विचार / लेख
- संजय श्रमण
संत रैदास और संत कबीर को गौर से देखिए। वे गौतम बुद्ध और गोरखनाथ की परंपरा से आते हैं। इनकी वाणियों में जो विद्रोह है वह काल्पनिक ईश्वर के खिलाफ रचा गया विद्रोह है।
एक काल्पनिक और सगुण ईश्वर की आवश्यकता राजाओं और राजसत्ताओं को होती है ताकि वे ईश्वर से अपने ‘निजी’ संबंधों की घोषणा करते हुए राज्य और जनता के बीच के संबंधों को मनचाहे ढंग से चला सकें। इस पूरे खेल में ईश्वर का प्रवक्ता अर्थात पुरोहित या पुजारी सारे खेल को अंजाम देता है। राजा इस प्रवक्ता को सुरक्षा और धन देता है। इस प्रकार ईश्वर, राजा और पुरोहित का यह मॉडल कृषि आधारित एवं नगरीय जीवन का सबसे सफल मॉडल बन गया है। आजकल इस मॉडल में राजा की बजाय राजनेता आ गया है और एक नया किरदार भी या घुसा है वह है – व्यापारी। पहले शस्त्र की ताकत चलती थी अब धन की ताकत चलती है।
कबीर और रैदास इसी मॉडल को तोड़ने निकले हैं। बुद्ध और महावीर के जमाने में जबकि जीवन सरल था, ईश्वर का जन्म नहीं हुआ था और बड़े राजतंत्रों का उदय हो रहा था, उस समय इस मॉडल के खतरों की तरफ इशारे किए जाने लगे थे। गौतम बुद्ध के घर छोड़कर जंगल जाने का कारण ही यही था कि गणतंत्रों के संघों में जो फूट नजर आने लगी थी उसे रोका जाए। बाद में गौतम बुद्ध के जो वचन हैं उनमें व्यक्तिगत मोक्ष से सामाजिक मुक्ति की तरफ जाने का साफ इशारा दिखाई देता है। गौतम बुद्ध से पहले व्यक्तिगत और सामाजिक का उतना स्पष्ट विभाजन नजर नहीं आता।
श्रमण परंपरा जिस पृष्ठभूमि में जन्म लेती है वह कृषि प्रधान समाज है जो प्रकृति के नजदीक जी रहा है और सामूहिक और व्यक्तिगत में बहुत अधिक अंतर नहीं है। इसीलिए ऐसे समाजों को ईश्वर की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। इसीलिए बुद्ध महावीर और उनके पहले की तांत्रिक और भौतिकवादी परंपराओं में ईश्वर और राजा के वैसे संबंध नहीं हैं जो व्यक्ति की वासना के लिए समूह के शोषण की मशीनरी का आविष्कार कर सकें। तंत्र का और भौतिकवाद का पूरा प्रोजेक्ट सामूहिक जीवन और ईश्वर के जन्म के पहले की पृष्ठभूमि में चल रहा है। भौतिकवाद में और तंत्र में किसी ईश्वर की जरूरत नहीं होती, ये वे विचारधाराएं हैं जो ईश्वर और राज्य के जन्म से पहले आकार ले चुकी थीं।
इसके बाद आर्यों का आगमन होता है उनके घोड़ों की पीठ पर लोहे की तलवार और काल्पनिक ईश्वर की कहानियाँ लिए आर्य भारत को रौंदना शुरू करते हैं। गौतम बुद्ध और महावीर की परंपराओं वाले भारत में आर्यों की तलवार और उनके ईश्वर के अंधविश्वास का जादू काम करने लगता है। पूरे उपमहाद्वीप में इसी समय कृषि की उपज या पशुधन अब सामूहिक संपत्ति काम और व्यक्तिगत संपत्ति अधिक बनने लगती हैं। ऐसे में व्यक्ति की संपत्ति के आने के साथ ही व्यक्ति का व्यक्तिगत ईश्वर भी जरूरी नजर आने लगता है।
ठीक इसी समय राजतंत्रों का उदय हो रहा है और राजा को खुद के लिए और अपने बेटे के राजतिलक के लिए ईश्वरीय आज्ञाओं की जरूरत महसूस होने लगती है। इन काल्पनिक आज्ञाओं के प्रचार से प्रजा को मूर्ख बनाने के लिए “ईश्वर आधारित धर्म” का नया प्रोजेक्ट भारत में शुरू होता है। यह प्रोजेक्ट पहले यूरेशीया में अब्राहमिक धर्मों ने लागू कर के देख लिया था। यूरेशीया और मिडिल ईस्ट की सफलता अब भारत में दोहराई जाने लगती है।
इसी के साथ वर्ण और जाति का विभाजन उस रूप मे नजर आने लगता है जिसके खिलाफ बुद्ध उठ खड़े हुए थे। बुद्ध के बाद इस वर्ण और जाति के खिलाफ उठ खड़े होने वाले लोगों की एक लंबी शृंखला है। वर्ण और जाति असल मे राजनीतिक उपकरण हैं जो उत्पादन के तरीकों के बदलने के बाद राज्य और राजा की सुरक्षा के लिए निर्मित हुए, और इस पूरी डिजाइन को वैधता देने के लिए ईश्वर को पैदा किया गया। वह ईश्वर जो की भारत के मूल धर्मों में कभी था ही नहीं, लेकिन बाद मे धीरे धीरे ईश्वर का वाइरस भारत के मूल प्राचीन धर्मों में भी घुस जाता है।
यह ईश्वर घोड़े और तलवार से भी ज्यादा ताकतवर साबित होता है। इसके आने के बाद पर शोषण की मशीन बहुत तेजी से काम करने लगती है और स्वर्ग नरक सहित मोक्ष पुनर्जन्म और पाप पुण्य की परलोकवादी व्याख्याओं का जन्म होता है। हर परंपरा के दार्शनिक चूंकि राज्य और राजसत्ता के अधीन जी रहे थे इसलिए अधिकांश विचारकों और दार्शनिकों ने ईश्वर का पक्ष लिया।
नई परिस्थितियों में ईश्वर के प्रति विद्रोह का मतलब होता था राज्य और राजा से विद्रोह।
इसीलिए बाद के ईमानदार और क्रांतिकारी दार्शनिकों ने राज्य की कृपा पाने से इनकार कर दिया और वे भयानक गरीबी में जीने लगे। याद रखिए, राज्य और ईश्वर के खिलाफ अमीर आदमी कभी खड़ा नहीं हो सकता। इसीलिए कबीर और रैदास पूरी तरह गरीबी में जीने लगते हैं और ईश्वर और राज्य के षड्यंत्रों के खिलाफ हल्ला बोल देते हैं।
रैदास की क्रांति को इस बिन्दु से समझना शुरू कीजिए। इस भूमिका में जाए बिना आप नहीं समझ पाएंगे कि कबीर और रैदास जिस निर्गुण की बात कर रहे हैं वह आर्य-ब्राह्मणों के ईश्वर से कैसे भिन्न है। आर्य-ब्राह्मणों का ईश्वर शोषण की मशीन की वह बिजली है, जिससे यह मशीन चलती है।
कबीर और रैदास इसी बिजली का तार काट देना चाहते हैं। रैदास जिस निर्गुण की बात करते हैं वह ब्राह्मणों का ईश्वर नहीं है। रैदास का निर्गुण असल में आर्यों के ईश्वर के जन्म से पहले भारत में मौजूद था। बहुत सारी परंपराओं में मानव समाज और प्रकृति के बीच के रिश्तों पर आधारित धर्मों का अस्तित्व रहा है। इन धर्मों में ईश्वर की बजाय प्रकृति और सामूहिक जीवन के शुभ को जीवन के आदर्श की तरह खड़ा किया गया है।
रैदास का निर्गुण असल में सगुण ईश्वर के खिलाफ विद्रोह नहीं है, बल्कि यह ईश्वर मात्र की धारणा के खिलाफ विद्रोह है। कबीर भी यही काम कर रहे हैं। गोरखनाथ भी इन दोनों के पहले इसी जंग में शहीद हो चुके हैं और गुरु नानक बाद में आकर इसी मैदान में मोर्चा संभालते हैं।
इन सबके बाद बाबा साहेब अंबेडकर आते हैं और इस ईश्वर सहित इसके पुजारियों के रचे हुए जाल के साथ आखिरी और निर्णायक लड़ाई छेड़ते हैं। बाबा साहेब एक नई रणनीति अपनाते हैं, वे इस ईश्वर रूपी सांड को गोरख, कबीर या रैदास की तरह सीधे सीधे उसके सींग से नहीं पकड़ते, बल्कि उसकी पूँछ से पकड़ते हैं। ईश्वर का पुजारी और उस पुजारी के रचे हुए शास्त्र ही ईश्वर की पूंछ है जिसे आसानी से पकड़ा जा सकता है।
इसीलिए बाबा साहेब अंबेडकर ईश्वर के सींग अर्थात राज्य और परलोक की बजाय उसकी पूंछ अर्थात उसके सामाजिक आचार शास्त्र से पकड़ते हैं। सौभाग्य से बाबा साहेब के जमाने मे ब्राह्मणों के ईश्वर का सींग अंग्रेजों ने बहुत पहले ही तोड़ दिया था। इसलिए बाबा साहेब को ब्राह्मणी राज्य और ईश्वर से सीधे सीधे टकराने की जरूरत भी महसूस नहीं हुई।
कबीर और रैदास की तुलना में बाबा साहेब नए जमाने की जरूरत के अनुसार ईश्वर के बाजार में आग लगाते हैं। ईश्वर नाम के वायरस के काम करने के ढंग को समझकर उसके खिलाफ निरीश्वरवादी धर्म का टीका डिजाइन करते हैं। वह टीका बौद्ध धर्म है।
गौतम बुद्ध से रैदास और रैदास से बाबा साहब तक की यात्रा को इस तरह से देखिए, आपको भविष्य का रास्ता अपने आप नजर आने लगेगा। लेकिन अगर आप वेदांती बाबाओं और ओशो रजनीश स्टाइल धूर्तों की किताबों से रैदास को समझने चलेंगे तो आप वेदान्त के दलदल में फिर से फंस जाएंगे। वेदांती बाबा आपको आगे का नहीं बल्कि सतयुग का रास्ता दिखाएंगे।
रैदास और कबीर को ठीक से समझना है तो इनके काम को गौतम बुद्ध और बाबा साहब अंबेडकर के बीच में रखकर देखिए। गौतम बुद्ध से बाबा साहेब तक और बाबा साहब से गौतम बुद्ध तक जो विराट सर्कल पूरा हो रहा है उसके बीच में गोरखनाथ, कबीर और रैदास को रखिए।
तब आप देख पाएंगे कि कबीर और रैदास ब्राह्मणों के ईश्वर के भक्त नहीं हैं बल्कि उस ईश्वर के बनाए हुए यातना शिविर और डिटेन्शन कैंप में आग लगा देने वाले क्रांतिकारी हैं।