संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बच्चों को कहां ले जाया जाए, जॉर्डन की महिला ने दिखाया एक रास्ता...
01-Mar-2022 3:38 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  बच्चों को कहां ले जाया जाए, जॉर्डन की महिला ने दिखाया एक रास्ता...

पश्चि एशिया के एक अरब देश जॉर्डन की एक महिला, हदील दवास अपने बच्चों को जंगल, पहाड़, और नदी किनारे घुमाने ले जाती हैं। एक बच्चे को पीठ पर, और दूसरे का हाथ थामकर, और खाने की बॉस्केट लिए हुए वे अक्सर कुदरती खूबसूरती की जगहों पर अपने बच्चों को ले जाती हैं, और फिर जाने लायक ऐसी जगहों के बारे में, वहां के रास्ते के बारे में वे अपने इंस्टाग्राम अकाऊंट पर लोगों को जानकारी भी देती हैं कि बच्चे कहां ले जाए जा सकते हैं, कहां वे खुद चल सकते हैं। दस बरस से वे अपना यह शौक पूरा कर रही हैं, और बहुत से दूसरे लोगों को उनसे एक रास्ता भी दिख रहा है। उनका यह कहना है कि कुदरत के पास जाकर बच्चे बहुत खुश होते हैं, खूब खेलते हैं। हदील पेशे से आर्किटेक्ट हैं, और उन्होंने अमरीका से मास्टर्स डिग्री भी ली हुई है, और वे ट्रैवल फॉर पीस नाम की एक संस्था चलाती हैं जो कि ऐसे कुदरती पर्यटन को बढ़ावा देती है।

आज हिन्दुस्तान में अपने आसपास के लोगों को देखते हैं तो बहुत से लोग तो जिंदगी की मजबूरियों के बोझ से इस तरह लदे हुए रहते हैं कि वे अपने बच्चों के लिए अधिक कुछ नहीं कर पाते। लेकिन ऐसे तबके भी मौजूद हैं जो ठीकठाक कमा लेते हैं, जो बच्चों पर कुछ वक्त और कुछ पैसा खर्च भी करते हैं, लेकिन उनके बीच भी बच्चों को प्रकृति को दिखाने ले जाना, प्रकृति के साथ उन्हें वक्त गुजारने देना कम ही सुनाई पड़ता है। कुछ हद तक लोग साल-छह महीने में एक बार कहीं पर्यटन पर जाने पर बच्चों को नदी-पहाड़ या समंदर दिखा देते हैं, या फिर कुछ मामलों में पिकनिक पर जाने पर बच्चों को जंगल या नदी के किनारे देखने मिल जाते हैं। लेकिन सिर्फ कुदरत के करीब ले जाने के हिसाब से शायद ही कोई अपने बच्चों को ले जाते हैं। शहरों में तो लोगों की पहली प्राथमिकता अपने बच्चों को कारोबारी मॉल ले जाने की रहती है, जहां वे फिल्में देखें, खरीददारी करें, बड़े ब्रॉंड का कुछ खाना खाएं, या फिर वहां के किसी प्ले जोन में महंगे खेल खेल लें। हर बच्चे पर सैकड़ों या हजारों रूपए खर्च करके आधा दिन गुजारकर लोग इस तसल्ली से लौट आते हैं कि आज उन्होंने बच्चों के साथ अच्छा वक्त गुजार लिया। दरअसल बाजार की सारी साजिश यही रहती है कि लोगों को ऐसी संतुष्टि मिले कि बच्चों पर खर्च उनकी बेहतर देखरेख है। बच्चों के लिए महंगे सामान खरीदना लोगों को उनकी फिक्र करना लगता है। ऐसे में जॉर्डन की इस महिला की चर्चा करना हमें जरूरी लग रहा है कि जिन लोगों के पास साधन और सुविधाएं हैं, कम से कम वे लोग तो अपने बच्चों को कुदरत से रूबरू करवाते चलें, और यह बात महज एक नमूने के लिए नहीं है बल्कि जब समय रहे बार-बार करने के लिए है ताकि बच्चों को प्रकृति का महत्व समझ आए, और उसके साथ जीना सीख सकें।

आज घरों में छोटे-छोटे बच्चे भी टीवी पर कॉर्टून फिल्मों, या मोबाइल पर किसी वीडियो गेम के ऐसे आदी हो चुके हैं कि वे दूध पीने या खाना खाने के लिए भी इन चीजों की जिद करते हैं, और मां-बाप को मजबूर करते हैं कि वे स्क्रीन शुरू करके उन्हें दें। ऐसे में कमउम्र से ही बच्चों को स्क्रीन और शहरी-आधुनिक उपकरणों के बिना भी जीना सिखाना चाहिए, और यह काम अधिक मुश्किल भी नहीं है अगर मां-बाप खुद फोन और कम्प्यूटर छोडक़र बच्चों को लेकर बाहर निकलें, और स्क्रीन से परे की जिंदगी उन्हें दिखाएं। नदी और पहाड़ तक ले जाना, समंदर या जंगल तक ले जाना, और वहां पर पशु-पक्षियों की आवाजें सुनने देना, ऊंचे पेड़ों से लेकर पतझड़ के बिखरे पत्तों तक से उन्हें रूबरू करना, सुरक्षित-उथली नदी के किनारे उनके पांव पानी में उतारकर उन्हें यह प्राकृतिक पानी महसूस करने देना जैसी कई बातें हो सकती हैं जो इन बच्चों को पहली बार देखने, सुनने, और छूने मिलें, और हर बार उन्हें इनका अलग-अलग तजुर्बा हो। हो सकता है कि वे वहां से कोई चिकना पत्थर लेकर लौटें, और घर पर उस पर चित्रकारी करते हुए कुछ वक्त गुजारें। ऐसी बहुत सी बातें बच्चों को कुदरत के करीब ले जाने से उनकी कल्पना और सोच को विकसित करने में मदद कर सकती हैं, शर्तिया करेंगी, और वे एक बेहतर इंसान बनेंगे। लेकिन आज अधिकतर मां-बाप अपनी अधिकतम सहूलियत के मुताबिक बच्चों को शहर के किसी मॉल या किसी प्ले जोन ले जाकर, आइस्क्रीम पॉर्लर या किसी फास्टफूड सेंटर ले जाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते हैं, जिनसे बच्चों का कोई भी विकास नहीं हो पाता।

इंस्टाग्राम पर जॉर्डन की इस हिजाबधारी मुस्लिम महिला ने अपने बच्चों की ऐसी प्राकृतिक सैर की जो तस्वीरें और वीडियो पोस्ट करना शुरू किया है तो उसने दसियों हजार लोगों को प्रेरणा दी है, और लोग अपने बच्चों को वक्त गुजारने और मनोरंजन का एक बेहतर विकल्प दे पा रहे हैं। साल में एक या दो बार किसी दूसरे प्रदेश या देश जाना एक अलग बात है, लेकिन हर हफ्ते-पन्द्रह दिन में आसपास के किसी नदी-पहाड़, जंगल-झरने तक बच्चों को ले जाना उनकी जिंदगी का रूख बदल सकता है, और अब तो ऐसे सैर-सपाटे की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट करके लोग दूसरे लोगों के बीच भी इस सकारात्मक पहल को बढ़ावा दे सकते हैं। हो सकता है कि लोग अपने दोस्तों के बीच इस किस्म के समूह बनाएं जिनमें वे आसपास की ऐसी जगहों की चर्चा करें, और यह भी हो सकता है कि कुछ परिवार मिलकर भी बच्चों को ऐसी जगहों पर ले जाएं। यह इतनी सामान्य समझ की बातें हैं कि इस बारे में हमें अधिक खुलासे से यहां लिखने की जरूरत नहीं है, लेकिन लोगों को मॉल से बाहर निकालने के लिए इस मुद्दे पर चर्चा की जरूरत जरूर लगी थी, इसलिए आज जॉर्डन की इस महिला की मिसाल देकर यह बात छेड़ी गई।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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