संपादकीय
हिन्दुस्तान में जिस हिन्दी भाषा को हम समझते हैं उसमें बच्चों के साहित्य का मामला हमेशा से कुछ गड़बड़ रहा है। एक तो बच्चों के लिए अच्छा साहित्य लिखने वाले लोग कम रहते हैं, और जो रहते हैं उनकी अपनी राजनीतिक समझ और सामाजिक सरोकार दोनों ही कमजोर रहते हैं। नतीजा यह होता है कि वे कमल को घर चलने कहते हैं, और कमला को जल भरने कहते हैं। पहला लैंगिक भेदभाव बचपन की सबसे कच्ची उम्र में ही शुरू होता है जहां स्कूली किताबों से लेकर कहानियों तक मां और बहन को घर का काम करने वाला बताया जाता है, और पिता बाहर काम करने वाले, और बेटा राजा भैया रहता है। लेकिन लैंगिक भेदभाव से परे भी हिन्दुस्तान बाल साहित्य की संवेदनाएं बड़ी कमजोर हैं, और उनसे मिलने वाली चेतना बच्चों को एक कमजोर नागरिक ही बना पाती है। दरअसल बहुत से लोग इस मामले को बच्चों के विकास से जोडक़र देखते भी नहीं हैं, और अधिकतर लोगों को यह समझ ही नहीं आता कि बाल साहित्य से बच्चों के विकास का कुछ खास लेना-देना होता है।
संपन्न तबका तो अपने बच्चों को अंग्रेजी की कार्टून फिल्मों से लेकर अंग्रेजी के बाल साहित्य तक और अंग्रेजी स्कूली किताबों तक को देकर छुट्टी पा लेता है, जो कि लैंगिक समानता के पैमाने पर हिन्दी के मुकाबले कुछ बेहतर रहती हैं। लेकिन हिन्दी का मामला तो बहुत ही गड़बड़ है। और लैंगिक समानता से परे भी बाल साहित्य के साथ दिक्कत यह है कि उसे सतही तुकबंदी से बनाया गया सामान मान लिया जाता है। हिन्दी में नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए, बाकी जो बचा वो काले चोर ले गए, सबको बहुत पसंद आने वाला गाना है। लेकिन इस गाने पर हावी रंगभेद को अगर देखें तो यह समझ पड़ता है कि यह गाना हिन्दी में ही लिखा जा सकता था, और दक्षिण भारत में यह मुमकिन नहीं था। चोर काला होता है, यह बताते हुए बच्चों के दिमाग में यह भी बिठा दिया जाता है कि काले लोग चोर होते हैं, या हो सकते हैं। ऐसी बात उत्तर भारत के अपेक्षाकृत कम काले या गोरे हिन्दीभाषी ही लिख सकते थे। अभी एकलव्य नाम की एक प्रतिष्ठित संस्था की प्रकाशित बच्चों की एक किताब देखने मिली जिसमें एक कविता है, मोटी अम्मा, मोटी अम्मा पिलपिली, बच्चा लेकर गिर पड़ी, बच्चे ने मारी लात, चल पड़ी बारात, बारात के नीचे अंडा, खेलें गिल्ली-डंडा। अब मासूम से दिखने वाले इन शब्दों को अगर देखें तो उनके पीछे भारी बदन वाली किसी महिला की उसके बदन के आकार के लिए सीधे-सीधे खिल्ली उड़ाना सिखाया गया है। मोटी महिला गिर रही है, और बच्चा लात मार रहा है, और कवि इसे पिलपिली महिला कह रहा है! आज सोशल मीडिया पर अंग्रेजी भाषा में जिसे बॉडी-शेमिंग कहा जाता है, शरीर के आकार को लेकर धिक्कारना या खिल्ली उड़ाना, वह कविता के इन गिने-चुने शब्दों में भरा हुआ है। एकलव्य की इसी किताब में बॉडी शेमिंग की एक दूसरी मिसाल भी है, एक प्लेट में दो आलू, मोटू बोला मैं खा लूं, खाते-खाते थक गया, रोटी लेकर भग गया, रोटी गिर गई रेत में, मोटू रोया खेत में। जाहिर है कि इस किताब को तैयार करने वाले लोगों को मोटापे की खिल्ली उड़ाने से कोई परहेज नहीं है, और इसे पढऩे वाले बच्चे अपनी क्लास के किसी मोटे बच्चे की खिल्ली अगर उड़ाएंगे, तो वे अपनी नजरों में कुछ भी गलत काम नहीं करेंगे। इसी किताब की एक और कविता कहती है, टेसू बेटा बड़े अलाल, खाते बासी-रोटी-दाल, बासी दाल ने किया धमाल, टेसू की मुंडी से उड़े बाल, चिकनी मुंडी चाय गरम, टेसू राजा बेशरम। अब दस-बीस शब्दों की इस कविता में बासी खाने वालों को अलाल भी बता दिया गया, बासी खाने से सिर के बाल उडऩा भी बता दिया गया, सिर के बाल उडऩे वाले को चिकनी मुंडी वाला बेशरम भी बता दिया गया! यह सिलसिला बहुत ही खतरनाक है।
हिन्दी की पाठ्य पुस्तकों में बच्चों के लिए बनाई गई कहानियों और कविताओं में से बहुतों का यह हाल रहता है। और यह सिलसिला बदलने की जरूरत है। भाषा को न्यायसंगत और सामाजिक सरोकार का बनाना बहुत ही जरूरी है क्योंकि बच्चों की सोच की बुनियाद से ही अगर उनके मन में सामाजिक भेदभाव या शरीर को लेकर हिकारत भर दी जाए, तो वे जिंदगी भर वैसे ही पूर्वाग्रहों के साथ जीने का खतरा रखते हैं। आज जब हिन्दुस्तान में एक संकीर्णतावादी सोच छोटे बच्चों से लेकर बड़ों तक की पढ़ाई को एक खास धर्म और तथाकथित संस्कृति के मुताबिक ढालने पर आमादा है, उस वक्त ऐसी महीन बातों पर सोचने की किसी को फुर्सत भी नहीं है, और सरकारी किताबों से परे निजी किताबों के लेखकों-प्रकाशकों में भी सामाजिक-चेतना की भारी कमी है। ऐसे में जिम्मा समाज के जागरूक तबकों का बनता है कि वे जहां कहीं गैरबराबरी और बेइंसाफी की बातों को लिखा देखें, उनका विरोध करें।
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