संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आपातकाल के योद्धा रहे बिहार का नैतिक पतन !
03-Feb-2021 5:26 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आपातकाल के योद्धा रहे बिहार का नैतिक पतन !

एक पखवाड़े में बिहार सरकार का लोकतंत्र के खिलाफ एक दूसरा फैसला सामने आया है। कुछ दिन पहले ही राज्य सरकार ने यह आदेश जारी किया है कि अगर सोशल मीडिया पर कोई जनप्रतिनिधि या सरकारी अधिकारी पर अमर्यादित टिप्पणी करेंगे, तो उस पर पुलिस सख्ती से कार्रवाई करेगी। अब कल यह नया फैसला सामने आया है कि अगर बिहार में किसी विरोध-प्रदर्शन या सडक़ जाम में कोई शामिल होते हैं, और पुलिस उनके खिलाफ मामला पेश करती है, तो उन्हें न कोई सरकारी नौकरी मिल पाएगी, न ही कोई सरकारी ठेका मिल पाएगा। नीतीश सरकार के ये दोनों फैसले लोकतंत्र को कुचलने वाले कहे जा रहे हैं, और इनके खिलाफ लगातार राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रिया आ रही हैं। 

बिहार भारत के लोकतंत्र में एक मजबूत स्तंभ रहा है। खुद नीतीश कुमार से लेकर लालू यादव तक बहुत से नेता आपातकाल का विरोध करते हुए छात्र राजनीति और राजनीति में आगे बढ़े, और बड़े नेता बने। आपातकाल के जॉर्ज फर्नांडीज जैसे बड़े नेता बिहार से चुनाव लडक़र संसद में बड़े नेता बने थे। ऐसे में अगर कोई राज्य लोकतंत्र को कुचलने का काम करता है, तो वह अदालत में भी नहीं टिक पाएगा, और जनता की अदालत में तो उसकी थुक्का-फजीहत शुरू हो ही चुकी है। दरअसल अपने चौथे कार्यकाल में नीतीश कुमार को शायद अब यह लग रहा है कि उनके पास खोने को कुछ नहीं है, और पाने को भी इससे अधिक कुछ नहीं है, और यह भी कब तक जारी रहता है, वह भी साफ नहीं है, इसलिए वे शायद लोकतंत्र पर आस्था खो चुके हैं। वैसे भी देश का माहौल कुल मिलाकर लोकतंत्र को एक निहायत ही अवांछित सामान मानकर चल रहा है कि वह सीढ़ी चढक़र सत्ता तक पहुंच गए, और अब उस सीढ़ी को लात मारकर गिरा देने में कोई हर्ज नहीं है। 

आज जब दुनिया के तमाम सभ्य लोकतंत्र अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तमाम तरीकों का सम्मान बढ़ाते चल रहे हैं, तब हिन्दुस्तान का यह एक सबसे बड़ा राज्य अपनी सरहद में लोकतंत्र को इस तरह खत्म करने में जुटा है। जो नौजवान देश के तमाम राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों की रीढ़ की हड्डी रहते आए हैं, उनको ऐसे आंदोलनों में जाने से रोकने के लिए उनका नौकरी का हक छीनना एक ऐसी नाजायज बात है जो कि अदालत में नहीं टिक पाएगी। अगर आंदोलनों में सडक़ों पर उतरना ऐसा जुर्म है, तो फिर लालू यादव से लेकर नीतीश कुमार तक इन सबको मुख्यमंत्री बनने के लिए भी अपात्र कर देना चाहिए क्योंकि इनके ऊपर भी आंदोलनों के अपने दिनों में कई जुर्म कायम हुए होंगे। जो बात किसी को क्लर्क बनने के लिए भी अपात्र ठहराती है, वह बात सांसद और विधायक बनने की अपात्रता भी रहनी चाहिए। दरअसल नीतीश सरकार लोगों को धमकाने में लगी है। सोशल मीडिया पर लोग जनप्रतिनिधियों और अफसरों के बारे में नहीं लिखेंगे तो क्या वे जागरूक नागरिक रह जाएंगे? और अगर वे कोई गलत बात लिखते हैं तो उसके लिए सरकार के पास अलग से तरह-तरह के कानून हैं। इस पर पुलिस कार्रवाई के लिए अलग से आदेश निकालना अपने लोगों को धमकाने के अलावा कुछ नहीं है। पिछले बरसों में सुप्रीम कोर्ट बार-बार इस बात को कह चुका है कि सोशल मीडिया को लेकर सरकारों की की गई बहुत सी कार्रवाई नाजायज है और उसमें आईटी एक्ट की कुछ धाराओं को खारिज भी किया है। बिहार सरकार के ये दोनों ही मामले सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचकर खारिज होंगे, इनसे सरकार का कोई भला नहीं होना है, और धमकाने का यह तरीका अदालती फैसला आने तक का ही है। देश में आज लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने का अभियान चल रहा है, और नीतीश कुमार उसी लहर पर सवार चल रहे हैं। वे अपने राजनीतिक जीवन की सबसे ऊंचाई पर पहुंच चुके हैं, और अब न सिर्फ राजनीति का, बल्कि उनकी नैतिकता का भी उतार चल रहा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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