संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : वकीलों और बाबुओं की मारपीट का मोर्चा, सरकार अपना घर भी सुधार ले...
17-Feb-2022 12:37 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  वकीलों और बाबुओं की मारपीट का मोर्चा, सरकार अपना घर भी सुधार ले...

छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के तहसील दफ्तर में कर्मचारियों से वकीलों ने मारपीट की। इस पर जो वीडियो सामने आए, उन्हें देखते हुए और कर्मचारियों की शिकायत पर पुलिस ने वकीलों के खिलाफ मामले दर्ज किए हैं। दोनों ही पक्ष गिरोहबंदी करके अपने-अपने मुद्दे पर अड़ गए हैं, मारपीट करते दिखने वाले वकीलों के संगठन इन मामलों को वापिस लेने की मांग कर रहे हैं, दूसरी तरफ सरकारी कर्मचारियों के संगठन वकीलों पर और कड़ी कार्रवाई मांग रहे हैं। अभी यह नौबत पूरी तरह बेकाबू इसलिए नहीं लग रही है कि राजस्व कार्यालयों और राजस्व अदालतों में वैसे भी काम इतनी धीमी रफ्तार से होता है कि लोग बरसों तक चक्कर लगाते रहते हैं, और फाईलों पर रिश्वत रखते-रखते थक जाते हैं। राजस्व विभाग का अमला भ्रष्टाचार में इस तरह डूबा रहता है कि महंगी जमीनों के धंधे वाले इलाकों में सबसे छोटे कर्मचारी पटवारी की भी दौलत करोड़ों में हो जाती है। ऐसे में इस विभाग के साथ रोजाना कामकाज वाले वकीलों का जब ऐसा बड़ा टकराव सामने आया है, तो सरकार को इस घटना से परे भी अपने अमले के बारे में सोचना चाहिए। हम किसी भी तरह से वकीलों की मारपीट को अनदेखा करने की बात नहीं सुझा रहे हैं, लेकिन ऐसी नौबत आने के पीछे क्या इस विभाग का सर्वव्यापी और संगठित भ्रष्टाचार मुख्य वजह तो नहीं है, यह भी देखना चाहिए। फिर राज्य सरकार के सामने यह घटना एक मौका भी पेश करती है कि किस तरह अपने एक भ्रष्ट विभाग के कामकाज को सुधार सके और जनता की जिंदगी इन दफ्तरों का चक्कर लगाते हुए बर्बाद होने से बचा सके। आज अगर तहसील और पटवारी दफ्तर में चक्कर लगाते लोगों से ही मतदान करवाया जाए, तो जो पार्टी सरकार में रहेगी वह शर्तिया ही हार जाएगी।

अब सरकार में राजस्व विभाग और राजस्व-अदालतों का यह अनंतकाल से चले आ रहा भ्रष्टाचार सत्ता की जानकारी में नहीं है यह कहना भी गलत होगा। लेकिन एक-एक फाईल को बरसों तक लटकाए रखने के इस विभाग के ढर्रे को बदलने की कोशिश किसी सरकार ने की हो ऐसा भी आज तक नहीं दिखा है। यह दिक्कत वकीलों की निजी दिक्कत नहीं है, यह पूरी जनता की दिक्कत है, और खासकर गरीब या अशिक्षित, बूढ़े या बीमार लोग जिस तरह पटवारी या तहसील के चक्कर लगाते हैं, और उनसे बेधडक़ जैसी खुली रिश्वत मांगी जाती है, वह देखते ही बनता है। सत्तारूढ़ पार्टी को किसी और वजह से न सही, कम से कम इस वजह से ही यह भ्रष्टाचार खत्म करना चाहिए कि सत्ता के बाद जनता की सबसे बड़ी नाराजगी जिस दफ्तर की वजह से उपजती है, वह राजस्व विभाग है।

वकीलों की दिक्कत यह रहती है कि वे जिस जगह काम करते हैं, वहां पर उनका सामना संगठित भ्रष्टाचार से होता है। जिला या जिला स्तर से नीचे की जितनी अदालतें होती हैं, उनमें चाहे या बिनचाहे जो अगली पेशी की तारीख तय होती है, उसके लिए भी दोनों पक्षों के वकीलों को रिश्वत देनी या दिलवानी पड़ती है। न्यायिक अदालतों का भ्रष्टाचार इस कदर संगठित है कि बाबुओं को रिश्वत न देने/दिलवाने वाले वकील आनन-फानन बेरोजगार हो सकते हैं। यही हाल राजस्व अदालतों में जाने वाले वकीलों का होता है, और अगर कोई वकील सौ फीसदी ईमानदार होकर काम करना चाहे, तो उसके मुवक्किल का मामला हार जाना तय सरीखा रहेगा, उसे लोग अपना केस देना नहीं चाहेंगे कि ऐसी ईमानदारी किस काम की जिससे कि केस ही हार जाएं।

कहने के लिए तो राजस्व विभाग सीधे कलेक्टर के मातहत काम करता है, लेकिन अपनी तमाम ताकत को रखकर भी न पटवारी के भ्रष्टाचार पर काबू पाते हैं, और न ही तहसील के। एक रस्म-रिवाज की तरह अधिकतर कलेक्टर अपने कार्यकाल में एक-एक बार कुछ तहसीलों का दौरा कर लेते हैं, लेकिन बहुत मौलिक काम करने वाले कलेक्टर भी इस संगठित भ्रष्टाचार को छू भी नहीं पाते। राज्य सरकार को अगर जनता को राहत देनी है, तो पटवारी और तहसील के कामकाज को समय सीमा से जोडऩा पड़ेगा कि कितने दिनों के भीतर कौन सा काम कर ही दिया जाए। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक राजस्व विभाग से काम पडऩे वाले लोग सत्ता को बद्दुआ देते ही रहेंगे, और अगर कोई सत्तारूढ़ पार्टी कम वोटों से सत्ता खोती है, तो यह मानकर चलना चाहिए कि हराने वाले ये वोटर तहसील-पटवारी दफ्तरों का चक्कर खाने वाले वोटर ही थे। फिलहाल यह मामला वकीलों और कर्मचारियों की मारपीट से शुरू हुआ है, और वीडियो सुबूतों की वजह से जांच एजेंसी का काम अधिक मुश्किल भी नहीं है, लेकिन सरकार को इससे परे भी सोचना चाहिए, और अपना घर सुधारना चाहिए।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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