संपादकीय
अमरीका के तरह-तरह के निशाने पर बने हुए चीन में इन दिनों विंटर ओलंपिक चल रहा है। पश्चिम के कई देशों में इनके कुछ तरह के बहिष्कार की घोषणा की है, और अधिकारियों का दल भेजने के बजाय सिर्फ खिलाडिय़ों का दल भेजा है। लेकिन एक और वजह है कि यह बीजिंग शीतकालीन ओलंपिक खबरों में भी है और आलोचना का शिकार भी हो रहा है। जैसा कि नाम से जाहिर है शीतकालीन ओलंपिक ठंड के मौसम में होते हैं, और इनमें बर्फ पर खेले जाने वाले खेलों का बड़ा हिस्सा होता है। विंटर ओलंपिक्स का इतिहास बताता है कि ये 88 साल पहले 1924 में फ्रांस से शुरू हुए, और हाल के बरसों में ये बदलते मौसम की वजह से बर्फ की कमी का शिकार हुए, और धीरे-धीरे इन मुकाबलों के लिए कृत्रिम बर्फ का इंतजाम भी किया गया। चीन का यह ओलंपिक पहला ऐसा ओलंपिक है जो सौ फीसदी कृत्रिम बर्फ पर हो रहा है। आलोचना की एक वजह यह है कि क्या इतने बड़े पैमाने पर बिजली और पानी की फिजूलखर्ची करके खेल के ऐसे मुकाबले किए जाने चाहिए? क्योंकि आज धरती पर बिजली की भी कमी है, और पानी की भी। इसके पहले दुनिया के कुछ और देशों में ओलंपिक के पहले जमी हुई बर्फ को ढांककर, बचाकर उस पर भी खेल के मुकाबले हुए हैं, और दुनिया में कभी-कभी दूसरे पहाड़ों से बर्फ ढोकर लाकर भी ओलंपिक खेलों के लिए मैदान और मुकाबलों के ढलान बनाए गए थे।
अब सवाल यह उठता है कि इंसान अपने बनाए हुए खेलों और उनके मुकाबलों के लिए कितने बड़े पैमाने पर धरती के साधनों का दोहन करे? एक तरफ वैसे भी मौसम का बदलाव इतना बेकाबू हो चुका है कि धरती गर्म हुए चली जा रही है, समुद्र की सतह ऊपर बढ़ती चली जा रही है, प्राकृतिक विपदाएं लगातार अधिक खतरनाक होती जा रही हैं, और वे अधिक बार घट रही हैं, जल्दी-जल्दी हो रही हैं। इन सबको देखते हुए धरती एक बहुत ही नाजुक हालत में है, और मौसम की मार से बचने के लिए इंसान के पास किसी तरह का कोई हेलमेट भी नहीं है, न ही कोई सीट-बेल्ट ही है। मतलब यह कि शीतकालीन ओलंपिक के लिए बिजली-पानी के अलावा मौसम के साथ बहुत बड़े खिलवाड़ का पूरा खतरा अब तक न सामने आया है न समझ आया है। ठीक इसी तरह दुनिया में एक फिक्र सैकड़ों एकड़ में फैले हुए गोल्फ कोर्स की घास को सींचकर हरियाली बनाए रखने को लेकर भी होती है, क्योंकि इसमें बहुत बड़ी मात्रा में पानी बर्बाद होता है, और बहुत गिने-चुने खिलाड़ी इसे खेलते हैं, जिनमें से अधिकतर ऐसे रहते हैं जो कारोबार की दुनिया के कामयाब लोग हैं और शौकिया इस खेल को खेलते हुए धंधे के बड़े-बड़े सौदे करते हैं। गोल्फ के शौकीन खिलाड़ी इतने संपन्न रहते हैं कि वे पसंदीदा गोल्फ कोर्स पर खेलने के लिए दूसरे देशों का सफर भी करते हैं। अब सवाल यह उठता है कि धरती एक है उसके साधन सीमित हैं, और उनका इस्तेमाल सीमित लोगों के शौक के लिए, या फिर शीतकालीन ओलंपिक जैसे मौसम पर मार करने वाले आयोजनों पर कितना करना चाहिए?
क्या आज यह वक्त नहीं आ गया है कि धरती के कुदरती मिजाज को देखते हुए उस हिसाब से खेलों को ढाला जाए, या खेलों को चुना जाए। जिस चीन में इस मौसम में सौ फीसदी बर्फ जमाकर ये खेल-मुकाबले करवाए जा रहे हैं, उस चीन में शीतकालीन ओलंपिक करवाना ही क्यों चाहिए था? इसे उन देशों के बीच में ही क्यों न करवाया जाए जहां पर प्राकृतिक बर्फ रहती है? और ऐसे ही खेल क्यों न करवाए जाएं जो कि उन जगहों पर हो सकते हैं? आज दरअसल ओलंपिक से लेकर फुटबॉल और क्रिकेट तक के मुकाबले इतने बड़े कारोबारी धंधे बन चुके हैं कि खेलों से जुड़े तमाम फैसले कमाई के आधार पर तय किए जाते हैं। आज हिन्दुस्तान में आईपीएल के मुकाबले क्रिकेट के दूसरे फॉर्मेट की प्राथमिकता घट गई है क्योंकि कमाई आईपीएल में अधिक है। इसी तरह ओलंपिक किन देशों में हों, वहां पर कौन से खेल हों, इस बात का बहुत कुछ फैसला कमाई को ध्यान में रखकर होता है। ऐसे बहुत से अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजन हुए हैं जिनकी मेजबानी हासिल करने के लिए अंतरराष्ट्रीय खेल संघों के लोगों को मोटी रिश्वत देने के मामले भी सामने आए हैं। लेकिन हम इस मुद्दे का चौतरफा विस्तार करने के बजाय इसे मौसम के साथ जोडक़र सीमित रखना चाहते हैं कि बर्फ के कृत्रिम मैदान और पहाड़ बनाकर मौसम को शिकस्त देने के अंदाज में ऐसे खेल नहीं किए जाने चाहिए। दुनिया के जिन देशों में कुदरती सहूलियतें हैं, वहीं पर ऐसे आयोजन होने चाहिए।
खेल धरती से कम मायने रखते हैं। खेलों के लिए धरती के संतुलन को और बिगाडऩा जायज नहीं है, और इसके खतरे हो सकता है कि तुरंत न दिखें, लेकिन आगे चलकर सामने आएं, आएंगे ही, और उस दिन वे काबू में नहीं रहेंगे। इसलिए इंसान की समझदारी यही होगी कि मौसम की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए ही शौक पूरे करे।
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