संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : डबल इंजन के सुशासन का बेबस बच्चियों से बलात्कार, सिर्फ हाईकोर्ट जागरूक!
12-Feb-2022 3:08 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  डबल इंजन के सुशासन का बेबस बच्चियों से बलात्कार, सिर्फ हाईकोर्ट जागरूक!

बिहार की राजधानी पटना में गायघाट सरकारी शेल्टरहोम में रखी गई लड़कियों में से एक ने वहां की महिला सुपरिटेंडेंट पर यह आरोप लगाया था कि वह लड़कियों से गलत काम करवाती है, और उन्हें मारपीट कर खाने में नशीली चीजें मिलाकर बाहर से लडक़ों को बुलाकर उनके साथ सेक्स करने को मजबूर करती है। कैमरों के सामने इस लडक़ी ने ये शिकायतें की थीं, लेकिन सरकार ने इन आरोपों को खारिज कर दिया, न इनकी कोई जांच करवाई, और न ही पुलिस ने शिकायत पर एफआईआर दर्ज की। जब यह मामला मीडिया में खूब आया तो उसके बाद पटना हाईकोर्ट ने खुद होकर इस मामले में दखल दी और सरकार और पुलिस को कड़ी फटाकर लगाई। अब हाईकोर्ट ने इस पीडि़ता को बयान दर्ज करने के लिए बुलाया है। बिहार में बीजेपी और जेडीयू, दो पार्टियों की डबल इंजन वाली सरकार है, और वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार स्वघोषित सुशासन बाबू हैं, उनके राज में सरकारी शेल्टरहोम के खिलाफ ऐसी गंभीर और भयानक शिकायत पर सरकार का यह रूख है। बिहार में कुछ संवैधानिक संस्थाएं भी होंगी, महिला आयोग, मानवाधिकार आयोग, बाल आयोग या बाल कल्याण परिषद, लेकिन मीडिया में लगातार छप रही इस घटना पर इनमें से किसी की भी नींद नहीं खुली, जाहिर है कि इन पर चर्बी बढ़ाने के लिए सरकार की पसंद के लोग मनोनीत किए गए होंगे, आमतौर पर सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के नेता ही मनोनीत हुए होंगे, और उनकी भला मुसीबतजदा लोगों में क्या दिलचस्पी हो सकती है कि अपने राजनीतिक आकाओं को नाराज करके वे इंसाफ के बारे में सोचें।

लेकिन यह हाल महज बिहार में हो ऐसा भी नहीं है, देश भर में संवैधानिक संस्थाओं और सत्तारूढ़ पार्टी के बीच ऐसा ही एक नाजायज गठबंधन रहता है कि ऐशोआराम और अहमियत के लिए इन कुर्सियों पर बैठाए गए लोगों से यही उम्मीद की जाती है कि वे सरकारी जुल्म-ज्यादती या सरकारी जुर्म की तरफ न देखें, और देश के संविधान के तहत बनाए गए इन ओहदों पर मजा करते रहें। हिन्दुस्तान में शायद ही किसी प्रदेश में संवैधानिक संस्था पर बिठाए गए लोग अपनी जिम्मेदारी पूरी करते होंगे, और अधिकतर मामलों में तो अदालतें अपने रोज के कामकाज से आगे बढक़र खुद होकर ऐसी सुनवाई शुरू करती हैं, और तब तक भी कमजोर तबकों के संरक्षण के लिए बनाई गई संवैधानिक संस्थाओं के मुंह भी नहीं खुलते।

आज देश में जरूरत यह है कि सत्तारूढ़ पार्टी की पसंद का सम्मान करने के लिए जनता के पैसों पर किए जा रहे ऐसे मनोनयन खत्म करना चाहिए जिन्हें संविधान के तहत जरूरी बनाया गया है, लेकिन जिनका कोई योगदान कमजोर जनता को बचाने में नहीं रह गया है। कुछ समय पहले हमने इसी जगह पर रिटायर्ड नौकरशाहों और जजों को केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा तरह-तरह के आयोगों में मनोनीत करने के खिलाफ लिखा था कि यह हितों के टकराव का मामला है। अब ऐसी संवैधानिक कुर्सियों के बारे में भी हमारा यही मानना है कि यह सत्ता द्वारा मनोनयन करने के एवज में सत्ता को बचाने का एक मामला है, और यह सिलसिला खत्म होना चाहिए क्योंकि इसे संविधान के नाम पर चलाया जा रहा है, और जनता के पैसों से जनता के हितों के खिलाफ चलाया जा रहा है। देश भर में महिला आयोग, बाल आयोग, मानवाधिकार आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग जैसी तमाम संस्थाओं के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक विशेषज्ञ लिस्ट बनाने की जरूरत है जिसमें देश भर से छांटे हुए नाम रहें। इसके बाद हर प्रदेश के लिए इस किस्म के ओहदों पर नाम तय करते हुए लॉटरी से नाम निकालकर लोगों को भेजना चाहिए, और राज्य शासन के साथ उनके संबंध संवैधानिक दूरी के बने रहना चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक कमजोर तबकों को विशेष सुरक्षा देने के लिए बनाई गई ऐसी संवैधानिक संस्थाएं जनता का पेट काटकर उन पर लादा गया बोझ हैं। बिहार में अगर इनमें से किसी भी संवैधानिक संस्था ने अपनी जिम्मेदारी पूरी की होती, तो शायद पहले से ही काम से लदे हुए पटना हाईकोर्ट को खुद होकर दखल देने की जरूरत नहीं पड़ती।

कमजोर तबकों को विशेष सुरक्षा के नाम पर की गई संवैधानिक व्यवस्था पूरी तरह बोगस है और वह जनता के पैसों की लूटपाट से मौज-मस्ती का एक जरिया बनी हुई है। ऐसी हरामखोरी से तो बेहतर यह है कि इन संस्थाओं की व्यवस्था ही खत्म कर दी जाए, और हाईकोर्ट में जजों का पद बढ़ा दिया जाए जो कि खुद होकर जनहित के मुद्दों को देख सकें, और सरकार से जवाब-तलब कर सकें। आज एक तरफ तो सरकारी या गैरसरकारी मुजरिम कमजोर लड़कियों और बच्चों से संस्थागत इंतजाम में बलात्कार करते हैं, और उनसे पेशा करवाते हैं, लेकिन दूसरी तरफ इससे उन बच्चों को बचाने का कोई भी इंतजाम कारगर नहीं हो रहा। जो-जो मामले सामने आते हैं उनमें दिखता है कि सरकारी नालायकी और अनदेखी किस परले दर्जे की थी बल्कि अधिकतर मामलों में जुर्म में सरकार की भागीदारी भी दिखती है। हिन्दुस्तानी कानून में फेरबदल करके जब तक ऐसे आयोगों के लिए लोगों का मनोनयन राजनीतिक ताकतों के हाथ से लिया नहीं जाएगा, और एक पारदर्शी संवैधानिक प्रक्रिया बनाकर उसे असरदार नहीं बनाया जाएगा तब तक जनता के पैसों की इन कुर्सियों पर बर्बादी एक और जुर्म है।

लोगों को याद रहना चाहिए कि चार बरस पहले इसी बिहार प्रदेश के मुजफ्फरपुर में सरकारी अनुदान पर चलने वाले एक एनजीओ के चलाए जा रहे शेल्टरहोम में इस बड़े पैमाने पर बच्चियों से बलात्कार हुए थे और उन्हें सेक्स के धंधे में धकेल दिया गया था कि उस मामले ने देश को हिलाकर रख दिया था। इस बालिका गृह को चलाने वाला एनजीओ संचालक ब्रजेश ठाकुर ऐसी चौंतीस बच्चियों के सेक्स-शोषण का जिम्मेदार पाया गया था, और 2018 के इस मामले का भी सुप्रीम कोर्ट ने खुद होकर नोटिस लिया था और इसकी सुनवाई शुरू की थी। इसके बाद इस मामले को बिहार के सत्तारूढ़ राजनीतिक असर से बचाने के लिए दिल्ली की एक अदालत में भेजा गया था और सुप्रीम कोर्ट ने अपनी निगरानी में छह महीने में इसकी सुनवाई करवाई थी। इस मामले में बिहार की उस वक्त की एक मंत्री मंजू वर्मा का नाम भी आया था जिन्हें इस्तीफा देना पड़ा, लेकिन इसके बाद 2020 के बिहार चुनाव में सत्तारूढ़ जेडीयू ने फिर उन्हें टिकट दी थी। जिस देश में सत्तारूढ़ पार्टी और बेबस बच्चियों से बलात्कार के बीच इस तरह का संबंध हो, उस देश में हरामखोरी करने के लिए और संवैधानिक कुर्सियां क्यों बढ़ानी चाहिए?
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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