संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : समलैंगिकता पर हिन्दुस्तानी समाज की सोच बदलने में मददगार हिन्दी फिल्में..
22-Feb-2022 12:46 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  समलैंगिकता पर हिन्दुस्तानी समाज की सोच बदलने में मददगार हिन्दी फिल्में..

हिन्दुस्तानी समाज में सेक्स संबंध हमेशा से एक नाजुक मुद्दा रहते आए हैं, और इस ‘हमेशा’ का मतलब अभी डेढ़-दो सौ साल ही है। उसके पहले तक अंग्रेज और ईसाई इस देश में नहीं आए थे, और तब की भारतीय संस्कृति सेक्स के मुद्दों को लेकर अधिक खुले खयालों की थी, अधिक उदार थी। लेकिन आज सेक्स शिक्षा से लेकर नग्नता तक, और वयस्क देह-संबंधों तक हिन्दुस्तानी समाज का बर्दाश्त जिस हद तक खत्म हो चुका है, वह अंग्रेजों की छोड़ी गई जूठन और गंदगी का नतीजा है। हिन्दुस्तान में समलैंगिकों को, वेश्याओं को, हिजड़ों और दूसरे किस्म के सेक्स-अल्पसंख्यकों को पहले कभी इतनी बुरी और हिंसक नजरों से नहीं देखा गया था जैसा कि आज देखा जा रहा है। यह वही देश है जहां वात्सायन ने कामशास्त्र लिखा था, जो कि दुनिया का एक प्रमुख सेक्स-ग्रंथ माना जाता है, सैकड़ों बरस पहले हिन्दुस्तान के सैकड़ों मंदिरों पर वयस्क सेक्स-संबंधों की मूर्तियां उकेरी गई थीं, भीतर ईश्वर और बाहर सेक्स! इस पर कभी कोई आपत्ति नहीं हुई थी, लेकिन अब अंग्रेजों के वक्त चर्च के लादे गए सेक्स-नैतिकता के पैमाने सिर पर इस तरह सवार हैं कि कहीं कोई स्कूल बड़ी कक्षाओं के बच्चों को उनकी देह का विज्ञान पढ़ाने की कोशिश करता है तो उस गौरवशाली भारतीय संस्कृति नष्ट करने की हरकत मानकर उसका हिंसक विरोध होता है। जबकि यह देश परंपरागत सेक्स-शिक्षा वाला देश रहा है, और अलग-अलग तबके की सेक्स-शिक्षा के अलग-अलग तरीके रहते आए हैं। आज जो हिन्दू उग्रवादी ऐसे तमाम मुद्दों पर सबसे पहले झंडा-डंडा लेकर टूट पड़ते हैं, उन्हें इतिहास के पन्ने अगर दिखाए जाएं कि वे केवल अंग्रेजों की छोड़ी गंदगी को अपने सिर पर टोकरा भरकर ढो रहे हैं, तो फिर पता नहीं टोकरे के नीचे के उनके सिर को कैसा लगेगा?

इस पर चर्चा की जरूरत आज इसलिए हो रही है कि एक-एक करके अब बहुत सी ऐसी बॉलीवुड फिल्में आ चुकी हैं जिनमें समलैंगिक संबंधों पर केन्द्रित कहानियां रही हैं। मर्दों के समलैंगिक संबंध भी, और औरतों के भी। इन सबका खुलकर जिक्र हुआ है, ऐसी कुछ फिल्मों को पुरस्कार भी मिले हैं, और लोगों ने सिनेमाघरों में जाकर या घर पर अकेले, बच्चों से दूर रहकर ऐसी फिल्में देख तो ली ही हैं। नतीजा यह है कि जो समलैंगिकता अब तक सिर्फ हिंसा के लायक मानी जाती थी, उसे बॉलीवुड की फिल्मों ने एक बर्दाश्त करने लायक मुद्दा बनाकर पेश किया है। अच्छे-अच्छे प्रगतिशील लोग आज तक समलैंगिकता को मानसिक रोग, मानसिक विकृति, और अप्राकृतिक मानते हैं। वे अब भी समलैंगिक लोगों के मनोवैज्ञानिक इलाज की वकालत करते हैं। दरअसल अंग्रेजी-राज में चर्च के लादे गए नैतिकता के मूल्य बहुत वजनदार थे, और हिन्दुस्तान की हजारों बरस की अपनी मौलिक सोच भी उससे उबर नहीं पाई है जिसमें समलैंगिकता को लेकर ऐसी हिंसक सोच कभी नहीं थी। हिन्दुस्तान का कानून भी अंग्रेजों के छोड़े गए पखाने से लिखा गया, और जो-जो बातें चर्च या अंग्रेज सरकार को खटकती थीं, वे तमाम बातें आज भी हिन्दुस्तानी कानून पर हावी हैं, फिर चाहे वे खुद अंग्रेजों के अपने देश में जमाने पहले से कानून से हटा क्यों न दी गई हों।

हिन्दुस्तान में फिल्मों से लोगों की सोच बदलने का सिलसिला कोई नया नहीं है। राजकपूर की कई फिल्मों में सफेद-झीने कपड़े पहनी नायिका को भीगते दिखाना एक अलग बात थी, लेकिन ऐसी बाजारू नुस्खों के साथ-साथ राजकपूर की कई फिल्मों में सामाजिक बेइंसाफी के कई मुद्दों को भी उठाया गया था, और उनसे भी लोग सोचने पर मजबूर हुए थे। अब फिल्मों का असर हम इतना भी अधिक आंकना और बताना नहीं चाहते कि उन्हें देखकर देश में कोई क्रांति ही हो जाएगी, लेकिन देश के लोगों के सरोकार को कोंचकर अगर फिल्में थोड़ी सी देर के लिए जगाती हैं, तो भी वह कोई छोटा योगदान नहीं रहता। इसी तरह आज जब समलैंगिकता पर एक-एक करके कई फिल्में आ रही हैं, तो इसमें से जो गंभीर फिल्में हैं उन्हें देखकर लोग समलैंगिकता को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं क्योंकि हिन्दुस्तान में इस मुद्दे पर न तो कोई गंभीर मंच बात करना चाहता, और न ही निजी जिंदगी में लोग इस पर बात करना चाहते क्योंकि जो चर्चा करे उसे ही लोग शक की नजर से देखने लगें कि वह समलैंगिक तो नहीं? इससे परे आम समाज में समलैंगिक लोगों के लिए हिकारत और हिंसा का हाल यह है कि महाराष्ट्र के एक सबसे बड़े नेता बाल ठाकरे तक अपने सार्वजनिक भाषणों में मंच और माईक से समलैंगिकों के लिए दी जाने वाली एक गाली का खुलकर इस्तेमाल करते थे। इसलिए आज जब कोई फिल्म या कोई कहानी संवेदनशीलता के साथ इस मुद्दे को छूती हैं, और समलैंगिकों को दिमागी मरीज की प्रचलित तस्वीर से अलग सामान्य इंसान बताती हैं, तो वे समाज की बीमार सोच के इलाज का काम भी करती हैं। हिन्दुस्तानी सोच को ढालने में फिल्मों का योगदान कम नहीं है क्योंकि उनका असर बहुत रहता है, उनकी पहुंच बहुत रहती है, और वे चाहे कोई क्रांति क्यों न ला सकें, वे धीरे-धीरे लोगों के दिमाग को बदलने में कामयाब तो हो ही सकती हैं। लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान में एक वक्त फिल्मों की मेहरबानी से किसी का मोटापा हॅंसने का सामान होता था, हर दक्षिण भारतीय एक काला मद्रासी होता था, हकलाने वाले लोगों को हॅंसाने का काम करते थे, लेकिन धीरे-धीरे फिल्मों की सोच भी बदली, और शायद समाज की बंधी-बंधाई धारणा को बदलने में इस बदलाव का भी योगदान रहा।

अब जब हिन्दुस्तानी कानून ने समलैंगिकता को जुर्म के दायरे से बाहर निकाल दिया है, लेकिन हिन्दुस्तानी संसद समलैंगिकों की आपस में शादी को अब तक अकल्पनीय मानकर उसे कोई कानूनी दर्जा देने के खिलाफ है, तब इस तबके, और इस किस्म के, दूसरी किस्म के कई और सेक्स-अल्पसंख्यकों के मुद्दों को लेकर हिन्दुस्तानी समाज को खुले दिमाग से और उदार मन से सोचने की जरूरत है। कुछ जानकार इतिहासकारों को संदर्भों सहित यह भी लिखने की जरूरत है कि नैतिकता के ये अंग्रेज पैमाने उनके यहां आने के पहले कभी इस देश के नहीं थे, और इस देश के सामने ऐसी कोई मजबूरी भी नहीं रहनी चाहिए कि यह अंग्रेजों की गंदगी को सिर पर सजाकर चले, खासकर ऐसा तबका जो कि वेलेंटाइन्स-डे का भी विरोध इसलिए करता है कि यह अंग्रजों का छोड़ा हुआ है, और इस दिन प्रेमी जोड़ों को पीटते हुए वह यह भूल जाता है कि आधे हिन्दुस्तान में पूजे जाने वाले कृष्ण इस देश के एक सबसे बड़े प्रेमी थे, उनकी तो तमाम कहानियां ही प्रेम में भीगी हुई हैं। इसलिए आज की इस नवधर्मान्धता और नवकट्टरता को आईना दिखाने की जरूरत है कि जिसे वे हिन्दुस्तानी संस्कृति करार देते हुए जिसे बचाने पर आमादा हैं वह इस देश की संस्कृति कभी थी ही नहीं। वह हमलावर अंग्रेजों के उस वक्त के नैतिक मूल्य थे जिन्हें खुद अंग्रेजों ने आज अपने देश में पखाने में बहा दिया है।
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