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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : विज्ञान तो जिंदगी लंबी बनाने में लगा है, लेकिन क्या वह सचमुच बेहतर भी होगी?
07-Feb-2022 4:56 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  विज्ञान तो जिंदगी लंबी बनाने में लगा है, लेकिन क्या वह सचमुच बेहतर भी होगी?

फोटो : सोशल मीडिया

जापान दुनिया के उन गिने-चुने देशों में है जहां पर आबादी का एक हिस्सा बहुत उम्र जीता है। बहुत अधिक बूढ़े होकर मरने का सुख और दुख दोनों होता है। लोगों को यह तसल्ली हो सकती है कि उन्होंने अपनी अगली दो-तीन या चार पीढिय़ां देख ली, और बच्चों के बच्चों के बच्चों के साथ खेल लिए, लेकिन क्या ऐसी जिंदगी हमेशा ही इस एक छोटी खुशी से परे सुख की भी होती है? यह सवाल तमाम बूढ़ी पीढ़ी के बीच रहता है। हिन्दुस्तान जैसे देश में पड़पोता या पड़पोती होने पर कुछ समाज सोने की सीढ़ी चढ़ाते हैं कि परिवार के या की बुजुर्ग ने खुद भी सेहतमंद जिंदगी जी और इतनी सेहतमंद अगली पीढिय़ां पैदा कीं। यह एक किस्म से उनके डीएनए का सम्मान भी होता है और अगली पीढिय़ों का खयाल रखने की उनकी कामयाबी का भी। अब यह सवाल दुनिया में एक बड़े से आकार में खड़ा हुआ है कि लंबी जिंदगी क्या सचमुच में बेहतर होती है?

आज बहुत से लोग ऐसे दिखते हैं जो कि बहुत बूढ़े होने तक जीते हैं और कुछ देशों में संयुक्त परिवार कुछ पीढ़ी पहले की ऐसी सोच की मौजूदगी में असुविधा भी महसूस करती है, और कुछ लोग उसे एक भावनात्मक संरक्षण भी मानकर चलते हैं। लेकिन इन दोनों ही हालात में बूढ़े लोगों की देखरेख, उनका इलाज, और उन पर खर्च यह एक बड़ा मुद्दा बने रहता है। नई पीढ़ी अगर दूसरे शहर या दूसरे देश चली जाती है, तो पुरानी पीढ़ी पुराने शहर के बंद अकेले मकान में कई बार मरने के हफ्तों या महीनों बाद भी बरामद होती है। वजह यह रहती है कि हर बुजुर्ग को जिंदा रहने के लिए जरूरी मदद हासिल नहीं रहती। लोग अपने हाथ-पांव चलते हुए अपनी सारी कमाई अपने बच्चों के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं। और फिर जब खुद को जरूरत पड़ती है तो यह जरूरी नहीं रहता कि बच्चे उसी सीमा तक मां-बाप या दादा-दादी, या नाना-नानी का साथ दें। नतीजा यह होता है कि बुढ़ापा तकलीफदेह हो जाता है, और लोग अपनी दौलत को या अपनी बचत को अपने बुढ़ापे के लिए नहीं रखते हैं, बच्चों पर पूरी खर्च कर देते हैं, और फिर वह बुढ़ापा तकलीफदेह रह जाता है।

ऐसे में आज जब दुनिया का विज्ञान उम्र को बढ़ाने में लगा हुआ है, और बदन का बर्बाद होना रोकने में लगा हुआ है, तो यह जाहिर है कि औसत उम्र बढ़ती चल रही है। जिन समाजों में मौजूदा पीढ़ी का खानपान, रहन-सहन, और इलाज बेहतर होता है, वहां वैसे भी औसत उम्र बढ़ती जाती है। ऐसे में सौ बरस से ऊपर तक जीने वाले लोगों की उम्र तो लंबी रहती है, लेकिन जरूरी नहीं है कि उनकी सेहत भी आखिरी तक बेहतर रहती हो। अब जिंदगी के आखिरी दस बरस लंबे तो हो गए, लेकिन अगर वे सिर्फ बीमार, इलाज, और बिस्तर तक सीमित रह गए हैं, तो क्या सचमुच ऐसी लंबी उम्र किसी काम की होती है? हिन्दुस्तान में एक गाने के बोल कहते हैं- तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार..., अब सवाल यह है कि नब्बे-सौ बरस के बाद तो किसी के सेहतमंद रहने की गुंजाइश ही नहीं रहती है, ऐसे में हजारों साल जिंदा रहने की यह दुआ है, या कि बद्दुआ, यह सोच पाना मुश्किल नहीं है। ऐसी जिंदगी भी क्या जिंदगी जिसमें कि आसपास के लोग थक जाएं, और उनकी ताकत चुक भी जाए?

कुल मिलाकर इन दो नौबतों को लेकर आज हम यहां जो बात कहना चाह रहे हैं वह यह है कि आप लंबा जिएं या कम जिएं, जब तक सेहतमंद जी सकें तब तक ही जीना ठीक है। और मरना तो अपने हाथ में है नहीं, बदन में बिजली के बटन की तरह कोई बटन तो होता नहीं है कि उसे बंद कर दिया जाए, और धडक़न बंद हो जाए, इसलिए सेहतमंद रहना ही अकेला ऐसा जरिया है जो कि जिंदगी के बेहतर बरसों में, और ढलते हुए बरसों में भी, जिंदगी को जीने लायक रख सकता है। यह याद रखने की जरूरत है कि अगर जिंदगी के आखिरी कई बरस गंभीर बीमारियों के साथ गुजरते हैं, तो वह जीना भी मरने से बुरा जीना होता है। इसलिए जब बुढ़ापे की फिक्र शुरू न हुई हो, उसी वक्त तन-मन की फिक्र शुरू हो जानी चाहिए, और यह फिक्र चिंता वाली फिक्र नहीं है, यह बेहतर रखरखाव वाली ध्यान रखने वाली बात है। लोगों को बचपन से ही एक सेहतमंद जिंदगी की आदत डालनी चाहिए ताकि न तो अपने आखिरी बरस खुद पर बोझ बन जाएं, और न ही आसपास के लोगों पर। उन लोगों के बारे में सोचना चाहिए जो बिना जरूरी इंतजाम के भी लंबा बुढ़ापा झेलते हैं, और सौ बरस के होने लगते हैं, और उनका बोझ ढोते हुए आगे की पीढिय़ां खुद बूढ़ी होने लगती हैं। यह सिलसिला किसी को भी थका सकता है, और किसी को भी आल-औलाद से इस हद तक श्रवण कुमार या श्रवण कुमारी होने की उम्मीद नहीं करना चाहिए कि वे अपनी अगली पीढ़ी का ख्याल भी न रख सकें, और सिर्फ पिछली पीढ़ी को ढोते हुए ही खत्म हो जाएं। अब जिनको श्रवण कुमार की कहानी याद है वे इस बात की कल्पना आसानी से कर सकते हैं कि बूढ़े मां-बाप को कांवर में बिठाकर तीर्थयात्रा कराने निकला श्रवण कुमार अपने खुद के बच्चों का तो कोई ख्याल रख ही नहीं पाया होगा।

आज लोगों को अपनी जिंदगी का बेहतर वक्त गुजारते हुए, सेहतमंद रहते हुए, इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि आज की उनकी लापरवाही कल उन्हें एक कांवर बनाकर उनके बच्चों के कंधों पर बोझ बन जाएगी। आज जो लोग सिगरेट, तम्बाकू इस्तेमाल कर रहे हैं, वे सोचें कि कल उनकी अगली पीढ़ी अपनी नौकरी या रोजगार छोडक़र कैंसर अस्पताल के चक्कर लगाती रहे तो उसका क्या हाल होगा? यह भी सोचें कि कल वे डंायबिटीज या दिल की बीमारी के मरीज होकर महंगे अस्पताल, इलाज, और दवाईयों के मोहताज हो जाएंगे, तो वे अपने बच्चों पर कितना बड़ा बोझ बनेंगे? हो सकता है कि बच्चों के बच्चों को बेहतर पढ़ाई नसीब न हो सके, क्योंकि घर की बुजुर्ग पीढ़ी को महंगे इलाज और देखरेख की जरूरत है।

इसलिए जो लोग अपनी अगली पीढिय़ों से मोहब्बत रखते हैं या उसकी कल्पना करते हैं, उन्हें अपने सेहतमंद बुढ़ापे का इंतजाम करना चाहिए। अपना तन-मन अगर ठीक न रहे, तो अगली पीढिय़ों से मोहब्बत की बस एक भावना हो सकती है, वह हकीकत नहीं हो सकती। इसलिए अगली पीढिय़ों से खरी मोहब्बत करने के लिए आज अपने खुद के तन-मन की खरी फिक्र अगर कर सकते हैं, करते हैं, तो ही आप ईमानदार हैं, गंभीर हैं, और अपनी अगली पीढिय़ों से सचमुच मोहब्बत करते हैं। सचमुच की मोहब्बत करना और मोहब्बत करने की एक खुशफहमी में जीना दो बिल्कुल अलग-अलग बातें होती हैं। लोगों को यह याद रखना चाहिए कि उनकी लंबी उम्र तभी तक अगली पीढिय़ों के लिए वटवृक्ष है जब तक उस वटवृक्ष पर कीड़े न लग जाएं। यह भी याद रखना चाहिए कि कई परिवारों में बूढ़े गुजरते ही नहीं हैं, और अगली पीढिय़ों के श्रवण कुमार थककर कांवर को आग लगा देते हैं। यह सब ध्यान में रखते हुए हर इंसान की पहली जिम्मेदारी अपने खुद के प्रति रहना चाहिए जिस तरह की हवाई जहाज में मुसाफिरों के लिए घोषणा होती है कि केबिन में हवा का दबाव कम होने पर ऑक्सीजन मास्क नीचे उतर आएंगे, लोग पहले खुद मास्क लगाएं फिर दूसरों की मदद करें। इसी तरह जिंदगी में लोगों को पहले खुद सेहतमंद रहना चाहिए, तभी वे अपने करीबी लोगों के किसी काम के रहेंगे।
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