संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जानते हो मेरा बाप कौन है, गुंडागर्दी की ऐसी जुबान का डीएनए टेस्ट करवाया जाए..
23-Feb-2022 3:45 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  जानते हो मेरा बाप कौन है, गुंडागर्दी की ऐसी जुबान का डीएनए टेस्ट करवाया जाए..

पाकिस्तान के लाहौर में प्रधानमंत्री इमरान खान की तीसरी बीवी के बेटे को तीन दूसरे नौजवानों सहित शराब के साथ पकड़ा गया, और बड़े अफसरों की दखल के बाद छोड़ दिया गया। पाकिस्तान में शराब की बिक्री और शराब पीना दोनों गैरकानूनी है। लाहौर के पुलिस अफसर ने इस मामले में बतलाया कि जब इसे शराब के साथ पकड़ा गया तो उसने अफसरों को धमकाया और कहा कि वह प्रधानमंत्री का बेटा है, और उसे पकडऩे का अंजाम बुरा होगा। उल्लेखनीय है कि इमरान की तीसरी बीवी बुशरा बी उनकी आध्यात्मिक गुरू भी मानी जाती हैं और आध्यात्मिक संबंध बाद में शादी में तब्दील हुए थे। यह बेटा बुशरा बी की पहली शादी का है, और इमरान खान का सौतेला बेटा हुआ।

हिन्दुस्तान और पाकिस्तान किस हद तक एक-दूसरे जैसे हैं इसकी यह एक अच्छी मिसाल है। जब किसी ताकतवर को पकड़ा जाता है तो उसकी पहली प्रतिक्रिया यह होती है कि वे जानते नहीं कि उसका बाप कौन है। अब किसका बाप कौन है इसका पता किसी जुर्म के मौके पर पुलिस लगाना चाहे तो यह मामला काफी जटिल हो जाएगा। पकड़ाई गई बिगड़ैल औलाद का डीएनए लेना पड़ेगा, और फिर जिस ताकतवर की तरफ वह बिगड़ैल इशारा कर रहा है, उसका भी डीएनए लेना पड़ेगा, और फिर देश की सबसे बड़ी प्रयोगशाला में इसका मिलान करके देखना पड़ेगा। अब न तो हिन्दुस्तानी और न ही पाकिस्तानी कानून में डीएनए की वजह से जुर्म की छूट का कोई इंतजाम है, इसलिए जुर्म के ऐसे मामले ठीक उसी तरह वापिस लेने पड़ेंगे जिस तरह हिन्दुस्तान के राज्यों में सत्तारूढ़ नेताओं पर से जुर्म के मामले वापिस लिए जाते हैं। दूसरी तरफ सडक़-चौराहों पर ताकतवर डीएनए का दावा करने वाले ऐसे लोगों का नमूना अगर डीएनए जांच में सचमुच ही उनके ताकतवर और कथित पिता से नहीं मिलेगा, तब तो छोटे से जुर्माने से बचने के लिए बड़ी सी सामाजिक किरकिरी हो जाएगी, और कम से कम एक परिवार तो तबाह हो ही जाएगा। इसलिए बात-बात पर डीएनए की ऐसी चुनौती ठीक नहीं है। कहीं सचमुच ही हिन्दी फिल्मों के किसी हीरो की तरह सडक़ पर कोई पुलिस वाला आमादा ही हो जाएगा तो क्या होगा?

हिन्दुस्तान और पाकिस्तान चूंकि अभी पौन सदी पहले तक एक ही मुल्क थे, इसलिए इन दोनों में सत्ता की बददिमागी कुछ हद तक एक सी है। सरहद के हिन्दुस्तानी तरफ देखें तो लोगों को अपनी ताकत की नुमाइश करने से ही फुर्सत नहीं मिलती है। सांसद और विधायक, बड़ी अदालतों के जज, और संवैधानिक संस्थाओं में बैठे हुए लोग अपनी बाकी जिम्मेदारियों को भले एक फीसदी भी पूरा न करें, एक अधिकार को सौ फीसदी से भी अधिक इस्तेमाल करते हैं, और अपनी कार की नंबर प्लेट से बड़े आकार की प्लेट पर सुनहरे हर्फों में अपना ओहदा लिखकर चलते हैं, और बिना जरूरत भी सायरन बजाए बिना नहीं रहते। जिनका काम गरीबों की मदद करना है, वे सडक़ों पर से पुलिस पायलट गाडिय़ों को सामने रखकर, सायरन बजाकर, लाठी लहराकर गरीबों को सडक़ों से धकियाकर चलते हैं, मानो वे तेजी से जाकर तेजी से इंसाफ कर देंगे, और दुनिया की तस्वीर बदल जाएगी।

ताकत की नुमाइश अश्लील तरीके से शुरू होती है, और बात की बात में वह हिंसक तरीके तक पहुंच जाती है। लोगों को चाहिए कि ऐसे लोगों के खिलाफ सडक़ों पर एकजुट हों, और रास्ता रोककर इनसे सवाल पूछें कि इन्हें पुलिस पायलट गाड़ी, सायरन, और गाडिय़ों पर ओहदे की तख्ती की क्या जरूरत है? क्योंकि ये सारे खर्च जनता के पैसों से होते हैं इसलिए जनता का पूरा हक इन सवालों का है, और चूंकि बड़ी अदालतों के जज भी ताकत की इस हिंसक नुमाइश के शौकीन रहते हैं, इसलिए अदालत में कोई जनहित याचिका भी इंसाफ नहीं पा सकती। लोगों को जनता के स्तर पर ही जनमत तैयार करना होगा क्योंकि हिन्दुस्तानी न्याय व्यवस्था में तजुर्बेकार जानकार लोगों का यह मानना है कि जनहित के किसी मुद्दे को भी बड़े जज तभी सुनते हैं जब उन्हें यह समझ आ जाता है कि उसके साथ बड़ा जनमत जुड़ चुका है, तब जाकर उन्हें लगता है कि इसे सुने बिना कोई चारा नहीं है। लोगों को जनमत तैयार करने पर भी मेहनत करनी चाहिए, और आज सोशल मीडिया और मैसेंजर सर्विसों की मेहरबानी से जब नफरत को एकजुट करना आसान हो गया है, तो सरोकार और जागरूकता को भी फैलाना और लोगों को एकजुट करना नामुमकिन तो नहीं है। लोगों को इसकी शुरूआत करनी होगी, और कुछ शुरूआती लोग जोडऩे होंगे, उसके बाद तो बात रफ्तार पकड़ सकती है।

हिन्दी फिल्मों में बददिमाग नेताओं की अक्ल को ठिकाने लाने वाले पुलिस अफसर का किरदार कई कहानियों में आ चुका है। असल जिंदगी में पुलिस के लिए तो यह मुश्किल होता है, लेकिन आम लोगों के लिए यह उतना मुश्किल भी नहीं होता। आज अगर सोशल मीडिया पर किसी बददिमागी के खिलाफ लिखना शुरू किया जाए, तो भी वह बात शोहरत हासिल कर सकती है। अभी जब तस्वीरों में यह दिखा कि मध्यप्रदेश के एक सबसे बड़े भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय का विधायक बेटा क्रिकेट के बल्ले से एक अफसर को मार रहा है जिसका कि वीडियो चारों तरफ फैल चुका था, लेकिन अदालत में इस अफसर ने गवाही दी कि उसने बल्ले से मारने वाले का चेहरा नहीं देखा क्योंकि वह पीछे था, तो तस्वीरों ने दिखा दिया कि वह अफसर तो मार खाते हुए इस विधायक का चेहरा ही देख रहा था। राजनीतिक और सत्तारूढ़ बददिमागी का ऐसा ही भांडाफोड़ होना चाहिए, और खासकर जब चुनाव का समय आए तब लोगों को ताकत के ऐसे हिंसक वीडियो का खुलकर इस्तेमाल करना चाहिए। हो सकता है कि इसके बावजूद बददिमाग और ताकतवर नेता अपनी काली कमाई के अंधाधुंध इस्तेमाल से चुनाव जीत जाएं, लेकिन उनकी गुंडागर्दी के सुबूत का नुकसान कम करने के लिए उनके कुछ करोड़ रूपए तो निकल ही जाएंगे।

हमारा तो यह भी सोचना है कि इस किस्म की सत्ता की ताकत की गुंडागर्दी के खिलाफ देश की बड़ी अदालतों को भी खुद होकर कार्रवाई शुरू करनी चाहिए क्योंकि सत्ता तो अपने गुंडों के खिलाफ कोई कार्रवाई करने से रही। लेकिन अदालतों को भी ऐसा करने के लिए मजबूर करने को एक मजबूत जनमत का दबाव लगेगा, और ऐसी हर सामंती गुंडागर्दी के खिलाफ जनता को खूब जमकर लिखना चाहिए, और मुर्दा राजनीतिक चेतना को कोंचकर जिंदा करने की कोशिश करनी चाहिए।
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