संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एलन मस्क तो हिन्दी मीडिया देखता-पढ़ता भी नहीं, फिर भी उसने कहा...
10-Feb-2022 5:04 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एलन मस्क तो हिन्दी मीडिया देखता-पढ़ता भी नहीं, फिर भी उसने कहा...

दुनिया की एक सबसे बड़ी और सबसे कामयाब टेक्नालॉजी कंपनी, टेस्ला के संस्थापक और आज अंतरिक्ष में पर्यटक भेजने से लेकर पूरी दुनिया में उपग्रहों का घेरा डालने वाले एलन मस्क दुनिया के सबसे अमीर इंसान भी हैं। उनकी कंपनी बैटरी से चलने वाली कारें बनाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी है, और वे हिन्दुस्तान सहित दुनिया के हर देश के ऊपर उपग्रह पहुंचाकर उससे इंटरनेट कनेक्शन देने का काम शुरू कर चुके हैं। इस परिचय की जरूरत आज उनके एक बयान को लेकर पड़ी है जिसमें उन्होंने आज के मीडिया में बुरी और नकारात्मक खबरों की बमबारी के बारे में लिखा है। उन्होंने यह सवाल उठाया है कि दुनिया में आज जो कुछ हो रहा है उसे पता लगाना इसके बिना मुश्किल हो गया है कि आपको ऐसी खबरों की भीड़ से गुजरना पड़े जो आपको दुखी और नाराज करती हैं। उन्होंने यह सवाल किया है कि परंपरागत मीडिया क्यों बिना थके हुए नफरत फैलाने में लगा हुआ है? उन्होंने ट्विटर पर लिखा कि अधिकतर मीडिया इस सवाल का जवाब देने में लगे रहता है कि धरती पर आज सबसे बुरा क्या-क्या हुआ है। एलन मस्क का कहना है कि यह धरती इतनी बड़ी है कि जाहिर है कि हर पल कहीं न कहीं कुछ बुरी चीजें हो रही होंगी, लेकिन इन्हीं चीजों पर लगातार फोकस किए रहने से हकीकत की असली तस्वीर पेश नहीं हो पाती हैं। उनका कहना है कि हो सकता है कि परंपरागत मीडिया इतना नकारात्मक इसलिए रहता हो क्योंकि पुरानी आदतें जल्द खत्म नहीं होती हैं, लेकिन इस मीडिया की सकारात्मक होने की कोशिश भी दुर्लभ है।

अब यह बात तो कुछ अधिक हैरान इसलिए भी करती है कि अमरीका में बैठे हुए एलन मस्क न तो हिन्दुस्तान के अखबार देखते हैं और न यहां के टीवी चैनल देखते हैं, वे हिन्दुस्तानी हवा में आज बहुत बुरी तरह फैली हुई जहरीली नफरत से भी रूबरू नहीं हैं, वरना वे पता नहीं और क्या लिखते, और क्या कहते। लेकिन हम उनकी बातों से परे भी इस पर आना चाहते हैं कि क्या परंपरागत और मुख्य धारा का कहा जाने वाला मीडिया सचमुच ही इतना नकारात्मक है कि उसे कोई भली बात दिखती ही नहीं? लोगों को याद होगा कि एक वक्त हिन्दुस्तान में मनोहर कहानियां नाम की एक सबसे लोकप्रिय अपराध पत्रिका खूब चलती थी, और एक वक्त ऐसा था जब यह पत्रिका उसी वक्त की सबसे लोकप्रिय समाचार पत्रिका इंडिया टुडे से भी अधिक छपती और बिकती थी। हिन्दी इलाकों में ऐसा माना जाता था कि लोग मनोहर कहानियां के बिना सफर नहीं करते थे, लेकिन घर आते ही उसे गद्दे के नीचे डाल देते थे क्योंकि उसमें हत्या और बलात्कार की घटनाओं का काल्पनिक विस्तार करके छापा जाता था, और वह परिवार के लायक पत्रिका नहीं मानी जाती थी। बाद में धीरे-धीरे जब हिन्दी टीवी चैनलों पर अपराध के कार्यक्रम आने लगे, तो शायद उसी वजह से इस पत्रिका का पतन हुआ, और अब शायद वह गायब हो चुकी है। लेकिन मीडिया का रूख हत्या-बलात्कार जैसे जुर्म से हटकर अब साम्प्रदायिकता और नफरत, धर्मान्धता और राजनीति जैसे जुर्म पर केन्द्रित हो गया है, और पहले के जो रेप-मर्डर के जो निजी जुर्म रहते थे, वे अब मीडिया में छाए हुए अधिक खतरनाक सामुदायिक और सामूहिक जुर्म के लिए जगह खाली कर गए हैं। एक हत्या से आगे दूसरी हत्या का रास्ता खुलने की नौबत कम ही आती थी अगर हत्या के बदले हत्या जैसा कोई मामला न रहता हो। लेकिन आज तो धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता के मुकाबले दूसरे तबकों की धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता लगातार बढ़ती चल रही है, और यह निजी अपराधों के मुकाबले अधिक खतरनाक नौबत है। फिर यह भी है कि कम से कम हिन्दुस्तान का गैरअखबारी मीडिया तो अखबारों के जमाने के मीडिया के मुकाबले नीति-सिद्धांत पूरी तरह खो चुका है, और आज तो अखबारी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा पूरी ताकत से धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता, नफरत और हिंसा फैलाने में जुट गया है।

आज हम दूसरे किस्म की नकारात्मक खबरों पर अधिक नहीं जा रहे जो कि भ्रष्टाचार की हैं या मामूली गुंडागर्दी की हैं। आज जब पूरे लोकतंत्र को, पूरे देश को तबाह करने की साजिशों में बड़े फख्र के साथ शामिल होकर मीडिया अपने आपको कामयाब भी बना रहा है, और पहले के मुकाबले अधिक बड़ा कारोबार भी बन रहा है, तो ऐसे में फिर भ्रष्टाचार या चाकूबाजी जैसी हिंसा को महत्वपूर्ण अपराध क्यों माना जाए? एलन मस्क ने तो अमरीकी मीडिया को देखकर अपनी सोच लिखी है, लेकिन हिन्दुस्तान के लोगों को भी यह सोचना चाहिए कि वे जिस मीडिया के ग्राहक हैं, या जिस मीडिया के विज्ञापनदाता हैं, वह मीडिया हिन्दुस्तान के लोकतंत्र को आज क्या दे रहा है, इंसानियत को आज क्या दे रहा है? यह सोचे बिना अगर लोग गैरजिम्मेदारी से गैरजिम्मेदार मीडिया के ग्राहक और विज्ञापनदाता बने रहेंगे, तो लोकतंत्र में जिम्मेदार मीडिया के जिंदा मीडिया रहने की गुंजाइश ही नहीं रहेगी, और आज वह वैसे भी खत्म सरीखी हो गई है। लोग अगर मीडिया से भगत सिंह जैसी शहादत की उम्मीद करते हैं, तो उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि मीडिया यह काम खाली पेट नहीं कर सकता, और लोग जिस किस्म के मीडिया का पेट भरेंगे, उसी किस्म का मीडिया ताकतवर होकर समाज को अपने तेवर दिखाएगा। लोग लोकतंत्र को जिम्मेदारी के साथ पा सकते हैं, या गैरजिम्मेदार होकर खो सकते हैं।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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