़ते ही चल रहा है, और केन्द्र और राज्य सरकारों की जांच एजेंसियों को परंपरागत ढांचे से बाहर आकर विशेषज्ञता हासिल करनी होगी, तभी जनता बच सकेगी।
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पाकिस्तान के लाहौर में प्रधानमंत्री इमरान खान की तीसरी बीवी के बेटे को तीन दूसरे नौजवानों सहित शराब के साथ पकड़ा गया, और बड़े अफसरों की दखल के बाद छोड़ दिया गया। पाकिस्तान में शराब की बिक्री और शराब पीना दोनों गैरकानूनी है। लाहौर के पुलिस अफसर ने इस मामले में बतलाया कि जब इसे शराब के साथ पकड़ा गया तो उसने अफसरों को धमकाया और कहा कि वह प्रधानमंत्री का बेटा है, और उसे पकडऩे का अंजाम बुरा होगा। उल्लेखनीय है कि इमरान की तीसरी बीवी बुशरा बी उनकी आध्यात्मिक गुरू भी मानी जाती हैं और आध्यात्मिक संबंध बाद में शादी में तब्दील हुए थे। यह बेटा बुशरा बी की पहली शादी का है, और इमरान खान का सौतेला बेटा हुआ।
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान किस हद तक एक-दूसरे जैसे हैं इसकी यह एक अच्छी मिसाल है। जब किसी ताकतवर को पकड़ा जाता है तो उसकी पहली प्रतिक्रिया यह होती है कि वे जानते नहीं कि उसका बाप कौन है। अब किसका बाप कौन है इसका पता किसी जुर्म के मौके पर पुलिस लगाना चाहे तो यह मामला काफी जटिल हो जाएगा। पकड़ाई गई बिगड़ैल औलाद का डीएनए लेना पड़ेगा, और फिर जिस ताकतवर की तरफ वह बिगड़ैल इशारा कर रहा है, उसका भी डीएनए लेना पड़ेगा, और फिर देश की सबसे बड़ी प्रयोगशाला में इसका मिलान करके देखना पड़ेगा। अब न तो हिन्दुस्तानी और न ही पाकिस्तानी कानून में डीएनए की वजह से जुर्म की छूट का कोई इंतजाम है, इसलिए जुर्म के ऐसे मामले ठीक उसी तरह वापिस लेने पड़ेंगे जिस तरह हिन्दुस्तान के राज्यों में सत्तारूढ़ नेताओं पर से जुर्म के मामले वापिस लिए जाते हैं। दूसरी तरफ सडक़-चौराहों पर ताकतवर डीएनए का दावा करने वाले ऐसे लोगों का नमूना अगर डीएनए जांच में सचमुच ही उनके ताकतवर और कथित पिता से नहीं मिलेगा, तब तो छोटे से जुर्माने से बचने के लिए बड़ी सी सामाजिक किरकिरी हो जाएगी, और कम से कम एक परिवार तो तबाह हो ही जाएगा। इसलिए बात-बात पर डीएनए की ऐसी चुनौती ठीक नहीं है। कहीं सचमुच ही हिन्दी फिल्मों के किसी हीरो की तरह सडक़ पर कोई पुलिस वाला आमादा ही हो जाएगा तो क्या होगा?
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान चूंकि अभी पौन सदी पहले तक एक ही मुल्क थे, इसलिए इन दोनों में सत्ता की बददिमागी कुछ हद तक एक सी है। सरहद के हिन्दुस्तानी तरफ देखें तो लोगों को अपनी ताकत की नुमाइश करने से ही फुर्सत नहीं मिलती है। सांसद और विधायक, बड़ी अदालतों के जज, और संवैधानिक संस्थाओं में बैठे हुए लोग अपनी बाकी जिम्मेदारियों को भले एक फीसदी भी पूरा न करें, एक अधिकार को सौ फीसदी से भी अधिक इस्तेमाल करते हैं, और अपनी कार की नंबर प्लेट से बड़े आकार की प्लेट पर सुनहरे हर्फों में अपना ओहदा लिखकर चलते हैं, और बिना जरूरत भी सायरन बजाए बिना नहीं रहते। जिनका काम गरीबों की मदद करना है, वे सडक़ों पर से पुलिस पायलट गाडिय़ों को सामने रखकर, सायरन बजाकर, लाठी लहराकर गरीबों को सडक़ों से धकियाकर चलते हैं, मानो वे तेजी से जाकर तेजी से इंसाफ कर देंगे, और दुनिया की तस्वीर बदल जाएगी।
ताकत की नुमाइश अश्लील तरीके से शुरू होती है, और बात की बात में वह हिंसक तरीके तक पहुंच जाती है। लोगों को चाहिए कि ऐसे लोगों के खिलाफ सडक़ों पर एकजुट हों, और रास्ता रोककर इनसे सवाल पूछें कि इन्हें पुलिस पायलट गाड़ी, सायरन, और गाडिय़ों पर ओहदे की तख्ती की क्या जरूरत है? क्योंकि ये सारे खर्च जनता के पैसों से होते हैं इसलिए जनता का पूरा हक इन सवालों का है, और चूंकि बड़ी अदालतों के जज भी ताकत की इस हिंसक नुमाइश के शौकीन रहते हैं, इसलिए अदालत में कोई जनहित याचिका भी इंसाफ नहीं पा सकती। लोगों को जनता के स्तर पर ही जनमत तैयार करना होगा क्योंकि हिन्दुस्तानी न्याय व्यवस्था में तजुर्बेकार जानकार लोगों का यह मानना है कि जनहित के किसी मुद्दे को भी बड़े जज तभी सुनते हैं जब उन्हें यह समझ आ जाता है कि उसके साथ बड़ा जनमत जुड़ चुका है, तब जाकर उन्हें लगता है कि इसे सुने बिना कोई चारा नहीं है। लोगों को जनमत तैयार करने पर भी मेहनत करनी चाहिए, और आज सोशल मीडिया और मैसेंजर सर्विसों की मेहरबानी से जब नफरत को एकजुट करना आसान हो गया है, तो सरोकार और जागरूकता को भी फैलाना और लोगों को एकजुट करना नामुमकिन तो नहीं है। लोगों को इसकी शुरूआत करनी होगी, और कुछ शुरूआती लोग जोडऩे होंगे, उसके बाद तो बात रफ्तार पकड़ सकती है।
हिन्दी फिल्मों में बददिमाग नेताओं की अक्ल को ठिकाने लाने वाले पुलिस अफसर का किरदार कई कहानियों में आ चुका है। असल जिंदगी में पुलिस के लिए तो यह मुश्किल होता है, लेकिन आम लोगों के लिए यह उतना मुश्किल भी नहीं होता। आज अगर सोशल मीडिया पर किसी बददिमागी के खिलाफ लिखना शुरू किया जाए, तो भी वह बात शोहरत हासिल कर सकती है। अभी जब तस्वीरों में यह दिखा कि मध्यप्रदेश के एक सबसे बड़े भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय का विधायक बेटा क्रिकेट के बल्ले से एक अफसर को मार रहा है जिसका कि वीडियो चारों तरफ फैल चुका था, लेकिन अदालत में इस अफसर ने गवाही दी कि उसने बल्ले से मारने वाले का चेहरा नहीं देखा क्योंकि वह पीछे था, तो तस्वीरों ने दिखा दिया कि वह अफसर तो मार खाते हुए इस विधायक का चेहरा ही देख रहा था। राजनीतिक और सत्तारूढ़ बददिमागी का ऐसा ही भांडाफोड़ होना चाहिए, और खासकर जब चुनाव का समय आए तब लोगों को ताकत के ऐसे हिंसक वीडियो का खुलकर इस्तेमाल करना चाहिए। हो सकता है कि इसके बावजूद बददिमाग और ताकतवर नेता अपनी काली कमाई के अंधाधुंध इस्तेमाल से चुनाव जीत जाएं, लेकिन उनकी गुंडागर्दी के सुबूत का नुकसान कम करने के लिए उनके कुछ करोड़ रूपए तो निकल ही जाएंगे।
हमारा तो यह भी सोचना है कि इस किस्म की सत्ता की ताकत की गुंडागर्दी के खिलाफ देश की बड़ी अदालतों को भी खुद होकर कार्रवाई शुरू करनी चाहिए क्योंकि सत्ता तो अपने गुंडों के खिलाफ कोई कार्रवाई करने से रही। लेकिन अदालतों को भी ऐसा करने के लिए मजबूर करने को एक मजबूत जनमत का दबाव लगेगा, और ऐसी हर सामंती गुंडागर्दी के खिलाफ जनता को खूब जमकर लिखना चाहिए, और मुर्दा राजनीतिक चेतना को कोंचकर जिंदा करने की कोशिश करनी चाहिए।
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हिन्दुस्तानी समाज में सेक्स संबंध हमेशा से एक नाजुक मुद्दा रहते आए हैं, और इस ‘हमेशा’ का मतलब अभी डेढ़-दो सौ साल ही है। उसके पहले तक अंग्रेज और ईसाई इस देश में नहीं आए थे, और तब की भारतीय संस्कृति सेक्स के मुद्दों को लेकर अधिक खुले खयालों की थी, अधिक उदार थी। लेकिन आज सेक्स शिक्षा से लेकर नग्नता तक, और वयस्क देह-संबंधों तक हिन्दुस्तानी समाज का बर्दाश्त जिस हद तक खत्म हो चुका है, वह अंग्रेजों की छोड़ी गई जूठन और गंदगी का नतीजा है। हिन्दुस्तान में समलैंगिकों को, वेश्याओं को, हिजड़ों और दूसरे किस्म के सेक्स-अल्पसंख्यकों को पहले कभी इतनी बुरी और हिंसक नजरों से नहीं देखा गया था जैसा कि आज देखा जा रहा है। यह वही देश है जहां वात्सायन ने कामशास्त्र लिखा था, जो कि दुनिया का एक प्रमुख सेक्स-ग्रंथ माना जाता है, सैकड़ों बरस पहले हिन्दुस्तान के सैकड़ों मंदिरों पर वयस्क सेक्स-संबंधों की मूर्तियां उकेरी गई थीं, भीतर ईश्वर और बाहर सेक्स! इस पर कभी कोई आपत्ति नहीं हुई थी, लेकिन अब अंग्रेजों के वक्त चर्च के लादे गए सेक्स-नैतिकता के पैमाने सिर पर इस तरह सवार हैं कि कहीं कोई स्कूल बड़ी कक्षाओं के बच्चों को उनकी देह का विज्ञान पढ़ाने की कोशिश करता है तो उस गौरवशाली भारतीय संस्कृति नष्ट करने की हरकत मानकर उसका हिंसक विरोध होता है। जबकि यह देश परंपरागत सेक्स-शिक्षा वाला देश रहा है, और अलग-अलग तबके की सेक्स-शिक्षा के अलग-अलग तरीके रहते आए हैं। आज जो हिन्दू उग्रवादी ऐसे तमाम मुद्दों पर सबसे पहले झंडा-डंडा लेकर टूट पड़ते हैं, उन्हें इतिहास के पन्ने अगर दिखाए जाएं कि वे केवल अंग्रेजों की छोड़ी गंदगी को अपने सिर पर टोकरा भरकर ढो रहे हैं, तो फिर पता नहीं टोकरे के नीचे के उनके सिर को कैसा लगेगा?
इस पर चर्चा की जरूरत आज इसलिए हो रही है कि एक-एक करके अब बहुत सी ऐसी बॉलीवुड फिल्में आ चुकी हैं जिनमें समलैंगिक संबंधों पर केन्द्रित कहानियां रही हैं। मर्दों के समलैंगिक संबंध भी, और औरतों के भी। इन सबका खुलकर जिक्र हुआ है, ऐसी कुछ फिल्मों को पुरस्कार भी मिले हैं, और लोगों ने सिनेमाघरों में जाकर या घर पर अकेले, बच्चों से दूर रहकर ऐसी फिल्में देख तो ली ही हैं। नतीजा यह है कि जो समलैंगिकता अब तक सिर्फ हिंसा के लायक मानी जाती थी, उसे बॉलीवुड की फिल्मों ने एक बर्दाश्त करने लायक मुद्दा बनाकर पेश किया है। अच्छे-अच्छे प्रगतिशील लोग आज तक समलैंगिकता को मानसिक रोग, मानसिक विकृति, और अप्राकृतिक मानते हैं। वे अब भी समलैंगिक लोगों के मनोवैज्ञानिक इलाज की वकालत करते हैं। दरअसल अंग्रेजी-राज में चर्च के लादे गए नैतिकता के मूल्य बहुत वजनदार थे, और हिन्दुस्तान की हजारों बरस की अपनी मौलिक सोच भी उससे उबर नहीं पाई है जिसमें समलैंगिकता को लेकर ऐसी हिंसक सोच कभी नहीं थी। हिन्दुस्तान का कानून भी अंग्रेजों के छोड़े गए पखाने से लिखा गया, और जो-जो बातें चर्च या अंग्रेज सरकार को खटकती थीं, वे तमाम बातें आज भी हिन्दुस्तानी कानून पर हावी हैं, फिर चाहे वे खुद अंग्रेजों के अपने देश में जमाने पहले से कानून से हटा क्यों न दी गई हों।
हिन्दुस्तान में फिल्मों से लोगों की सोच बदलने का सिलसिला कोई नया नहीं है। राजकपूर की कई फिल्मों में सफेद-झीने कपड़े पहनी नायिका को भीगते दिखाना एक अलग बात थी, लेकिन ऐसी बाजारू नुस्खों के साथ-साथ राजकपूर की कई फिल्मों में सामाजिक बेइंसाफी के कई मुद्दों को भी उठाया गया था, और उनसे भी लोग सोचने पर मजबूर हुए थे। अब फिल्मों का असर हम इतना भी अधिक आंकना और बताना नहीं चाहते कि उन्हें देखकर देश में कोई क्रांति ही हो जाएगी, लेकिन देश के लोगों के सरोकार को कोंचकर अगर फिल्में थोड़ी सी देर के लिए जगाती हैं, तो भी वह कोई छोटा योगदान नहीं रहता। इसी तरह आज जब समलैंगिकता पर एक-एक करके कई फिल्में आ रही हैं, तो इसमें से जो गंभीर फिल्में हैं उन्हें देखकर लोग समलैंगिकता को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं क्योंकि हिन्दुस्तान में इस मुद्दे पर न तो कोई गंभीर मंच बात करना चाहता, और न ही निजी जिंदगी में लोग इस पर बात करना चाहते क्योंकि जो चर्चा करे उसे ही लोग शक की नजर से देखने लगें कि वह समलैंगिक तो नहीं? इससे परे आम समाज में समलैंगिक लोगों के लिए हिकारत और हिंसा का हाल यह है कि महाराष्ट्र के एक सबसे बड़े नेता बाल ठाकरे तक अपने सार्वजनिक भाषणों में मंच और माईक से समलैंगिकों के लिए दी जाने वाली एक गाली का खुलकर इस्तेमाल करते थे। इसलिए आज जब कोई फिल्म या कोई कहानी संवेदनशीलता के साथ इस मुद्दे को छूती हैं, और समलैंगिकों को दिमागी मरीज की प्रचलित तस्वीर से अलग सामान्य इंसान बताती हैं, तो वे समाज की बीमार सोच के इलाज का काम भी करती हैं। हिन्दुस्तानी सोच को ढालने में फिल्मों का योगदान कम नहीं है क्योंकि उनका असर बहुत रहता है, उनकी पहुंच बहुत रहती है, और वे चाहे कोई क्रांति क्यों न ला सकें, वे धीरे-धीरे लोगों के दिमाग को बदलने में कामयाब तो हो ही सकती हैं। लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान में एक वक्त फिल्मों की मेहरबानी से किसी का मोटापा हॅंसने का सामान होता था, हर दक्षिण भारतीय एक काला मद्रासी होता था, हकलाने वाले लोगों को हॅंसाने का काम करते थे, लेकिन धीरे-धीरे फिल्मों की सोच भी बदली, और शायद समाज की बंधी-बंधाई धारणा को बदलने में इस बदलाव का भी योगदान रहा।
अब जब हिन्दुस्तानी कानून ने समलैंगिकता को जुर्म के दायरे से बाहर निकाल दिया है, लेकिन हिन्दुस्तानी संसद समलैंगिकों की आपस में शादी को अब तक अकल्पनीय मानकर उसे कोई कानूनी दर्जा देने के खिलाफ है, तब इस तबके, और इस किस्म के, दूसरी किस्म के कई और सेक्स-अल्पसंख्यकों के मुद्दों को लेकर हिन्दुस्तानी समाज को खुले दिमाग से और उदार मन से सोचने की जरूरत है। कुछ जानकार इतिहासकारों को संदर्भों सहित यह भी लिखने की जरूरत है कि नैतिकता के ये अंग्रेज पैमाने उनके यहां आने के पहले कभी इस देश के नहीं थे, और इस देश के सामने ऐसी कोई मजबूरी भी नहीं रहनी चाहिए कि यह अंग्रेजों की गंदगी को सिर पर सजाकर चले, खासकर ऐसा तबका जो कि वेलेंटाइन्स-डे का भी विरोध इसलिए करता है कि यह अंग्रजों का छोड़ा हुआ है, और इस दिन प्रेमी जोड़ों को पीटते हुए वह यह भूल जाता है कि आधे हिन्दुस्तान में पूजे जाने वाले कृष्ण इस देश के एक सबसे बड़े प्रेमी थे, उनकी तो तमाम कहानियां ही प्रेम में भीगी हुई हैं। इसलिए आज की इस नवधर्मान्धता और नवकट्टरता को आईना दिखाने की जरूरत है कि जिसे वे हिन्दुस्तानी संस्कृति करार देते हुए जिसे बचाने पर आमादा हैं वह इस देश की संस्कृति कभी थी ही नहीं। वह हमलावर अंग्रेजों के उस वक्त के नैतिक मूल्य थे जिन्हें खुद अंग्रेजों ने आज अपने देश में पखाने में बहा दिया है।
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छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में सत्रह बरस का एक नाबालिग लडक़ा अपने दोस्तों और अपने कुत्ते के साथ कार में निकला। अचानक कुत्ता स्टियरिंग पर चढ़ गया तो कार उस लडक़े के काबू से बाहर होकर कंस्ट्रक्शन कर रहे मजदूरों पर चढ़ गई, और 9 मजदूरों को रौंदते हुए जाकर पलट गई। एक महिला मजदूर की मौके पर मौत हो गई और बाकी मजदूर घायल हो गए। नए कानून के तहत नाबालिग को कार देने पर कार मालिक पर भी कार्रवाई का प्रावधान है, लेकिन अब तक शायद बिलासपुर पुलिस ने नाबालिग के कार मालिक पिता पर कार्रवाई नहीं की है। यह घटना बहुत अनोखी नहीं है, लेकिन दिनदहाड़े खुली सडक़ पर हुए इस हादसे की वजह से खबरों में आ गई है, और यह लडक़ा पकड़ में भी आ गया। इससे सबक लेकर राज्य सरकार को पूरे प्रदेश में पुलिस को चौकस करना चाहिए। सडक़ों पर नियमों को तोडऩा एक बुरी आदत की तरह लोगों के मिजाज में शामिल हो जाता है, और फिर पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहता है, इसलिए इस सिलसिले को शुरूआत में ही खत्म करना चाहिए। आम लोगों के लिए पुलिस की पहली पहचान सडक़ों से ही शुरू होती है, और नियमों को तोडऩे का सिलसिला भी सडक़ों से ही शुरू होता है। ये नियम दिखने में छोटे दिखते हैं, लेकिन इनको तोडऩा जानलेवा होता है, और अक्सर ही बेकसूर लोग इसमें मारे जाते हैं। यह बात समझने की है कि सडक़ों पर जितनी दुर्घटनाएं होती हैं, उनमें अक्सर ही एक लापरवाह की वजह से दूसरे बेकसूर मारे जाते हैं।
छत्तीसगढ़ में पिछले दशकों में हम देखते आए हैं कि जब-जब दुपहिया चलाने वालों पर हेलमेट की बंदिश लागू की जाती है, तब-तब जो पार्टी सत्ता में नहीं रहती है, वह लोगों की लापरवाही को भडक़ाने का काम करती है, और हेलमेट अनिवार्य करने के खिलाफ मुहिम चलाती है। अभी मौजूदा कांग्रेस सरकार ने भी आने के बाद राजधानी में कुछ महीनों तक हेलमेट का अभियान चलाया, हजारों लोगों पर जुर्माना हुआ, दसियों हजार लोगों ने हेलमेट खरीद भी लिए, लेकिन फिर पुलिस की कार्रवाई बंद हो गई, और लोगों ने हेलमेट पहनना बंद कर दिया। हिन्दुस्तान में लोगों को अपनी जिंदगी की परवाह नहीं है, और हेलमेट लगाने के बजाय दुपहिया चलाते लोग मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते दिखते हैं जिससे अपने अलावा वे दूसरों की जिंदगी भी खतरे में डालते हैं। इन दोनों बातों पर जुर्माने का नियम तो है, लेकिन यह किसी अफसर की सनक पर टिका रहता है कि उसके इलाके में कब कौन से नियम लागू किए जाएं। नतीजा यह है कि लोग बिना हेलमेट मोबाइल थामे हुए तीन सवारी लालबत्ती लांघते हुए चले जाते हैं, और उन्हें रोकने वाले कोई नहीं रहते। कारों और दूसरी बड़ी गाडिय़ों में भी सीट बेल्ट लगाने का काम तो केन्द्र सरकार ने करवा दिया है, लेकिन मौत से बचने का काम तो गाड़ी में बैठे लोगों को ही करना होगा, और पुलिस इस बात पर भी कोई कार्रवाई नहीं करती है।
दरअसल व्यापक जनसुरक्षा के ये मुद्दे राज्य सरकार या स्थानीय अफसरों की मर्जी पर नहीं छोड़े जाने चाहिए। सडक़ पर जनसुरक्षा के लिए जरूरी बातों को भी अगर पुलिस लागू नहीं कर रही है, तो पुलिस खुद नियमों के खिलाफ काम कर रही है, और ऐसी पुलिस को देखते हुए राज्य सरकार कुछ नहीं कर रही है तो वह भी अपनी कानूनी जिम्मेदारी से मुंह चुरा रही है। यह सिलसिला शायद तब तक चलते रहेगा जब तक कि लोग अदालत न जाएं, और सरकार-अफसरों की गैरजिम्मेदारी के खिलाफ कोई अदालती आदेश न पाएं। वैसे कोलाहल के खिलाफ अदालतों से मिले हुए आदेशों के बावजूद स्थानीय प्रशासन और पुलिस किसी-किसी मामले में ही कार्रवाई करते दिखते हैं, इसलिए अदालत भी कोई मायने रखेगी इस पर भी शक किया जा सकता है।
आज जब स्कूल और कॉलेज के बच्चे अपनी जिंदगी का पहला गैरकानूनी काम सडक़ों पर नियम तोडऩे का करते हैं, तो वहां से कानून की हेठी की उनकी जिंदगी शुरू होती है, और फिर वह धीरे-धीरे दूसरे तमाम दायरों तक बढऩे लगती है। इस सिलसिले को अगर शुरू में ही रोक दिया जाए, तो सडक़ों पर मौतें बच सकती हैं, और मौतों से कम के हादसे भी घट सकते हैं। बिलासपुर में कल नाबालिग की चलाई जा रही जिस कार से मजदूर कुचले गए हैं, और मौत हुई है, हमें कोई हैरानी नहीं होगी कि वे नाबालिग होने के साथ-साथ बिना सीट बेल्ट के भी होंगे, और हो सकता है कि गाड़ी चलाने वाला भी मोबाइल फोन पर लगा हुआ हो। इस घटना को देखते हुए पूरे प्रदेश में पुलिस को जांच करनी चाहिए, और हर शहर में दो-चार मां-बाप जब बच्चों को गाडिय़ां देने के जुर्म में जेल जाएंगे, तो ही बाकी लोगों की लापरवाही टूटेगी।
यह सिलसिला पैसे वाले लोगों से शुरू होता है, और गरीबों को कुचलता है। यह सडक़ों पर एक सामाजिक गैरबराबरी से उपजे बेइंसाफ का सिलसिला है, जिसे तोडऩा जरूरी है। राज्य सरकार की यह न्यूनतम जिम्मेदारी है कि वह हेलमेट और सीट बेल्ट लागू करे, और मोबाइल फोन का नाजायज इस्तेमाल रोके। इसके अलावा भी कुछ और बातें संगठित और कारोबारी ट्रांसपोर्ट से जुड़ी हुई हैं जिन्हें तुरंत सुधारने की जरूरत है। ट्रांसपोर्ट के काम में लगी गाडिय़ां बहुत बुरी तरह बदहाल हैं, और बिना ब्रेक लाईट, बैक लाईट के वे सडक़ों पर कहीं भी खड़ी रहती हैं जिनमें पीछे से आती हुई गाडिय़ां घुस जाती हैं, और आए दिन मौत होती हैं। इस किस्म की आपराधिक लापरवाही को जरा भी बर्दाश्त नहीं करना चाहिए, और अगर कोई चौकन्ने पुलिस अफसर हों, तो वे अपने इलाके से ऐसी किसी भी गाड़ी की आवाजाही को तुरंत ही रोक सकते हैं। यह सब करने के लिए कुछ तो राज्य सरकार की भी दिलचस्पी चाहिए, और कुछ अफसरों की अपनी पहल भी। कुल मिलाकर अफसर तो राज्य सरकार के ही मातहत हैं, ऐसे में जिम्मेदारी राज्य सरकार की ही है।
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अमरीका के तरह-तरह के निशाने पर बने हुए चीन में इन दिनों विंटर ओलंपिक चल रहा है। पश्चिम के कई देशों में इनके कुछ तरह के बहिष्कार की घोषणा की है, और अधिकारियों का दल भेजने के बजाय सिर्फ खिलाडिय़ों का दल भेजा है। लेकिन एक और वजह है कि यह बीजिंग शीतकालीन ओलंपिक खबरों में भी है और आलोचना का शिकार भी हो रहा है। जैसा कि नाम से जाहिर है शीतकालीन ओलंपिक ठंड के मौसम में होते हैं, और इनमें बर्फ पर खेले जाने वाले खेलों का बड़ा हिस्सा होता है। विंटर ओलंपिक्स का इतिहास बताता है कि ये 88 साल पहले 1924 में फ्रांस से शुरू हुए, और हाल के बरसों में ये बदलते मौसम की वजह से बर्फ की कमी का शिकार हुए, और धीरे-धीरे इन मुकाबलों के लिए कृत्रिम बर्फ का इंतजाम भी किया गया। चीन का यह ओलंपिक पहला ऐसा ओलंपिक है जो सौ फीसदी कृत्रिम बर्फ पर हो रहा है। आलोचना की एक वजह यह है कि क्या इतने बड़े पैमाने पर बिजली और पानी की फिजूलखर्ची करके खेल के ऐसे मुकाबले किए जाने चाहिए? क्योंकि आज धरती पर बिजली की भी कमी है, और पानी की भी। इसके पहले दुनिया के कुछ और देशों में ओलंपिक के पहले जमी हुई बर्फ को ढांककर, बचाकर उस पर भी खेल के मुकाबले हुए हैं, और दुनिया में कभी-कभी दूसरे पहाड़ों से बर्फ ढोकर लाकर भी ओलंपिक खेलों के लिए मैदान और मुकाबलों के ढलान बनाए गए थे।
अब सवाल यह उठता है कि इंसान अपने बनाए हुए खेलों और उनके मुकाबलों के लिए कितने बड़े पैमाने पर धरती के साधनों का दोहन करे? एक तरफ वैसे भी मौसम का बदलाव इतना बेकाबू हो चुका है कि धरती गर्म हुए चली जा रही है, समुद्र की सतह ऊपर बढ़ती चली जा रही है, प्राकृतिक विपदाएं लगातार अधिक खतरनाक होती जा रही हैं, और वे अधिक बार घट रही हैं, जल्दी-जल्दी हो रही हैं। इन सबको देखते हुए धरती एक बहुत ही नाजुक हालत में है, और मौसम की मार से बचने के लिए इंसान के पास किसी तरह का कोई हेलमेट भी नहीं है, न ही कोई सीट-बेल्ट ही है। मतलब यह कि शीतकालीन ओलंपिक के लिए बिजली-पानी के अलावा मौसम के साथ बहुत बड़े खिलवाड़ का पूरा खतरा अब तक न सामने आया है न समझ आया है। ठीक इसी तरह दुनिया में एक फिक्र सैकड़ों एकड़ में फैले हुए गोल्फ कोर्स की घास को सींचकर हरियाली बनाए रखने को लेकर भी होती है, क्योंकि इसमें बहुत बड़ी मात्रा में पानी बर्बाद होता है, और बहुत गिने-चुने खिलाड़ी इसे खेलते हैं, जिनमें से अधिकतर ऐसे रहते हैं जो कारोबार की दुनिया के कामयाब लोग हैं और शौकिया इस खेल को खेलते हुए धंधे के बड़े-बड़े सौदे करते हैं। गोल्फ के शौकीन खिलाड़ी इतने संपन्न रहते हैं कि वे पसंदीदा गोल्फ कोर्स पर खेलने के लिए दूसरे देशों का सफर भी करते हैं। अब सवाल यह उठता है कि धरती एक है उसके साधन सीमित हैं, और उनका इस्तेमाल सीमित लोगों के शौक के लिए, या फिर शीतकालीन ओलंपिक जैसे मौसम पर मार करने वाले आयोजनों पर कितना करना चाहिए?
क्या आज यह वक्त नहीं आ गया है कि धरती के कुदरती मिजाज को देखते हुए उस हिसाब से खेलों को ढाला जाए, या खेलों को चुना जाए। जिस चीन में इस मौसम में सौ फीसदी बर्फ जमाकर ये खेल-मुकाबले करवाए जा रहे हैं, उस चीन में शीतकालीन ओलंपिक करवाना ही क्यों चाहिए था? इसे उन देशों के बीच में ही क्यों न करवाया जाए जहां पर प्राकृतिक बर्फ रहती है? और ऐसे ही खेल क्यों न करवाए जाएं जो कि उन जगहों पर हो सकते हैं? आज दरअसल ओलंपिक से लेकर फुटबॉल और क्रिकेट तक के मुकाबले इतने बड़े कारोबारी धंधे बन चुके हैं कि खेलों से जुड़े तमाम फैसले कमाई के आधार पर तय किए जाते हैं। आज हिन्दुस्तान में आईपीएल के मुकाबले क्रिकेट के दूसरे फॉर्मेट की प्राथमिकता घट गई है क्योंकि कमाई आईपीएल में अधिक है। इसी तरह ओलंपिक किन देशों में हों, वहां पर कौन से खेल हों, इस बात का बहुत कुछ फैसला कमाई को ध्यान में रखकर होता है। ऐसे बहुत से अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजन हुए हैं जिनकी मेजबानी हासिल करने के लिए अंतरराष्ट्रीय खेल संघों के लोगों को मोटी रिश्वत देने के मामले भी सामने आए हैं। लेकिन हम इस मुद्दे का चौतरफा विस्तार करने के बजाय इसे मौसम के साथ जोडक़र सीमित रखना चाहते हैं कि बर्फ के कृत्रिम मैदान और पहाड़ बनाकर मौसम को शिकस्त देने के अंदाज में ऐसे खेल नहीं किए जाने चाहिए। दुनिया के जिन देशों में कुदरती सहूलियतें हैं, वहीं पर ऐसे आयोजन होने चाहिए।
खेल धरती से कम मायने रखते हैं। खेलों के लिए धरती के संतुलन को और बिगाडऩा जायज नहीं है, और इसके खतरे हो सकता है कि तुरंत न दिखें, लेकिन आगे चलकर सामने आएं, आएंगे ही, और उस दिन वे काबू में नहीं रहेंगे। इसलिए इंसान की समझदारी यही होगी कि मौसम की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए ही शौक पूरे करे।
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पंजाब के चुनाव में अरविन्द केजरीवाल एक बड़ा मुद्दा हैं। कांग्रेस को यह लगता है कि केजरीवाल आरएसएस की उपज हैं, और मनमोहन सिंह की यूपीए-2 सरकार को बदनाम करने के लिए और बेदखल करने के लिए अन्ना हजारे नाम के पाखंडी की अगुवाई में जो आंदोलन चला था, उसी के एक कार्यकर्ता अरविन्द केजरीवाल थे, और बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि अन्ना का वह आंदोलन भी सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार के खिलाफ न होकर केवल यूपीए सरकार और कांग्रेस को बदनाम करने का आंदोलन था, और उन सबके साथ जिस तरह से बाबा रामदेव और श्रीश्री रविशंकर जैसे नाम जुड़ गए थे, उससे लोगों का यह अंदाज है कि वह आरएसएस का आर्केस्ट्रा था। अरविन्द केजरीवाल वहीं से उठकर आम आदमी पार्टी बनाकर दिल्ली के मुख्यमंत्री बने, और अब वे देश के कई राज्यों में ऐसी दखल दे रहे हैं कि जिससे भाजपा की संभावनाएं मजबूत होती हैं। अब वे भाजपा के इंतजामअली की तरह काम कर रहे हैं या अपने लिए काम कर रहे हैं, यह एक अलग बात है, लेकिन पंजाब में उनकी मौजूदगी गैरभाजपाई वोटों को बांटने वाली है, और कमोबेश यही नौबत गोवा में भी सुनाई पड़ती है। इसलिए अरविन्द केजरीवाल आज कांग्रेस के निशाने पर तो हैं ही, वे अपने ही एक पुराने और शुरूआती साथी कुमार विश्वास के निशाने पर भी हैं जो कि आम आदमी पार्टी की राजनीति से अब अलग हो चुके हैं।
यह दिलचस्प बयान केजरीवाल के पुराने साथी कुमार विश्वास की तरफ से आया है जिसमें उन्होंने केजरीवाल के बारे में कहा है कि पंजाब में पिछला विधानसभा चुनाव जीतने के लिए केजरीवाल अलगाववादी तत्वों का साथ लेने के लिए तैयार थे। कुमार विश्वास ने एक औपचारिक इंटरव्यू में कहा है कि एक दिन केजरीवाल ने उनसे यह तक कहा था कि वे या तो पंजाब के मुख्यमंत्री बनेंगे, या एक स्वतंत्र देश के पहले प्रधानमंत्री बनेंगे। कुमार विश्वास की इस बात का सीधा-सीधा मतलब यह है कि केजरीवाल ने आपसी बातचीत में उनसे कहा था कि वे पंजाब के सीएम या एक स्वतंत्र देश (खालिस्तान) के पीएम बनेंगे। जाहिर है कि इस चुनाव के बीच केजरीवाल ने इस बात का खुलकर खंडन भी किया है और कहा है कि देश में पिछले दस साल में तीन साल कांग्रेस की सरकार थी, और सात साल से भाजपा की सरकार है, तो क्या ये लोग सो रहे थे? जांच एजेंसियां क्या कर रही थीं? इसके बाद केजरीवाल ने अपनी तुलना भगत सिंह से की कि सौ साल पहले अंग्रेजों ने भगत सिंह को आतंकवादी कहा था, और आज भी भगत सिंह के चेले (केजरीवाल) को आतंकवादी साबित करने की कोशिश हो रही है।
अब यहां पर एक बुनियादी सवाल यह खड़ा होता है कि कई बरस पहले केजरीवाल ने अगर कुमार विश्वास से आपसी बातचीत में ऐसा कुछ कहा भी था, तो कुमार विश्वास को उसी मुद्दे पर केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का साथ छोड़ देना था। और इसके साथ ही उनकी यह जिम्मेदारी भी बनती थी कि वे ऐसी खतरनाक बात को सार्वजनिक रूप से सामने रखते। क्योंकि ऐसी बात सुनने के बाद चुप रहना भी देश के हितों के खिलाफ जानते हुए चुप रहने के अलावा और कुछ नहीं है। तमाम व्यक्तिगत संबंध अलग रहते हैं, और देश अलग रहता है। इसलिए केजरीवाल को ऐसी बात के बाद बचकर निकल जाने देना उनकी बात में भागीदारी के अलावा क्या गिना जा सकता है? कुमार विश्वास का यह कहना इस चुनाव प्रचार के बीच में किसी न किसी राजनीतिक दल की मदद तो करेगा, और आम आदमी पार्टी को बदनाम करने का काम भी करेगा। इसलिए हम चुनाव प्रचार के दौरान गड़े मुर्दों को उखाडक़र उनकी ऐसी नुमाइश को देखते हुए उसे किसी किस्म की प्रायोजित कुश्ती अधिक पाते हैं। यह सिलसिला तभी ईमानदार कहलाता जब वह पिछले चुनाव के दौरान ही उजागर हो गया होता। यह देश तो साजिशों के झंझावात से गुजर रहा देश है जहां पर नेहरू, सुभाष, और सरदार पटेल के लिखे हुए दस्तावेजों वाली किताबों के मौजूद रहते हुए भी उनके आपसी संबंधों को लेकर उन्हें बदनाम करने की कोशिशें चल रही हैं। ऐसे में बंद कमरे में किसी को किसी की कही हुई कोई बात सच है या नहीं, इसका क्या ठिकाना है? हम केजरीवाल के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं रखते क्योंकि वे खुद भी ऐसी ही हरकतें करते आए हैं, लेकिन ऐसी हरकतें जो भी करें, उसका विरोध होना चाहिए क्योंकि ये बातें सार्वजनिक जीवन में एक-दूसरे का विश्वास खत्म करने वाली तो रहती ही हैं, एक-दूसरे की जनछवि खत्म करने वाली भी रहती हैं। वैसे भी इतिहास के दस्तावेजों के सच को खारिज करते हुए देश के सबसे महान नेताओं को बदनाम करने की जुबानी जमाखर्च चल ही रही है, ऐसे में बंद कमरों की कथित बातचीत का इतने-इतने बरस बाद चुनावी इस्तेमाल बहुत ही नाजायज बात है।
यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, लेकिन चुनाव की गंदगी के बीच यह एक छोटी सी बात है। हम इस बात को इन दो चर्चित लोगों के व्यक्तित्व से अधिक महत्व दे रहे हैं, और एक मुद्दे के रूप में इस पर बात कर रहे हैं। वरना इस चुनाव की गंदगी कुल मिलाकर अभूतपूर्व है, और असम के मुख्यमंत्री ने इस गंदगी को भी जितना बदबूदार बनाया है, वह एक नया रिकॉर्ड है। ऐसे में कुमार विश्वास कहने के लिए तो आज शायद किसी राजनीतिक दल में नहीं हैं, लेकिन वे चुनावी राजनीति में सक्रिय हिस्सेदार दिख रहे हैं, और वे किसकी मदद करने के लिए ऐसा कर रहे हैं, उसकी अटकल लगाना भी बहुत मुश्किल नहीं है। सार्वजनिक जीवन का तकाजा यह रहना चाहिए कि अगर देशहित और देश की हिफाजत का कोई मामला है, तो वह इस तरह का वक्त गुजर जाने के बाद दावा करने लायक नहीं रहता, वह तुरंत ही उजागर करने लायक रहता है। यह देर और यह चुनावी मौका अपने आपमें कुमार विश्वास को कुमार अविश्वास बना रहे हैं।
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ओडिशा की एक दिलचस्प लेकिन तकलीफदेह खबर है कि वहां अपने आपको केन्द्र सरकार का बड़ा अफसर बताने वाले एक धोखेबाज ने सत्रह महिलाओं को अपने जाल में फंसाया, उनसे शादी की, और लाखों रूपए ठगे। इतना कुछ कर गुजरने के बाद अब वह पुलिस की गिरफ्त में आया है। हैरानी की बात यह भी है कि यह आदमी 66 बरस का हो गया है, और अब तक शादियों का उसका सिलसिला जारी ही था, उसने ओडिशा, असम, दिल्ली, एमपी, पंजाब, यूपी, झारखंड और छत्तीसगढ़ की महिलाओं से शादियां कीं। पुलिस का यह भी कहना है कि हो सकता है कि इन सत्रह के अलावा भी और महिलाओं को उसने धोखा दिया हो, या शादी की हो। पुलिस जांच में यह भी पता लगा है कि इसके धोखे की शिकार महिलाएं भारी पढ़ी-लिखी भी थीं, कामकाजी थीं, और इस धोखेबाज की पसंद के मुताबिक उनमें से हर कोई पैसे वाली भी थीं। 1982 से शुरू होकर 2020 तक शादियों का उसका यह सिलसिला लगातार चलते रहा, जबकि उसकी पहली शादी से हुए तीनों बेटे डॉक्टर हैं, और विदेश में हैं।
धोखाधड़ी और जालसाजी के जुर्म पर लिखने की आज यहां पर हमारी कोई हसरत नहीं है। लेकिन इस बात पर सोचना-विचारना जरूरी है कि भारत में महिलाओं पर शादी के लिए ऐसा कितना दबाव रहता है कि वे 64 बरस के आदमी से भी शादी को तैयार हो जाती हैं, एक पेशेवर जालसाज के झांसे में भी करीब डेढ़ दर्जन महिलाएं शादी की हद तक फंस जाती हैं। इस मुद्दे पर सोचते हुए अभी कुछ ही दिन पहले बीबीसी पर ब्रिटेन के बारे में आई एक रिपोर्ट याद पड़ती है कि वहां पर बिना शादी रहने वाले, नौजवान से अधेड़ होने वाले अकेले लोगों का अनुपात आबादी में तेजी से बढ़ते जा रहा है। लेकिन इसी रिपोर्ट में यह भी था कि अकेली रहने वाली महिलाओं के बारे में ब्रिटेन जैसे विकसित और सभ्य समाज में भी अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल होता है, और समाज अकेली रहने वाली युवती की उम्र हो जाने पर उसे नीची नजरों से देखता है। हिन्दुस्तान में हालत ब्रिटेन के मुकाबले अधिक खराब है, और यहां पर परिवार से परे समाज और कामकाज की जगह भी सवालिया नजरों से अकेली महिला को देखने लगते हैं कि उसकी शादी क्यों नहीं हो रही है? देखने का यह नजरिया कभी नहीं रहता कि वह शादी क्यों नहीं कर रही है, और समाज का मर्दाना नजरिया शादी न होने को महिला की पसंद न मानकर उसकी बेबसी मानकर ही चलता है।
हिन्दुस्तान में सोशल मीडिया पर देखें तो अनगिनत अविवाहित लड़कियां अपने-अपने हौसले के अनुपात में समाज की खिल्ली उड़ाते हुए लिखती हैं कि किस तरह उनके शादी न करने को लेकर उनके पीछे लग जाता है, और किसी भी पारिवारिक प्रसंग में रिश्तेदार घेर लेते हैं कि अब तक शादी क्यों नहीं हुई है। वैसे तो अनगिनत युवक भी इसी बात को लिखते हैं कि हिन्दुस्तानी रिश्तेदार इस बात के पीछे लग जाते हैं कि वे शादी क्यों नहीं कर रहे हैं। हो सकता है कि अब समलैंगिकता पर बनी हुई बहुत सी हिन्दुस्तानी और हिन्दी फिल्मों को देखने के बाद मां-बाप और रिश्तेदारों को यह शक भी होता हो कि आल-औलाद उम्र हो जाने पर भी अगर शादी नहीं कर रही है, तो कहीं वह समलैंगिक तो नहीं है। लेकिन हम इससे परे भी यह बात देखते हैं कि शादी न करने और अकेले रहने का जो तनाव अकेली महिला को झेलना पड़ता है उससे अकेले आदमियों के तनाव का कोई मुकाबला नहीं हो सकता। शायद यह भी एक वजह भी होगी कि महिलाएं उम्र में अपने से बहुत बड़े, और 64 बरस के हो चुके आदमी से भी शादी करने को तैयार हो जाती हैं, बड़ी संख्या मेें हो गई हैं। ऐसे रिश्तों में फंसते हुए इन महिलाओं के जीवन में अकेले रहने को लेकर जितने किस्म की सामाजिक आशंकाएं रहती होंगी, जितने तरह के सामाजिक खतरे रहते होंगे, वे भी इन महिलाओं को ऐसी खतरनाक शादी की तरफ धकेलते होंगे। किसी महिला के अकेले रह जाने का कलंक भारतीय समाज में छोटा नहीं है, और चारों तरफ उसे लेकर मर्दों के मन में उत्साह पैदा होने लगता है, और आसपास की शादीशुदा महिलाओं के मन में आशंका। यह पूरा सिलसिला एक बहुत ही तकलीफदेह सामाजिक तनाव पैदा करता है, और ऐसी तकलीफ के बीच लड़कियां और महिलाएं कई बार खराब या खतरनाक रिश्तों में भी फंस जाती हैं।
शहरीकरण और महिला की आर्थिक आत्मनिर्भरता ने हिन्दुस्तान की इस तस्वीर को थोड़ा सा बदला जरूर है, लेकिन आज जब ब्रिटेन जैसा आधुनिक समाज भी महिलाओं को अकेले रहने पर अपमान की नजर से देखता है तो यह माना जाना चाहिए कि हिन्दुस्तान में अगली शायद आधी सदी भी अकेली महिला को सवालिया नजरें झेलनी पड़ेंगी। कुल मिलाकर आज की बात का नतीजा हम यही निकाल सकते हैं कि जिन आत्मनिर्भर और संपन्न महिलाओं ने एक शादी के फेर में ऐसे खतरे झेले, उन्हें अपनी आत्मनिर्भरता के साथ अधिक सावधान रहना था, और पुख्ता जानकारी के पहले कुछ और वक्त तक अकेले रह लेने का बर्दाश्त भी दिखाना था। आर्थिक आत्मनिर्भरता न रहने पर तो महिला को कई किस्म के अवांछित समझौते करने पड़ते हैं, लेकिन इन आत्मनिर्भर महिलाओं को ऐसे खतरों में पडऩे की कोई बेबसी नहीं थी, और उन्हें अधिक चौकन्ना रहना चाहिए था। इस एक मामले में फंसी डेढ़ दर्जन महिलाओं को देखते हुए चारों तरफ के लोगों को एक सामाजिक सावधानी और चौकन्नेपन की नसीहत लेनी चाहिए।
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छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के तहसील दफ्तर में कर्मचारियों से वकीलों ने मारपीट की। इस पर जो वीडियो सामने आए, उन्हें देखते हुए और कर्मचारियों की शिकायत पर पुलिस ने वकीलों के खिलाफ मामले दर्ज किए हैं। दोनों ही पक्ष गिरोहबंदी करके अपने-अपने मुद्दे पर अड़ गए हैं, मारपीट करते दिखने वाले वकीलों के संगठन इन मामलों को वापिस लेने की मांग कर रहे हैं, दूसरी तरफ सरकारी कर्मचारियों के संगठन वकीलों पर और कड़ी कार्रवाई मांग रहे हैं। अभी यह नौबत पूरी तरह बेकाबू इसलिए नहीं लग रही है कि राजस्व कार्यालयों और राजस्व अदालतों में वैसे भी काम इतनी धीमी रफ्तार से होता है कि लोग बरसों तक चक्कर लगाते रहते हैं, और फाईलों पर रिश्वत रखते-रखते थक जाते हैं। राजस्व विभाग का अमला भ्रष्टाचार में इस तरह डूबा रहता है कि महंगी जमीनों के धंधे वाले इलाकों में सबसे छोटे कर्मचारी पटवारी की भी दौलत करोड़ों में हो जाती है। ऐसे में इस विभाग के साथ रोजाना कामकाज वाले वकीलों का जब ऐसा बड़ा टकराव सामने आया है, तो सरकार को इस घटना से परे भी अपने अमले के बारे में सोचना चाहिए। हम किसी भी तरह से वकीलों की मारपीट को अनदेखा करने की बात नहीं सुझा रहे हैं, लेकिन ऐसी नौबत आने के पीछे क्या इस विभाग का सर्वव्यापी और संगठित भ्रष्टाचार मुख्य वजह तो नहीं है, यह भी देखना चाहिए। फिर राज्य सरकार के सामने यह घटना एक मौका भी पेश करती है कि किस तरह अपने एक भ्रष्ट विभाग के कामकाज को सुधार सके और जनता की जिंदगी इन दफ्तरों का चक्कर लगाते हुए बर्बाद होने से बचा सके। आज अगर तहसील और पटवारी दफ्तर में चक्कर लगाते लोगों से ही मतदान करवाया जाए, तो जो पार्टी सरकार में रहेगी वह शर्तिया ही हार जाएगी।
अब सरकार में राजस्व विभाग और राजस्व-अदालतों का यह अनंतकाल से चले आ रहा भ्रष्टाचार सत्ता की जानकारी में नहीं है यह कहना भी गलत होगा। लेकिन एक-एक फाईल को बरसों तक लटकाए रखने के इस विभाग के ढर्रे को बदलने की कोशिश किसी सरकार ने की हो ऐसा भी आज तक नहीं दिखा है। यह दिक्कत वकीलों की निजी दिक्कत नहीं है, यह पूरी जनता की दिक्कत है, और खासकर गरीब या अशिक्षित, बूढ़े या बीमार लोग जिस तरह पटवारी या तहसील के चक्कर लगाते हैं, और उनसे बेधडक़ जैसी खुली रिश्वत मांगी जाती है, वह देखते ही बनता है। सत्तारूढ़ पार्टी को किसी और वजह से न सही, कम से कम इस वजह से ही यह भ्रष्टाचार खत्म करना चाहिए कि सत्ता के बाद जनता की सबसे बड़ी नाराजगी जिस दफ्तर की वजह से उपजती है, वह राजस्व विभाग है।
वकीलों की दिक्कत यह रहती है कि वे जिस जगह काम करते हैं, वहां पर उनका सामना संगठित भ्रष्टाचार से होता है। जिला या जिला स्तर से नीचे की जितनी अदालतें होती हैं, उनमें चाहे या बिनचाहे जो अगली पेशी की तारीख तय होती है, उसके लिए भी दोनों पक्षों के वकीलों को रिश्वत देनी या दिलवानी पड़ती है। न्यायिक अदालतों का भ्रष्टाचार इस कदर संगठित है कि बाबुओं को रिश्वत न देने/दिलवाने वाले वकील आनन-फानन बेरोजगार हो सकते हैं। यही हाल राजस्व अदालतों में जाने वाले वकीलों का होता है, और अगर कोई वकील सौ फीसदी ईमानदार होकर काम करना चाहे, तो उसके मुवक्किल का मामला हार जाना तय सरीखा रहेगा, उसे लोग अपना केस देना नहीं चाहेंगे कि ऐसी ईमानदारी किस काम की जिससे कि केस ही हार जाएं।
कहने के लिए तो राजस्व विभाग सीधे कलेक्टर के मातहत काम करता है, लेकिन अपनी तमाम ताकत को रखकर भी न पटवारी के भ्रष्टाचार पर काबू पाते हैं, और न ही तहसील के। एक रस्म-रिवाज की तरह अधिकतर कलेक्टर अपने कार्यकाल में एक-एक बार कुछ तहसीलों का दौरा कर लेते हैं, लेकिन बहुत मौलिक काम करने वाले कलेक्टर भी इस संगठित भ्रष्टाचार को छू भी नहीं पाते। राज्य सरकार को अगर जनता को राहत देनी है, तो पटवारी और तहसील के कामकाज को समय सीमा से जोडऩा पड़ेगा कि कितने दिनों के भीतर कौन सा काम कर ही दिया जाए। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक राजस्व विभाग से काम पडऩे वाले लोग सत्ता को बद्दुआ देते ही रहेंगे, और अगर कोई सत्तारूढ़ पार्टी कम वोटों से सत्ता खोती है, तो यह मानकर चलना चाहिए कि हराने वाले ये वोटर तहसील-पटवारी दफ्तरों का चक्कर खाने वाले वोटर ही थे। फिलहाल यह मामला वकीलों और कर्मचारियों की मारपीट से शुरू हुआ है, और वीडियो सुबूतों की वजह से जांच एजेंसी का काम अधिक मुश्किल भी नहीं है, लेकिन सरकार को इससे परे भी सोचना चाहिए, और अपना घर सुधारना चाहिए।
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इंटरनेट पर बच्चों के लिए बनाए गए एक गेमिंग-प्लेटफॉर्म रोबलॉक्स की शोहरत दुनिया भर के बच्चों के बीच बहुत है लेकिन अभी इंटरनेट पर सामाजिक सुरक्षा की निगरानी रखने वालों ने यह पाया है कि इस प्लेटफॉर्म पर नग्न, अश्लील, और सेक्सुअल सामग्री पर इस प्लेटफॉर्म का कोई रोक नहीं है। इसमें कई तरह की वयस्क किस्म के सेक्स से जुड़ी सामग्री आ रही है, नस्लवादी सामग्री आ रही है, और इस पर कोई रोक नहीं है। खतरनाक बात यह है कि रोबलॉक्स को आने वाली आभासी दुनिया मेटावर्स का प्रारंभिक संस्करण माना जा रहा है कि आगे चलकर इंटरनेट के सोशल मीडिया पर सामाजिक अंतरसंबंध इसी किस्म से रहेंगे। और अब इसमें 9 से 12 बरस के बच्चे अगर इस तरह के वयस्क गेम खेल रहे हैं, सेक्स की बातें कर रहे हैं, तो उसका मतलब यह है कि मेटावर्स का यह पहला नजारा खतरनाक है। जिन लोगों ने इस खेल के बारे में अधिक नहीं जाना है उन्हें यह बताना ठीक होगा कि इसमें गेमिंग-फ्लेटफॉर्म बच्चों को तरह-तरह के अवतार धारण करने का मौका देता है, और फिर वे वहां अपना एक दायरा बनाकर उसमें ऐसे दूसरे अवतारों से संपर्क-संबंध रखते हैं। अभी यह पाया गया कि इसमेें ढेर सारे बच्चे सेक्स की बातें कर रहे हैं, और आभासी-सेक्स कर रहे हैं। इस कंपनी ने यह माना है कि बहुत कम संख्या में सही, लेकिन कुछ लोग नियमों को तोड़ते हैं, और ऐसा कर रहे हैं।
टेक्नालॉजी के साथ एक दिक्कत यह रहती है कि उस पर जुर्म या गलत काम पहले होते हैं, और उसकी रोकथाम के तरीके बाद में ही निकाले जा सकते हैं। यह कुछ उसी किस्म का है कि टेक्नालॉजी से परे की भी बाकी किस्म के जुर्म पहले होते हैं, और उनकी रोकथाम के इंतजाम बाद में होते हैं। इंटरनेट की मेहरबानी से दुनिया के लोगों के बीच अंतरसंबंध बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं और बेकाबू हद तक बढ़ रहे हैं। आज दुनिया में मनोविज्ञान की कुछ शाखाएं सोशल मीडिया पर ही केन्द्रित विकसित हो चुकी हैं। ऐसे में जब बच्चों के हाथ मोबाइल फोन और कम्प्यूटर हैं, और घर के लोगों से परे उनके पास ऐसे उपकरण बहुत समय तक रहते हैं, तो उसका एक नुकसान भी रहता है, और बहुत बड़ा खतरा भी। पाठकों को याद होगा कि हमने चार-छह दिन पहले इसी जगह पर छत्तीसगढ़ की दो घटनाओं को लेकर लिखा था जिनमें नाबालिग बच्चे ही शामिल थे। दो नाबालिग लड़कियां अपनी बुआ का फोन लेकर उससे अपने दोस्तों से गप्प मारती थीं, और जब बुआ ने रोकने की कोशिश की तो इन नाबालिग लड़कियों ने बुआ को कुल्हाड़ी से काट-काटकर मार डाला। एक दूसरी घटना उसी दिन छत्तीसगढ़ में हुई थी जिसमें पढ़ाई के लिए बच्चों को मिले हुए मोबाइल फोन पर परिवार के बच्चे पोर्न देखने लगे थे, और उसे देखते-देखते अपने ही परिवार की आठ बरस की बहन से महीनों तक सेक्स करते रहे, बाद में यह मामला परिवार के बड़े लोगों के सामने उजागर हुआ, और पुलिस तक पहुंचा।
अगर इंटरनेट पर सिर्फ पोर्न देखने से बच्चों पर ऐसा असर हुआ है कि उन्होंने घर के भीतर ही ऐसा कर डाला तो यह जाहिर है कि जब उन्हें आभासी दुनिया में जोड़ीदार बनाकर या किसी समूह में इस तरह सेक्स चर्चा का मौका मिलेगा तो वैसे देशों में बात आगे बढ़ेगी ही। जिस ब्रिटेन से यह खबर आई है कि इस गेमिंग प्लेटफॉर्म पर बच्चे ऐसे वयस्क अवतार बनकर आभासी-सेक्स कर रहे हैं, वह ब्रिटेन वैसे भी टीनएजर स्कूली छात्राओं के मां बनने की समस्या झेल रहा है। और जहां तक गेमिंग-प्लेटफॉर्म की बात है तो वह सरहदों के आरपार दुनिया के महाद्वीपों में कुछ पल में ही सब जगह पहुंच सकता है, और उसे कुछ दशक पहले की टेक्नालॉजी जैसा सफर का लंबा समय नहीं लगता।
भारत में चूंकि लगातार डिजिटल कामकाज बढ़ते रहा है, आज पढ़ाई-लिखाई और इम्तिहान तक मोबाइल फोन और लैपटॉप पर इंटरनेट के रास्ते हो रहे हैं इसलिए इसके खतरों को समझने की जरूरत है। हमने अभी कुछ ही दिन पहले इस खतरे से आगाह किया था कि बड़े-बड़े जुर्म तो पुलिस तक पहुंचकर खबरों में आ जाते हैं लेकिन बड़े जुर्म से पहले के बहुत से कम बेजा इस्तेमाल ऐसे हैं जो कि खबर नहीं बन पाते, और उनके खतरे को भी भांपते हुए सरकार और समाज को इस बारे में गौर करना चाहिए क्योंकि कुछ बातें महज सरकारी सीमा में है, और कुछ किस्म की निगरानी परिवार ही रख सकते हैं। इसलिए इन दोनों तरफ से इंटरनेट, सोशल मीडिया, और मैसेंजर सर्विसों के अश्लील या हिंसक इस्तेमाल पर रोक लगाने की जरूरत है। राज्यों की पुलिस को भी यह चाहिए कि वह सामाजिक स्तर पर जाकर लोगों के समूहों के बीच संगठित रूप से यह समझाए कि संचार उपकरणों और संचार टेक्नालॉजी को लेकर परिवार के लोगों को किस तरह सावधानी बरतनी चाहिए। चूंकि टेक्नालॉजी लगातार सुलभ होती जा रही है, बच्चों को पढऩे के लिए भी कम्प्यूटर-इंटरनेट या मोबाइल फोन जरूरी हो चुका है, इसलिए बच्चों को अश्लील, हिंसक, या किसी और किस्म के जुर्म के खतरे से बचाने की जरूरत है। इस पश्चिमी गेमिंग-प्लेटफॉर्म को लेकर आज ब्रिटेन में फिक्र चल रही है, बहस चल रही है, लेकिन छत्तीसगढ़ में एक ही दिन में दो बड़ी हिंसक घटनाएं हो जाने के बाद भी समाज में कोई सुगबुगाहट तक नहीं है, सरकार की तरफ से दो लाईन भी नहीं कही गई हैं।
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भारत के नेशनल स्टॉक एक्सचेंज, एनएसई, की एक पूर्व प्रमुख चित्रा रामकृष्ण के खिलाफ हुई एक जांच में भारत के शेयर बाजार नियामक सेबी ने पाया है कि चित्रा रामकृष्ण एनएसई की मुखिया रहते हुए अपने एक तथाकथित आध्यात्मिक गुरू से इस कदर प्रभावित थीं कि अपने पूरे कार्यकाल में वे एनएसई के हर राज इस गुरू के साथ साझा करती थीं, और उनके बताए मुताबिक काम करती थीं। सेबी ने जो पाया है वह किसी फिल्मी कहानी जैसा लग रहा है जिसमें चित्रा रामकृष्ण एनएसई के हर फैसले, हर जानकारी को इस गुरू को ईमेल करती थीं, और उनसे मिले निर्देशों को आदेश मानकर हर काम करत थीं। तीन बरस से अधिक तक एनएसई की मुखिया रही इस महिला ने इस तथाकथित गुरू के कहने पर एक आदमी को एनएसई के एक सबसे बड़े ओहदे पर करोड़ों रूपए साल पर नियुक्त किया था। यह पूरा सिलसिला बहुत ही रहस्मयमय है, और सेबी ने इसकी जांच में यह पाया है कि नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की जांच के दौरान जो कागजात उसने इक_ा किए हैं उनसे साफ होता है कि स्टॉक एक्सचेंज को पर्दे के पीछे से यह योगी ही चला रहा था, और चित्रा रामकृष्ण जब तक अपने ओहदे पर रहीं, तब तक वे महज उसके हाथों की कठपुतली बनी रहीं। देश का सबसे बड़ा स्टॉक एक्सचेंज अगर इस तरह अपने एक मुखिया के अंधविश्वास पर चलता रहा तो इससे भारत की ढांचागत सुरक्षा पर एक बड़ा सवाल खड़ा होता है। चित्रा रामकृष्ण की जांच के दौरान सेबी ने यह भी पाया कि एक तरफ तो यह महिला इस योगी को बिना शरीर वाला एक व्यक्ति बताती है जो जब चाहे जैसा चाहे शरीर धारण कर सकता था, दूसरी तरफ वह उसी गुरू के साथ घूमने के लिए विदेश भी गई ऐसा भी सेबी ने पाया है।
यह मामला चूंकि जांच में पुख्ता साबित हो रहा है इसलिए इसके बारे में आज इतनी बात हो रही है। लेकिन दूसरी तरफ यह बात अपनी जगह सही है कि सार्वजनिक ओहदों पर बैठे हुए लोग जिस तरह किसी धर्म, ईश्वर, आध्यात्मिक गुरू या किसी दूसरे अंधविश्वास के शिकार रहते हैं, वह बात उनके फैसलों पर कई बार हावी होती हैं। जब पी.व्ही. नरसिंहराव प्रधानमंत्री थे, उस वक्त वे पुट्टपर्थी के सांई बाबा के भक्त थे। उस वक्त दिल्ली के एम्स के सबसे बड़े हार्ट सर्जन डॉ. वेणुगोपाल भी सांई बाबा के भक्त थे, और प्रधानमंत्री के स्तर पर मिली एक विशेष अनुमति के आधार पर वे हर हफ्ते कुछ दिन हार्ट का ऑपरेशन करने के लिए पुट्टपर्थी के ट्रस्ट के अस्पताल जाते थे। देश के बहुत से प्रधानमंत्रियों से लेकर सुप्रीम कोर्ट के जजों तक, और चुनाव आयुक्त तक कभी किसी आध्यात्मिक गुरू के भक्त रहे, तो कभी वे अपनी धार्मिक आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन करते रहे। इनसे उनके कार्यक्षेत्र और अधिकार क्षेत्र के दूसरे लोगों के बीच एक प्रभामंडल बन जाता है जो कि सरकार, न्यायपालिका या चुनाव आयोग के निष्पक्ष काम करने में आड़े आता है। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में सार्वजनिक पदों पर बैठे हुए लोगों को अपनी निजी आस्था को आडंबर और प्रदर्शन से दूर रखना चाहिए ताकि उनकी निष्पक्षता किसी संदेह से परे भी साबित हो सके। लेकिन ऐसा होता नहीं है। लोकतंत्र के भीतर भी लोग अपनी धार्मिक आस्था को अपना निजी अधिकार बताते हुए उसे सार्वजनिक पैसों से सार्वजनिक मंचों पर दिखाते रहते हैं, और उस आस्था से परे की कोई आस्था रखने वाले लोगों का विश्वास खोने में भी उन्हें कोई हर्ज नहीं लगता है।
आज सरकार से लेकर न्यायपालिका तक, और जैसा कि इस ताजा मामले से साबित हुआ है, एनएसई तक में आस्था और अंधविश्वास के आधार पर लिए गए फैसलों से भारी खतरनाक नौबत बनी रहती है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में ही हमारा देखा हुआ है कि आध्यात्मिक गुरू माने जाने वाले किसी व्यक्ति के भक्तजन न्यायपालिका और पुलिस में बड़े-बड़े ओहदों पर रहते हुए किस तरह अपनी आस्था का प्रदर्शन करते हैं, और अपने मातहत तमाम लोगों को ऐसे गुरू की सेवा में झोंक देते हैं। जाहिर है कि इन लोगों के फैसले ऐसे गुरू के प्रभाव में लिए जाते हैं, और धीरे-धीरे ऐसे गुरू मनचाहे फैसले दिलाने के दलाल भी बन जाते हैं। आस्था जब बढ़ते-बढ़ते अंधविश्वास हो जाती है और वह एक संगठन की ताकत के साथ मिलकर मनमानी करने पर उतारू होती है तो उससे आसाराम जैसे बलात्कारी से लेकर राम-रहिम जैसे मुजरिम पैदा होते हैं जो कि भक्तों से, भक्तों के बच्चों से बलात्कार करते हैं।
भारत में हमारा देखा हुआ है कि धर्म, आध्यात्म, और गुरू का यह सिलसिला कुल मिलाकर धर्मान्धता और अंधविश्वास की तरफ ही ले जाता है। देश के सबसे बड़े स्टॉक एक्सचेंज को चला रही महिला जिस तरह हिमालय में कहीं जीने वाले किसी अज्ञात और अलौकिक गुरू के कहे मुताबिक फैसले ले रही थी, उससे लोकतंत्र और सरकार के कामकाज में आस्था का खतरा भयानक पैमाने पर उभरकर सामने आया है। हिन्दुस्तान में सार्वजनिक ओहदों और जनता के पैसों से किसी भी किस्म की आस्था का प्रचार बंद होना चाहिए। लेकिन इस देश ने सुप्रीम कोर्ट के जाने कितने ही जजों को अपनी आस्था के आडंबर का प्रदर्शन करते देखा है, ऐसे में न्यायपालिका से भी कोई उम्मीद नहीं की जा सकती।
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असम की खबर है कि वहां भाजपा आज राहुल गांधी के खिलाफ राजद्रोह के हजार मामले दर्ज करवाने वाली है क्योंकि उसका कहना है कि राहुल ने तीन दिन पहले एक ट्वीट किया था जो राजद्रोह है। इस ट्वीट में राहुल ने लिखा था कि भारत के संघ में ताकत है, यह संस्कृतियों का संगठन है, यह विविधताओं का संगठन है, यह भाषाओं का संगठन है, यह लोगों का संगठन है, यह राज्यों का संगठन है। कश्मीर से केरल तक और गुजरात से पश्चिम बंगाल तक भारत अपने सारे रंगों में खूबसूरत है। भारत की विविधता की भावना का अपमान न करें। इस पर असम भाजपा का कहना है कि राहुल गांधी ने भारत को गुजरात से बंगाल तक लिखकर अरूणाचल प्रदेश में चीन के दावे को मान लिया है और यह राजद्रोह है।
ऐसा लगता है कि भाजपा के भीतर भी असम भाजपा एक अतिउग्र दक्षिणपंथी ताकत बनती जा रही है, और वहां के मुख्यमंत्री नफरत फैलाने के मामले में बाकी भाजपा नेताओं को भी खासा पीछे छोड़ देना चाहते हैं। अभी कल ही उन्होंने राहुल गांधी के पिता को लेकर कोई बयान दिया जिस पर विचलित प्रियंका गांधी ने भाजपा नेताओं को याद दिलाया कि उनकी मां देश के लिए शहीद हुए राजीव गांधी की विधवा हैं, और उनके नाम को इस तरह चुनावी गंदगी में घसीटा जाना नाजायज है। प्रियंका ने याद दिलाया कि उनकी मां शादी के बाद इस देश आई और यहीं की होकर रह गईं, उन्होंने पूरी जिंदगी यहीं की सेवा में गुजारी। असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने बयान दिया था कि भाजपा ने राहुल गांधी से इस बात का सुबूत मांगा है क्या कि वे राजीव गांधी की औलाद हैं। इस बात को लेकर तेलंगाना के सीएम के. चंद्रशेखर राव ने एक सार्वजनिक मंच से माईक पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मांग की है कि असम मुख्यमंत्री को ऐसा बयान देने के एवज में कुर्सी से हटाया जाए। केसीआर ने मोदीजी का नाम ले-लेकर खूब जमकर हमला किया कि क्या यह हमारी भारतीय संस्कृति है? क्या वेद, महाभारत, रामायण, और भगवद्गीता में यही सिखाया गया है? क्या एक मुख्यमंत्री इस तरह की बात कर सकता है? केसीआर ने कहा कि आपको लगता है कि लोग इस पर चुप रहेंगे? क्या यह भाजपा की संस्कृति है? एक भारतीय होने के नाते मैं यह जवाब मांग रहा हूं, मैं शर्मिंदा हूं। इससे इस देश का गौरव नहीं बढ़ रहा है और क्या आपको यह लगता है कि हम हाथ बांधे इस पर चुप बैठे रहेंगे? केसीआर ने कर्नाटक में खड़े किए जा रहे हिजाब विवाद को भी प्रधानमंत्री और भाजपा पर हमला किया और कहा कि जिस बेंगलुरू को हिंदुस्तान की सिलिकॉन वैली कहा जाता है उसे धर्मांधता में झोंककर कश्मीर वैली बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि अगर इस देश का माहौल बिगाडक़र यहां का अमन का ताना-बाना तबाह किया जाता है तो कौन यहां पर पूंजीनिवेश के लिए आएंगे, और कहां से रोजगार की संभावनाएं आएंगी?
अब इसी भाजपा मुख्यमंत्री की अगुवाई में जिस तरह असम में आज राजद्रोह के कम से कम हजार मामले राहुल गांधी के खिलाफ दर्ज करवाने की घोषणा की गई है, वह लोकतंत्र में भयानक है। राहुल गांधी के शब्दों से अगर अरूणाचल पर चीन के दावे को मान लेना माना जा रहा है, तो फिर किसी भी भाषा के किन्हीं भी शब्दों से कोई भी मतलब निकाला जा सकता है। देश के राष्ट्रगान में सिंधु शब्द चले आ रहा है, जो सिंध आज पाकिस्तान में है। फिर तो इसे लिखने वाले रवीन्द्र नाथ टैगोर को ऊपर से पकडक़र लाकर पूरी जिंदगी के लिए राजद्रोह के जुर्म में कैद सुना देनी चाहिए। और फिर जहां-जहां यह राष्ट्रगान गाया जाता है उन सबको भी जेल होनी चाहिए कि वे पाकिस्तान के एक प्रांत का गौरव गान कर रहे हैं। इतनी बड़ी गद्दारी पर तो भाजपा के कई नेता रोजाना ही पाकिस्तान भेजने की बात करते हैं और सिंध का गौरव गाने वाले हर हिंदुस्तानी को पाकिस्तान भेजने का मतलब भारत का पाकिस्तान में विलय कर देना होगा।
राजनीतिक गंदगी, बदनीयत, और आक्रामकता से परे भी राजद्रोह की यह ताजा तोहमत दिमागी दिवालियापन का एक पुख्ता सुबूत है। इसे कुतर्क कहना भी ठीक नहीं है, यह पूरी तरह से अतर्क है, यानी जिसमें तर्क कुछ भी नहीं है। एक दूसरे को राजनीतिक निशाना बनाने के लिए राज्य की पुलिस का अगर कोई सत्तारूढ़ पार्टी इस हद तक बेजा इस्तेमाल करने पर उतर आएगी, तो जाहिर है कि देश का संघीय ढांचा खत्म ही हो जाएगा, और दो राज्यों की पुलिस आपसी सरहद पर ठीक उसी तरह एक-दूसरे पर गोलियां चलाने लगेंगी जैसी कि इसी मुख्यमंत्री के राज्य में असम की पुलिस बगल के नगालैंड पुलिस पर चला रही है। तेलंगाना के सीएम केसीआर कांगे्रस के नहीं हैं, और उन्होंने जो सवाल उठाया है वह एक जायज सवाल है, और इस पर प्रधानमंत्री को गौर करना चाहिए। चुनाव तो आते-जाते रहते हैं, लेकिन चुनावी बयान राष्ट्रीय कलंक की नई-नई पराकाष्ठा बनते चले जाने से कोई चुनाव तो जीता जा सकता है लेकिन लोकतंत्र की शिकस्त तय है।
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में पिछले हफ्ते एक लडक़ी रेल की पटरी मालगाड़ी के नीचे से होकर पार कर रही थी कि अचानक मालगाड़ी चल पड़ी और वह लडक़ी निकल नहीं पाई और चीखने लगी। उसकी आवाज सुनकर वहीं खड़े एक बढ़ई ने अपनी जान की परवाह किए बिना चलती हुई मालगाड़ी के नीचे घुसकर उस लडक़ी को पकडक़र दबाकर रखा और 26 डिब्बों की मालगाड़ी ऊपर से निकल गई। इसके बाद वह लडक़ी अपने रास्ते चली गई, और यह गरीब बढ़ई बिना एक शुक्रिया के भी अपने घर चले गया। घर पर उसने अपनी बीवी को बताया कि ऐसा हादसा हुआ और उसकी कोशिश से एक लडक़ी बच गई तो घरवाली ने खुशी जाहिर की, बजाय इसके कि पति के खतरे में पडऩे को लेकर वह उस पर चढ़ाई करती। इस घटना का एक वीडियो अभी चारों तरफ फैला तो भोपाल की इस संस्था ने इस आदमी को ढूंढकर उसका सम्मान किया। और यह बढ़ई इतना गरीब था कि उसके पास एक मोबाइल फोन भी नहीं था तो संस्था ने उसे एक मोबाइल फोन भी दिया। अब इस घटना की एक आखिरी जानकारी यह है कि ऊपर से गुजर रही मालगाड़ी के नीचे इस लडक़ी को बचाए हुए इस आदमी का हुलिया वीडियो में दिखता है, और जैसा कि हिन्दुस्तान में कहा गया है कि लोगों के कपड़ों से उनकी पहचान होती है, तो इस बढ़ई ने मुस्लिम टोपी लगाई हुई थी। महबूब नाम का यह आदमी नमाज पढक़र आ रहा था, और सामने मुसीबत में इस तरह चीखती हुई लडक़ी को देखकर उसने अपने गरीब परिवार की फिक्र की किए बिना उसे बचाने के लिए अपनी जिंदगी इस तरह झोंक दी थी। मोहम्मद महबूब नाम के इस आदमी की टोपी उसका मजहब तो बता रही है, लेकिन यह टोपी किस तरह इंसानियत और बहादुरी भी अपने भीतर छुपाई हुई थी, वह इस घटना के बाद सामने आया है।
अब जिस तरह इस मुल्क में पोशाक को लेकर बवाल चल रहा है, और जिस तरह इस देश में यह कहा जा रहा है कि लोगों की पोशाक से उनका धर्म पता लगता है, तो क्या यह भी कोई सोचेंगे कि उनके धर्म से उनकी इंसानियत का भी पता लगता है या नहीं? क्या पोशाक और धर्म इस कदर मायने रखते हैं कि उनके भीतर की इंसानियत है या नहीं इसकी अहमियत खत्म हो जाती है? क्या पाकिस्तानी टैंकों को उड़ाने वाले देश के सबसे बहादुर सैनिक कैप्टन हमीद का धर्म उनकी बहादुरी को कम या अधिक कर पाएगा? या क्या उनकी पोशाक देखकर उनका धर्म पता लग सकता था? और क्या ऐसी पतासाजी इंसानियत के लिए कोई मायने रखती है? इस एक घटना से आज देश में सुलगाई और भडक़ाई जा रही पोशाक की लड़ाई की हकीकत उजागर होती है। पोशाक से अगर कोई धर्म उजागर होता है, तो उससे कोई इंसानियत तो कम से कम उजागर नहीं होती है। हो सकता है किसी पोशाक से उजागर होने वाले धर्म पर किसी को गर्व हो, लेकिन उस पोशाक के भीतर किस किस्म के इंसान हैं उससे भी यह तय होता है कि उनका धर्म उस पर गर्व करे या न करे। आज हालत यह है कि लोग अपने धर्म पर गर्व का नारा लगाते हुए ऐसी हरकतें कर रहे हैं कि उनके धर्म को उन पर सिवाय शर्मिंदगी के और कुछ न हो।
एक गरीब बढ़ई ने अपने परिवार की फिक्र किए बिना अपनी जान झोंककर एक मुसीबतजदा लडक़ी का धर्म जाने बिना जिस तरह उसकी जान बचाई, वही असली धर्म है और ऐसा बढ़ई अपने धर्म पर गर्व करे या न करे, उसका धर्म जरूर उस पर गर्व कर सकता है। दूसरी तरफ हाल ही में हुई कुछ दूसरी वारदातों को देखें तो यह समझ पड़ता है कि कौन से लोग अपने धर्म का नाम लेते हुए भी अपने धर्म पर कलंक बने हुए हैं, और अगर धर्म की कोई भावनाएं होतीं तो वह धर्म अपने ऐसे मानने वालों के जुर्म के लिए शर्म से डूब मरता, कहता कि हे धरती तू फट जा, और मुझे समा ले।
भोपाल की यह घटना छोटी सी है, लेकिन इसका वीडियो बन जाने से यह भरोसेमंद हो गई, और बहुत से धर्मान्ध और साम्प्रदायिक लोगों को शायद पहली बार यह लगा होगा कि मुस्लिम टोपी के नीचे का कोई इंसान भी कोई नेक काम कर सकता है। दूसरी तरफ कुछ धर्म के लोगों का, और खासकर इसी मध्यप्रदेश के बहुत से लोगों का अपने खुद के धर्म के बारे में यह मानना है कि वे धर्म का नाम लेकर जो कुछ भी करते हैं, जितनी भी हिंसा करते हैं, वह सब उनके धर्म का गौरव बढ़ाने का काम है। त्याग और बहादुरी किसी एक धर्म तक सीमित नहीं है, और इसकी मिसालें चारों तरफ रहती लेकिन आज इसकी चर्चा करने की जरूरत इसलिए हो रही है कि हिन्दुस्तान के इतिहास की सबसे अधिक ताकत वाली हिन्दूवादी सरकार के चलते हुए भी अगर लगातार हिन्दू को खतरे में बतलाया जा रहा है, और हिन्दू धर्म को बचाने के लिए बहादुरी के नाम पर दूसरे धर्म के लोगों पर, दूसरे किस्म की पोशाक वाले लोगों पर, दूसरे किस्म के खानपान वाले लोगों पर हमला किया जा रहा है, तो क्या उससे हिन्दू खतरे से बाहर आ जा रहा है? लोगों को यह समझने की जरूरत है कि इतनी हिन्दूवादी सरकार तो देश में कभी भी नहीं थी, और आज तो अधिकतर प्रदेशों में ऐसी ही हिन्दूवादी सरकारें हैं, उसके बाद हिन्दू कैसे खतरे में बतलाए जा सकते हैं? अगर इतनी सत्ता की ताकत भी हिन्दू पर से खतरा घटा नहीं सकती हैं, तो फिर इनके पहले की सरकारों के चलते भी हिन्दू कभी इतने खतरे में नहीं थे। इसलिए इस छोटी से घटना को लेकर यह सबक लेने की जरूरत है कि लोगों की पोशाक से उनके धर्म की अटकल न लगाएं, बल्कि लोगों की हरकतों से उनके भीतर की इंसानियत की, या उसकी नामौजूदगी की अटकल जरूर लगाएं।
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बिहार की राजधानी पटना में गायघाट सरकारी शेल्टरहोम में रखी गई लड़कियों में से एक ने वहां की महिला सुपरिटेंडेंट पर यह आरोप लगाया था कि वह लड़कियों से गलत काम करवाती है, और उन्हें मारपीट कर खाने में नशीली चीजें मिलाकर बाहर से लडक़ों को बुलाकर उनके साथ सेक्स करने को मजबूर करती है। कैमरों के सामने इस लडक़ी ने ये शिकायतें की थीं, लेकिन सरकार ने इन आरोपों को खारिज कर दिया, न इनकी कोई जांच करवाई, और न ही पुलिस ने शिकायत पर एफआईआर दर्ज की। जब यह मामला मीडिया में खूब आया तो उसके बाद पटना हाईकोर्ट ने खुद होकर इस मामले में दखल दी और सरकार और पुलिस को कड़ी फटाकर लगाई। अब हाईकोर्ट ने इस पीडि़ता को बयान दर्ज करने के लिए बुलाया है। बिहार में बीजेपी और जेडीयू, दो पार्टियों की डबल इंजन वाली सरकार है, और वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार स्वघोषित सुशासन बाबू हैं, उनके राज में सरकारी शेल्टरहोम के खिलाफ ऐसी गंभीर और भयानक शिकायत पर सरकार का यह रूख है। बिहार में कुछ संवैधानिक संस्थाएं भी होंगी, महिला आयोग, मानवाधिकार आयोग, बाल आयोग या बाल कल्याण परिषद, लेकिन मीडिया में लगातार छप रही इस घटना पर इनमें से किसी की भी नींद नहीं खुली, जाहिर है कि इन पर चर्बी बढ़ाने के लिए सरकार की पसंद के लोग मनोनीत किए गए होंगे, आमतौर पर सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के नेता ही मनोनीत हुए होंगे, और उनकी भला मुसीबतजदा लोगों में क्या दिलचस्पी हो सकती है कि अपने राजनीतिक आकाओं को नाराज करके वे इंसाफ के बारे में सोचें।
लेकिन यह हाल महज बिहार में हो ऐसा भी नहीं है, देश भर में संवैधानिक संस्थाओं और सत्तारूढ़ पार्टी के बीच ऐसा ही एक नाजायज गठबंधन रहता है कि ऐशोआराम और अहमियत के लिए इन कुर्सियों पर बैठाए गए लोगों से यही उम्मीद की जाती है कि वे सरकारी जुल्म-ज्यादती या सरकारी जुर्म की तरफ न देखें, और देश के संविधान के तहत बनाए गए इन ओहदों पर मजा करते रहें। हिन्दुस्तान में शायद ही किसी प्रदेश में संवैधानिक संस्था पर बिठाए गए लोग अपनी जिम्मेदारी पूरी करते होंगे, और अधिकतर मामलों में तो अदालतें अपने रोज के कामकाज से आगे बढक़र खुद होकर ऐसी सुनवाई शुरू करती हैं, और तब तक भी कमजोर तबकों के संरक्षण के लिए बनाई गई संवैधानिक संस्थाओं के मुंह भी नहीं खुलते।
आज देश में जरूरत यह है कि सत्तारूढ़ पार्टी की पसंद का सम्मान करने के लिए जनता के पैसों पर किए जा रहे ऐसे मनोनयन खत्म करना चाहिए जिन्हें संविधान के तहत जरूरी बनाया गया है, लेकिन जिनका कोई योगदान कमजोर जनता को बचाने में नहीं रह गया है। कुछ समय पहले हमने इसी जगह पर रिटायर्ड नौकरशाहों और जजों को केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा तरह-तरह के आयोगों में मनोनीत करने के खिलाफ लिखा था कि यह हितों के टकराव का मामला है। अब ऐसी संवैधानिक कुर्सियों के बारे में भी हमारा यही मानना है कि यह सत्ता द्वारा मनोनयन करने के एवज में सत्ता को बचाने का एक मामला है, और यह सिलसिला खत्म होना चाहिए क्योंकि इसे संविधान के नाम पर चलाया जा रहा है, और जनता के पैसों से जनता के हितों के खिलाफ चलाया जा रहा है। देश भर में महिला आयोग, बाल आयोग, मानवाधिकार आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग जैसी तमाम संस्थाओं के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक विशेषज्ञ लिस्ट बनाने की जरूरत है जिसमें देश भर से छांटे हुए नाम रहें। इसके बाद हर प्रदेश के लिए इस किस्म के ओहदों पर नाम तय करते हुए लॉटरी से नाम निकालकर लोगों को भेजना चाहिए, और राज्य शासन के साथ उनके संबंध संवैधानिक दूरी के बने रहना चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक कमजोर तबकों को विशेष सुरक्षा देने के लिए बनाई गई ऐसी संवैधानिक संस्थाएं जनता का पेट काटकर उन पर लादा गया बोझ हैं। बिहार में अगर इनमें से किसी भी संवैधानिक संस्था ने अपनी जिम्मेदारी पूरी की होती, तो शायद पहले से ही काम से लदे हुए पटना हाईकोर्ट को खुद होकर दखल देने की जरूरत नहीं पड़ती।
कमजोर तबकों को विशेष सुरक्षा के नाम पर की गई संवैधानिक व्यवस्था पूरी तरह बोगस है और वह जनता के पैसों की लूटपाट से मौज-मस्ती का एक जरिया बनी हुई है। ऐसी हरामखोरी से तो बेहतर यह है कि इन संस्थाओं की व्यवस्था ही खत्म कर दी जाए, और हाईकोर्ट में जजों का पद बढ़ा दिया जाए जो कि खुद होकर जनहित के मुद्दों को देख सकें, और सरकार से जवाब-तलब कर सकें। आज एक तरफ तो सरकारी या गैरसरकारी मुजरिम कमजोर लड़कियों और बच्चों से संस्थागत इंतजाम में बलात्कार करते हैं, और उनसे पेशा करवाते हैं, लेकिन दूसरी तरफ इससे उन बच्चों को बचाने का कोई भी इंतजाम कारगर नहीं हो रहा। जो-जो मामले सामने आते हैं उनमें दिखता है कि सरकारी नालायकी और अनदेखी किस परले दर्जे की थी बल्कि अधिकतर मामलों में जुर्म में सरकार की भागीदारी भी दिखती है। हिन्दुस्तानी कानून में फेरबदल करके जब तक ऐसे आयोगों के लिए लोगों का मनोनयन राजनीतिक ताकतों के हाथ से लिया नहीं जाएगा, और एक पारदर्शी संवैधानिक प्रक्रिया बनाकर उसे असरदार नहीं बनाया जाएगा तब तक जनता के पैसों की इन कुर्सियों पर बर्बादी एक और जुर्म है।
लोगों को याद रहना चाहिए कि चार बरस पहले इसी बिहार प्रदेश के मुजफ्फरपुर में सरकारी अनुदान पर चलने वाले एक एनजीओ के चलाए जा रहे शेल्टरहोम में इस बड़े पैमाने पर बच्चियों से बलात्कार हुए थे और उन्हें सेक्स के धंधे में धकेल दिया गया था कि उस मामले ने देश को हिलाकर रख दिया था। इस बालिका गृह को चलाने वाला एनजीओ संचालक ब्रजेश ठाकुर ऐसी चौंतीस बच्चियों के सेक्स-शोषण का जिम्मेदार पाया गया था, और 2018 के इस मामले का भी सुप्रीम कोर्ट ने खुद होकर नोटिस लिया था और इसकी सुनवाई शुरू की थी। इसके बाद इस मामले को बिहार के सत्तारूढ़ राजनीतिक असर से बचाने के लिए दिल्ली की एक अदालत में भेजा गया था और सुप्रीम कोर्ट ने अपनी निगरानी में छह महीने में इसकी सुनवाई करवाई थी। इस मामले में बिहार की उस वक्त की एक मंत्री मंजू वर्मा का नाम भी आया था जिन्हें इस्तीफा देना पड़ा, लेकिन इसके बाद 2020 के बिहार चुनाव में सत्तारूढ़ जेडीयू ने फिर उन्हें टिकट दी थी। जिस देश में सत्तारूढ़ पार्टी और बेबस बच्चियों से बलात्कार के बीच इस तरह का संबंध हो, उस देश में हरामखोरी करने के लिए और संवैधानिक कुर्सियां क्यों बढ़ानी चाहिए?
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पाकिस्तान की खबर आई है कि वहां तीन बेटियों की एक मां ने चौथी संतान बेटा पाने के लिए जादू के करिश्मे का दावा करने वाले अपने को पीर बताने वाले एक आदमी के झांसे में जान खतरे में डालने वाला काम किया है। दो इंच से लंबी एक कील को हथौड़े से उसके माथे पर ठोक दिया गया कि इससे उसे बेटा होगा। इसके बाद जब महिला से वह कील खुद ही सरोते से नहीं निकल पाई और उसकी हालत बिगडऩे लगी तो उसे पेशावर शहर के एक अस्पताल ले जाया गया और वहां डॉक्टरों ने ऑपरेशन करके यह कील निकाली। गनीमत यही रही कि यह कील इतने भीतर तक जाने पर भी उसके दिमाग में नहीं घुसी थी। पुलिस का कहना है कि अस्पताल से वीडियो फूटेज लिए गए हैं और जल्द ही उस महिला से पूछताछ करके कील ठोंकने वाले को गिरफ्तार किया जाएगा।
अब पाकिस्तान के हालात हिन्दुस्तान से बहुत अलग हैं। इसलिए वहां एक लडक़े की चाह में अगर कोई महिला ऐसा कर बैठी है तो उसके पीछे कई निजी और सामाजिक वजहें हो सकती हैं। एक वजह तो यह हो सकती है कि लड़कियों की हिफाजत आज इन दोनों ही मुल्कों में एक बड़ा खतरा बनी हुई है। हिन्दुस्तान के अधिकतर प्रदेशों में लड़कियों और महिलाओं की हिफाजत मुश्किल होती जा रही है और यह खतरा पेशेवर मुजरिमों से न होकर समाज से ही हो रहा है, अपने घर-परिवार के भीतर भी हो रहा है। कर्नाटक के ताजा हिजाब विवाद का लेना-देना भी लड़कियों से है और इसके पीछे की सरकारी-साम्प्रदायिक वजहों को छोड़ भी दें, तो यह मुस्लिम समाज के भीतर लड़कियों और महिलाओं से भेदभाव का एक जलता-सुलगता मामला है जिसमें पोशाक की हर किस्म की बंदिश सिर्फ लड़कियों-महिलाओं पर लादी गई हैं, और लडक़े और आदमी तमाम किस्म की हरकतों के लिए आजाद रहते हैं। राजस्थान को देखें तो आज इक्कीसवीं सदी में भी पूरे प्रदेश की महिलाएं घूंघट में दिखती हैं, बाकी देश में भी अधिकतर समाजों में तमाम रोक-टोक महिलाओं पर ही लागू है। इसलिए हिन्दुस्तान हो या पाकिस्तान संतान के होने पर आमतौर पर बेटे की ही खुशी मनाई जाती है, और बेटी होने पर लोग मन मसोसकर रह जाते हैं।
अब पाकिस्तान की इस ताजा घटना का अंधविश्वास से भी लेना-देना है, और इस मामले में भी हिन्दुस्तान कहीं पीछे नहीं है। छत्तीसगढ़ और झारखंड में जादू-टोने के नाम पर पेशेवर बैगा-ओझा-गुनिया लोगों को लूटते हैं, और पैसों के साथ-साथ महिलाओं-बच्चों के बदन भी लूटते हैं। और ऐसी ही घटनाओं के इर्द-गिर्द जादू करने वाले लोगों की हत्याएं भी सुनाई पड़ती हैं। जब पेशेवर लोग जादू करने का दावा करते हैं, तो यह जाहिर है कि उन्हें सचमुच काला जादू करने वाला मानकर लोग उन्हें मार भी डालते हैं। हिन्दुस्तान मेें आल-औलाद की चाह के लिए या बेटियों के बाद बेटे की चाह के लिए लोग तमाम किस्म के अंधविश्वास के भी शिकार होते हैं, और वे यह भी कोशिश करते हैं कि भ्रूण परीक्षण से पता लग जाए कि पेट में बेटी है तो उसे मार डाला जाए, और अगली बार बेटे की कोशिश की जाए।
बेटे की चाह को लोगों की निजी चाह मानना भी गलत होगा। आज की सामाजिक हकीकत यही है कि एक बेटी को बड़े करने से लेकर उसके शादी-ब्याह तक, और उसके ससुराल में उसकी सुरक्षित जिंदगी तक के लिए मां-बाप को अंतहीन फिक्र करनी होती है, अंतहीन खतरे उठाने होते हैं। समाज में लड़कियों के साथ जितने तरह के जुल्म होते हैं, उन्हें जितने किस्म के सेक्स अपराध झेलने पड़ते हैं, स्कूल-कॉलेज से लेकर खेल के मैदान और प्रयोगशाला तक जितने किस्म के सेक्स-शोषण का खतरा उन पर मंडराते रहता है, वह सब मां-बाप पर बहुत भारी पड़ता है, और हिन्दुस्तानी मां-बाप को महज बेटे की चाह में अंधा कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि बेटी को बड़ा करना बहुत अधिक आशंकाओं से भरा हुआ और चुनौती का काम होता है।
जिन बातों को हम कर रहे हैं इनका कोई आसान रास्ता नहीं है। फिर भी हिन्दुस्तान और पाकिस्तान जैसे देशों में महिलाओं की स्थिति को लेकर लगातार चर्चा की जरूरत रहती है और सामाजिक जागरूकता से लेकर कानूनी सुरक्षा तक के मोर्चे पर लगातार मेहनत की जरूरत है। आज कुछ संगठन इन मुद्दों पर चर्चा जरूर करते हैं लेकिन ऐसा लगता है कि ये चर्चाएं जागरूक लोगों के दायरे में, जागरूक लोगों द्वारा, जागरूक लोगों के लिए होकर रह जाती हैं, और समाज के व्यापक हिस्से तक इनका असर नहीं पहुंच पाता। पाकिस्तान के इस ताजा मामले को देखें तो वह एक बार फिर यही साबित करता है कि अंधविश्वास का अधिक शिकार महिलाएं ही होती हैं। उन्हीं के बीच अशिक्षा अधिक है, उन्हें जागरूक बनाते हुए समाज के मर्द डरते हैं कि वे जागरूक होकर मर्दों के खिलाफ ही खड़ी न हो जाएं। इसलिए समाज उन्हें बुर्के और घूंघट के भीतर रखना चाहता है, घर के भीतर रखना चाहता है, जागरूकता के मोर्चे से दूर रखना चाहता है, और जहां तक मुमकिन हो सके लडक़ी को मां के गर्भ में ही खत्म कर देना चाहता है। ऐसे तमाम मुद्दों पर जहां मौका मिले वहां चर्चा होनी चाहिए, इसीलिए हम आज पाकिस्तान की इस एक अकेली घटना को लेकर उससे जुड़े हुए दूसरे मुद्दों को भी सामने रख रहे हैं।
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दुनिया की एक सबसे बड़ी और सबसे कामयाब टेक्नालॉजी कंपनी, टेस्ला के संस्थापक और आज अंतरिक्ष में पर्यटक भेजने से लेकर पूरी दुनिया में उपग्रहों का घेरा डालने वाले एलन मस्क दुनिया के सबसे अमीर इंसान भी हैं। उनकी कंपनी बैटरी से चलने वाली कारें बनाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी है, और वे हिन्दुस्तान सहित दुनिया के हर देश के ऊपर उपग्रह पहुंचाकर उससे इंटरनेट कनेक्शन देने का काम शुरू कर चुके हैं। इस परिचय की जरूरत आज उनके एक बयान को लेकर पड़ी है जिसमें उन्होंने आज के मीडिया में बुरी और नकारात्मक खबरों की बमबारी के बारे में लिखा है। उन्होंने यह सवाल उठाया है कि दुनिया में आज जो कुछ हो रहा है उसे पता लगाना इसके बिना मुश्किल हो गया है कि आपको ऐसी खबरों की भीड़ से गुजरना पड़े जो आपको दुखी और नाराज करती हैं। उन्होंने यह सवाल किया है कि परंपरागत मीडिया क्यों बिना थके हुए नफरत फैलाने में लगा हुआ है? उन्होंने ट्विटर पर लिखा कि अधिकतर मीडिया इस सवाल का जवाब देने में लगे रहता है कि धरती पर आज सबसे बुरा क्या-क्या हुआ है। एलन मस्क का कहना है कि यह धरती इतनी बड़ी है कि जाहिर है कि हर पल कहीं न कहीं कुछ बुरी चीजें हो रही होंगी, लेकिन इन्हीं चीजों पर लगातार फोकस किए रहने से हकीकत की असली तस्वीर पेश नहीं हो पाती हैं। उनका कहना है कि हो सकता है कि परंपरागत मीडिया इतना नकारात्मक इसलिए रहता हो क्योंकि पुरानी आदतें जल्द खत्म नहीं होती हैं, लेकिन इस मीडिया की सकारात्मक होने की कोशिश भी दुर्लभ है।
अब यह बात तो कुछ अधिक हैरान इसलिए भी करती है कि अमरीका में बैठे हुए एलन मस्क न तो हिन्दुस्तान के अखबार देखते हैं और न यहां के टीवी चैनल देखते हैं, वे हिन्दुस्तानी हवा में आज बहुत बुरी तरह फैली हुई जहरीली नफरत से भी रूबरू नहीं हैं, वरना वे पता नहीं और क्या लिखते, और क्या कहते। लेकिन हम उनकी बातों से परे भी इस पर आना चाहते हैं कि क्या परंपरागत और मुख्य धारा का कहा जाने वाला मीडिया सचमुच ही इतना नकारात्मक है कि उसे कोई भली बात दिखती ही नहीं? लोगों को याद होगा कि एक वक्त हिन्दुस्तान में मनोहर कहानियां नाम की एक सबसे लोकप्रिय अपराध पत्रिका खूब चलती थी, और एक वक्त ऐसा था जब यह पत्रिका उसी वक्त की सबसे लोकप्रिय समाचार पत्रिका इंडिया टुडे से भी अधिक छपती और बिकती थी। हिन्दी इलाकों में ऐसा माना जाता था कि लोग मनोहर कहानियां के बिना सफर नहीं करते थे, लेकिन घर आते ही उसे गद्दे के नीचे डाल देते थे क्योंकि उसमें हत्या और बलात्कार की घटनाओं का काल्पनिक विस्तार करके छापा जाता था, और वह परिवार के लायक पत्रिका नहीं मानी जाती थी। बाद में धीरे-धीरे जब हिन्दी टीवी चैनलों पर अपराध के कार्यक्रम आने लगे, तो शायद उसी वजह से इस पत्रिका का पतन हुआ, और अब शायद वह गायब हो चुकी है। लेकिन मीडिया का रूख हत्या-बलात्कार जैसे जुर्म से हटकर अब साम्प्रदायिकता और नफरत, धर्मान्धता और राजनीति जैसे जुर्म पर केन्द्रित हो गया है, और पहले के जो रेप-मर्डर के जो निजी जुर्म रहते थे, वे अब मीडिया में छाए हुए अधिक खतरनाक सामुदायिक और सामूहिक जुर्म के लिए जगह खाली कर गए हैं। एक हत्या से आगे दूसरी हत्या का रास्ता खुलने की नौबत कम ही आती थी अगर हत्या के बदले हत्या जैसा कोई मामला न रहता हो। लेकिन आज तो धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता के मुकाबले दूसरे तबकों की धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता लगातार बढ़ती चल रही है, और यह निजी अपराधों के मुकाबले अधिक खतरनाक नौबत है। फिर यह भी है कि कम से कम हिन्दुस्तान का गैरअखबारी मीडिया तो अखबारों के जमाने के मीडिया के मुकाबले नीति-सिद्धांत पूरी तरह खो चुका है, और आज तो अखबारी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा पूरी ताकत से धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता, नफरत और हिंसा फैलाने में जुट गया है।
आज हम दूसरे किस्म की नकारात्मक खबरों पर अधिक नहीं जा रहे जो कि भ्रष्टाचार की हैं या मामूली गुंडागर्दी की हैं। आज जब पूरे लोकतंत्र को, पूरे देश को तबाह करने की साजिशों में बड़े फख्र के साथ शामिल होकर मीडिया अपने आपको कामयाब भी बना रहा है, और पहले के मुकाबले अधिक बड़ा कारोबार भी बन रहा है, तो ऐसे में फिर भ्रष्टाचार या चाकूबाजी जैसी हिंसा को महत्वपूर्ण अपराध क्यों माना जाए? एलन मस्क ने तो अमरीकी मीडिया को देखकर अपनी सोच लिखी है, लेकिन हिन्दुस्तान के लोगों को भी यह सोचना चाहिए कि वे जिस मीडिया के ग्राहक हैं, या जिस मीडिया के विज्ञापनदाता हैं, वह मीडिया हिन्दुस्तान के लोकतंत्र को आज क्या दे रहा है, इंसानियत को आज क्या दे रहा है? यह सोचे बिना अगर लोग गैरजिम्मेदारी से गैरजिम्मेदार मीडिया के ग्राहक और विज्ञापनदाता बने रहेंगे, तो लोकतंत्र में जिम्मेदार मीडिया के जिंदा मीडिया रहने की गुंजाइश ही नहीं रहेगी, और आज वह वैसे भी खत्म सरीखी हो गई है। लोग अगर मीडिया से भगत सिंह जैसी शहादत की उम्मीद करते हैं, तो उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि मीडिया यह काम खाली पेट नहीं कर सकता, और लोग जिस किस्म के मीडिया का पेट भरेंगे, उसी किस्म का मीडिया ताकतवर होकर समाज को अपने तेवर दिखाएगा। लोग लोकतंत्र को जिम्मेदारी के साथ पा सकते हैं, या गैरजिम्मेदार होकर खो सकते हैं।
कर्नाटक का जो वीडियो सामने आया है वह पूरे हिन्दुस्तान और खासकर हिन्दू धर्म को मानने वाले लोगों के लिए भारी शर्मिंदगी का है कि किस तरह वहां मुस्लिम छात्राओं के हिजाब के खिलाफ साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा भगवा-केसरिया दुपट्टा पहनाकर झोंक दिए गए हिन्दू छात्रों की भीड़ ने हिजाब पहनी एक अकेली मुस्लिम लडक़ी को घेरकर उसके खिलाफ नारेबाजी की और उसकी बेइज्जती की। यह बहादुर लडक़ी अकेली वहां से इस भीड़ के बीच से निकली, और उसने सोशल मीडिया पर देश के तमाम गैरसाम्प्रदायिक लोगों का दिल जीत लिया, लोगों की वाहवाही पाई। देश के कुछ सबसे तीखे कार्टूनिस्टों ने इस लडक़ी पर किए जा रहे हमले, और उस लडक़ी की बहादुरी पर धारदार कार्टून बनाए हैं। इस मामले में हमने दो-तीन दिन पहले ही इसी जगह लिखा था लेकिन इन तीन दिनों में घटनाएं इस तेजी से आगे बढ़ी हैं, और यह विवाद चल ही रहा है इसलिए हम इस पर एक बार लिखना जरूरी और जायज समझ रहे हैं।
कर्नाटक के इस हिजाब विवाद में कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने कहा है कि महिलाएं बिकिनी पहनें, या हिजाब, घूंघट डालें, या जींस पहनें, यह उनका अधिकार है जो कि भारत के संविधान में उसे दिया है इसलिए महिलाओं को प्रताडि़त करना बंद करें। ऐन चुनाव के वक्त प्रियंका गांधी का यह बयान एक हौसलामंद रूख है जो कि दकियानूसी या कट्टरपंथी वोटरों को नाराज करने की कीमत पर भी देश की लड़कियों और महिलाओं की बुनियादी हक की बात करता है और कट्टरपंथियों पर वार भी करता है। आमतौर पर राजनीति के लोग ऐसी हिम्मत दिखाने से कतराते हैं, और गोलमोल जुबान में बात करते हैं, लेकिन प्रियंका गांधी ने साफगोई दिखाकर ठीक काम किया है। लोगों को याद होगा कि उत्तरप्रदेश से कांग्रेस ने एक ऐसी युवती को टिकट दिया है जिसने एक वक्त मिस इंडिया बिकिनी का खिताब जीता था, और उसकी पुरानी तस्वीरें निकालकर उसके खिलाफ प्रचार किया जा रहा है। यह करने वाले लोग यह भूल रहे हैं कि एक वक्त भाजपा की सांसद मेनका गांधी भी बॉम्बे डाईंग के तौलिये लपेटकर उनकी मॉडलिंग कर चुकी हैं, और स्मृति ईरानी भी टीवी सीरियलों पर कई तरह के किरदार कर चुकी हैं।
दूसरी तरफ कर्नाटक हाईकोर्ट में जस्टिस कृष्ण एस. दीक्षित की अध्यक्षता वाली बेंच में इस मामले पर सुनवाई चल रही है। सरकारी ड्रेसकोड के नाम पर वहां के स्कूल-कॉलेज से हिजाब हटाने के खिलाफ लगाई गई एक याचिका पर हाईकोर्ट जज ने कहा कि चूंकि सरकार इस अनुरोध पर राजी नहीं है कि दो महीनों के लिए छात्राओं को हिजाब पहनने दिया जाए इसलिए हम इस मामले पर मेरिट के आधार पर फैसला लेंगे। हाईकोर्ट ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय हमें देख रहा है और यह कोई अच्छी तस्वीर नहीं है। जस्टिस दीक्षित की पीठ ने कहा- हमारे लिए संविधान भागवत-गीता के सामान हैं। हमें संविधान के मुताबिक ही कार्य करना होगा, हम संविधान की शपथ लेने के बाद इस निष्कर्ष पर आए हैं कि इस मुद्दों पर भावनाओं को परे रखकर सोचा जाना चाहिए। सरकार कुरान के खिलाफ आदेश नहीं दे सकती, कपड़े पहनने का विकल्प मूल अधिकार है, हिजाब पहनना भी मौलिक अधिकार है, हालांकि सरकार मौलिक अधिकार को सीमित कर सकती है। अदालत का कहना है कि यूनिफॉर्म को लेकर सरकार का स्पष्ट आदेश नहीं है इसलिए हिजाब पहनना निजी मामला है, और सरकार का आदेश निजी हदों का उल्लंघन करता है। जस्टिस दीक्षित की बेंच ने सरकार से यह सवाल भी किया कि वे दो महीने के लिए हिजाब पहनने की अनुमति क्यों नहीं दे सकते, और समस्या क्या है?
इस बात को अनदेखा करना ठीक नहीं होगा कि कर्नाटक हाईकोर्ट की जिस बेंच ने ये सवाल किए हैं और यह सोच सामने रखी है उसके मुखिया एक हिन्दू जज हैं। और उनका रूख इस बात से भी दिखता है कि बेंच ने इस दौरान सिक्ख समुदाय से संबंधित विदेशी अदालतों के फैसलों का जिक्र देते हुए कहा कि सिक्खों के मामले में न सिर्फ भारत की अदालत ने, बल्कि कनाडा और ब्रिटेन की अदालतों ने भी उनकी प्रथा को आवश्यक धार्मिक परंपरा के तौर पर माना। हमारे पाठकों को याद होगा कि दो दिन पहले जब इस मुद्दे पर हमने इसी जगह लिखा उस वक्त हमने धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल को लेकर हिन्दुस्तान के साथ-साथ पश्चिमी देशों में भी सिक्खों को अपनी पगड़ी, कड़े, और प्रतीकात्मक कटार को लेकर मिली हुई कानूनी छूट का जिक्र किया था, और यह लिखा था कि मुस्लिम लड़कियों का हिजाब पहनने का आग्रह कोई अकेली धार्मिक मांग नहीं है। हिन्दू छात्र भी अपनी धार्मिक आस्था के अनुरूप बालों के पीछे चुटैया रखते ही हैं। इस धर्मनिरपेक्ष देश में भी हमने सरकारी कामकाज में चारों तरफ मोटेतौर पर हिन्दू धार्मिक रीति-रिवाजों के इस्तेमाल की एक लंबी फेहरिस्त गिनाई थी।
अब आज यह समझने की जरूरत है कि यह पूरा बखेड़ा इस अंदाज में क्यों खड़ा हो रहा है? कर्नाटक के बाद अब मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने यह घोषणा की है कि वह भी स्कूल यूनिफॉर्म के नियम कड़े करके कर्नाटक की तरह ही हिजाब पर रोक लगाएगी। मध्यप्रदेश के स्कूल शिक्षा मंत्री ने कहा है कि हिजाब बैन होगा। मजे की बात यह है कि हिन्दुस्तान के अनगिनत सरकारी और निजी स्कूलों में लड़कियों के पोशाक की स्कर्ट पर हिन्दूवादी राज्य सरकारों को कोई आपत्ति नहीं है। स्कर्ट जो कि एक विदेशी पोशाक है, जिसमें लड़कियों के बदन का एक हिस्सा दिखता है, और जो कि बहुत से ठंडे प्रदेशों में सही पोशाक भी नहीं है, उसके खिलाफ किसी हिन्दूवादी सरकार या संगठन को कुछ नहीं लगा। अब ऐसे में जब कर्नाटक से यह बवाल उठकर दूसरे भाजपा शासित राज्यों तक पहुंच रहा है तो इसके पीछे की राजनीति समझने की जरूरत है कि मुस्लिम तनाव को घेरे में लेकर हांका डालकर इस तरह छेककर मारने का यह काम ठीक यूपी-उत्तराखंड चुनाव के वक्त हो रहा है जहां पर लगातार धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने की कोशिश हो रही है। कर्नाटक की भाजपा सरकार आज हाईकोर्ट के सामने भी जिस तरह अपनी इस ध्रुवीकरण की कोशिश पर अड़ी हुई है, वह सारी कोशिश उत्तरप्रदेश के हिन्दू और मुस्लिम वोटरों के बीच एक भावनात्मक खाई खोदने की कोशिश है, और इस साजिश को अच्छी तरह समझने की जरूरत है। आज जब हिन्दुस्तान के समाचार-टीवी चैनल दक्षिण भारत के एक मंदिर की दर्शनीय पोशाक में सजे हुए एक आस्थावान हिन्दू की तरह समाचार-बुलेटिनों में छाए हुए हैं, सोशल मीडिया पर उनकी तस्वीरें और उनके वीडियो पट गए हैं, ऐन उसी वक्त मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक कर्नाटक का हिजाब-प्रतिबंध भी छाया हुआ है। इन दोनों नजारों को एक साथ पेश करने से जो तस्वीर बन रही है, वह उत्तरप्रदेश के चुनाव प्रचार की रणनीति दिखती है। अब सवाल यह है कि ध्रुवीकरण करके मुस्लिम अल्पसंख्यक वोटर-तबके को किनारे करने के लिए देश के इतिहास की गौरवशाली परंपराओं और संविधान के मौलिक अधिकारों के बुनियादी ढांचे को कितना गिराया जाएगा? जो लोग अभी के इस विवाद को अनायास मान रहे हैं, उन्हें चुनाव प्रचार के हर पहलू के सायास होने की बात समझनी चाहिए।
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हिन्दुस्तान में जब कभी यह धोखा होने लगे कि इससे घटिया शायद और कुछ नहीं हो सकेगा, उसी वक्त देश के बहुत से लोग इस खुशफहमी को एक चुनौती की तरह ले लेते हैं, और यह साबित करने लगते हैं कि उनके पहले का घटियापन तो कुछ भी नहीं था, असली माल तो उन्होंने अभी छुपा ही रखा था, जिसे अब पेश कर रहे हैं। लता मंगेशकर गुजरीं, और उनके अंतिम संस्कार के वक्त प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक और सार्वजनिक जीवन के अनगिनत लोगों तक ने श्रद्धांजलि दी। इस मौके पर फिल्म अभिनेता शाहरूख खान भी वहां पहुंचे, और उन्होंने अपने मुस्लिम रिवाजों के मुताबिक हाथ उठाकर लता मंगेशकर के लिए दुआ की, उनके साथ खड़ीं उनकी सेके्रटरी पूजा ददलानी अपने हिन्दू रिवाजों के मुताबिक हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रही थीं। दुआ करने के तुरंत बाद शाहरूख खान ने अपने धार्मिक रिवाजों के मुताबिक लता मंगेशकर के पार्थिव शरीर की ओर फूंका। इस पर भाजपा के एक नेता, हरियाणा के भाजपा आईटी सेल के प्रभारी अरूण यादव ने शाहरूख की फोटो के साथ यह लिखकर सोशल मीडिया पर पोस्ट किया- क्या इसने थूका है?
यह याद रखने की जरूरत है कि लता मंगेशकर अपनी पूरी जिंदगी सावरकर से लेकर नरेन्द्र मोदी तक की समर्थक रही हैं, कट्टर हिन्दू विचारधारा की रही हैं, और सार्वजनिक जीवन में वे अपनी सोच को बार-बार लिखती भी रही हैं। उनके गुजरने पर केन्द्र की मोदी सरकार ने दो दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया था, और महाराष्ट्र की सरकार ने तीन दिन का। यह शोक चल ही रहा था, राजकीय सम्मान के साथ लता का अंतिम संस्कार हो रहा था, पाकिस्तान सहित दुनिया के बहुत से हिस्सों से लता को श्रद्धांजलि दी जा रही थी, लेकिन दुख-तकलीफ के ऐसे मौके पर एक भाजपा शासित राज्य का भाजपा का आईटी सेल प्रभारी परले से परले दर्जे की यह घटिया नफरत हिन्दुस्तान की एकता पर थूक रहा था। फिर साम्प्रदायिकता को उपजाने-भड़काने और फैलाने के लिए बदनाम एक टीवी चैनल को तो यह नफरत रेडीमेड मिली, उसने अपने स्क्रीन पर इसे फैलाते हुए नफरत के इस थूक को पेट्रोल में तब्दील करने में अपना पसीना बहा दिया। हालत यह हो गई कि पेशेवर नफरतजीवियों ने सोशल मीडिया पर अपनी गंदी सोच के थूक का सैलाब ला दिया, और दुनिया को यह भरोसा दिलाने में लग गए कि शाहरूख ने लता मंगेशकर के शव पर थूका है। ये लोग अपने मां-बाप और उनके भी कई पीढ़ी पहले के पुरखों के नाम पर थूक रहे थे, इस देश की बहुत सी गौरवशाली परंपराओं के नाम पर थूक रहे थे, और हिन्दुस्तान के अच्छे वर्तमान और भविष्य की संभावनाओं पर भी थूक रहे थे। दिक्कत यह है कि जिनका नाम जपते हुए ये नफरतजीवी रात-दिन सोशल मीडिया पर मेहनताना-प्राप्त भाड़े के हत्यारों की तरह काम करते हैं, उन नामों में से किसी ने भी नफरत के जहर से भरे हुए इस थूक पर कुछ नहीं कहा जो कि लता मंगेशकर के सम्मानपूर्ण अंतिम संस्कार की गरिमा पर थूका गया था। और तो और जिस पार्टी का पदाधिकारी नफरत की इस गंदगी को फैलाने में पूरी तरह बेशर्म और हिंसक हमलावर था, उस पार्टी ने भी अपने इस पदाधिकारी पर कुछ नहीं कहा।
यह देश एक अभूतपूर्व नवनफरत को झेल रहा है। जिस तरह कुछ बरस पहले केदारनाथ से आई हुई बाढ़ ने सब कुछ बहा दिया था, कुछ उसी अंदाज में आज नफरतजीवी लोग हिन्दुस्तान की सारी गौरवशाली परंपराओं, लोकतंत्र के सारे गौरवशाली तौर-तरीकों, और इंसानियत के सारे गौरवशाली मूल्यों को बहाकर गंदे नालों में बाढ़ ला रहे हैं। इनकी गंदगी से, उनकी बदबू से ये नाले भी अपनी नाक बंद कर ले रहे हैं, लेकिन इनकी सेहत पर फर्क नहीं पड़ता। देश के बहुत से लोगों का ऐसा मानना और कहना है कि हिन्दुस्तानियत, और इंसानियत पर सामूहिक रूप से थूकने वाले ये लोग इसी मकसद से मेहनताने पर तैनात किए गए हैं, अब इस बात की हकीकत तो यही लोग बता सकते हैं जो कि यह मेहनताना दे रहे होंगे, या पा रहे होंगे, लेकिन इससे परे एक बात तो तय है कि देश के भीतर साम्प्रदायिक नफरत और हिंसा फैलाने और भड़काने के ऐसे देशद्रोह पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा रही है। अब अगर लता मंगेशकर के पार्थिव शरीर पर भी ऐसा देशद्रोह किया जा रहा है, तो उस सरकार को तो इस पर कुछ कहना और करना चाहिए जिसने कि देश में तीन दिनों का राष्ट्रीय शोक घोषित किया है। क्या देश का आईटी कानून चुनिंदा लोगों की ऐसी नफरत, और हमारे हिसाब से ऐसे देशद्रोह, को अनदेखा करने के लिए बना हुआ है? एक लोकतांत्रिक देश में, गांधी के देश में ऐसी नफरती हिंसा की फसल लहलहा सकती है, यह सोचना भी कुछ वक्त पहले तक नामुमकिन था, लेकिन अब ऐसा लगता है कि यह देश गांधी का देश नहीं रह गया है, और यह गोडसे का देश हो गया है, एक ऐसा देश बन गया है जिसमें मुस्लिम की जगह महज पाकिस्तान तय कर दी गई है। इस देश को हांकने वाले लोग अगर ऐसी बातों पर भी चुप्पी साधे रखेंगे, तो सबको यह याद रखना चाहिए कि दुनिया का इतिहास बोले हुए शब्दों को तो जितना भी दर्ज करता हो, वह चुप्पी को बड़े-पड़े हर्फों में दर्ज करता है।
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जापान दुनिया के उन गिने-चुने देशों में है जहां पर आबादी का एक हिस्सा बहुत उम्र जीता है। बहुत अधिक बूढ़े होकर मरने का सुख और दुख दोनों होता है। लोगों को यह तसल्ली हो सकती है कि उन्होंने अपनी अगली दो-तीन या चार पीढिय़ां देख ली, और बच्चों के बच्चों के बच्चों के साथ खेल लिए, लेकिन क्या ऐसी जिंदगी हमेशा ही इस एक छोटी खुशी से परे सुख की भी होती है? यह सवाल तमाम बूढ़ी पीढ़ी के बीच रहता है। हिन्दुस्तान जैसे देश में पड़पोता या पड़पोती होने पर कुछ समाज सोने की सीढ़ी चढ़ाते हैं कि परिवार के या की बुजुर्ग ने खुद भी सेहतमंद जिंदगी जी और इतनी सेहतमंद अगली पीढिय़ां पैदा कीं। यह एक किस्म से उनके डीएनए का सम्मान भी होता है और अगली पीढिय़ों का खयाल रखने की उनकी कामयाबी का भी। अब यह सवाल दुनिया में एक बड़े से आकार में खड़ा हुआ है कि लंबी जिंदगी क्या सचमुच में बेहतर होती है?
आज बहुत से लोग ऐसे दिखते हैं जो कि बहुत बूढ़े होने तक जीते हैं और कुछ देशों में संयुक्त परिवार कुछ पीढ़ी पहले की ऐसी सोच की मौजूदगी में असुविधा भी महसूस करती है, और कुछ लोग उसे एक भावनात्मक संरक्षण भी मानकर चलते हैं। लेकिन इन दोनों ही हालात में बूढ़े लोगों की देखरेख, उनका इलाज, और उन पर खर्च यह एक बड़ा मुद्दा बने रहता है। नई पीढ़ी अगर दूसरे शहर या दूसरे देश चली जाती है, तो पुरानी पीढ़ी पुराने शहर के बंद अकेले मकान में कई बार मरने के हफ्तों या महीनों बाद भी बरामद होती है। वजह यह रहती है कि हर बुजुर्ग को जिंदा रहने के लिए जरूरी मदद हासिल नहीं रहती। लोग अपने हाथ-पांव चलते हुए अपनी सारी कमाई अपने बच्चों के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं। और फिर जब खुद को जरूरत पड़ती है तो यह जरूरी नहीं रहता कि बच्चे उसी सीमा तक मां-बाप या दादा-दादी, या नाना-नानी का साथ दें। नतीजा यह होता है कि बुढ़ापा तकलीफदेह हो जाता है, और लोग अपनी दौलत को या अपनी बचत को अपने बुढ़ापे के लिए नहीं रखते हैं, बच्चों पर पूरी खर्च कर देते हैं, और फिर वह बुढ़ापा तकलीफदेह रह जाता है।
ऐसे में आज जब दुनिया का विज्ञान उम्र को बढ़ाने में लगा हुआ है, और बदन का बर्बाद होना रोकने में लगा हुआ है, तो यह जाहिर है कि औसत उम्र बढ़ती चल रही है। जिन समाजों में मौजूदा पीढ़ी का खानपान, रहन-सहन, और इलाज बेहतर होता है, वहां वैसे भी औसत उम्र बढ़ती जाती है। ऐसे में सौ बरस से ऊपर तक जीने वाले लोगों की उम्र तो लंबी रहती है, लेकिन जरूरी नहीं है कि उनकी सेहत भी आखिरी तक बेहतर रहती हो। अब जिंदगी के आखिरी दस बरस लंबे तो हो गए, लेकिन अगर वे सिर्फ बीमार, इलाज, और बिस्तर तक सीमित रह गए हैं, तो क्या सचमुच ऐसी लंबी उम्र किसी काम की होती है? हिन्दुस्तान में एक गाने के बोल कहते हैं- तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार..., अब सवाल यह है कि नब्बे-सौ बरस के बाद तो किसी के सेहतमंद रहने की गुंजाइश ही नहीं रहती है, ऐसे में हजारों साल जिंदा रहने की यह दुआ है, या कि बद्दुआ, यह सोच पाना मुश्किल नहीं है। ऐसी जिंदगी भी क्या जिंदगी जिसमें कि आसपास के लोग थक जाएं, और उनकी ताकत चुक भी जाए?
कुल मिलाकर इन दो नौबतों को लेकर आज हम यहां जो बात कहना चाह रहे हैं वह यह है कि आप लंबा जिएं या कम जिएं, जब तक सेहतमंद जी सकें तब तक ही जीना ठीक है। और मरना तो अपने हाथ में है नहीं, बदन में बिजली के बटन की तरह कोई बटन तो होता नहीं है कि उसे बंद कर दिया जाए, और धडक़न बंद हो जाए, इसलिए सेहतमंद रहना ही अकेला ऐसा जरिया है जो कि जिंदगी के बेहतर बरसों में, और ढलते हुए बरसों में भी, जिंदगी को जीने लायक रख सकता है। यह याद रखने की जरूरत है कि अगर जिंदगी के आखिरी कई बरस गंभीर बीमारियों के साथ गुजरते हैं, तो वह जीना भी मरने से बुरा जीना होता है। इसलिए जब बुढ़ापे की फिक्र शुरू न हुई हो, उसी वक्त तन-मन की फिक्र शुरू हो जानी चाहिए, और यह फिक्र चिंता वाली फिक्र नहीं है, यह बेहतर रखरखाव वाली ध्यान रखने वाली बात है। लोगों को बचपन से ही एक सेहतमंद जिंदगी की आदत डालनी चाहिए ताकि न तो अपने आखिरी बरस खुद पर बोझ बन जाएं, और न ही आसपास के लोगों पर। उन लोगों के बारे में सोचना चाहिए जो बिना जरूरी इंतजाम के भी लंबा बुढ़ापा झेलते हैं, और सौ बरस के होने लगते हैं, और उनका बोझ ढोते हुए आगे की पीढिय़ां खुद बूढ़ी होने लगती हैं। यह सिलसिला किसी को भी थका सकता है, और किसी को भी आल-औलाद से इस हद तक श्रवण कुमार या श्रवण कुमारी होने की उम्मीद नहीं करना चाहिए कि वे अपनी अगली पीढ़ी का ख्याल भी न रख सकें, और सिर्फ पिछली पीढ़ी को ढोते हुए ही खत्म हो जाएं। अब जिनको श्रवण कुमार की कहानी याद है वे इस बात की कल्पना आसानी से कर सकते हैं कि बूढ़े मां-बाप को कांवर में बिठाकर तीर्थयात्रा कराने निकला श्रवण कुमार अपने खुद के बच्चों का तो कोई ख्याल रख ही नहीं पाया होगा।
आज लोगों को अपनी जिंदगी का बेहतर वक्त गुजारते हुए, सेहतमंद रहते हुए, इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि आज की उनकी लापरवाही कल उन्हें एक कांवर बनाकर उनके बच्चों के कंधों पर बोझ बन जाएगी। आज जो लोग सिगरेट, तम्बाकू इस्तेमाल कर रहे हैं, वे सोचें कि कल उनकी अगली पीढ़ी अपनी नौकरी या रोजगार छोडक़र कैंसर अस्पताल के चक्कर लगाती रहे तो उसका क्या हाल होगा? यह भी सोचें कि कल वे डंायबिटीज या दिल की बीमारी के मरीज होकर महंगे अस्पताल, इलाज, और दवाईयों के मोहताज हो जाएंगे, तो वे अपने बच्चों पर कितना बड़ा बोझ बनेंगे? हो सकता है कि बच्चों के बच्चों को बेहतर पढ़ाई नसीब न हो सके, क्योंकि घर की बुजुर्ग पीढ़ी को महंगे इलाज और देखरेख की जरूरत है।
इसलिए जो लोग अपनी अगली पीढिय़ों से मोहब्बत रखते हैं या उसकी कल्पना करते हैं, उन्हें अपने सेहतमंद बुढ़ापे का इंतजाम करना चाहिए। अपना तन-मन अगर ठीक न रहे, तो अगली पीढिय़ों से मोहब्बत की बस एक भावना हो सकती है, वह हकीकत नहीं हो सकती। इसलिए अगली पीढिय़ों से खरी मोहब्बत करने के लिए आज अपने खुद के तन-मन की खरी फिक्र अगर कर सकते हैं, करते हैं, तो ही आप ईमानदार हैं, गंभीर हैं, और अपनी अगली पीढिय़ों से सचमुच मोहब्बत करते हैं। सचमुच की मोहब्बत करना और मोहब्बत करने की एक खुशफहमी में जीना दो बिल्कुल अलग-अलग बातें होती हैं। लोगों को यह याद रखना चाहिए कि उनकी लंबी उम्र तभी तक अगली पीढिय़ों के लिए वटवृक्ष है जब तक उस वटवृक्ष पर कीड़े न लग जाएं। यह भी याद रखना चाहिए कि कई परिवारों में बूढ़े गुजरते ही नहीं हैं, और अगली पीढिय़ों के श्रवण कुमार थककर कांवर को आग लगा देते हैं। यह सब ध्यान में रखते हुए हर इंसान की पहली जिम्मेदारी अपने खुद के प्रति रहना चाहिए जिस तरह की हवाई जहाज में मुसाफिरों के लिए घोषणा होती है कि केबिन में हवा का दबाव कम होने पर ऑक्सीजन मास्क नीचे उतर आएंगे, लोग पहले खुद मास्क लगाएं फिर दूसरों की मदद करें। इसी तरह जिंदगी में लोगों को पहले खुद सेहतमंद रहना चाहिए, तभी वे अपने करीबी लोगों के किसी काम के रहेंगे।
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