संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : स्क्रीन की कैदी नई पीढ़ी में पनपती आत्मघाती हिंसा
08-Jun-2022 4:13 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : स्क्रीन की कैदी नई पीढ़ी में पनपती आत्मघाती हिंसा

उत्तरप्रदेश की खबर है कि मोबाइल फोन पर पबजी खेलने की लत के शिकार हो चुके सोलह बरस के एक लडक़े को जब मां ने और खेलने से रोका, तो उसने बाप की पिस्तौल लेकर मां को गोली मार दी, और हत्या के बाद पहुंची पुलिस को इधर-उधर भटकाने की कोशिश भी की। लेकिन पूछताछ के बाद यह साफ हो गया कि उसी ने मां को मारा। इस वारदात के बाद आई खबरों में यह भी याद किया गया है कि मार्च के महीने में महाराष्ट्र के ठाणे में पबजी खेल को लेकर ही दोस्तों में झगड़ा हुआ था, और तीन दोस्तों ने चौथे को चाकू के दस वार करके मार डाला था।

ये तो परले दर्जे की हिंसा के मामले हैं इसलिए खबरों में आ गए हैं, लेकिन डिजिटल उपकरणों, वीडियो गेम्स, और टीवी-फोन पर वीडियो देखने की लत नई पीढ़ी के बच्चों से लेकर जवान लोगों तक सबको बराबरी से तबाह कर रही है, और आज के बच्चे-जवान दिन में अपना जितना वक्त सब इंसानों के साथ कुल मिलाकर गुजारते हैं, उससे कहीं अधिक वक्त वे टीवी और मोबाइल फोन पर गुजारत हैं। नतीजा यह है कि आज फोन ही लोगों का जीवनसाथी हो गया है, वही तुम्हीं हो बंधु, सखा तुम्ही हो, हो गया है। इस सिलसिले के खतरे लोगों को आज समझ नहीं आ रहे हैं, लेकिन भयानक हैं। आज छोटे-छोटे बच्चे कुछ खाते-पीते हुए मोबाइल या टीवी पर कार्टून फिल्में देखने या कोई वीडियो गेम खेलने की जिद पर अड़े रहते हैं, और वे दुनिया के सबसे कमउम्र के ब्लैकमेलर रहते हैं जो कि अपनी बात मनवाए बिना मुंह नहीं खोलते। मां-बाप कामकाजी रहते हैं तो उन्हें अपने काम की हड़बड़ी रहती है, और छोटे-छोटे बच्चे उनके बर्दाश्त को परखते रहते हैं, उन्हें यह अंदाज रहता है कि थक-हारकर मां-बाप उनके सामने समर्पण कर देंगे, और फिर मर्जी की स्क्रीन के साथ वे खा-पीकर मां-बाप पर अहसान करेंगे। दरअसल फोन या टीवी की स्क्रीन बच्चों के दिमाग पर सोचने का बोझ भी नहीं डालती, और फिर वे अपने घर पर मां-बाप को टीवी पर क्रिकेट या दूसरे प्रोग्राम देखते हुए खाते-पीते बैठते देखते हैं, और वही सीखते हैं।

जब तक मरने-मारने की बात न आए तब तक लोगों की नींद नहीं खुलती है, इसलिए अभी लोग इस खतरे की तरफ से मोटे तौर पर अनजान चल रहे हैं, या फिर इस खतरे से जूझना उनके लिए मुश्किल होगा, इसीलिए वे इसे अनदेखा कर रहे हैं। इस देश में मनोचिकित्सकों या परामर्शदाताओं की मौजूदगी उनकी जरूरत के पांच-दस फीसदी भी नहीं है, इसलिए भी लोग बच्चों के सामने सरेंडर करके उन्हें मनमानी करने देते हैं, और स्क्रीन की लत बढ़ते-बढ़ते हिंसा तक पहुंच रही है। जो लोग मरने-मारने पर उतारू हो रहे हैं, या मोबाइल फोन का इस्तेमाल कम करने के लिए कहने पर खुदकुशी कर ले रहे हैं, वे बाकी वक्त भी किस मानसिकता में जी रहे होंगे, इसका एक अंदाज लगाया जा सकता है। इसलिए हत्या-आत्महत्या न होने पर भी लोगों को परिवार के भीतर इस खतरे की तरफ से चौकन्ना रहना चाहिए, और बच्चों का, लडक़े-लड़कियों का स्क्रीन टाइम घटाने की कोशिश करनी चाहिए।

पिछले दो बरस में कोरोना-लॉकडाउन की वजह से बहुत सी पढ़ाई-लिखाई ऑनलाईन हुई है, और पढ़ाई की जानकारी भी बच्चों को इंटरनेट पर तलाशनी पड़ी है। नतीजा यह हुआ है कि छात्र-छात्राओं की स्मार्टफोन या कम्प्यूटर तक पहुंच बढ़ी है, और इंटरनेट की सहूलियत मानो स्याही जितनी जरूरी हो गई। ऐसे में मां-बाप के बस में भी नहीं रहता है कि वे बच्चों को फोन या कम्प्यूटर से पूरे समय रोक सकें, क्योंकि उन पर यह निगरानी भी नहीं रखी जा सकती कि वे पढ़ाई कितनी देर कर रहे हैं, और वीडियो गेम, या वयस्क वीडियो पर कितना समय लगा रहे हैं। वीडियो गेम की वजह से हुई हत्या और आत्महत्या की खबरें अधिक रहती हैं, लेकिन लोगों को याद होना चाहिए कि कुछ महीने पहले ही छत्तीसगढ़ के एक संयुक्त परिवार में एक छोटी सी बच्ची के साथ परिवार के ही पांच-सात नाबालिग लडक़ों ने सेक्स-वीडियो देख-देखकर बलात्कार किया था, और फिर परिवार के लोग ही पुलिस तक पहुंचे थे। इंटरनेट पर बिखरी हुई सनसनी के साथ जीना सीखने में पता नहीं हिन्दुस्तानी समाज के बच्चे कितना वक्त लेंगे। आज तो हालत यह है कि पश्चिम की गोरी चमड़ी के सेक्स-वीडियो से अधिक उत्तेजना देने वाले देसी वीडियो बड़ी रफ्तार से बाजार पर कब्जा कर रहे हैं, और हिन्दुस्तानियों की सेक्स-कल्पनाओं को पंख मुहैया करा रहे हैं।

स्मार्टफोन और कम्प्यूटरों ने किताबों को धकेलकर फुटपाथ पर कर दिया है, और खुद रोजाना की जिंदगी के हाईवे पर तेजी से दौड़ रहे हैं। यह सिलसिला बच्चों के बोलना भी सीखने के पहले से शुरू हो रहा है, और लोगों के वयस्क या अधेड़ हो जाने तक भी चल रहा है। तमाम जिंदगी तो किसी को न रोका जा सकता, न सिखाया जा सकता, लेकिन छोटे बच्चों को तो किसी भी तरह की स्क्रीन से परे रखने के लिए पूरे परिवार को कोशिश करनी चाहिए, ताकि उसकी बुनियाद ही एक स्क्रीन का कैदी होकर न डले। इसके लिए परिवार के लोगों को बच्चों के लिए वक्त निकालना चाहिए, और बच्चों को ऐसी स्थितियों में रखना चाहिए जहां किसी भी तरह की स्क्रीन उनके सामने ही न आए, या आसपास स्क्रीन रहे भी, तो भी उसकी बजाय कुछ दूसरी अधिक आकर्षक चीजों में बच्चों को उलझाकर रखा जाए। यह मुद्दा बहुत से लोगों को महत्वहीन लग सकता है, और यह भी लग सकता है कि बच्चे तो इसी तरह बड़े होते हैं, लेकिन इस तरह बड़े होते हुए बच्चे कल्पनाशून्य होने लगते हैं, और कई मामलों में वे हिंसक भी होने लगते हैं। इसलिए इस समस्या को मामूली या कम खतरनाक मानकर चलना एक गलती होगी।
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