संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : होममेकर बनने के लिए त्याग करने वाली महिला के योगदान का मूल्यांकन
26-Feb-2022 4:04 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  होममेकर बनने के लिए त्याग करने वाली महिला के योगदान का मूल्यांकन

अभी भारत के क्रिकेट सितारे सचिन तेंदुलकर की पत्नी अंजलि की कही हुई कुछ बातें एक खबर में छपी हैं कि किस तरह उन्होंने परिवार का ख्याल रखने के लिए अपनी मेडिकल प्रैक्टिस छोड़ी ताकि सचिन तेंदुलकर पूरी तरह से क्रिकेट में ध्यान लगा सकें। यह कतरन कुछ लोगों ने फेसबुक पर पोस्ट की तो लोगों ने अंजलि के त्याग की बड़ी तारीफ की, लेकिन कुछ लोगों ने यह भी लिखा कि त्याग हर बार महिला को ही क्यों करना होता है? खासकर हिन्दुस्तान में यह बात और तल्खी के साथ नजर आती है कि लोग आमतौर पर पढ़ी-लिखी बहू चाहते हैं, और साथ ही यह भी चाहते हैं कि वह अगर बाहर काम करती है तो भी उसके साथ-साथ घर को भी अच्छी तरह सम्हाले, और अगली-पिछली सभी पीढिय़ों का भी ठीक से ख्याल रखे। यह गैरबराबरी अगर हिन्दुस्तान जैसे देश में ही रहती तो भी समझ में आता, लेकिन यह सबसे विकसित और लोकतांत्रिक देशों में भी जिस हद तक सामने आती है वह बात चौंकाने वाली है।

अभी दो दिन पहले ही जर्मनी की कामकाजी महिलाओं के बारे में एक रिपोर्ट आई है जो बताती है कि योरप के एक सबसे सभ्य और विकसित लोकतंत्र में भी बराबर पढ़ी-लिखी हुई महिलाएं आगे बढऩे की अपनी संभावनाओं के मामले में बराबरी के पुरूषों से किस हद तक पीछे रह जाती हैं। गैरबराबरी का यह फासला घट जरूर रहा है, लेकिन अभी भी यह काफी बड़ा है। पढ़ाई और काबिलीयत के मामले में जर्मन महिलाएं आदमियों से आगे हैं, कामगारों के बीच भी उनका अनुपात बराबरी से थोड़ा ही कम है, लेकिन नौकरियों में सबसे सीनियर ओहदों पर उनकी हिस्सेदारी आदमियों के मुकाबले बहुत कम है। 160 बड़ी जर्मन कंपनियों के बोर्ड स्तर पर कुल 11 फीसदी महिलाएं हैं, और आम जर्मन महिलाओं की तनख्वाह भी पुरूषों के मुकाबले करीब 20 फीसदी कम है। तनख्वाह का फर्क घट रहा है लेकिन औसत रूप से महिलाओं को पुरूषों के मुकाबले रिटायरमेंट पेंशन 49 फीसदी कम मिलती है। लेकिन इसकी पूरी तोहमत लैंगिक भेदभाव पर डालना सही नहीं होगा क्योंकि परिवार का ख्याल रखने या बच्चों को बड़ा करने के लिए महिलाएं अपना करियर ठीक उसी तरह कुर्बान कर रही हैं जिस तरह की बात अंजलि तेंदुलकर के बारे में अभी सामने आई है।

हिन्दुस्तान के बारे में कुछ समय पहले एक आंकड़ा सामने आया था कि 2005 में भारतीय मजदूरों में महिलाओं का अनुपात 26 फीसदी था जो कि 2019 में घटकर 20 फीसदी रह गया है। विश्व बैंक के इन आंकड़ों को इस संदर्भ में देखना बेहतर होगा कि भारत के इस 20 फीसदी के मुकाबले बांग्लादेश में महिला कामगारों की भागीदारी 30.5 फीसदी है, और श्रीलंका में यह संख्या 33.7 फीसदी है। भारत के कामगारों में 30 फीसदी महिलाएं संख्या में जरूर काम कर रही हैं, लेकिन वे सबसे निचली मजदूरी पाने वालों में हैं। हिन्दुस्तानी उद्योग-धंधों की एक तकलीफदेह हकीकत यह भी है कि शादी या बच्चों के लिए कुछ लंबी छुट्टी लेने वाली महिलाओं का काम खो बैठने का खतरा बहुत अधिक होता है। अब सवाल यह है कि शादी के बाद नए घर जाकर रहने, शहर बदलने की समस्या महिला की ही रहती है, हिन्दुस्तान में तो आदमियों की यह दिक्कत नहीं रहती है। और गर्भवती भी महिलाएं ही होती हैं, इसलिए उन्हीं को प्रसूति अवकाश लेना होता है, कानूनन उन्हें ही मिलता है, और बच्चे बड़े करने की जिम्मेदारी भी उन पर होती है, परिवार के बुजुर्गों का ख्याल रखने की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर रहती है। इस तरह उनके कामकाज की जगहों पर उन्हें लेकर अनिश्चितता का खतरा अधिक रहता है, और यह अनिश्चितता उनके वेतन-भत्तों से लेकर नौकरी की सुरक्षा की गारंटी तक सभी पर असर डालता है।

तो क्या यह मान लिया जाए कि देश कैसा भी, अर्थव्यवस्था कैसी भी हो, बच्चे पैदा करने और परिवार देखने की जिम्मेदारियां महिलाओं को कभी भी बराबरी का हक और बराबरी की संभावनाएं नहीं पाने देंगी? यह गैरबराबरी तब और अधिक बढ़ जाती है जब कोई समाज या इलाका महिलाओं को सुरक्षित आवाजाही और काम की सुरक्षित जगह नहीं दे पाता। ऐसे में एक महिला का कामकाज के लिए रात-दिन का आना-जाना मुमकिन नहीं हो पाता, और काम की उनकी जगहों पर वे बराबरी की संभावनाएं नहीं छू पातीं। पुरूष कर्मचारियों के साथ यह सहूलियत रहती है कि उनकी दिन-रात कभी भी ड्यूटी लगाई जा सकती है, वे काम पर आ-जा सकते हैं, लेकिन महिलाओं को ऐसा सुरक्षित वातावरण नहीं मिल पाता, और हिन्दुस्तान जैसे देश में तो अधिकतर जगहों पर उन्हें रात में अकेले आने-जाने की हिफाजत भी हासिल नहीं रहती।

इस मुद्दे पर चर्चा करते हुए इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है कि घर पर काम करने वाली महिला की उत्पादकता को आर्थिक पैमाने पर नापने की कोई परंपरा नहीं है। घर पर उसके किए हुए रोजाना के दस-बारह घंटे या और अधिक के काम का कोई मूल्यांकन नहीं होता है, और उसे मिलने वाली सिर छुपाने की जगह, दो वक्त का खाना, और सामाजिक सुरक्षा को ही उसकी मजदूरी मान लिया जाता है। जबकि एक महिला के किए जाने वाले अलग-अलग तरह के रोजाना के काम, और परिवार की सुरक्षा में उसकी लगने वाली मेहनत को अगर देखा जाए, तो इन सबको हासिल करने के लिए किसी भी परिवार को बहुत बड़ी रकम खर्च करनी होती, लेकिन ऐसी मेहनत का कोई मूल्यांकन नहीं होता। महिलाओं से जुड़े हुए इन तमाम मुद्दों पर अलग-अलग मंचों पर बार-बार चर्चा करने की जरूरत है क्योंकि महिला के हाथ में उसकी मेहनत का जायज मेहनताना चाहे न आए, कम से कम परिवार और समाज में उसे यह महत्व और सम्मान तो मिलना ही चाहिए कि वह नगदी मेहनताना पाए बिना भी अपनी सहूलियतों से सौ गुना अधिक योगदान परिवार और समाज को देती है। अंजलि तेंदुलकर ने अगर काम छोडक़र परिवार सम्हाला, और सचिन तेंदुलकर को परिवार की तरफ से बेफिक्र रहकर हिन्दुस्तान का सबसे अधिक कमाऊ भारत रत्न बनने मिला, तो इसमें घरवाली के योगदान का मूल्यांकन जरूरी है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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