संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सुरक्षाबलों के हाथों बेकसूर मौतें, साल भर में चार्जशीट!
12-Jun-2022 3:57 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सुरक्षाबलों के हाथों बेकसूर मौतें, साल भर में चार्जशीट!

नगालैंड में दिसंबर 2021 में भारतीय सेना के एक मुहिम के दौरान 13 बेकसूर नौजवानों को गोलियों से भून दिया गया था, जिनमें से आधे तो नाबालिग ही थे। सारे के सारे निहत्थे थे, और एक जगह से मजदूरी करके लौट रहे थे, थलसेना की पैरा स्पेशल फोर्स ने इन कोयला खदान मजदूरों की पहचान भी नहीं की, और उनकी गाड़ी पर अंधाधुंध गोलियां चलाईं। अब नगालैंड पुलिस की एसआईटी ने अदालत में चार्जशीट फाईल की है जिसमें सेना के एक मेजर, दो सूबेदार, आठ हवालदार, चार नायक, छह लांस नायक समेत कुल तीस लोगों के खिलाफ जुर्म पेश किया गया है। पुलिस ने यह भी कहा है कि घातक लगाकर किए गए इस हमले में गलत पहचान के चलते बेकसूर मजदूर मार डाले गए थे।

सुरक्षा बल जब विपरीत और दबावपूर्ण परिस्थितियों में काम करते हैं, तो उनसे कई बार ऐसी चूक होती है, और कई बार वे दुस्साहस या अतिआत्मविश्वास में भी ऐसी कार्रवाई कर बैठते हैं क्योंकि जिन इलाकों में लगातार बंदूकों की तैनाती रहती है, वहां पर सुरक्षा बलों के हाथों हिंसा के मामले होते ही रहते हैं। कश्मीर हो, उत्तर-पूर्व, या कि बस्तर जैसे नक्सली इलाके, यहां पर राज्य और केंद्र के सुरक्षा बल तरह-तरह से मानवाधिकार भी कुचलते रहते हैं, कत्ल और बलात्कार जैसे जुर्म भी करते रहते हैं, और बंदूक की ताकत का बाकी हर किस्म का बेजा इस्तेमाल भी आम बात रहती है। मध्यप्रदेश में इंदौर के पास मऊ नाम की जगह पर सेना का बड़ा प्रशिक्षण केंद्र है, और हर साल दो साल में प्रशिक्षण केंद्र से निकलकर सैनिक शहर में जाते हैं, और स्थानीय पुलिस के साथ उनकी झड़प होती है, और यह पुलिस अफसरों का जिम्मा रहता है कि वे मामले को रफा-दफा करें। ऐसा टकराव रेल्वे स्टेशन और रेलगाडिय़ों में भी कई बार देखने मिलता है जब सैनिक समूहों में सफर करते हैं, और वे आम मुसाफिरों को उठाकर बाहर फेंक देते हैं, और पूरे डिब्बों पर कब्जा कर लेते हैं। मोटेतौर पर देखें तो भीड़ की जैसी मानसिकता आम जनता की हिंसक भीड़ में हो जाती है, वैसी ही मानसिकता सिपाहियों या सैनिकों के समूह की भी हो जाती है कि उनकी नजरों में कानून की कोई कीमत नहीं रह जाती है।

छत्तीसगढ़ का बस्तर लंबे समय से सुरक्षा बलों की ऐसी बददिमागी का गवाह और शिकार रहा है। यहां भी राज्य पुलिस के कुख्यात बड़े अफसरों की लीडरशिप में राज्य और केंद्र के सुरक्षा बलों ने गांव के गांव जला दिए, दसियों हजार लोग बेदखल हो गए, और पुलिस अफसर खुलेआम यह बोलते घूमते रहे कि बस्तर में उसी को जिंदा रहने का हक है जिसका जिंदा रहना वे जरूरी समझते हैं। ऐसे लंबे रिकॉर्ड वाले अफसरों का भी न तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कुछ बिगाड़ पाया, और न ही सुप्रीम कोर्ट। जब सुरक्षा बलों के खिलाफ कार्रवाई की नौबत आती है, तो सत्तारूढ़ नेताओं को यह समझा दिया जाता है कि अगर वर्दी के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी, तो आगे जाकर दूसरे वर्दीधारी लोग खतरे उठाना बंद कर देंगे। ऐसे तर्क आतंक के दिनों में पंजाब में केपीएस गिल के वक्त भी दिए गए थे जब बड़े पैमाने पर मानवाधिकार हनन हुआ था और बेकसूरों को मारा गया था। पूरी दुनिया में बेकसूरों की ऐसी मौतों को हत्या मानने के बजाय उन्हें कोलैटरल डैमेज मान लिया जाता है कि मानो गेंहू के साथ घुन भी पिस गया हो। हकीकत यह है कि सत्तारूढ़ राजनेताओं की यह मजबूरी सी हो जाती है कि वे अपने सुरक्षा कर्मचारियों की गलती, या गलत काम को बचाने की कोशिश करें, क्योंकि ऐसा न करने पर जिम्मेदारी की आंच उन पर भी तो आएगी।

लेकिन किसी लोकतंत्र की परिपच्ता इसी में रहती है कि वह अपने भीतर होने वाली गलतियों, और गलत कामों को कितना खुलकर मंजूर करता है, और उन पर सुधार की क्या कार्रवाई करता है। अगर किसी सुरक्षा बल के लोगों की ज्यादती पर कार्रवाई होती रहे, तो उस सुरक्षा बलों के हाथों बड़ी हिंसा होने का खतरा भी घटते चलता है। लेकिन जब कश्मीर में फौज का एक अफसर जीप के सामने एक स्थानीय कश्मीरी को बांधकर पथराव के बीच से निकलने के लिए उसे मानव-कवज की तरह इस्तेमाल करता है तो ऐसे सुरक्षा बल स्थानीय लोगों की सारी हमदर्दी भी खो बैठते हैं। आज हिंदुस्तान में जगह-जगह केंद्रीय सुरक्षा बल और राज्यों की पुलिस का जैसा साम्प्रदायिक और जातिवादी दिमाग बनाया जा रहा है, उसके चलते समाज के एक तबके का उस पर से भरोसा उठ गया है, और अपने देश के भीतर भी ऐसे सुरक्षा बल बिना जनसमर्थन वाले परदेश की तरह रह जाते हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी हमारा देखा हुआ है कि सुरक्षा बलों से स्थानीय आदिवासियों की कोई हमदर्दी नहीं रह जाती, और पुलिस और प्रशासन अपनी गलती मानने के बजाय इसे नक्सलियों का असर करार देते हैं।

हमारा ख्याल है कि सुरक्षा बलों के हाथों जब कभी ऐसी हिंसा होती है, तो उसकी जांच, और उस पर कार्रवाई के लिए एक बहुत पारदर्शी और समयबद्ध इंतजाम होना चाहिए। बस्तर में हिंसा की शिकार पीढिय़ां गुजरी जा रही हैं, और कुसूरवार आलाअफसरों या बाकी वर्दीधारियों पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही। नगालैंड में स्थानीय पुलिस ने यह अच्छा काम किया है कि साल भर के भीतर ही अदालत में चार्जशीट पेश कर दी है। इससे उत्तर-पूर्वी राज्यों की यह मांग भी मजबूत होगी कि सेना के बचाव के लिए बनाए गए विशेष अफ्पसा कानून को खत्म किया जाए। नगालैंड पुलिस के मौजूदा डीजीपी टीजे लांगकुमेर लंबे समय तक छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी रहे हैं, और उनके दौरान भी बस्तर में पुलिस ज्यादती के कई मामले सामने आए थे। आज राज्य के पुलिस मुखिया की हैसियत से उन्होंने नगालैंड में तेजी से कार्रवाई की है,  क्या छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी भी अपने प्रदेश की सरकार से ऐसी किसी तेज कार्रवाई की उम्मीद कर सकते हैं? या फिर उन्हें सिर्फ नक्सल समर्थक होने की तोहमत झेलनी पड़ेगी?
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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