संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पिछले चुनाव की गोपनीय बात इस चुनाव प्रचार के दौरान कहने की नीयत...
19-Feb-2022 3:33 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  पिछले चुनाव की गोपनीय बात इस चुनाव प्रचार के दौरान कहने की नीयत...

पंजाब के चुनाव में अरविन्द केजरीवाल एक बड़ा मुद्दा हैं। कांग्रेस को यह लगता है कि केजरीवाल आरएसएस की उपज हैं, और मनमोहन सिंह की यूपीए-2 सरकार को बदनाम करने के लिए और बेदखल करने के लिए अन्ना हजारे नाम के पाखंडी की अगुवाई में जो आंदोलन चला था, उसी के एक कार्यकर्ता अरविन्द केजरीवाल थे, और बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि अन्ना का वह आंदोलन भी सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार के खिलाफ न होकर केवल यूपीए सरकार और कांग्रेस को बदनाम करने का आंदोलन था, और उन सबके साथ जिस तरह से बाबा रामदेव और श्रीश्री रविशंकर जैसे नाम जुड़ गए थे, उससे लोगों का यह अंदाज है कि वह आरएसएस का आर्केस्ट्रा था। अरविन्द केजरीवाल वहीं से उठकर आम आदमी पार्टी बनाकर दिल्ली के मुख्यमंत्री बने, और अब वे देश के कई राज्यों में ऐसी दखल दे रहे हैं कि जिससे भाजपा की संभावनाएं मजबूत होती हैं। अब वे भाजपा के इंतजामअली की तरह काम कर रहे हैं या अपने लिए काम कर रहे हैं, यह एक अलग बात है, लेकिन पंजाब में उनकी मौजूदगी गैरभाजपाई वोटों को बांटने वाली है, और कमोबेश यही नौबत गोवा में भी सुनाई पड़ती है। इसलिए अरविन्द केजरीवाल आज कांग्रेस के निशाने पर तो हैं ही, वे अपने ही एक पुराने और शुरूआती साथी कुमार विश्वास के निशाने पर भी हैं जो कि आम आदमी पार्टी की राजनीति से अब अलग हो चुके हैं।

यह दिलचस्प बयान केजरीवाल के पुराने साथी कुमार विश्वास की तरफ से आया है जिसमें उन्होंने केजरीवाल के बारे में कहा है कि पंजाब में पिछला विधानसभा चुनाव जीतने के लिए केजरीवाल अलगाववादी तत्वों का साथ लेने के लिए तैयार थे। कुमार विश्वास ने एक औपचारिक इंटरव्यू में कहा है कि एक दिन केजरीवाल ने उनसे यह तक कहा था कि वे या तो पंजाब के मुख्यमंत्री बनेंगे, या एक स्वतंत्र देश के पहले प्रधानमंत्री बनेंगे। कुमार विश्वास की इस बात का सीधा-सीधा मतलब यह है कि केजरीवाल ने आपसी बातचीत में उनसे कहा था कि वे पंजाब के सीएम या एक स्वतंत्र देश (खालिस्तान) के पीएम बनेंगे। जाहिर है कि इस चुनाव के बीच केजरीवाल ने इस बात का खुलकर खंडन भी किया है और कहा है कि देश में पिछले दस साल में तीन साल कांग्रेस की सरकार थी, और सात साल से भाजपा की सरकार है, तो क्या ये लोग सो रहे थे? जांच एजेंसियां क्या कर रही थीं? इसके बाद केजरीवाल ने अपनी तुलना भगत सिंह से की कि सौ साल पहले अंग्रेजों ने भगत सिंह को आतंकवादी कहा था, और आज भी भगत सिंह के चेले (केजरीवाल) को आतंकवादी साबित करने की कोशिश हो रही है।

अब यहां पर एक बुनियादी सवाल यह खड़ा होता है कि कई बरस पहले केजरीवाल ने अगर कुमार विश्वास से आपसी बातचीत में ऐसा कुछ कहा भी था, तो कुमार विश्वास को उसी मुद्दे पर केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का साथ छोड़ देना था। और इसके साथ ही उनकी यह जिम्मेदारी भी बनती थी कि वे ऐसी खतरनाक बात को सार्वजनिक रूप से सामने रखते। क्योंकि ऐसी बात सुनने के बाद चुप रहना भी देश के हितों के खिलाफ जानते हुए चुप रहने के अलावा और कुछ नहीं है। तमाम व्यक्तिगत संबंध अलग रहते हैं, और देश अलग रहता है। इसलिए केजरीवाल को ऐसी बात के बाद बचकर निकल जाने देना उनकी बात में भागीदारी के अलावा क्या गिना जा सकता है? कुमार विश्वास का यह कहना इस चुनाव प्रचार के बीच में किसी न किसी राजनीतिक दल की मदद तो करेगा, और आम आदमी पार्टी को बदनाम करने का काम भी करेगा। इसलिए हम चुनाव प्रचार के दौरान गड़े मुर्दों को उखाडक़र उनकी ऐसी नुमाइश को देखते हुए उसे किसी किस्म की प्रायोजित कुश्ती अधिक पाते हैं। यह सिलसिला तभी ईमानदार कहलाता जब वह पिछले चुनाव के दौरान ही उजागर हो गया होता। यह देश तो साजिशों के झंझावात से गुजर रहा देश है जहां पर नेहरू, सुभाष, और सरदार पटेल के लिखे हुए दस्तावेजों वाली किताबों के मौजूद रहते हुए भी उनके आपसी संबंधों को लेकर उन्हें बदनाम करने की कोशिशें चल रही हैं। ऐसे में बंद कमरे में किसी को किसी की कही हुई कोई बात सच है या नहीं, इसका क्या ठिकाना है? हम केजरीवाल के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं रखते क्योंकि वे खुद भी ऐसी ही हरकतें करते आए हैं, लेकिन ऐसी हरकतें जो भी करें, उसका विरोध होना चाहिए क्योंकि ये बातें सार्वजनिक जीवन में एक-दूसरे का विश्वास खत्म करने वाली तो रहती ही हैं, एक-दूसरे की जनछवि खत्म करने वाली भी रहती हैं। वैसे भी इतिहास के दस्तावेजों के सच को खारिज करते हुए देश के सबसे महान नेताओं को बदनाम करने की जुबानी जमाखर्च चल ही रही है, ऐसे में बंद कमरों की कथित बातचीत का इतने-इतने बरस बाद चुनावी इस्तेमाल बहुत ही नाजायज बात है।  

यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, लेकिन चुनाव की गंदगी के बीच यह एक छोटी सी बात है। हम इस बात को इन दो चर्चित लोगों के व्यक्तित्व से अधिक महत्व दे रहे हैं, और एक मुद्दे के रूप में इस पर बात कर रहे हैं। वरना इस चुनाव की गंदगी कुल मिलाकर अभूतपूर्व है, और असम के मुख्यमंत्री ने इस गंदगी को भी जितना बदबूदार बनाया है, वह एक नया रिकॉर्ड है। ऐसे में कुमार विश्वास कहने के लिए तो आज शायद किसी राजनीतिक दल में नहीं हैं, लेकिन वे चुनावी राजनीति में सक्रिय हिस्सेदार दिख रहे हैं, और वे किसकी मदद करने के लिए ऐसा कर रहे हैं, उसकी अटकल लगाना भी बहुत मुश्किल नहीं है। सार्वजनिक जीवन का तकाजा यह रहना चाहिए कि अगर देशहित और देश की हिफाजत का कोई मामला है, तो वह इस तरह का वक्त गुजर जाने के बाद दावा करने लायक नहीं रहता, वह तुरंत ही उजागर करने लायक रहता है। यह देर और यह चुनावी मौका अपने आपमें कुमार विश्वास को कुमार अविश्वास बना रहे हैं।
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