संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : तमाम राष्ट्रीय संस्थान दिल्ली में ही क्यों हों?
23-Jan-2021 3:21 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : तमाम राष्ट्रीय संस्थान दिल्ली में ही क्यों हों?

आज जब देश भर में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जयंती मनाई जा रही है, तब बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने एक नया मुद्दा उठाया है कि इतने बड़े हिन्दुस्तान में सिर्फ एक ही राजधानी क्यों होनी चाहिए? उन्होंने कहा कि अंग्रेजों ने पूरे देश पर कोलकाता से राज किया था, और आज भारत में चार राजधानियां रहनी चाहिए, सब कुछ दिल्ली में ही क्यों हो? 

यह बड़ा दिलचस्प मुद्दा है, और यह बहुत मौलिक भी नहीं है। पिछले कई दशकों में कई बार यह बात उठी कि देश की एक उपराजधानी भी होनी चाहिए ताकि दिल्ली शहर पर से राजधानी होने का बोझ घट सके, और कुछ दूसरे प्रदेशों को भी देश की राजधानी के आसपास का कोई महत्व मिल सके। यह भी बात कुछ लोगों ने पहले की हुई है कि केन्द्र सरकार के सारे दफ्तर, और सारे आयोगों के दफ्तर दिल्ली में ही क्यों हों? एक वक्त जब दिल्ली में कांग्रेस की सरकार थी, और माधव राव सिंधिया इतने ताकतवर थे कि वे अपने दम पर मोतीलाल वोरा को मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनवा चुके थे, तब भी यह बात छिड़ी थी कि दिल्ली के करीब ग्वालियर को उपराजधानी बनाया जाए ताकि दिल्ली से भीड़ घट सके। 

दुनिया में कुछ देश ऐसे हैं भी जहां पर देश का सरकारी और अदालती काम अलग-अलग शहरों में बंट जाता है। दक्षिण अफ्रीका में वहां की अघोषित कारोबारी राजधानी एक शहर में है, सरकारी राजधानी एक दूसरे शहर में है, और वहां की संसद एक तीसरे शहर में बैठती है। हिन्दुस्तान में अभी जब राजधानी दिल्ली में नई संसद और केन्द्र सरकार की नई इमारतें 20 हजार करोड़ की लागत से बनने जा रही हैं, तो यह मौका देश को एक संतुलित व्यवस्था देने का भी हो सकता था, लेकिन ममता बैनर्जी की यह बात कुछ देर से आई है। ऐसा भी नहीं था कि केन्द्र सरकार ममता बैनर्जी की बात का कोई बहुत अधिक सम्मान करती, और पश्चिम बंगाल या कोलकाता को कुछ दफ्तर मिल जाते। 

आज दिल्ली शहर, और उसके आसपास का एनसीआर कहा जाने वाला राजधानी क्षेत्र जिस तरह के ट्रैफिक जाम और वायु प्रदूषण का शिकार है, उसमें कोई भी कल्पनाशील केन्द्र सरकार पूरे देश को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग प्रदेशों में कुछ दफ्तरों को भेज सकती थी। आज दिल्ली में केन्द्र सरकार भी है, सुप्रीम कोर्ट भी है, दुनिया के बाकी तमाम देशों के दूतावास और उच्चायोग भी वहीं पर हैं। लेकिन इसके साथ-साथ देश का हर आयोग दिल्ली में है, केन्द्र सरकार से जुड़े तमाम संगठनों के दफ्तर वहीं पर हैं, सेना के मुख्यालय, पैरामिलिट्री के मुख्यालय जैसे सैकड़ों दफ्तर दिल्ली में ही हैं। इन सबका एक साथ रहना जरूरी नहीं है। राज्यों में बहुत सी जगहों पर प्रदेश की राजधानी एक शहर में रहती हैं, और वहां का हाईकोर्ट दूसरे शहर में। राज्य सरकारों के भी बहुत से प्रदेश स्तर के दफ्तर राजधानी से परे दूसरे शहरों में रहते हैं। यह बात केन्द्र सरकार के साथ भी हो सकती है। इससे देश के दूसरे हिस्सों में भी विकास हो सकेगा, केन्द्र सरकार की तरफ से अलग-अलग राज्यों को महत्व भी मिल सकेगा, और देश की राजधानी दिल्ली में लोग जिंदा भी रह सकेंगे। एक मामूली सी लिस्ट बनाई जाए तो भी केन्द्र सरकार के सैकड़ों ऐसे दफ्तर हैं जो लाखों कर्मचारियों के साथ अलग-अलग राज्यों में भेजे जा सकते हैं, और उनसे भारत की एकता को मजबूती ही मिलेगी। पिछले एक बरस में हिन्दुस्तान की सरकारों ने ऑनलाईन काम करने से भी आगे बढक़र घरों से ऑनलाईन काम किया है, खुद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने शायद अपने गृहनगर नागपुर से वीडियो कांफ्रेंस पर काम किया है, और लोगों का सशरीर किसी एक इमारत में बैठकर काम करना जरूरी नहीं रह गया है। ऐसे में देश के करीब ढाई दर्जन राज्यों में कई दफ्तरों को भेजा जा सकता है, और देश की राजधानी चाहे दिल्ली में बनी रहे, लेकिन राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों का महत्व अलग-अलग राज्यों को मिल सकता है। 

ममता बैनर्जी ने चाहे जो बात की हो, लेकिन देश के शहरी विकास के विशेषज्ञों को इस बारे में जरूर सोचना चाहिए कि किस तरह दिल्ली पर हावी राष्ट्रीय स्तर के बोझ को घटाया जा सकता है, और बाकी राज्यों को राष्ट्रीय कामकाज के साथ जोड़ा जा सकता है। इसके लिए अधिकतर राज्य मुफ्त में जमीन देने को भी तैयार हो जाएंगे, और केन्द्र सरकार, उसके संगठन, देश के आयोग, ट्रिब्यूनल धीरे-धीरे अलग-अलग राज्यों में अपने ढांचे खड़े कर सकते हैं। अगर केन्द्र सरकार कल्पनाशीलता दिखाए तो यह भी हो सकता है कि दिल्ली में सरकार और ऐसे राष्ट्रीय स्तर के संगठनों की मौजूदा जमीन में से कुछ जमीनों को बेचकर भी अलग-अलग राज्यों में ढांचे खड़े करने का काम किया जा सके।
 
आज भी हिन्दुस्तान का शेयर बाजार देश की राजधानी में नहीं, बल्कि मुंबई में है। और शेयर बाजार का पूरा कामकाज देखें तो आज उसका 99 फीसदी काम तो ऑनलाईन ही होता है, और पूंजीनिवेशक या शेयर ब्रोकर किस शहर में है उससे क्या फर्क पड़ता है? सरकार से लेकर अदालतों तक, और कारोबार से लेकर आयोगों तक का काम ऑनलाईन चल रहा है, देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति राजधानी से बाहर निकले बिना महीनों से सरकार और देश चला ही रहे हैं। अलग-अलग राज्यों को भी केन्द्र सरकार के सामने अपने दावे पेश करने चाहिए कि राष्ट्रीय स्तर के कौन से संस्थान उनके प्रदेश मेंं आएं, और ऐसा होने पर उन प्रदेशों में देश भर से लोगों की आवाजाही भी बढ़ेगी। आज दिल्ली ने जिस तरह राष्ट्रीय स्तर की तकरीबन हर चीज पर अपना एकाधिकार कब्जा बना रखा है, उससे दिल्ली में जीना मुश्किल हो चुका है। यह सही वक्त है कि केन्द्र और राज्य मिलकर राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों और दफ्तरों का नया डेरा तय करें, उसके लिए जमीन जुटाएं, और आने वाले बरसों में इन तमाम राज्यों में निर्माण कार्य बढ़ सकें, हवाई आवाजाही का ढांचा विकसित हो सके, और दिल्ली एक बार फिर बेहतर शहर बन सके। यह कल्पना देश के अलग-अलग हिस्सों को एक-दूसरे से भावनात्मक और भौतिक रूप से बेहतर तरीके से अधिक दूरी तक बांधकर भी रख सकेगी, और हर राज्य में इससे दसियों हजार रोजगार खड़े हो सकेंगे। देश के शहरी नियोजकों को इस बारे में सोचना चाहिए कि दिल्ली से किस तरह केन्द्र सरकार से जुड़े संगठनों के दफ्तरों की बाकी राज्यों की तरफ रवानगी हो सकती है, उसकी लागत कैसे निकल सकती है, और कैसे ऐसे किसी योजना पर अमल के साथ-साथ उसके लिए जरूरी हवाई सेवा जैसे ढांचे विकसित हो सकते हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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