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कनक तिवारी लिखते हैं- कहां हो शेक्सपियर?
08-Feb-2023 4:50 PM
कनक तिवारी लिखते हैं- कहां हो शेक्सपियर?

विश्व के असाधारण नाटककार और कवि विलियम शेक्सपियर ने ‘कॉमेडी ऑफ एरर्स’ नाम का हास्य नाटक भी लिखा था। उसमें सभी प्रमुख चरित्रों के दोहरे चेहरे बार बार दृश्य पटल पर लटक आते हैं। दर्शक या पाठक को नाटक की थीम के साथ जुडक़र हंसने और गुदगुदी खिलाने का काफी मौसम मिलता है। इसी नाटक पर आधारित कॉमेडी फिल्म ‘अंगूर’ बनी थी जिसने दर्शकों का खूब मनोरंजन किया था। छत्तीसगढ़ में आरक्षण विवाद को लेकर मुख्य किरदारों के परेशान दिमाग चरित्रों को पढ़ते हुए और ‘कॉमेडी ऑफ एरर्स’ की याद आना स्वाभाविक है।
 
किस्सा कोताह यह है कि 19 सितंबर, 2022 को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गों के आरक्षण संबंधी 2012 के राज्य के संशोधन विधेयक को दो तीन आधारों पर खारिज कर दिया था। पहला यह कि कुल आरक्षण सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसले इंदिरा साहनी में की गई बंदिष के कारण 50 प्रतिशत से ज्यादा सामान्य तौर पर नहीं हो सकता। दूसरा यह कि राज्य सरकार अर्थात् भाजपा सरकार ने 2012 में संशोधन विधेयक पारित करने के बावजूद क्वांटिफाइबल डाटा (परिमाणात्मक आंकड़े) संतोषजनक ढंग से नहीं बनाए कि किस तरह कमजोर वर्गों को आरक्षण की ज़रूरत है। कितने पद खाली हैं और सरकार द्वारा प्रस्तावित संख्या में नियुक्त कर दिए जाने से प्रशासकीय स्तर कैसे कायम रहेगा। मजा यह है कि बहस तो कांग्रेस सरकार के वक्त हुई जिसके कानूनी कर्ताधर्ताओं ने भी यह देखने की जहमत नहीं उठाई कि भाजपा सरकार के फैसले में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में दिए गए निर्देषों का ठीक से पालन नहीं हुआ है। भाजपा की आधी अधूरी वर्जिश की ताईद करते कांग्रेसी वकीलों ने बहस कर दी। नतीजा पुनर्मूशको भव रहा। चीफ जस्टिस ने साफ  कहा कि सरकार संतुष्ट करने में असमर्थ रही है। संवैधानिक सलाह पाकर छत्तीसगढ़ सरकार ने दुबारा संशोधन विधेयक 2022 पारित किया। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ  स्थगन नहीं मिलने के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट में आखिरी बहस में भी हाईकोर्ट का फैसला कायम रह जाने की संभावना रही होगी। दुबारा संशोधन करने से राज्य सरकार को उम्मीद रही होगी कि औपचारिक रूप से राज्यपाल द्वारा उस पर हस्ताक्षर कर दिया जाएगा। 

पेंच यहीं पर अटक गया। राज्यपाल को राज्य सरकार के विधायी आचरण से शायद संतुष्टि नहीं हुई। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट निर्णयों के निर्देषों के प्रकाश में कई तरह के स्पष्टीकरण मांगे। स्पष्टीकरण की मांग को पब्लिक डोमेन में नहीं आना चाहिए था लेकिन उसे छबि बरकरार करने के कारण लाया गया। राज्य सरकार ने जो जवाब दिया उसमें संविधान के उसी अनुच्छेद 163 पर निर्भर होना ही दिखा कि राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह से बिना किसी ना नुकुर के चलना होगा। अनुच्छेद 163 कहता है, ‘राज्यपाल को सहायता और सलाह देने के लिए मंत्रि-परिषद्-(1) जिन बातों में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने कृत्यों या उनमें से किसी को अपने विवेकानुसार करे, उन बातों को छोडक़र राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रि-परिषद् होगी जिसका प्रधान, मुख्य मंत्री होगा।’ (2) यदि कोई प्रष्न उठता है कि कोई विषय ऐसा है या नहीं जिसके संबंध में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे तो राज्यपाल का अपने विवेकानुसार किया गया विनिश्चय अंतिम होगा और राज्यपाल द्वारा की गई किसी बात की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि उसे अपने विवेकानुसार कार्य करना चाहिए था या नहीं। (3) इस प्रश्न की किसी न्यायालय में जांच नहीं की जाएगी कि क्या मंत्रियों ने राज्यपाल को कोई सलाह दी, और यदि दी तो क्या दी। फिर शायद राज्यपाल की ओर से सवाल उछाला गया कि राज्यपाल ने तो केवल आदिवासी वर्गों के लिए ही दुबारा संषोधन विधेयक पारित करने की इच्छा जाहिर की थी क्योंकि आदिवासी वर्ग का आबादी के अनुपात में 32 प्रतिशत आरक्षण घटाकर 20 प्रतिशत हो गया था। सरकार और राजभवन के बीच गोपनीय पत्राचार मीडिया में भी उछलता रहा जो कतई मुनासिब परम्परा नहीं है। लोकप्रिय होने की हविश ने भी आग में घी डालने का काम किया। ऐसे गंभीर प्रश्नों को सडक़ के प्रदर्शनों पर डालने के साथ साथ मीडिया में वाहवाही लूटने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाए गए। राजभवन तक जनमार्च भी किया गया। भाजपा चुप कैसे बैठे? आग लगाए जमालो दूर खड़ी का मुहावरा उस पर भी चस्पा किया गया। 

यह अनुभव में है कि राज्यपाल का पद हकीकत और व्यवहार में तो केन्द्र सरकार का किसी भी राज्य में एक्सटेंशन काउंटर ही हो जाता है। संविधान कहता रहे कि राज्यपाल एक स्वायत्त संवैधानिक इकाई है। राज्यपाल ने चुप्पी मार दी तब छत्तीसगढ़ सरकार को संवैधानिक सलाह और व्यूह रचना शायद दिल्ली से सिखाई गई होगी। क्योंकि बड़े मुकदमों के पैरवीकार तो वहीं रहते हैं। फिर सरकार और निजी व्यक्ति की ओर से हाईकोर्ट में हालिया याचिका दायर कराई गई कि राज्यपाल को लंबे वक्त तक केवल चुप बैठने का संवैधानिक क्षेत्राधिकार नहीं है। याचिका में राज्यपाल पर कई तरह के आरोप भी लगाए गए जो संवैधानिक भाषा में लिखने के बावजूद राजनीति की गंध से सराबोर हैं। अब जानकारी है कि राज्यपाल की ओर से हाईकोर्ट की नोटिस का कोई जवाब नहीं दिया जाना है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 361 के अनुसार (1) राष्ट्रपति अथवा राज्य का राज्यपाल या राजप्रमुख अपने पद की शक्तियों के प्रयोग और कर्तव्यों के पालन के लिए या उन शक्तियों का प्रयोग और कर्तव्यों का पालन करते हुए अपने द्वारा किए गए या किए जाने के लिए तत्यार्पित किसी कार्य के लिए किसी न्यायालय को उत्तरदायी नहीं होगा। 

राज्यपाल की ओर से सुप्रीम कोर्ट के संवैधानिक पीठ के एक निर्णय रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ पर भरोसा किया जा रहा है। राज्यपाल के खिलाफ  उनके तहत कार्य कर रही सरकार द्वारा ही हाईकोर्ट में मामला दायर करना एक अजीबोगरीब संवैधानिक परिस्थित है। अनुच्छेद 154 (1) कहता है ‘राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह इसका प्रयोग इस संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा।’ लगता नहीं कि हाईकोर्ट कुछ कर पाएगा। ऐसी संवैधानिक पेचीदगियों का अंतिम निराकरण हाईकोर्ट के एकल जज द्वारा तो क्या दूसरी बड़ी पीठ द्वारा भी किया जाने की संवैधानिक संभावना या परम्परा दिखती नहीं। मामले में केन्द्र सरकार को भी पक्षकार बनाए जाने से गेंद अब केन्द्र सरकार के पाले में भी है। राज्य के विधेयक को संविधान की नौवीं अनुसूची में जगह दिलाने का राज्य सरकार का इरादा बिना संसद की मंजूरी के वैसे भी नहीं हो सकता। बेचारा आरक्षण तो हाशिए पर चला गया। राजनीतिक मल्ल युद्ध के लिए अखाड़े की धरती तैयार हो रही है। इसी साल विधानसभा के चुनाव भी हैं। इसलिए वोट बैंक पर पकड़ की अहमियत संविधान के प्रति निष्ठा से कहीं ज्यादा राजनेताओं को होगी। 
विधानसभा द्वारा पारित विधेयक पर राज्यपाल का कितना अधिकार होना चाहिए। इस पर संविधान सभा में बहस हुई थी। ब्रजेश्वर प्रसाद ने कहा था कि राज्यपाल को किसी विधेयक को स्वविवेक से नामंजूर करने की शक्ति प्राप्त होनी चाहिए, चाहे विधानसभा ने उसे एक बार पारित किया हो या दो बार। 

उन्होंने कहा था कि मैं जानता हूं कि यह प्रस्ताव लोकतन्त्रात्मक प्रवृत्तियों से असंगत है। लोगों का यह विश्वास है कि वे लोकतन्त्र के युग में जीवन व्यतीत कर रहे हैं, किन्तु मेरी यह धारणा है कि हमारा युग निरंकुश सत्ताधारियों का युग है। कनाडा के संविधान में इस प्रकार का प्रावधान है। देश के राजनैतिक जीवन को देखते हुए चाहता हूं कि हमारे संविधान में भी इस प्रकार का उपबन्ध होना चाहिए। यदि राष्ट्रपति और राज्यपाल को किसी विधेयक को नामंजूर करने की शक्ति प्राप्त होगी तो विघटनकारी विधेयक पारित नहीं हो सकेंगे। देश में विघटनकारी विधेयकों के पारित होने की बहुत आशंका है। यह आशंका काल्पनिक नहीं है बल्कि वास्तविक है। मैं यह भी चाहता हूं कि राज्यपाल इस अस्वीकार करने की शक्ति का अमूमन ही प्रयोग करते ही रहें। प्रदेश के मंत्रियों पर मेरा विश्वास नहीं है। राज्यपाल कोई बाहर का आदमी नहीं होगा। वह भारत सरकार का प्रतिनिधि होगा। उसकी राय प्रान्त के किसी अन्य प्राधिकारी की राय से श्रेष्ठ समझी जानी चाहिए। उनसे असहमत प्रोफेसर शिब्बनलाल सक्सेना ने कहा था मैं जानता हूं कि राज्यपाल पद पर राष्ट्रपति द्वारा नामनिर्देशित व्यक्ति होगा, किन्तु यह हो सकता है कि किसी प्रदेश में जो दल सत्ता में हो, वह केन्द्र में सत्ताधारी दल से अलग हो और राष्ट्रपति उस दल का व्यक्ति न हो। इसलिए मेरे विचार से यह एक बहुत ही गलत सिद्धान्त है कि राज्यपाल को विधानसभा की (और विधान परिषद्) की इच्छा के विरुद्ध कदम उठाने दिया जाय। तब टीटी कृष्णमाचारी ने कहा था कि डॉ. अम्बेडकर ध्यान दिला चुके हैं, कि राज्यपाल किसी विधेयक को अपने संदेश के साथ सदन को स्वविवेक से नहीं लौटाएगा। अब राज्यपाल को स्वविवेक से कार्य करने की शक्ति नहीं प्राप्त है। यदि राज्यपाल किसी संशोधन विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटाएगा तो वह मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से ही लौटाएगा। इससे उत्तरदायी मन्त्रिमण्डल की शक्ति किसी प्रकार कम नहीं होती। न इस से राज्यपाल को ही अधिक शक्ति प्राप्त होती है। 

निर्वाचित विधायिका के ऊपर राज्यपाल को एकाधिकार नहंीं हैं कि अधिकारों के प्रतिरोध के कारण संविधान को ही गतिरोध का सामना करना पड़े। राज्यपाल के अधिकारों में एक शब्द ‘यथाशीघ्र’ भी है। उसका आशय कई महीनों तक हस्ताक्षर नहीं करना तो नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त राज्यपाल के पद को राजनीति में घसीटा जाना भी कतई मुनासिब नहीं है। इससे संविधान की हेठी होती है। यह कई बार हुआ है कि राज्यपाल केन्द्र के एजेंट के तौर पर काम करते हैंं लेकिन फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक व्याख्या की है कि राज्यपाल का पद स्वायत्त है। उस पर नियुक्त होने के बाद उन्हें केवल संवैधानिक आचरण करना चाहिए। हालांकि व्यवहार में ऐसा होता नहीं है क्योंकि केन्द्र सरकार तो राज्यपाल पद पर संवैधानिक ज्ञान के ही प्रतिनिधियों का मनोनयन नहीं करती है। कुल मिलाकर छत्तीसगढ़ वह राज्य है जहां कांग्रेस भाजपा के मल्ल युद्ध के कारण अखाड़े में पिटना तो आदिवासी और अन्य उपेक्षित वर्गों को ही है। न तो उसके पास कोई बड़ा वकील है। न उनमें कोई जागरूक चेतना है। न ही राजनीतिक पार्टियों में उनकी हिस्सेदारी के लिए जम्हूरियत की चेतना है। आरक्षण प्रकरण में नायाब संवैधानिक आचरण की छटाएं देखने के बदले राजनीतिक पैंतरेबाजी को ही अगर सहारा बनाया जाएगा। तो संविधान बेचारा टुकुर-टुकर देखने के अलावा क्या करेगा। हालांकि संवैधानिक अधिकारों की हेठी और दुर्भावना दिखाई पडऩे पर संविधान न्यायालय लाचार नहीं होंगे। 

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