विचार / लेख
रीवा एस. सिंह
कहकर सिफऱ् वही वादे किये जाते हैं जो आवेश में किये गये हों नहीं तो ज़बाँ की दरकार कहाँ होती है वादों के लिये! भाषा और सभ्यताओं के आने से बहुत पहले ही आ चुकी थी प्रतिबद्धता।
प्राचीनतम लिपि से भी प्राचीन रहा भावनाओं का सम्प्रेषण। शायद इसलिए सम्भव हो सका क्योंकि एक जोड़ी आँखें मनुष्य के पास हमेशा से थीं। जिन्हें पढऩे-समझने के लिये किसी ज़बाँ की ज़रूरत कभी नहीं रही। आँखें बोलती हैं, बात करती हैं, हँसती भी हैं और जितने प्रभावशाली ढंग से भावनाएँ उड़ेल देती हैं उतनी क्षमता अबतक किसी ज़बाँ ने विकसित नहीं की।
मनुष्य जब उन्माद या अवसाद में होता है तो शब्द दुर्बल लगते हैं, कहाँ समेट पाते हैं हम मन में उठते हिलोरों को या उसी मन के बिखरे टुकड़ों को किसी भी ज़बाँ में! लेकिन आँखें सब बयाँ करती हैं। और किसी को हाल-ए-दिल बताने के लिये अगर ये एक जोड़ी आँखें नाकाफ़ी हों तो वो कमबख़्त ज़बाँ से भी क्या जान सकेगा।
वादे भी आँखों से होते हैं, प्रतिबद्धता आँखों से टपकती है। नहीं तो हज़ार बातें कहकर भी, सात जतन करने के बाद भी, अग्नि के समक्ष सात फेरे लेकर भी वादे टूट जाते हैं।
कोई मीरा कहीं बावरी होती है कि उसने कृष्ण से वादा किया है, दुनिया को यह पागलपन लगता है लेकिन मीरा को तो हर हाल में निभाना है।
किसी पुरानी डायरी में अब भी सूखे फूल पड़े हैं जिन्हें फेंका नहीं गया लेकिन चुभन देते हैं कि कर लेनी थी हिमाक़त, निभा लेना था वादा।
मन भरोसा करता है तो ख़ुद से भी वादा करता है और फिर दुनिया में उस एक चेहरे के सिवा सब धुंधला पड़ जाता है।
लोग वादे नहीं करते, उनकी नजऱें करती हैं, साँसों की गर्माहट करती है, एकाएक तेज़ हुई धडक़नें करती हैं। अक्सर ही जब सबसे मज़बूत और सबसे ज़रूरी वादे हो रहे होते हैं, ज़बाँ कुछ नहीं करती। लिखित या मौखिक समझौते नहीं होते, नहीं होते हस्ताक्षर किसी श्वेतपत्र पर लेकिन वो एक नाम अंकित हो जाता है मन के आखिरी कोने में सर्वदा के लिये।
वादे सोच-समझकर नहीं किये जाते, माप तौल कर तो बिल्कुल नहीं। सबसे ख़ूबसूरत वादे बिना नियम व शर्तों के स्वत: ही हो जाते हैं। ऐसे वादे जब मिट्टी को छूते हैं तो सृष्टि जीना सीखती है और जब हवा में घुलते हैं तो वसंत आता है।