संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : धरती बीच-बीच में लापरवाह इंसानों को हिलाकर जगाती है...
08-Feb-2021 6:03 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : धरती बीच-बीच में  लापरवाह इंसानों को हिलाकर जगाती है...

केदारनाथ में आई विनाशकारी बाढ़ की याद दिलाते हुए कल उत्तराखंड में एक बार फिर प्राकृतिक विपदा आई, लेकिन कुदरत इस बार मेहरबान रही, और शायद कुछ दर्जन मौतों पर ही बात रूक गई। फिर भी ऊपर पहाड़ पर किसी झील में बर्फ टूटी, या कुछ और हुआ जिससे कि पानी एकदम से नदी में आया, और बन रहे एक जल बिजलीघर को बहाते हुए आगे बढ़ गया। जैसा कि किसी भी बड़े हादसे में होता है, इसमें भी मरने वाले अधिकतर लोग गरीब मजदूर थे जो कि शायद इसी जल बिजलीघर की सुरंग में काम कर रहे थे, और ऊपर से बहकर आए मिट्टी के सैलाब में दर्जनों मजदूर दब गए। लाशों का मिलना और मौतों की गिनती अभी जारी है, लेकिन उनके कम-अधिक होने से बहुत फर्क नहीं पड़ता, फर्क की बात सिर्फ यह है कि कुदरत के साथ चल रहा यह खिलवाड़ इस ताजा हादसे के बाद भी लोगों की आंखें खोल सकेगा या नहीं? 

उत्तराखंड में ऊपर हिमालय की जमी हुई झीलों की बर्फ धरती की बढ़ती हुई गर्मी से वैसे भी अधिक पिघल रही थी, और मौसम के बदलाव की वजह से वहां बर्फ जमना भी शायद कम हो रहा था। ऐसे में बादल फटने से, या धरती में कोई और फेरबदल होने से बर्फ का बड़ा टुकड़ा टूटकर नीचे आया और रास्ते के सब कुछ को बहाते हुए ले गया। यह तो अच्छी बात रही कि यह सुबह-सुबह हुआ, अगर यही हादसा देर रात हुआ होता, तो लोग बेखबर ही मारे जाते। लेकिन इससे सबक लेने की जरूरत यह है कि धरती के भीतर, धरती पर, या आसमान में आए किसी भयानक फेरबदल से उत्तराखंड जैसा पहाड़ी राज्य इतने बड़े खतरे में पड़ सकता है कि जिसके सामने केदारनाथ की बाढ़ की पांच हजार से अधिक मौतें भी फीकी पड़ जाएं। कुछ तो धरती की बनावट ऐसी है कि हर बात इंसान के काबू में नहीं है, और कुछ इंसान धरती को बर्बादी की तरफ धकेलने में लगे रहते हैं। इन दो बातों में से कम से कम इंसानी हरकतें तो काबू में लाई जा सकती हैं। 

धरती के गर्म होने के लिए जिम्मेदार अनगिनत इंसानी हरकतों के व्यापक असर को पल भर के लिए अलग रखें, तो उत्तराखंड में इंसानों की लाई हुई तबाही को, और आगे आने वाले खतरे को देखा जा सकता है, और उसे आगे बढ़ाने से थमा भी जा सकता है। आज हिन्दुस्तान के गिने-चुने पहाड़ी राज्यों में बांध बनाकर सस्ती बिजली बनाने की कोशिशें कुछ जानकारों की नजरों में खतरे से खेलने के अलावा और कुछ नहीं है। लोग लंबे समय से उत्तराखंड जैसे राज्य में बांध में पानी अधिक इक_ा करने को धरती के लिए बड़ा खतरा मानकर चल रहे थे, और इसके खिलाफ आंदोलन भी कर रहे थे। इसी उत्तराखंड में सुंदरलाल बहुगुणा पेड़ों की कटाई का विरोध करते हुए पूरी जिंदगी चिपको आंदोलन चलाते रहे, और चाहे किसी पार्टी की सरकार रही हो, उसे कंस्ट्रक्शन के ठेकों के लिए पेड़ों को काटना सुहाता रहा। किसी भी पार्टी की सरकार का नजरिया धरती की तबाही को लेकर जरा भी अलग नहीं रहा, और उत्तराखंड ने कुछ बरस पहले केदारनाथ की बाढ़ ऐसी ही वजहों से झेली थी। 

हिन्दुस्तान के ये पहाड़ी राज्य अपने स्थानीय शासन को अधिकारों के तहत पर्यटन को किसी भी सीमा तक बढ़ाने के लिए आजाद हैं, और इन राज्यों में कमाई का एक बड़ा जरिया पर्यटक हैं। लेकिन पड़ोस का हिमाचल प्रदेश अंधाधुंध बढ़ाए गए पर्यटन के बोझतले दम घुटते दिख रहा है। अब वैसा ही हाल उत्तराखंड का होने जा रहा है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि अंधाधुंध कमाई के लिए एवरेस्ट को कूड़े का ढेर बना दिया गया है। पहाड़ी रास्तों पर सडक़ें चौड़ी की जा रही हैं, उत्तराखंड को देवभूमि कहते हुए वहां अधिक से अधिक तीर्थयात्रियों का आना-जाना आसान करने के लिए ढेरों सडक़ें बनाई जा रही हैं, और उनमें से एक प्रोजेक्ट का नाम भी चारधाम महामार्ग रखा गया है। इस पहाड़ी प्रदेश में सात सौ किलोमीटर से अधिक लंबाई की यह टू-लेन नेशनल हाईवे बनाई जा रही है, और यह अंदाज लगाना अधिक मुश्किल नहीं है कि यहां आवाजाही बढऩे से वाहनों के धुएं का प्रदूषण बढ़ेगा, और उससे पर्यावरण के होने वाले नुकसान की भरपाई भी इंसानों को आगे चलकर करनी पड़ेगी। दरअसल कोई देश या प्रदेश अपनी तात्कालिक जरूरतों और संभावनाओं को देखते हुए धरती पर होने वाले दीर्घकालीन नुकसान को अनदेखा करने के आदी हो चुके हैं। उन्हें पांच साल के अपने कार्यकाल से परे की फिक्र खत्म हो गई है। केदारनाथ की बाढ़ के मुकाबले चूंकि इस बार मौतें बहुत कम हैं, इसलिए इस बार की कुदरत की चेतावनी को सरकारें तेजी से भुला देंगी। नतीजा आने वाली पीढिय़ां भुगतेंगी। 

केन्द्र सरकार और उत्तराखंड सरकार पर इस बात को लेकर दबाव बनाना चाहिए कि विकास के नाम पर इस पहाड़ी राज्य, या दूसरे पहाड़ी राज्यों की कुदरती सीमाओं के साथ खिलवाड़ खत्म किया जाए। यह पूरे देश की जिम्मेदारी है कि पहाड़ी राज्यों पर कुदरती खतरा न बढ़ाने के एवज में उन राज्यों को केन्द्र से अतिरिक्त मदद दी जाए। हिन्दुस्तान में कई राज्यों को फौजी जरूरतों के मुताबिक या सरहदी रणनीति के चलते ऐसी मदद दी भी जाती रही है, और आज भी उत्तर-पूर्व जैसे राज्यों को कई तरह की रियायत मिलती है, और अनुदान मिलते हैं। भारत के पहाड़ी राज्यों को देश का फेंफड़ा बने रहने के एवज में इसकी भरपाई मिलनी चाहिए, और इसके साथ ही वहां पर धरती पर अधिक जुल्म भी खत्म होने चाहिए। अब हिन्दुस्तान की देश-प्रदेश की सरकारों में पर्यावरण के लिए आपराधिक लापरवाही दिखाई दे रही है, और ऐसे में धरती को बचाने की नसीहतों की जगह सरकारी दफ्तरों की कचरे की टोकरी के अलावा कुछ नहीं रहेगी। फिर भी लोगों को बोलने की अपनी जिम्मेदारी जारी रखनी चाहिए। ये पहाड़ी इलाके इंसानों का, आवाजाही का, बांधों का इतना बोझ ढोने के हिसाब से बने हुए नहीं हैं, और यहां की धरती अपने जंगलों के बिना हिफाजत से नहीं रह सकती। इन बातों को देखते हुए ऐसे पहाड़ी इलाकों की संभावनाओं की सीमाओं पर गौर करना जरूरी है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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