संपादकीय
दिल्ली में पिछले बरस शाहीन बाग आंदोलन को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया है कि सार्वजनिक जगहों को किसी प्रदर्शन के लिए बेमुद्दत नहीं घेरा जा सकता। यह प्रदर्शन नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ पुरानी दिल्ली के बीच व्यस्त इलाके में चल रहा था, और महीनों तक चलते रहा। इसी आंदोलन का चेहरा बनी एक बुजुर्ग महिला को ‘टाईम’ पत्रिका ने पिछले बरस के सौ सबसे प्रभावशाली लोगों में से एक चुना है। यह आंदोलन कई मायनों में अनोखा रहा, महीनों तक चलते रहा, आरोप झेलते रहा, उकसावे और भडक़ावे पर भी इसने आपा नहीं खोया, पूरी तरह अहिंसक रहा, और मोटेतौर पर मुस्लिम समुदाय के लोगों के इस आंदोलन का साथ देने के लिए देश के बाकी दूसरे सभी समुदायों के लोग पहुंचे, और एक वक्त तो ऐसा भी हुआ कि इन्हें खाना खिलाने का काम सिक्ख बिरादरी कर रही थी। यह बात सही है कि इससे आसपास के रास्ते बंद हुए थे, और आवाजाही बंद होने से इर्द-गिर्द के लोगों का कारोबार, उनकी जिंदगी भी प्रभावित हुए ही होंगे। यह आंदोलन खत्म हो चुका है, हालांकि इसका मुद्दा खत्म नहीं हुआ है। यह आंदोलन तमाम किस्म की तोहमतें झेलते हुए चलते रहा, और इन्हें कभी राष्ट्रविरोधी करार दिया गया, तो कभी विदेशी पैसों पर पलने वाले गद्दार कहा गया, लेकिन गांधी के आंदोलन की तरह इस आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत इसकी अहिंसा रही, जिसने एक हाथ भी नहीं उठाया।
शाहीनबाग का आंदोलन कोई स्थाई ढांचा नहीं था। और लोकतंत्र में आंदोलन सार्वजनिक जगहों पर ही होते हैं। पश्चिम बंगाल एक ऐसा राज्य है जहां वामपंथियों से लेकर ममता बैनर्जी तक की एक-एक सभा में 10-10 लाख लोग भी मौजूद रहते आए हैं, और ऐसी हर सभा वहां सडक़ पर ही होती है क्योंकि कोई मैदान तो इतना बड़ा होता नहीं है। देश के हर प्रदेश में जब जिस राजनीतिक दल या धार्मिक, जातीय संगठन की जितनी ताकत होती है, उतना बड़ा, उतना लंबा प्रदर्शन होता है, और इसी देश में हमने महीनों तक पटरियों पर धरना देखा है जिससे रेलगाडिय़ां बंद करनी पड़ी थीं। कई जगहों पर कई-कई दिन तक सडक़ें बंद कर दी जाती हैं, और आंदोलन से जिंदगी में कुछ रूकावट पैदा होना कोई अनहोनी नहीं है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से शाहीनबाग का आंदोलन न तो गैरकानूनी साबित हुआ है, और न ही गलत साबित हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने एक स्थापित सत्य को ही लिखा है कि सार्वजनिक जगहों पर आंदोलन अंतहीन नहीं चल सकते, और प्रशासन इन पर कार्रवाई कर सकता है। अदालत ने एक पुराना स्थापित सिद्धांत भी दुहराया है कि लोकतांत्रिक अधिकार जिम्मेदारियों के साथ ही आते हैं, और सार्वजनिक जगहों को लेकर आंदोलनकारियों की भी एक जिम्मेदारी बनती है।
बात सही है, और शाहीनबाग का आंदोलन भी सही था, और सार्वजनिक जगह पर इसे अंतहीन न चलने देना भी सही है। लोकतंत्र एक लचीली व्यवस्था है जिसके भीतर तरह-तरह के आंदोलनों की गुंजाइश है। ऐसे आंदोलनों में कानून न सही स्थानीय नियम कभी-कभी टूटते हैं, और भला कौन सी ऐसी पार्टी है, कौन से ऐसे नेता हैं जिन पर आंदोलनों में नियम तोडऩे के मामले मुकदमे दर्ज न हुए हों? अभी राहुल और प्रियंका गांधी जिस तरह पुलिस इंतजाम के बीच से हाथरस जाने की कोशिश कर रहे थे, उनके खिलाफ भी यूपी पुलिस ने कई किस्म के मामले दर्ज किए हैं, जिनमें से एक दफा महामारी के बीच भीड़ जुटाने की भी है। दूसरी तरफ मध्यप्रदेश में रोजाना ही सत्तारूढ़ भाजपा की भीड़ दिखाई पड़ती है, और जिस राज्य में जिसकी लाठी रहती है वे सार्वजनिक जीवन की भैंस को अपने हिसाब से हांकते हैं। लेकिन सत्ता और राजनीति से परे भी सार्वजनिक जगहों के बारे में कुछ सोचने की जरूरत है।
जिस अमरीका में लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर लोगों में एक दीवानापन है, जहां लोग मास्क पहनने के बजाय उसे जलाना अपना बुनियादी संवैधानिक हक मानते हैं, और उसका इस्तेमाल करते हैं, वहां पर सार्वजनिक जगहों को लेकर एक मतभेद चलते ही रहता है। वहां बहुत से बाग-बगीचों में बेघर लोग डेरा डाल लेते हैं, और फिर वहां से हिलते ही नहीं। ऐसे में वहां कई बार यह बहस छिड़ती है कि सार्वजनिक जगहों पर पहला हक किसका? जिस इस्तेमाल के लिए जगह बनी है वह इस्तेमाल करने वाले नागरिकों का, या फिर जिनके पास घर नहीं है उनके बसने का? अलग-अलग राज्यों में, अलग-अलग शहरों में वहां पर अलग-अलग सोच के लोग हैं, और जहां वामपंथी रूझान के लोग हैं, या जहां उदार लोकतांत्रिक सोच है वहां लोग सार्वजनिक जगहों पर वंचित तबके का पहला हक मानते हैं, वे मानते हैं कि घर-बार वाले लोगों का बाग-बगीचों में घूमना उतना जरूरी नहीं है जितना जरूरी बेघर लोगों का ठहरना है। इस बात की चर्चा हम शाहीनबाग के संदर्भ में नहीं कर रहे हैं, बल्कि सार्वजनिक जगहों के तरह-तरह के इस्तेमाल की जिम्मेदारी, और इस्तेमाल के हक की विविधता बताने के लिए एक मिसाल के रूप में कर रहे हैं। हिन्दुस्तान में ऐसा ही चौराहों पर भीख मांगने, या सामान बेचने वाले लोगों के लिए सोचा जाता है कि ट्रैफिक के बीच यह काम उनका हक है, या उन्हें इस काम से रोकना चाहिए? फुटपाथ पर जीने वाले, या रेलवे प्लेटफार्म पर जीने वाले लोगों को हटाया जाना चाहिए, या किसी भी सरकारी जगह पर सिर छुपाने का उनका हक सरकार के हटाने के हक से अधिक बड़ा है? ऐसी कई बातें सार्वजनिक जीवन को लेकर सामने आती हैं, और कोई सभ्य और लोकतांत्रिक समाज इन पर गौर किए बिना नहीं रहता। जो समाज जितना अधिक सभ्य रहता है, वह अपने बीच के वंचितों के मुद्दों पर उतना ही अधिक गौर करता है। और जो समाज जितना असभ्य, अपरिपक्व, और अलोकतांत्रिक रहता है, वह अपने बीच के वंचितों को एक आम नागरिक या इंसान मानने से भी मना कर देता है, और उन्हें संपन्न और संचित समाज की नजरों से भी दूर रखने की कोशिश करता है। यह महज मोदी का गुजरात नहीं था जहां ट्रंप के आने पर सडक़ किनारे की झोपड़पट्टियों को छुपाने के लिए ऊंची दीवार ही खड़ी कर दी गई थी, जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉन मेजर बंगाल आए थे, तो वहां की वामपंथी सरकार ने भी राजधानी कोलकाता से लाखों भिखारियों और बेघर लोगों को सार्वजनिक फुटपाथ से हटाकर शहर के बाहर कर दिया था। इसलिए राजनीतिक सोच एक किस्म की हो सकती है, और उसी पार्टी की सरकार की सरकारी सोच एक अलग किस्म की हो सकती है। कुल मिलाकर सार्वजनिक जीवन में, सार्वजनिक जगहों पर आम लोगों या आंदोलनकारियों के अधिकार कैसे रहें, कितने रहें, दूसरे लोगों के मुकाबले कम रहें, या ज्यादा रहें, इन तमाम बातों पर उस देश-प्रदेश की सरकारों और वहां के समाज को सोचना पड़ता है, सोचना चाहिए।
हमारा तो यह मानना है कि शाहीनबाग के आंदोलन में 21वीं सदी में गांधी के अहिंसक आंदोलन की मिसाल को एक बार फिर जिंदा किया, और देश के बाहर की एक पत्रिका ने उस आंदोलन की ताकत को पहचाना, उसका सम्मान किया। इस जगह पर यह लिखना अप्रासंगिक नहीं होगा कि इसी पत्रिका के इसी अंक की इसी लिस्ट में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी सबसे असरदार लोगों में छांटा गया है, लेकिन उन्हें छांटने की वजहों में इस पत्रिका ने उनके बारे में जितनी नकारात्मक बातें लिखी हैं, उनसे लगता है कि खुद मोदी यह सोच रहे होंगे कि खलनायक साबित करने के लिए इस पत्रिका को क्या वे ही मिले थे? जब मोदी और शाहीनबाग आंदोलन की 80 बरस की आंदोलनकारी बिल्किस बानो दोनों को एक फेहरिस्त में साथ रखा गया है, तो लोगों को यह भी सोचना चाहिए कि एक सार्वजनिक जगह पर 101 दिन चले आंदोलन के बाद भी इस पत्रिका को यह महिला नायिका लगी। किसी सार्वजनिक जगह के इस्तेमाल को, उसके पीछे की नीयत को देखे बिना उसे सही या गलत करार नहीं दिया जा सकता। जम्मू में एक खानाबदोश बच्ची के साथ मंदिर में पुजारी और पुलिस समेत ढेर लोगों द्वारा किए गए बलात्कार और कत्ल के बाद भी उन्हें बचाने के लिए उनके हिमायती लोगों ने जिस तरह तिरंगा झंडा लेकर सडक़ों पर जुलूस निकाले थे, वे जुलूस शायद कुछ घंटों के ही रहे होंगे, लेकिन वे इस देश के सार्वजनिक जगह पर शाहीनबाग के मुकाबले लाख गुना अधिक बोझ थे। शाहीनबाग तो इस देश के लोकतंत्र का सम्मान बढ़ाने वाला आंदोलन था, और कोई अदालत इस बात का जिक्र अपने फैसले में करे, या न करे, यह तो उस जज, या उस बेंच की लोकतांत्रिक समझ की बात है, हम किसी जज के मुंह में अपने शब्द डालना नहीं चाहते, लेकिन इस फैसले पर लिखने के वक्त हम इस आंदोलन की खूबियों को याद करना जरूरी समझते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हाथरस में दलित युवती के साथ गैंगरेप के बाद उसे बुरी तरह जख्मी किया गया था जिससे अस्पताल में उसकी मौत हो गई थी। रात में ही पुलिस ने दिल्ली के अस्पताल से उसकी लाश ले ली थी, और उसके गांव ले जाकर घरवालों के कड़े विरोध के बावजूद खुद ही उसका अंतिम संस्कार कर दिया था। अब जब सुप्रीम कोर्ट इस मामले में एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है तो उत्तरप्रदेश सरकार वहां पर एक ऐसी फिल्मी कहानी सुना रही है जैसी इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाने के लिए उसके पहले सुनाई थी। इंदिरा गांधी ने भारत में अस्थिरता पैदा करने के लिए विदेशी ताकतों की साजिश की बात कही थी, और इसके पीछे विदेशी हाथ बताया था। आज यूपी के भाजपाई मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार अदालत को कुछ वैसी ही कहानी सुना रही है।
आज सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि इस युवती का अंतिम संस्कार रात में इसलिए किया गया क्योंकि युवती और आरोपी, दोनों के समुदायों के लाखों लोग राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ उसके गांव में इकट्ठा होंगे जिससे कानून व्यवस्था को लेकर बड़ी समस्या हो जाती। सरकार ने अदालत से कहा कि जातिगत विभाजन से उत्पन्न संभावित हिंसक स्थिति के अलावा दाह संस्कार जल्दी करने के पीछे कोई बुरा इरादा नहीं हो सकता।
उत्तरप्रदेश सरकार का यह हलफनामा पता नहीं सुप्रीम कोर्ट के जजों को कितना जंचेगा, हमको पहली नजर में यह फर्जी तर्कों से भरा हुआ एक गुब्बारा दिख रहा है जिसका वजन हवा के गुब्बारे जितना भी नहीं लग रहा। जिन लाखों लोगों के इकट्ठा होने की खुफिया सूचना की बात यूपी सरकार ने की है, उनमें से कुछ सौ लोग अगले दिन बलात्कार के आरोपियों के हिमायती होकर वहां के शायद एक भाजपा विधायक के घर पर इकट्ठा हुए थे, और पुलिस घेरे में बैठकर दलित परिवार को धमकियां देते हुए ऊंची कही जाने वाली जाति के एक नौजवान का वीडियो चारों तरफ घूम रहा है। इसके अलावा कोई तनाव वहां अभी तक नहीं हुआ है, बल्कि जिले की सरहद पर भी बाहर से मीडिया या चुनिंदा नेताओं-सांसदों के अलावा कोई पहुंचे हों ऐसी भी कोई खबर नहीं है।
यूपी सरकार के खिलाफ जो भी वकील वहां खड़े होंगे, वे इस बात को सामने रखें या नहीं, हमारी जैसी साधारण कानूनी समझ वाले लोगों को भी यह बात सूझ रही है कि हड़बड़ी में बंदूक की नोंक पर रातों-रात अंतिम संस्कार करने के पीछे सरकार की बहुत साफ बदनीयत यह थी कि उस लडक़ी का दुबारा पोस्टमार्टम न हो सके। पहले के पोस्टमार्टम के नमूने इकट्ठे करने में यूपी पुलिस ने कानून में निर्धारित समय के मुकाबले चार गुना अधिक समय लगाया ताकि बलात्कार के सुबूत ही जांच में न मिल सकें। इसके बाद यूपी पुलिस का एक सबसे बड़ा अफसर प्रेस कांफ्रेंस लेकर यह तर्क देता है कि उस लडक़ी के बदन से चूंकि वीर्य नहीं मिला, इसलिए उसके साथ बलात्कार नहीं हुआ। यह बात नहीं है कि उस पुलिस अफसर को इतनी कानूनी अक्ल नहीं थी, या इतनी कानूनी जानकारी हासिल नहीं थी कि बलात्कार को मानने के लिए किसी भी मेडिकल जांच की जरूरत नहीं है, बस लडक़ी का बयान काफी था। इसके बावजूद बलात्कार की शिकार इस लडक़ी का अपमान करते हुए, दलित समाज का अपमान करते हुए, घायल और दुखी परिवार को और चोट पहुंचाते हुए इस अफसर ने ऐसा घटिया और गंदा बयान दिया, सोच-समझकर दिया, और मीडिया का जो बड़ा हिस्सा इस बदनामी से यूपी सरकार को बचाने में लगा हुआ है उसने हाथोंहाथ इस बयान को लपका, और इसे दिखाते रहा।
अब जब पुलिस और सरकार इस मामले में बहुत बुरी तरह घिर चुके हैं, जब कांग्रेस पार्टी के राहुल और प्रियंका यूपी जाकर, पुलिस का सामना करके, उसकी धक्का-मुक्की झेलकर दुखी दलित परिवार में हमदर्दी दिखाकर लौट चुके हैं, देश के सोशल मीडिया के एक बड़े तबके में राहुल-प्रियंका की तारीफ हो रही है, तब यूपी सरकार डैमेज कंट्रोल की नीयत से एक नई साजिश की कहानी रचने में लग गई है। अब एक किसी फर्जी वेबसाईट का हवाला देते हुए यह कहानी गढ़ी जा रही है कि इस्लामी देशों के आतंकी संगठन इस मामले को लेकर यूपी सरकार पलटने के लिए साजिश रच रहे थे, और यूपी की पुलिस ने इस साजिश को पकड़ लिया है। ऐसी कहानी किसी छोटे बच्चे को भी भरोसा नहीं दिला पाएगी कि अनगिनत मुस्लिम लड़कियों या महिलाओं से बलात्कार, अनगिनत मुस्लिम हत्याओं के बाद भी ऐसे किसी इस्लामी आतंकी संगठन को यूपी सरकार पलटने की जरूरत नहीं लगी थी, और आज एक दलित लडक़ी की बलात्कार-हत्या पर इस्लामी आतंकी संगठन इतने विचलित हो गए हैं कि वे इसकी वजह से यूपी सरकार पलटने की आतंकी साजिश रच रहे हैं। दुनिया में ऐसे कौन से आतंकी संगठन है जो कि सरकार को पलटने की साजिश रचने के लिए ऐसी वेबसाईट बनाते हैं? और कौन से आतंकी संगठन है जिनका भरोसा सरकार को पलटने में होता है? देश के भीतर के नक्सली-संगठनों से लेकर अलकायदा और आईएएस तक कौन सा संगठन इतना बेवकूफ है कि वह यूपी की सरकार को पलटने की सोचेगा।
अब यह सुप्रीम कोर्ट पर है कि उसे ऐसी घटिया फिल्मी कहानी सरकार के जुर्म माफ करने लायक लगती है या नहीं जिस पर बॉलीवुड में भी योगी सरकार के प्रशंसक कोई फिल्म बनाने का दुस्साहस नहीं कर पाएंगे। यह सिलसिला योगी सरकार की गलतियों और गलत कामों दोनों को बढ़ाते चल रहा है। जब देश के सबसे बड़े प्रदेश का सबसे ताकतवर मुख्यमंत्री, अपनी पार्टी की केन्द्र सरकार के रहते हुए, देश में अपनी पार्टी सबसे ताकतवर रहते हुए भी ऐसी अधकचरी हरकतों में अपने अफसरों के साथ जुट गया है, तो वह और बड़ी शर्मिंदगी लेकर आने की बात है। सरकार ने तो यह बलात्कार किया नहीं था, आरोपों के मुताबिक ऊंची कही जाने वाली जाति के चार युवकों ने एक दलित युवती के साथ इसे किया था। यूपी सरकार के लिए समझदारी की बात यही हुई होती कि वह इसे अपनी एक नाकामयाबी मान लेती, और कड़ी कार्रवाई करती। उससे उस पर से आगे की तोहमतें तो नहीं आई होतीं। लेकिन जिस तरह पिघले गुड़ मेें फंस गई मक्खी निकलने के चक्कर में अपने आपको और फंसाते चलती है, उसी तरह यूपी की योगी सरकार इस दलदल में और गहरे धंसते जा रही है। इससे देश भर में दलितों के बीच एक अलग भावनात्मक ध्रुवीकरण की नौबत भी आई है, और यह भी नहीं कहेंगे कि भाजपा को इसके खतरे का बिल्कुल अहसास नहीं है। आने वाले दिनों में जख्मी दलितों का ध्रुवीकरण किस तरह चुनावी नतीजों को प्रभावित करता है यह तो देखने की बात रहेगी, लेकिन हम चुनाव से परे भी इंसानियत के नाते योगी सरकार को सुझाना चाहते हैं कि वह जख्मी परिवार और जख्मी बिरादरी के साथ तोहमतों के मार्फत बलात्कार जारी न रखे, और इंसानियत दिखाए।
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अमरीका के एक बड़े फौजी अस्पताल में कोरोना का इलाज करा रहे राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने आज सुबह एक अनोखा काम किया। वे अस्पताल से एक कार में निकले, और बाहर खड़े अपने समर्थकों की भीड़ की तरफ हाथ हिलाया, और वापिस अस्पताल चले गए। हाथ हिलाने की इस हरकत में वैसे तो एक मिनट लगा, लेकिन जानकार विशेषज्ञ डॉक्टरों का कहना है कि ऐसा करते हुए ट्रंप ने अपने सुरक्षा कर्मियों, और कार के ड्राइवर सबकी जिंदगी संक्रमण के खतरे में डाल दी। इस अस्पताल में जरूरत पर बुलाए जाने वाले एक विशेषज्ञ डॉक्टर ने अपने नाम से ट्रंप की इस हरकत को पागलपन करार दिया है। लोगों को याद होगा कि ट्रंप के करीबी दायरे में अभी कई लोग कोरोना पॉजिटिव निकले हैं, और उनकी भतीजी ने अभी यह कहा है कि अमरीका कोरोना के मोर्चे पर इस बुरे हाल में इसलिए है कि उसके चाचा बीमारी को माफ न करने लायक कमजोरी मानते हैं।
ट्रंप की यह हरकत लोगों को चाहे कितनी गैरजरूरी लग रही हो, यह उनकी एक चुनावी जरूरत हो सकती है क्योंकि अमरीका चुनाव प्रचार से गुजर रहा है, और टं्रप उम्मीदवार हैं। दूसरी बात यह भी कि चुनाव के महीनों में अमरीका में रोज होने वाले सर्वे में ट्रंप अपने विरोधी डेमोक्रेट उम्मीदवार से खासे पिछड़ते भी दिख रहे हैं। ट्रंप के इतने बरसों के बयान पढ़ें, तो वे अहंकार में डूबे हुए महत्वोन्मादी के बयान लगते हैं जो कि पागलपन की हद तक आत्मकेन्द्रित है। ट्रंप एक निहायत असामान्य दिमागी हालत के इंसान दिखते हैं, लेकिन अमरीका ने उनके ऐसे ही दिखते हुए उन्हें पहली बार राष्ट्रपति चुना था, और आज ऐसी कोई वजह नहीं दिखती कि उनकी कम से कम ऐसी किसी बात की वजह से अमरीकी वोटर उन्हें खारिज करें। वे कुख्यात बदचलन थे, महिलाओं के लिए उनके मन में परले दर्जे की घटिया हिकारत थी, आज भी है, लेकिन वोटरों ने उन्हें चुना था। इसलिए आज वे अपने आपको बीमारी के शिकंजे से बाहर दिखाने के लिए, अपने प्रशंसकों और भक्तों को खुश करने के लिए, उनका आत्मविश्वास बनाए रखने के लिए अगर अस्पताल के बिस्तर पर पूरी तरह आइसोलेशन में रहने के बजाय वहां से निकलकर ऐसी मटरगश्ती कर रहे हैं, तो यह उनके मिजाज के माफिक बात ही है, इसमें किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए।
हमारा ख्याल है कि अमरीकी राष्ट्रपति तो अपनी अहमियत की वजह से इस बात को लेकर खबरों में अधिक आ गए हैं, वरना हम हिन्दुस्तान को देखें जहां महामारी का कानून बहुत कड़ी सजा का इंतजाम लिए बैठा है, यहां भी बड़े और छोटे सभी किस्म के नेता, और दूसरी ताकतों वाले लोग नियमों के लिए, संक्रमण की सावधानी के लिए इसी किस्म की लापरवाही दिखा रहे हैं, और हिकारत दिखा रहे हैं। हिन्दुस्तान में नेता और अफसर कदम-कदम पर नियमों को तोड़ते दिख रहे हैं, जिनके हाथ में पैसों की ताकत है वे महामारी के बीच भी, लॉकडाउन के चलते हुए भी पार्टियां कर रहे हैं, शराबखाने चला रहे हैं, और उन्हें किसी किस्म का कोई डर भी नहीं है।
जिस वक्त कोरोना शुरू हुआ, उस वक्त भी हिन्दुस्तान का तजुर्बा यही है कि इसे पासपोर्ट वाले बाहर से लेकर आए, और यहां राशन कार्डवालों को थमा दिया। यह अमीरों की लाकर गरीबों को दी गई बीमारी है, जिसका हिन्दुस्तान के बाहर से आना ही रिकॉर्ड में दर्ज है। लोगों को याद होगा कि यही ट्रंप, अपने इसी महत्वोन्माद के चलते हुए, ऐसे ही चुनाव प्रचार की नीयत से हिन्दुस्तान के गुजरात में मोदी के न्यौते पर आया, और अमरीका में बसे प्रवासी हिन्दुस्तानियों के समर्थन की अपील करते हुए लौटा। लेकिन इस अकेले कार्यक्रम, नमस्ते ट्रंप, की वजह से गुजरात और अहमदाबाद में कोरोना आसमान तक पहुंचा, और देश में सबसे बुरी हालत इसी एक शहर में हुई। वह पूरा जलसा गैरजरूरी था, उस भीड़ की मौजूदगी लोगों पर खतरा थी, उस एक कार्यक्रम के लिए अमरीका से दसियों हजार लोग पहुंचे थे, और लोगों ने लगातार हिन्दुस्तानी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इस कार्यक्रम को रद्द करने के लिए कहा था। लेकिन दुनिया के सबसे ताकतवर ओहदे पर बैठे हुए ट्रंप के साथ ऐसा घरोबा दिखाने का मौका मोदी भी नहीं छोड़ पाए, और उन्होंने हिन्दुस्तान के अनगिनत लोगों की राय और चेतावनी अनसुनी और खारिज कर दी, और यह कार्यक्रम किया। वह भी ट्रंप के चुनाव अभियान का हिस्सा कहा गया, और अभी जब वे अस्पताल के बिस्तर से निकलकर समर्थकों को दर्शन देकर लौटे, तो भी पूरी दुनिया के सामने यह साफ है कि वे चुनाव प्रचार कर रहे थे।
आज दुनिया के जिन देशों में शासन-प्रमुख तानाशाही मिजाज के हैं, जहां वे अकेले फैसले लेते हैं, वहां पर कोरोना का नुकसान सबसे अधिक हुआ है। जहां मुखिया ने विशेषज्ञों की बात नहीं सुनी, जानकारों की चेतावनी नहीं सुनी, लोगों की सलाह नहीं सुनी, वहां पर नुकसान सबसे अधिक हुआ है। ऐसे आधा दर्जन देशों में अमरीका का नाम भी गिना जाता है, और हिन्दुस्तान का भी।
यह बात जाहिर है कि किसी भी जगह के डॉक्टर अस्पताल में भर्ती मरीज को इस तरह का कार का फेरा लगाने की छूट तो दे नहीं सकते, और यह बात राष्ट्रपति की मनमानी के सिवाय और कुछ नहीं हो सकती। लेकिन अपने समर्थकों के बीच हाथ हिलाने, हाथ हिलाते हुए तस्वीरें खिंचवाने, और उसे फैलाकर चुनावी या राजनीतिक फायदा पाने के मिजाज से संक्रामक रोग का खतरा कितना बढ़ रहा है, आसपास के लोग कितने खतरे में पड़ रहे हैं, इसे लेकर अमरीकी मीडिया कुछ मिनटों के भीतर ही ट्रंप के पीछे लग गया है। सबसे ऊंचे ओहदे पर बैठे इंसान की लापरवाही की मिसाल नीचे चारों तरफ लोगों को लापरवाह करेगी, यह तय है। और यह बात महज अमरीका पर लागू नहीं होती, दुनिया के तमाम देश, और उनके प्रदेशों पर भी बराबरी से लागू होती है।
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आज उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, और छत्तीसगढ़ में बलात्कार की वारदातें एक के बाद एक सामने आ रही हैं, और उन्हें लेकर बहुत चर्चा भी हो रही है कि किस तरह ऊंची जाति या सत्ता की ताकत से ये बलात्कार हो रहे हैं, या बलात्कारी बच रहे हैं। ऐसे में पूरे देश के जिम्मेदार और संवेदनशील लोग भडक़े हुए हैं, वे आहत हैं, तनाव में हैं, और सोशल मीडिया पर लगातार अपनी सोच लिख भी रहे हैं। ऐसे में उत्तरप्रदेश का एक भाजपा विधायक सुरेन्द्र सिंह लगातार ऐसे बयान दे रहा है जो उसे विधायक तो दूर, मतदाता भी बनाए न रखने के लायक साबित कर रहे हैं। उसका एक वीडियो अभी सामने आया है जिसमें वह हाथरस की इस दलित लडक़ी के साथ गैंगरेप और उसकी हत्या, और उसे सरकारी बंदूकों की नोंक पर रफा-दफा करने की पूरी कोशिश के बाद भी यह कह रहा है कि सरकार और तलवार मिलकर भी बलात्कार नहीं रोक सकते, और मां-बाप अपनी लड़कियों को संस्कार दें तो ही बलात्कार रोके जा सकते हैं। जिस व्यक्ति की इंसानियत की समझ ऐसी हैवानियत भरी हुई हो वह उत्तरप्रदेश में कानून निर्माता विधायक है। इसी विधायक का दूसरा वीडियो सामने आया है जिसमें वह बलात्कार की किसी दूसरी वारदात को लेकर पूछे गए सवालों के जवाब में मीडिया से ही बार-बार पूछ रहा है कि क्या तीन-चार बच्चों की किसी मां से भी कोई बलात्कार करेगा? और यह बात वह अपने खुद के शादीशुदा होने की बात कहते हुए अपने तजुर्बे के साथ, और दावे के साथ कह रहा है।
क्या देश में मौजूदा कानूनों में से कोई भी ऐसी घटिया, नाइंसाफ, और हिंसक सोच रखने वाले को विधानसभा की सदस्यता से हटाने के लिए नहीं हैं? अगर नहीं हैं, तो यह लोकतंत्र कमजोर है। ऐसे आदमी से मतदान का हक भी छीनना चाहिए क्योंकि वह तो बलात्कारी को वोट देगा क्योंकि गुनहगार तो संस्कारहीन लड़कियां होंगी, या कुछ बच्चों की मां बन चुकी ऐसी महिला होगी जो कि बलात्कार का झूठा आरोप ही लगा सकती है क्योंकि वह तो बलात्कार के लायक रह नहीं गई है।
हैरानी इस बात पर भी होती है कि ऐसे खुले वीडियो इस आदमी की ऐसी बातें पहली बार नहीं बता रहे हैं, पहले भी यह ऐसी ही हिंसक और बेइंसाफ बातें कहते आया है, और देश-प्रदेश के महिला आयोग सुविधाओं की मलाई का कटोरा चट करते हुए ऐसे लोगों को कोई नोटिस तक नहीं भेजते हैं। अभी बहुत समय बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट इंसाफ के लिए एक पहल करते दिखा जिसमें उसने हाथरस के गैंगरेप, हत्या, और उसके बाद पुलिस गुंडागर्दी से परिवार बिना उसके अंतिम संस्कार को लेकर सरकार से जवाब मांगा है, और जुड़े हुए अफसरों को अदालत में पेश होने कहा है। कानून की शून्य समझ वाले, यूपी के कानून-व्यवस्था के एडीजी को भी अदालत में नोटिस भेजकर बुलाया है, जिसने प्रेस कांफ्रेंस लेकर यह घोषणा की थी कि इस दलित युवती के बदन में वीर्य नहीं मिला है, इसलिए उसके साथ बलात्कार नहीं हुआ है। यह देश के कानून के ठीक खिलाफ बात थी, और हाईकोर्ट ने शायद इस बात को लेकर पेश होने कहा है। हमारा ख्याल है कि यूपी के इस भाजपा विधायक सुरेन्द्र सिंह की बातें संविधान के जितने खिलाफ हैं, इंसानियत और इंसाफ के जितने खिलाफ हैं, इस विधायक की भी पेशी होनी चाहिए, और कहीं न कहीं से यह बात उठनी चाहिए कि संविधान और इंसानियत के खिलाफ हिंसक बातें संसद या विधानसभा की सदस्यता खत्म करने के लिए काफी बनाई जाएं।
यूपी वह राज्य है जहां पहले भी कई सांसद और विधायक, मंत्री और भूतपूर्व मंत्री बलात्कार के मामलों में फंसे हुए हैं, और न सिर्फ बलात्कार, बल्कि बलात्कार के बाद शिकार लडक़ी के परिवार के लोगों को, वकील को मार डालने के मामलों में भी घिरे हुए हैं। ऐसे राज्य में जब सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक ऐसी भयानक हिंसक बातें करते हैं, तो उनसे बलात्कारियों को ही बढ़ावा मिलता है।
लोगों को याद होगा कि उत्तरप्रदेश के एक भूतपूर्व मंत्री आजम खां ने बलात्कार की शिकार एक लडक़ी की शिकायत को राजनीति कहा था, तो सुप्रीम कोर्ट ने उसे कटघरे में खड़ा करके तब तक मजबूर किया था जब तक उसने अपनी उगली हुई ऐसी तमाम हिंसक बातों को वापिस नहीं निगला था, थूके हुए को चाटा नहीं था तब तक अदालत ने उसे बेबस किया था। यह उसी उत्तरप्रदेश का एक दूसरा मामला है जिसमें एक विधायक लगातार इसी तरह की महिलाविरोधी बकवास कर रहा है, हिंसक बातें कर रहा है, और बलात्कारियों को बेकसूर साबित कर रहा है। ऐसी हिंसक बकवास को अनसुना करना ठीक नहीं है, इसे जेल भेजना चाहिए, और इसके लिए हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट को खुद होकर मामला शुरू करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले कुछ महीनों से इस देश की मीडिया का सबसे बड़ा हिस्सा मुम्बई के एक अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत को समर्पित रहा। पहली नजर में यह जाहिर तौर पर खुदकुशी का मामला था, लेकिन सुशांत के चुनाव के मुहाने पर खड़े बिहार का होने की वजह से बिहार सरकार इस मौत की जांच में कूद पड़ी, और जब कानूनी रूप से महाराष्ट्र उसका क्षेत्राधिकार नहीं बना तो बिहार सरकार के अनुरोध पर एक अटपटे तरीके से केन्द्र सरकार ने सीबीआई की जांच शुरू करवा दी। अब सीबीआई-जांच के दौरान देश के सबसे बड़े अस्पताल, केन्द्र सरकार के एम्स के डॉक्टरों के एक पैनल ने यह राय दी है कि सुशांत के परिवार और उसके वकीलों का यह आरोप गलत पाया गया है कि सुशांत को जहर दिया गया था, और गला दबाकर मारा गया था। एम्स के दिग्गज डॉक्टरों के पैनल ने सीबीआई को अपनी मेडिको-लीगल राय देकर अपने पास यह केस बंद कर दिया है। इन डॉक्टरों ने मुम्बई के सरकारी अस्पताल के पोस्टमार्टम से सहमति जताई है।
अब जब देश के इस सबसे बड़े, और केन्द्र सरकार के मातहत इस अस्पताल की यह राय आ गई है तो कई सवाल खड़े होते हैं। एक साधारण मौत के मामले में राज्य सरकार के जांच के अधिकार को कुचलते हुए जिस तरह केन्द्र सरकार ने सीबीआई जांच शुरू की थी, वह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में चल ही रहा है, और वहां से क्षेत्राधिकार का मुद्दा तय होना बाकी है। केन्द्र और राज्य के बीच सीबीआई जांच को लेकर टकराव नया नहीं है, और छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल जैसे कई राज्य हैं जिन्होंने सीबीआई के आकर राज्य में जांच करने के अधिकार वापिस ले लिए हैं। अब राज्य सरकार की मर्जी के बिना, उसकी अनुमति के बिना सीबीआई राज्य के दायरे में आने वाले अपराधों या मामलों की जांच नहीं कर सकती। अभी भी सुशांत राजपूत की मौत की जांच को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आना बाकी है कि इस या ऐसे दूसरे मामलों में क्षेत्राधिकार किसका होगा।
अब सवाल यह उठता है कि जहां एक राज्य सरकार का पूरा-पूरा अधिकार था, और उसकी पूरी-पूरी जिम्मेदारी थी, वहां उसे अलग करने के लिए एक इतना बड़ा बवाल खड़ा किया गया जिसने पूरे देश के लोगों का ध्यान देश के जलते-सुलगते जमीनी मुद्दों से अलग करके इस एक मौत की तरफ खींच दिया। अब इस बात का खुलासा तो शायद ही कभी हो पाए कि यह कितना खींचा गया, कितना धकेला गया, हर घंटे मीडिया को हथियार और औजार की तरह कितना चारा पेश किया गया, मीडिया ने किस रफ्तार से उसे खाया, और फिर 24-24 घंटे उसकी जुगाली करते रहा। यह पूरा सिलसिला शायद ही कभी उजागर हो क्योंकि मीडिया जिस तरह एक औजार की तरह मंडी में खड़ा हुआ दिखा, वैसा पहले किसी ने सोचा नहीं था। देश के इतने महीने एक निहायत फर्जी मुद्दे को लेकर गंवाए गए, और शायद सोच-समझकर किए गए ताकि इतने वक्त तक इस देश के बेवकूफ लोगों को उनके खुद के दुख-दर्द का अहसास न हो। यहां पर यह भी समझने की जरूरत है कि चुनाव के मुहाने पर खड़े हुए बिहार में भाजपा ने ऐसे पोस्टर या स्टिकर छपवाए कि सुशांत की मौत को याद रखा जाएगा। यह पूरे का पूरा सिलसिला शुरू से ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मदद से खड़े किए गए एक बेबुनियाद मुद्दा था। और सच तो यह है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जब दिन में चार-छह घंटे यही मौत दिखा रहा है, उससे जुड़े हुए दूसरे ग्लैमरस स्कैंडल खड़े कर रहा है, उससे जुड़े हुए नशे के मामलों के लिए देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी वहां कूद पड़ी है, और एक ऐसा माहौल बनाया गया कि मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री सांस कम लेती है, नशे का धुआं ज्यादा लेती है। यह माहौल कुछ ऐसा भी था कि मानो हिन्दुस्तान में कहीं और कोई नशा नहीं होता, और सुशांत के आसपास के लोग ही नशा कर रहे थे, उसे नशा करवा रहे थे। इस दौरान यह भी याद रखने की बात है कि जिस दिल्ली से जाकर नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के डायरेक्टर तक मुम्बई में डेरा डाले बैठे थे, उसी दिल्ली में नशे का जखीरा पकड़ा रहा था, और वहां पर जब्त 160 किलो मरिजुआना में से कुल एक किलो जमा कराकर पुलिसवालों ने 159 किलो बेच मारा। उधर मुम्बई में छांटे गए निशानों से 25-50 ग्राम गांजे की पूछताछ एक राष्ट्रीय मुद्दे की तरह चल रही थी। यह भी याद रखने की बात है कि इसी दौरान भाजपा सरकार वाले कर्नाटक में एक पूरी गाड़ी भरकर गांजे के साथ भाजपा का एक स्थानीय नेता पकड़ाया, लेकिन वह भी एनसीबी के लिए मानो पर्याप्त बड़ा नहीं था क्योंकि उसके साथ बिहार के किसी सपूत की मौत जुड़ी हुई नहीं थी, और कर्नाटक में अभी चुनाव नहीं था।
सुशांत की मौत को लेकर खड़े किए गए इस पूरे बवाल से केन्द्र और राज्य के संबंधों पर भी आंच आती है। जिस तरह बिहार के कल के डीजीपी और आज के राजनीतिक कार्यकर्ता ने इस मामले में ओछी और घटिया बयानबाजी की थी, उससे भी एक राज्य के रूप में बिहार ने भरपूर निराश किया था। अब इस देश में करोड़ों के नशे के रोज के कारोबार को छोडक़र देश की सबसे बड़ी नशाविरोधी जांच एजेंसी एक-एक फिल्म एक्ट्रेस की एक-एक सिगरेट को सूंघते हुए बैठी है, यह देश के लिए एक बहुत ही शर्मनाक नौबत है। सरकार की जांच की सीमित क्षमता होती है, और इस क्षमता को संगठित नशा-कारोबार के पीछे लगाने के बजाय कंगना रनौत नाम की एक अभिनेत्री को नापसंद लोगों के पीछे लगाकर एक बहुत ही बुरी मिसाल पेश की गई है।
इस देश के मूर्ख लोगों को भी यह समझने की जरूरत है कि उनकी अपनी जिंदगी की तकलीफों की तरफ से उनका ध्यान हटाने के लिए किस तरह उन्हें सुशांत की मौत की एक सनसनीखेज अपराधकथा पेश की गई थी, उसमें रोजाना किसी नए ग्लैमर का तडक़ा लगाना जारी रखा गया था, और ईडियट बॉक्स कहे जाने वाले टीवी के सामने वे कैसे ईडियट की तरह बैठकर परोसी हुई गंदगी को चाट रहे थे। जिन लोगों ने भी अपनी जिंदगी के ये महीने इस प्रायोजित मैला-भोज को समर्पित किए हैं, उन्हें अपनी समझ पर शर्म से डूब मरना चाहिए।
अब जब सुशांत राजपूत की मौत निर्विवाद रूप से आत्महत्या साबित हो चुकी है, अब सीबीआई के पास और कोई मेडिको-लीगल विकल्प बचा नहीं है, तो बिहार के चुनाव तक सुशांत राजपूत की लाश का इस्तेमाल और किस तरह हो सकेगा इसके लिए राजनीतिक-कल्पनाशीलता की ऊंचाईयां सामने आना अभी बाकी है। राजनीतिक ताकतों की तमाम कोशिशों के बावजूद आज भी कहीं-कहीं पर सच को सांस लेने की गुंजाइश मिल जाती है, और इस बार यह ऑक्सीजन एम्स के डॉक्टरों ने दी है। एक वक्त की अपराध-पत्रिका मनोहर कहानियां को इस देश में राष्ट्रीय पत्रिका का दर्जा देना भर बाकी है। अब अगली किसी सनसनी का इंतजार करें, और हमें पूरा भरोसा है कि वह अधिक दूर नहीं है, जल्द ही आपके साथ होगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कभी-कभी किसी महत्वहीन बात पर भी इसलिए लिखने को दिल करता है कि शायद उससे कुछ लोगों को सबक मिल जाए। अब अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप और उनकी पत्नी दोनों कोरोना पॉजिटिव निकले हैं, जिसमें किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। ट्रंप सार्वजनिक रूप से बिना मास्क रहते थे, और मास्क के लिए उनकी हिकारत अमरीकी लोगों के उस तबके जैसी थी जो कि मास्क जलाते थे, और यह दावा करते थे कि मास्क पहनने की बंदिश उनके बुनियादी संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ है। जिस तरह ट्रंप अधिकतर तथ्यों, तर्कों, और वैज्ञानिक बातों को खारिज करते रहते थे, उनका यह हाल होना ही था। अब उम्र भी इस बीमारी के लिए उनके साथ नहीं है, और उनकी नौजवान बीवी के मुकाबले उनके लिए यह अधिक खतरनाक है।
लोगों को याद होगा कि मध्यप्रदेश के गृहमंत्री भी इसी तरह बड़बोलेपन के शिकार थे, हैं, और सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी मास्क नहीं लगाते थे, और दंभ के साथ इस बात की घोषणा भी करते थे कि वे मास्क नहीं लगाएंगे। लेकिन जब शायद पार्टी ने उन्हें फटकारा, तब उन्हें यह बात समझ में आई कि उनका अहंकार तो मोदी के अनगिनत भाषणों के खिलाफ जा रहा है, और उन्हें विज्ञान को लात मारने की छूट तो है, मोदी की नसीहत को लात मारने की छूट उन्हें नहीं है। तब उन्होंने सार्वजनिक रूप से खेद जाहिर करते हुए कहा कि उनका मास्क न पहनने का उनका बयान कानून के खिलाफ है, और यह प्रधानमंत्री की भावनाओं के अनुकूल भी नहीं है, और वे अपनी गलती मानते हैं, खेद जाहिर करते हैं, मास्क पहनेंगे, और हर किसी से मास्क पहनने की अपील कर रहे हैं।
देश में बहुत से प्रमुख लोग, खासकर नेता बिना मास्क दिखते हैं। खुद प्रधानमंत्री मोदी मास्क के नाम पर जिस तरह से हलफ लगा और तह किया हुआ, प्रेस किया हुआ दुपट्टा चेहरे पर लपेटते हैं, वह नाक और मुंह को ढांकने के लिए बिल्कुल ही नाकाफी है। लेकिन अब उन्होंने इसे अपना एक अंदाज बना लिया है, और राजा से कौन कहे कि उनके नाक-मुंह ऊपर-नीचे से खुले हैं? लेकिन राजनीति में कदम-कदम पर ऐसे दुस्साहसी लोग दिखते हैं जो भीड़ में रहते हैं, इस बेमौके पर भी सहयोगियों से कंधे से कंधा भिड़ाकर चलते हैं, कानों में फुसफुसाते हैं, कैमरा देखते ही मास्क नीचे खींच लेते हैं। हालत यह है कि खास और आम सभी किस्म के लोग मास्क को नीचे खींचकर ठुड्डी पर इस तरह ले आते हैं कि आज दुनिया में सबसे अधिक दम किसी का घुट रहा है, तो वह ठुड्डी ही है। हमने इसी अखबार में एक बार मजाक में यह भी लिखा कि ईश्वर लोगों का ठुड्डी की हिफाजत का लगाव देखकर इंसानों के अगले मॉडल में ठुड्डी पर ही नाक लगाने वाला है ताकि नाक हिफाजत से तो रहे।
हम पिछले कुछ महीनों में कई बार इस बात को लिख चुके थे कि किस तरह कैमरे देखते ही नेताओं के मास्क उतर जाते हैं। अभी हाल के दिनों में कुछ अखबारों ने यह मुहिम भी शुरू की है, और अच्छी की है, कि नेताओं की तस्वीरें वे तब तक नहीं छापेंगे जब तक वे मास्क लगाए हुए नहीं रहेंगे। यह बात हर किसी को समझनी चाहिए कि जब कोई व्यक्ति नियम-कायदे तोड़ते हैं, कोई गलत काम करते हैं, तो वे कम से कम अपने आसपास के अपने मातहत लोगों के लिए एक बुरी मिसाल बन जाते हैं जिसे मानना लोगों के लिए सहूलियत का भी होता है। किसी दफ्तर के मुखिया अगर बिना मास्क के लापरवाह रहते हैं, तो पूरा दफ्तर लापरवाह होने लगता है, किसी परिवार में मुखिया अगर मास्क या दूसरे मामलों में लापरवाही बरतते हैं, तो परिवार के बाकी लोग भी उन्हें देखकर खतरे में पड़ते हैं।
लोगों को तो यह चाहिए कि वे जिन लोगों से सामान खरीदते हैं उन्हें देख लें कि उन्होंने मास्क लगाया हुआ है या नहीं। जो लोग नाक और मुंह ढांके बिना सामान बेच रहे हैं, उनसे सामान खरीदना भी खतरनाक हो सकता है क्योंकि उनके पास आने वाले बहुत से ग्राहकों से उन्हें भी संक्रमण का खतरा अधिक रहेगा, और उनसे सामान खरीदने पर आपको भी। पता नहीं किस दुस्साहस से आज लोग सडक़ के किनारे चाट-गुपचुप खाते ऐसे ठेलों पर खड़े दिखते हैं जहां ठेले वाले ने मास्क लगाया हुआ नहीं रहता। हम सडक़ किनारे उस वक्त भी लोगों को ठेलों पर खाते देखते थे जब सिर्फ पैक करके ले जाने की छूट थी। यही तमाम लापरवाहियां रहीं कि कोरोना इतनी तेजी से बढ़ा। और अब जैसे-जैसे लॉकडाउन घट रहा है, वैसे-वैसे इसके बढऩे के खतरे बढ़ते चलेंगे। दुनिया के कई देशों ने एक बार घटने के बाद कोरोना का ग्राफ फिर आसमान पर पहुंचते हुए देखा है, हिन्दुस्तान में छत्तीसगढ़ जैसे राज्य अभी कोरोना को बढ़ते हुए ही देख रहे हैं, और बाकी दुनिया अगर कोई मिसाल है, तो हो सकता है कि आने वाले महीनों में घटने के बाद एक बार फिर इसका दूसरा दौर भी आए। यह बीमारी, इसका इलाज का खर्च, और पूरे परिवार का क्वारंटीन या आइसोलेशन सबको तोडक़र रख सकता है, बहुत से हट्टे-कट्टे और पूरी तरह सेहतमंद लोगों को भी मार सकता है। हमने अपने आसपास ऐसे लोगों को कोरोना से मरते देखा है जिन्हें पहले कोई भी बीमारी नहीं थी, जिनकी उम्र भी बहुत अधिक नहीं थी, और जो प्रदेश के सबसे महंगे निजी अस्पतालों में अपने सारे प्रभाव के साथ भर्ती थे, फिर भी चिकित्सा विज्ञान उन्हें नहीं बचा पाया।
आज बहुत से लोग इस बात को लेकर लापरवाह हो चले हैं कि जो घर पर ही रहते हैं उनको भी कोरोना हो रहा है, जो इतनी सावधानी बरतते हैं उनको भी हो रहा है, ऐसे में इंसान अगर काम नहीं करेंगे तो भूख से मर जाएंगे, उससे तो अच्छा है कि कोरोना ही ले जाए। लेकिन ऐसी तमाम बातें निहायत बकवास की रहती हैं, और लोगों को काम करने के लिए कहीं से भी लापरवाही जरूरी नहीं रहती, लोग सावधानी के साथ भी काम कर सकते हैं। और लोगों को यह भी समझना चाहिए कि कोरोना कोई कैलेंडर नहीं है कि वह 31 दिसंबर को चल बसेगा। हो सकता है कि कई महीनों बाद भी कोई असरदार टीका न बन पाए, बने तो देश के आम लोगों तक न पहुंच पाए, और पहुंच भी जाए तो भी हो सकता है कि उसका असर कुछ महीनों में खत्म हो जाए। ऐसे बहुत से सवाल अभी हिफाजत के रास्ते में खड़े हुए हैं। इसलिए आज तमाम लोगों को बहुत सावधान रहने की जरूरत है, और जिम्मेदारी की जगहों पर बैठे हुए नेता, अफसर, मशहूर लोग अगर लापरवाही दिखाएंगे, तो हो सकता है कि वे खुद तो दुनिया में मौजूद सबसे महंगे इलाज की वजह से बच जाएं, लेकिन जिन लोगों को वे अपनी मिसाल सामने रखकर लापरवाह बनाएंगे, उनमें से अधिकतर तो ऐसा कोई इलाज पा नहीं सकते। इसलिए आज किसी भी मशहूर या ताकतवर व्यक्ति को अपने घमंड को, अपने दुस्साहस को संक्रामक नहीं बनने देना चाहिए ताकि वह लापरवाही बनकर दूसरों के दिमाग में भी घर कर जाए। लोगों को सोशल मीडिया पर ऐसे लोगों को रोकना-टोकना चाहिए जो कि मास्क उतारकर कैमरों के सामने अपना हॅंसता हुआ नूरानी चेहरा दिखाने को बेताब रहते हैं। लोगों को इस बारे में अधिक से अधिक लिखना चाहिए, कार्टून और दूसरे पोस्टर बनाने चाहिए, वॉट्सऐप पर फैलाना चाहिए, और सार्वजनिक रूप से लोगों को याद दिलाना चाहिए कि उनका चेहरा अभी भूल नहीं गया है, इसलिए उसे ढांककर रखें, और कोरोना के जाने के बाद मुंहदिखाई की जाएगी तब तक ट्रंप बनने की कोशिश न करें। कोरोना एक अदृश्य हमलावर है, और उसके सामने अपने चेहरे का दृश्य प्रस्तुत न करें।
उत्तरप्रदेश एकाएक इतनी बुरी तरह खबरों में हैं कि भगवान राम भी मंदिर पूरा होने का इंतजार करते हुए इतनी बुरी खबरों के लिए तैयार नहीं रहे होंगे। एक कार्टूनिस्ट ने कार्टून बनाया है कि एक लडक़ी मरकर ऊपर पहुंची है, और भगवान राम से लिपटकर पूछ रही है कि मेरे मां-बाप मुझे एक आखिरी बार क्यों नहीं देख सकते थे? और राम के पास इसका कोई जवाब नहीं है। लेकिन उत्तरप्रदेश की सरकार और वहां की पुलिस राम नहीं है, और उसके पास इस बात का जवाब है कि लडक़ी की लाश खराब हो रही थी, इसलिए सुबह का इंतजार किए बिना, परिवार और गांव को उनके घरों में बंद करके लाश को आधी रात के बाद जला दिया। जलने की तस्वीरें देखें तो महज वर्दीधारी पुलिसवाले ही आसपास खड़े हैं। पुलिस का दावा है कि बलात्कार की शिकार और एक बहुत ही खूंखार हिंसा की शिकार इस दलित युवती के परिवार से अंतिम संस्कार की इजाजत ली गई थी, और पूरा परिवार, पूरा गांव पुलिस के इस दावे को फर्जी बता रहा है। इस दावे को फर्जी समझने के लिए किसी रॉकेट साईंस की जानकारी जरूरी नहीं है, जिस तरह अस्पताल से लाश लेकर यूपी पुलिस इस लडक़ी के गांव गई, वहां के जैसे वीडियो मौजूद हैं, और जिस तरह कुछ घंटों में लाश के और सड़ जाने की फिक्र में बड़े-बड़े अफसर दुबले होते दिख रहे हैं। पता नहीं कितने मामलों में ऐसी मौत होने के बाद अफसर अपनी रात हराम करते हैं, क्योंकि इसी यूपी का यह रिकॉर्ड है कि इसी युवती से बलात्कार और इसके साथ जानलेवा हिंसा की रिपोर्ट मिलने पर भी पुलिस ने कुछ नहीं किया था। जब यह लडक़ी दिल्ली के अस्पताल लाई गई, तब भी 13-14 दिन हो चुके थे, और सरकार की ओर से इस लडक़ी के परिवार से किसी ने बात नहीं की थी। आज जब यह देश का सबसे चर्चित और खौफनाक रेप-केस हो गया है, तो मुख्यमंत्री सीधे परिवार की आर्थिक मदद की मुनादी कर रहे हैं।
लेकिन इस मौत की खबर के बाद यूपी में कम से कम दो और ऐसे ही गैंगरेप हो चुके हैं, और इनमें से कम से कम एक की खबर तो लडक़ी के दलित होने, और उसके बदन को बलात्कार के बाद तोड़ देने, और उसकी मौत की बात बता रही है। देश हिला हुआ है, और इस देश में मामूली सी दिलचस्पी रखने वाले दुनिया भर में बिखरे हुए लोग भी हिले हुए हैं। यूपी की पुलिस पिछले कुछ बरसों में लगातार साम्प्रदायिक सोच की सेवा कर रही है। जब सरकार की नजरों में साम्प्रदायिकता आ जाती है, तो उसका पहला लक्षण पुलिस में दिखता है। पुलिस कोरोना की तरह नहीं होती कि वह असिम्पटोमैटिक हो, लक्षणविहीन हो, यह वर्दी की खासियत होती है, खूबी कहें, या खामी कहें, जो भी कहें वह होती है कि उसमें लक्षण सिर चढक़र बोलता है। इसलिए आज यूपी की कानून व्यवस्था के इंचार्ज जो एडीजी हैं, वे प्रशांत कुमार दो बरस पहले तब खबरों में आए थे जब वे सरकारी हेलीकॉप्टर लेकर उड़े थे, और जमीन पर चल रहे कांवरियों पर अपने हाथों से फूल बरसाया था, और जाहिर है कि हेलीकॉप्टर के भीतर से ऐसी तस्वीरें उनकी खुद की मर्जी से ही सामने आई थीं। उस वक्त वे मेरठ रेंज के एडीजी थे, और शायद बरसाए गए फूलों का ही प्रताप था कि आज वे कानून व्यवस्था के इंचार्ज एडीजी हैं जो कि विभाग के मुखिया के तुरंत बाद की दूसरे नंबर की पोस्ट मानी जाती है।
उत्तरप्रदेश का योगी राज दलित अत्याचार के रोज नए पन्ने दर्ज कर रहा है। उत्तरप्रदेश के मिजाज को जानने वाले यह समझते हैं कि इस राज्य में पुलिस अगर जातिवादी होती है तो वह मुख्यमंत्री का चेहरा देखकर होती है, वह अगर साम्प्रदायिक होती है, तो भी मुख्यमंत्री का चेहरा देखकर होती है। पूरी तरह अराजक हो चुके इस प्रदेश में बलात्कार और हत्या की जैसी जातिवादी घटनाएं हो रही हैं, और जिस दर्जे की खूंखार और बर्बर ज्यादती हो रही है, वह पूरे के पूरे दलित तबके, अल्पसंख्यक तबके को दहशत में लाकर दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने के लिए काफी है। लोग कल से सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं, और गलत नहीं लिख रहे हैं कि ऐसे सामूहिक बलात्कार और हिंसा की शिकार दलित युवती की मौत के बाद लाश को घर तक न जाने देना, और पुलिस द्वारा जला देना बाकी तमाम दलितों के लिए एक चेतावनी है कि अगर बलात्कार की रिपोर्ट की तो अपनी बहन-बेटी का अंतिम संस्कार भी नसीब नहीं होगा, चेहरा भी देखना नसीब नहीं होगा।
हम इसी लडक़ी की बात करें जो कि आज हाथरस के नाम से चर्चित हो गई है, तो इसके साथ हुई हिंसा को पुलिस नकार रही है। अब ऐसी हिंसा में तो एक के बाद दूसरा पोस्टमार्टम भी एक आम बात रहती है, लेकिन यूपी की पुलिस ने यह गुंजाइश नहीं छोड़ी है, उसने लाश को बलपूर्वक जला दिया ताकि अब उसकी जीभ काटने, उसकी रीढ़ की हड्डी तोडऩे जैसी बातों को कोई साबित न कर सके। लोगों ने यह भी लिखा है कि इस तरह आधी रात पुलिस के हाथों जलाया जाना उस दलित लडक़ी की लाश के साथ बलात्कार के बराबर है।
यह अंदाज लगाना हमारे लिए तो बिल्कुल नामुमकिन है कि कैसे यूपी सरकार के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, और उनके अफसर लोगों को मुंह दिखा पा रहे हैं। यह किसी भी राज्य के लिए एक भयानक शर्मिंदगी की बात है कि पूरा का पूरा पुलिस महकमा कहीं पेशेवर मुजरिमों के साथ गिरोहबंदी करके चल रहा है, और पुलिस छापे की खबर मुजरिमों को पहले से करके अपने ही पौन दर्जन साथियों की हत्या करवा दे रहा है, किस तरह वहां मुठभेड़-हत्याएं हो रही हैं, किस तरह वहां मुजरिमों को लाते हुए गाडिय़ां पलट रही हैं, और मुजरिम मारे जा रहे हैं। यह पूरा सिलसिला कानून के राज के खत्म हो जाने का सुबूत है, लेकिन सरकार है कि उसके चेहरे पर शिकन भी नहीं पड़ रही है। मुख्यमंत्री राजनीति के अलावा एक मठाधीश हैं, और स्वघोषित योगी हैं। हो सकता है कि योग लोगों को इतना बर्दाश्त करने की ताकत देता हो। यह आज महज इस राज्य की शर्मिंदगी की बात नहीं है, यह एक राष्ट्रीय शर्मिंदगी की बात है कि जिस प्रदेश ने सबसे अधिक प्रधानमंत्री दिए थे, जिस प्रदेश से मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सांसद बने हैं, उस प्रदेश में पुलिस सबसे बुरे मुजरिमों के टक्कर के जुर्म करते दिख रही है।
लेकिन आखिर में बात पूरी करने के पहले एक बार यह भी सोचें कि उत्तरप्रदेश और वहां की योगी सरकार से परे, पूरे देश को इस घटना को लेकर क्या सोचने की जरूरत है। जिस तरह बलात्कार हो रहे हैं, उन्हें बारीकी से देखा जाए तो एक रूख साफ दिखता है। ये ताकतवर के हाथों कमजोर का बलात्कार है, ये एक गिरोह के हाथों अकेली लडक़ी का बलात्कार है, ये ऊंची कही जाने वाली जाति के हाथों छोटी कही जाने वाली जाति का बलात्कार है, यह संपन्न लोगों के हाथों विपन्न लोगों का बलात्कार है, यह सत्ता की ताकत वाले लोगों का जनता के साथ बलात्कार है। हिन्दुस्तान में आज बलात्कार के ये आम पहलू हैं, और इन्हें अनदेखा करते हुए इन्हें कम करने का कोई रास्ता नहीं निकल सकता। यह रास्ता इसलिए भी नहीं निकल सकता कि महिला आयोग से लेकर मानवाधिकार आयोग तक जो संवैधानिक संस्थाएं राज्यों से लेकर केन्द्र तक बनती हैं, उनमें सत्तारूढ़ दल के लोगों को मनोनीत किया जाता है जो कि सत्ता के जुर्म छुपाने के लिए जुटे रहते हैं, न कि बाकी इंसानों या महिलाओं को हिफाजत देने का काम करते हैं। देश की पुलिस यूपी में कुछ अधिक हद तक सत्ता के प्रति सूरजमुखी का फूल होगी, लेकिन बाकी प्रदेशों में भी पुलिस का कमोबेश ऐसा ही हाल है, और किसी जुर्म होने पर पुलिस सबसे पहले यह देखती है कि जुर्म के शिकार ताकतवर या महत्वपूर्ण तो नहीं है, और मुजरिम कितने ताकतवर या कितने महत्वपूर्ण है। इस बुनियाद पर पुलिस की कार्रवाई और जांच शुरू होती है, और हर दिन जांच अफसर यह तौल लेते हैं कि सत्ता का रूख आज कैसा है, सूरज की तरफ घूम जाने वाले सूरजमुखी के फूल की तरह पुलिस यही काम करती है, सत्ता का चेहरा देखकर जुर्म तय करती है।
खैर, पुलिस को ही क्यों कोसें, आज तो पूरे देश का माहौल यह है कि बड़ी-बड़ी अदालतें भी सत्ता का चेहरा देखकर फैसले तय करती हैं। ऐसे देश में किसी भी कमजोर के लिए कोई लोकतांत्रिक और कानूनी अधिकार नहीं है। यह देश कमजोर लोगों के लिए 5 बरस में एक बार वोट देने के हक का पाखंड खड़ा करने वाला देश होकर रह गया है, यहां नीची समझी जाने वाली जाति के गरीब परिवार को अपनी बेटी की लाश जलाने का हक भी नहीं रह गया है। ऐसी एक जाति से आए हुए, और संविधान लिखने में सबसे महत्वपूर्ण डॉ. बाबा साहब अंबेडकर ने ऐसा कोई दिन सोचा था?(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बाबरी मस्जिद गिराने के मामले में 28 बरस से चले आ रहा मुकदमा अब निपटा है, और दो लाईनों में निपट गया। अदालत ने सभी 32 अभियुक्तों को बरी कर दिया है कि उनके खिलाफ कोई ठोस सुबूत नहीं है। ये 32 अभियुक्त मामला शुरू होने के समय 49 थे, और फैसले के इंतजार में 17 अभियुक्तों को कुदरत की तरफ से ही सजा मिल चुकी है। अब आज से लालकृष्ण अडवानी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, उमा भारती जैसे बाकी तमाम अभियुक्त-नेता भी इस मुकदमे से आजाद हो चुके हैं। पता नहीं कैसे कल से ही यह आने लग गया था कि यह फैसला दो हजार पेज का रहने वाला है। अगर पूरे फैसले को सुनकर नतीजा सुनाया जाता तो वह शायद दो-तीन दिन बाद सामने आता, लेकिन जाहिर है कि फैसले से काम की बात को सीबीआई विशेष अदालत के जज ने आनन-फानन सुना दिया, और लोगों की दिलचस्पी अदालत पर से खत्म हो गई। जज का कार्यकाल पहले ही पूरा हो चुका था, लेकिन नए जज को यह मामला देने से यह और 10-20 बरस चलता, इसलिए इस फैसले तक जज का कार्यकाल सुप्रीम कोर्ट ने संविधान का एक विशेष प्रावधान इस्तेमाल करके बढ़ा दिया था, और आज इस फैसले के साथ ही जज का काम भी खत्म हो गया।
इस फैसले से देश को बड़ी निराशा हुई है। इतना बड़ा बाबरी-ढांचा गिराया गया, जिसे इन तमाम अभियुक्त-नेताओं ने खास बनाए गए एक मंच पर बैठकर देखा था। इसके पहले लालकृष्ण अडवानी ने एक बड़ी रथयात्रा निकाली थी जो कि बाबरी मस्जिद को गिराने की जमीन बनाते चल रही थी, और इस ढांचे को गिराने के बाद देश में हुए दंगों की जमीन भी। इस स्टेज पर विराजमान होकर जब ये नेता ढांचा गिरना देख रहे थे, खुशी में एक-दूसरे से लिपट रहे थे, उमा भारती मुरली मनोहर जोशी की पीठ पर खुशी के मारे लटक गई थीं, तब देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआई इस मामले में कुछ भी साबित न कर सकी, यह देश को और निराश करने वाली बात है। यह जाहिर है कि इस मामले के तकरीबन सभी अभियुक्त अगली किसी ऊपरी अदालत का कोई फैसला आने के पहले सबसे ऊपर की अदालत तक पहुंच जाने की उम्र या सेहत में हैं। और हिन्दुस्तान की अदालतों की रफ्तार देखते हुए यह समझा जा सकता है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से बाबरी-ढांचे पर आखिरी फैसला आने के पहले तक ये सारे ही अभियुक्त बाकी 17 गुजर चुके अभियुक्तों से मिलने रवाना हो चुके होंगे।
आज जिस वक्त हम यह लिख रहे हैं, देश भर में हिन्दूवादी ताकतें जश्न मना रही हैं। उनके लिए यह राम मंदिर बनाने के फैसले के बाद एक और बड़ा फैसला है, और अब मंदिर मार्ग से तमाम कांटे दूर मान लिए गए हैं। एक फैसले ने यह माना कि बाबरी मस्जिद तो गिराई गई थी, लेकिन वहां पर अब मंदिर बनाने का हक दिया जाता है। आज इस अदालत ने यह माना है कि बाबरी-ढांचे को गिराना सुनियोजित साबित करने के लिए ठोस सुबूत नहीं हैं। अब पूरी दुनिया जिस नजारे को टीवी पर देख रही थी, और ये सारे अभियुक्त वहीं सामने बैठकर मंच से रूबरू देख रहे थे, एक-दूसरे को मिठाईयां खिला रहे थे, और एक किस्म से आने वाले दिनों में देश भर में दंगों में हजारों मौतों की जमीन भी तैयार कर रहे थे, उस नजारे को साबित करने का काम सीबीआई नहीं कर पाई। यह वक्त प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव की सरकार का था जिनके कुछ न करने की वजह से, जिनके बंद कमरे में बैठ जाने की वजह से लोगों को मस्जिद गिराने का यह मौका मिला था, उनके वक्त सीबीआई को जब इसके पुख्ता सुबूत जुटाने का मौका था, तो लगता है कि वह काम हो नहीं पाया। जो सुबूत पूरी दुनिया में बंटते लड्डुओं की शक्ल में अयोध्या की मस्जिद के सामने मंच पर देखे थे, वे भी सीबीआई को नहीं दिखे।
ऐसे में मुस्लिम राजनीति करने वाले एक प्रमुख नेता, एआईएमआईएम के अध्यक्ष और सांसद असदउद्दीन ओवैसी ने कहा है कि इस मामले की चार्जशीट में लिखा था कि उमा भारती ने कहा था- एक धक्का और दो, कल्याण सिंह ने कहा था- निर्माण पर रोक है, तोडऩे पर नहीं, ऐसे सुबूतों के बाद भी मस्जिद को गिराया गया, और अब इन सबको बरी करके यह संदेश दिया जा रहा है कि मथुरा और काशी में भी यही करते चलो।
जज ने दो हजार पेज के फैसले में कहा है कि मस्जिद की विध्वंस की कोई पूर्व योजना नहीं थी, इसके पीछे कोई आपराधिक साजिश नहीं थी। फैसले में यह भी कहा है कि इन आरोपियों ने भीड़ को रोकने और उन्हें उकसाने की कोशिश नहीं की थी। फैसले में कहा कि सीबीआई द्वारा प्रस्तुत ऑडियो और वीडियो क्लिप की प्रमाणिकता साबित नहीं हुई है।
जाहिर है कि कई सरकारों के मातहत काम करते हुए सीबीआई ने अभी जो सुबूत पेश किए थे, वे काफी नहीं थे, और भरोसेमंद नहीं थे। इससे परे देश की जनता को कोई और उम्मीद भी नहीं थी।
सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने इस फैसले को एक मजाक बताया। उन्होंने लिखा- यह न्याय का मजाक है। मस्जिद क्या खुद गिर गई? उस समय की सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली संवैधानिक पीठ ने इसे कानून का भयावह उल्लंघन बताया था। उसके बाद अब ये फैसला! शर्मनाक है।
देश के एक वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा- इस फैसले से यही माना जाएगा कि न्यायपालिका में न्याय नहीं होता है, बस एक भ्रम रहता है कि न्याय किया जाएगा। यही होना संभावित था क्योंकि विध्वंस के केस में फैसला आने के पहले ही जमीन के मालिकाना हक पर फैसला सुना दिया गया, वो भी उस पक्ष के हक में जो मस्जिद ढहाए जाने का आरोपी था। इससे मुस्लिम समुदाय में द्वेष बढ़ेगा क्योंकि कोई भी फैसला उन्हें अपने हक में नहीं लगेगा। मुसलमान समुदाय को दोयम दर्जे का नागरिक बनाया जा रहा है, उनके सामने इस वक्त और बड़ी चुनौतियां हैं, जैसे-जैसे हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की कोशिशें हो रही हैं।
आने वाले दिनों में कानून के हमसे अधिक बड़े जानकार इस फैसले की खूबियों और खामियों को गिनाने का काम करेंगे, हम भी तब तक दो हजार पेज को पढक़र उस विश्लेषण को समझने लायक बन चुके रहेंगे।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कई बड़े मोर्चे बड़ी छोटी बात पर लोग हार जाते हैं। मुम्बई में यही हुआ, और सडक़ों से लेकर मीडिया तक साबित होने के बाद अब बाम्बे हाईकोर्ट में यही बात फिर साबित हो रही है। कल वहां जो बहस चली वह थी तो फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत के दफ्तर को म्युनिसिपल द्वारा तोडऩे की, लेकिन उसके पीछे शिवसेना के सांसद संजय राऊत का हाथ होने की बात उठी। जज इस बात पर अड़ गए कि संजय राऊत ने हरामखोर लडक़ी किसे कहा था? अब चूंकि मामला अदालत में है, और वहां संजय राऊत के बयान की ऑडियो क्लिप बजाकर सुनी गई है, तो यह बात अदालत की जानकारी में है कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की पार्टी के सांसद संजय राऊत ने किसी को हरामखोर कहा, और उसे सबक सिखाने की जरूरत बताई। अब अदालत में संजय राऊत के वकील यह कह रहे हैं कि उनके मुवक्किल ने किसी का नाम नहीं लिया था। जिस राजनीतिक दुस्साहस के साथ संजय राऊत ने यह हमला किया था, वह किनारे धरा रह गया। और अभी अदालत में आगे मुश्किल बाकी है क्योंकि हाईकोर्ट के जज इस बात पर अड़े हुए हैं कि हरामखोर लडक़ी किसे कहा गया, यह बताया जाए।
यह कोई अनोखा बयान नहीं था, लेकिन यह बयान ेएक ऐसी अभिनेत्री के खिलाफ दिया गया था जिसके साथ आज केन्द्र सरकार खड़ी हुई है, और महाराष्ट्र में एक ताकतवर पार्टी भाजपा भी। इन दोनों के अलावा फिल्म उद्योग के कुछ या अधिक लोग भी उनके साथ खड़े हुए हैं, और महंगे वकीलों की सेवाएं तो हासिल हैं ही। ऐसे में हमला करके बचकर निकल जाना बहुत आसान नहीं होता। लोगों को याद होगा कि हाल ही के बरसों में अरविंद केजरीवाल को मानहानि के कुछ मुकदमों में दिल्ली में माफी मांगनी पड़ी थी, और यह पहले भी होते आया है जब बहुत से नेता अपनी कही हुई बातों को जायज नहीं ठहरा पाते, और अदालत के बाहर समझौता करते हैं, या अदालत में माफी मांगते हैं। जब भीड़ सामने होती है, कैमरे सामने होते हैं, माईक सामने होते हैं, तो लोग तेजी से अपना आपा खोने लगते हैं, ऐसे ही उत्तेजना के पल होते हैं जब लोग अवांछित बातें कह बैठते हैं जिन्हें साबित करना नामुमकिन होता है। अब कंगना रनौत के खिलाफ हजार दूसरी बातें हो सकती हैं, देश आज दो खेमों में बंटा है, और एक खेमा चूंकि उसके साथ है, इसलिए दूसरा खेमा उसके खिलाफ है। खिलाफ होने तक कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन जब नाजायज बातें कहकर हमला किया जाता है, तो वे बातें वहीं तक खप पाती हैं जब तक उन्हें अदालत में चुनौती नहीं दी जाती।
यह बात महज नेताओं पर लागू नहीं होती, यह मीडिया के लोगों पर भी लागू होती है, और किसी के खिलाफ कोई अभियान जब गालियों की बैसाखियों पर चलता है, तो वह दूर तक नहीं चल पाता। जब गंदे विशेषणों से ही किसी के खिलाफ अभियान चलता है, तो वे विशेषण लंबी दूरी तक साथ नहीं देते। सत्य और तथ्य के बजाय जब लफ्फाजी की बातों से हमला किया जाता है, तो ऐसा हमला किसी को असली नुकसान नहीं पहुंचा पाता, पल भर को उन लोगों को तो खुश कर सकता है जो कि हमले के निशाने के पुराने विरोधी हैं।
हमने देश भर में जगह-जगह, और छत्तीसगढ़ में भी मीडिया में, सोशल मीडिया में ओछी जुबान और झूठी बातों को लिखते लोगों को देखा है जिन्हें बाद में जाकर माफी मांगनी पड़ती है। ऐसी हरकत के लिए हिन्दी में एक भद्दी सी मिसाल दी जाती है, थूककर चाटना। लेकिन जो जरूरत से अधिक बड़बोले होते हैं, जिनका अपनी जुबान पर काबू नहीं होता, उन लोगों के साथ ऐसी दिक्कत आती रहती है। मीडिया में भी जो लोग गंदी जुबान के सहारे कुछ साबित करने की कोशिश करते हैं, वे अपनी जुबान को गंदा साबित करने के अलावा और कुछ नहीं कर पाते। ऐसे लोग चाहे जिस पेशे में हों, खुद तो कोई इज्जत नहीं कमा पाते, अपने संगठन या संस्थान को भी कोई इज्जत नहीं दिला पाते, बल्कि उनकी इज्जत भी अपने साथ-साथ मटियामेट करते हैं।
आज मसीहाई नसीहत लिखते हुए यहां मकसद सिर्फ एक है कि लोगों को याद दिलाना कि बड़े बुजुर्ग समझदार लोग यह मशविरा दे गए हैं कि दो-चार बाद सोचने के बाद ही कुछ बोलना चाहिए। जिस तरह कोई समझदार दुकानदार पहले लिखता है, फिर देता है, उसी तरह समझदार बोलने वाले पहले समझते हैं, सोचते हैं, फिर बोलते हैं। आज मुम्बई हाईकोर्ट में संजय राऊत जिस तरह फंसे हैं, उससे उनकी, और उनकी पार्टी की साख और मुम्बई में धाक, दोनों चौपट हो रही हैं। शिवसेना के हाथ कंगना के बड़बोलेपन, उसकी कही हुई ओछी बातों को लेकर एक बड़ा मुद्दा था, और इस मुद्दे को लेकर यह पार्टी कंगना और इस कंगने के पीछे के हाथों पर भी हमला बोल सकती थी, लेकिन आज वह अदालती कटघरे में खड़ी होकर बचाव देख रही है। इसलिए लोगों को कम बोलना चाहिए, सोच-समझकर बोलना चाहिए, और नाजायज बातें इसलिए नहीं बोलना चाहिए कि अदालत में उन्हें साबित नहीं किया जा सकता, और हो सकता है कि सामने वाले लोगों को महंगे वकील हासिल हों।
बिहार में जैसी उम्मीद थी ठीक वैसा ही हुआ। पिछले कुछ महीनों से बिहार की चर्चा बाढ़ को लेकर, कोरोना को लेकर, बिहार में जुर्म को लेकर कम थी, मुम्बई में एक अभिनेता की मौत को लेकर अधिक थी, क्योंकि वह रातों-रात बिहार का गौरव करार दे दिया गया था, और बिहार में भारतीय जनता पार्टी ने इस अभिनेता की तस्वीर और नाम वाले स्टिकर भी छपवा लिए थे कि तुम्हें नहीं भुलाएंगे सुशांत। जब सुशांत की मौत की जांच मुम्बई पुलिस से छीननी थी, और बिहार में दर्ज की गई एफआईआर से यह काम नहीं हो पा रहा था, तो सीबीआई ने इस मामले को ले लिया, और पूरी तरह मुम्बई की एक मौत की जांच महाराष्ट्र सरकार की मर्जी के खिलाफ केन्द्र सरकार ने छीनकर सीबीआई को दे दी। लेकिन इस सिलसिले पर लिखना आज का मकसद नहीं है, आज का मकसद बिहार के कल तक के डीजीपी, और आज के सत्तारूढ़ पार्टी के सदस्य, और आने वाले कल के विधानसभा चुनाव उम्मीदवार गुप्तेश्वर पांडेय हैं।
लोगों को याद होगा कि जिस तरह और जिस भाषा में गुप्तेश्वर पांडेय बिहार की तरफ से मुम्बई की एक फिल्म अभिनेत्री पर हमला बोल रहे थे, उसे देश के अधिकतर सभ्य लोगों ने एक असभ्य जुबान करार दिया था, और इसकी वजह से जल्द ही इस सबसे सीनियर बिहारी पुलिस अफसर को अपने शब्द वापिस भी लेने पड़े थे। लेकिन वापिस लेने के पहले वे अपना असर डाल चुके थे, वे नीतीश कुमार के प्रति इस डीजीपी की निजी निष्ठा को सीमा से अधिक साबित कर चुके थे, और आने वाले विधानसभा चुनाव के लिए उन्हें एक दमदार उम्मीदवार साबित कर चुके थे। हुआ वही, नौकरी बाकी रहते हुए भी चुनावी घोषणा के ठीक पहले गुप्तेश्वर पांडेय ने इस्तीफा दिया, घंटों में वह मंजूर हुआ, और एक या दो दिन में वे सत्तारूढ़ पार्टी के मेम्बर बन गए, और विधानसभा सीट सहित उनके नाम की उम्मीदवारी की खबरें शुरू हो गईं।
अब सवाल यह उठता है कि एक या दो दिनों के भीतर सरकारी अफसर अफसरी छोडक़र अपने ही कार्यक्षेत्र के भीतर चुनावी उम्मीदवार बन जाए, तो यह किस पैमाने पर सही कहा जा सकता है? सरकारी नौकरी के पैमाने पर, या चुनाव आयोग के पैमाने पर? अगर चुनाव आयोग के नियम ऐसी कोई रोक नहीं लगाते हैं, तो आयोग के नियम बदलने की जरूरत है। अगर भारत सरकार की इस एक सबसे बड़ी नौकरी के नियम ऐसी कोई रोक नहीं लगाते हैं, तो नौकरी के नियमों को बदलने की जरूरत है। हिन्दुस्तान की किसी अदालत का जज रिटायर होते ही उसी जगह उसी अदालत में वकालत शुरू कर दे, तो बहुत से ऐसे जज रहेंगे जो उसके मातहत रहते आए हैं, और वे उनकी पैरवी से असुविधा महसूस करेंगे। अगर कारोबार से जुड़े हुए किसी विभाग के बड़े अफसर रहे लोग नौकरी छोड़ते ही उस कारोबार में काम करने चले जाएं, तो उससे सरकार में एक गंदगी का माहौल बनना तय है। लोगों को याद होगा कि भिलाई स्टील प्लांट के एमडी रहे विक्रांत गुजराल नौकरी छोड़ते ही आनन-फानन बीएसपी के मुकाबले काम करने वाली जिंदल नाम की कंपनी में छत्तीसगढ़ में ही चले गए थे, और इसे बहुत से लोगों ने नाजायज माना था। सरकार या अदालत में ऐसी कुछ रोक रहती भी है, और रहनी भी चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि यह रोक काफी नहीं रहती है, एक वक्त इंदौर के कलेक्टर रहते हुए अजीत जोगी को भी जब अर्जुन सिंह और राजीव गांधी ने राज्यसभा भेजना तय किया था, तो उनका इस्तीफा इसी तरह आनन-फानन रातों-रात मंजूर करके उन्हें राज्यसभा उम्मीदवार बनाया गया था।
अब चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट को पहल करनी चाहिए, और दलबदल करके दूसरी पार्टी में जाने वाले लोगों पर कम से कम कुछ बरस चुनाव लडऩे पर रोक लगानी चाहिए। जनता के पैसों पर तनख्वाह पाने वाले, और बाद में पेंशन भी पाने वाले लोगों पर भी, जजों, अफसरों पर इस्तीफा देने के बाद अगले कुछ बरस तक चुनाव न लडऩे, निजी कारोबारों में नौकरी न करने, कंपनियों के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स न बनने की रोक लगनी चाहिए। सरकारी जुबान में इसे कूलिंग-ऑफ पीरियड कहा जाता है, और जहां आज नियमों में ऐसी बंदिशें नहीं हैं, वहां भी इन्हें लागू करना चाहिए। इसके बिना हितों का टकराव होता है। बिहार की ही मिसाल लें तो गुप्तेश्वर पांडेय की राजनीतिक महत्वाकांक्षा कुछ महीनों से उछाल मार रही थी। ऐसी चर्चा है कि उनकी विधानसभा सीट भी पहले से छांटी हुई है, तो ऐसे में पिछले महीनों में वे ऐसी ताकत की जगह पर थे कि उस विधानसभा सीट पर अपने पसंदीदा पुलिस अफसरों को तैनात कर पाते, वहां की खुफिया रिपोर्ट हासिल कर पाते, दूसरे संभावित उम्मीदवारों के खिलाफ जानकारी जुटा पाते, और यह सब कुछ अनैतिक आचरण की आशंकाओं में आता है। सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग को जनता के पैसों पर तनख्वाह, मेहनताना, भत्ता पाने वाले तमाम लोगों का कूलिंग-ऑफ पीरियड तय करना चाहिए, और उनके चुनाव लडऩे पर, नौकरी करने पर अपात्रता तय करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
इंटरनेट पर समाचारों को देखना अखबारों में देखने से कुछ अलग होता है। बलात्कार की एक खबर पढ़ें, तो उसक खबर के बीच-बीच में बलात्कार के दूसरे मामलों के हॉटलिंक भी दिखते रहते हैं, अगर दिलचस्पी हो तो एक क्लिक करके उन दूसरी घटनाओं को भी पढ़ा जा सकता है। आज उत्तर भारत की एक घटना मीडिया में छाई हुई है कि दिल्ली से दो सौ किमी. दूर यूपी में एक दलित युवती के साथ गैंगरेप किया गया, उसे बुरी तरह पीटा गया, और कई हड्डियां टूट जाने के साथ-साथ उसकी जीभ भी कट गई है, हालत बेहद खराब है, और डॉक्टर उसे दिल्ली भेजने की जरूरत महसूस कर रहे हैं। चारों आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है जो कि ऊंची कही जाने वाली एक जाति के हैं। इस खबर को देखते हुए यूपी के ही कई दूसरे हॉटलिंक दिख रहे हैं, नाबालिग के साथ सामूहिक बलात्कार, दो गिरफ्तार, अगली खबर है- लखीमपुर के बाद गोरखपुर में किशोरी से रेप, सिगरेट से दागा शरीर।
उत्तरप्रदेश दलितों के साथ ऐसी हिंसा और जुर्म का एक आम मैदान हो गया है। कहने के लिए तो राज्य के मुखिया योगी आदित्यनाथ हैं, लेकिन वे अपनी सोच और अपनी सरकार में जो रूख दिखाते हैं, वह सवर्ण हिन्दुत्व की आक्रामकता को बढ़ाने वाला है, और उसमें दलितों की कोई जगह नहीं है। लोगों को याद होगा कि इसी प्रदेश में भाजपा के विधायक, भाजपा के एक भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री बलात्कार के मामलों में लंबी मशक्कत के बाद गिरफ्तार हुए। एक मामले में तो भाजपा विधायक के खिलाफ बलात्कार की शिकायत करने वाली लडक़ी के कुनबे के कई लोगों को चुन-चुनकर मार डाला गया। यह प्रदेश कानून के राज को खो बैठा है। इसके तुरंत बाद का हाल देखें तो मध्यप्रदेश है जहां पिछले 15-17 वर्षों से लगभग लगातार भाजपा का राज चल रहा है, और लगातार दलितों पर हिंसा भी चल रही है।
हिन्दुस्तान में जिन लोगों को लगता है कि जाति व्यवस्था खत्म हो गई है, उन्हें जुर्म के आंकड़ों का विश्लेषण करना चाहिए। जो जातियां हिन्दू समाज में सबसे नीचे समझी और कही जाती हैं, वे जुर्म का सबसे अधिक शिकार होती हैं। जो जातियां ऊंची समझी और कही जाती हैं, वे जुल्म के मामलों में मुजरिम अधिक होती हैं। और यह बात हम एक-दो मामलों को देखकर नहीं कह रहे हैं, यह आम रूख है, यह आम ढर्रा है कि जुल्म वाले अधिकतर जुर्म अधिक ताकतवर लोगों के हाथों कमजोर लोगों पर होते हैं, और ताकत के इस संतुलन में जातियों का एक बड़ा किरदार है।
ये मामले वे हैं जो कि हिंसा आसमान तक पहुंच जाने के बाद छुपाए नहीं छुपते, और पुलिस तक पहुंच जाते हैं, मीडिया तक पहुंच जाते हैं। यूपी के जिस गंैगरेप की खबर से आज हमने यह लिखना शुरू किया है वह 14 सितंबर को हुआ, और आज मीडिया तक पहुंचा। जाहिर है कि दलित-आदिवासी या दूसरे किसी किस्म से कमजोर तबकों की खबरों को लंबा सफर करके मीडिया तक पहुंचना पड़ता है, और फिल्मी सितारों पर कैमरे फोकस करके बैठे मीडिया का कंधा थपथपाना पड़ता है कि हमारे साथ रेप हुआ है, हमें भी देखो। यह सिलसिला पूरे देश के लिए शर्मिंदगी का होना चाहिए, लेकिन ऊंची कुर्सियों पर बैठे हुए लोगों के मन की बात में भी दलितों पर बलात्कार, उसके बाद उन्हें सिगरेट से जलाने, उनकी आंखें निकाल देने, उनकी हड्डियां तोड़ देने को जगह नहीं मिल पाती है। हिन्दुस्तान में ताकतवर तबकों और कमजोर तबकों के बीच फासला इतना लंबा है, बीच की खाई इतनी गहरी है कि संविधान नाम की एक किताब इस पर पुल बनकर काम नहीं कर पाती।
यह पूरा सिलसिला एक राष्ट्रीय शर्म का मामला है कि जिस तबके को जोडक़र हिन्दू समाज अपनी आबादी अधिक बताता है, अपने समाज के भीतर उन दलितों के साथ समाज के ही गिनती में कम, ऊंची कही जाने वाली जातियों के लोग कैसा सुलूक करते हैं। आबादी बढ़ाने के लिए तो दलित हिन्दू हैं, लेकिन बलात्कार करते वक्त उनकी औरतें बस बदन हैं। इसके बाद भी लोग अपने आपको अपने धर्म पर गर्व करने वाला बताते हैं। लोगों को सोचना चाहिए कि गर्व करने के लिए कुछ बुनियादी बातें जरूरी होती हैं, क्या इस समाज में कमजोर बनी हुई और नीची कही-समझी जाने वाली जातियों पर होने वाले उच्च-वर्ण के जुल्म पर कोई चर्चा भी होती है? वह तो जब पुलिस के पास सिवाय जुर्म दर्ज करने के और कोई विकल्प नहीं बचता है, जब मामला उजागर हो ही जाता है, तभी जाकर दलितों पर जुल्म लिक्खे जाते हैं। उत्तरप्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कर्मकांडी धार्मिक हिन्दू हैं, और उनके चाहने वालों में से बहुत से लोग उनमें हिन्दुस्तान का अगला प्रधानमंत्री देखते हैं। आज उनकी सरकार में दलितों का क्या हाल है, यह भी देखने की जरूरत है। जिस देश की अदालतों के बड़े-बड़े जजों को अपनी इज्जत के लिए लंबे मुकदमे चलाने की फुर्सत है, वे यह भी देखें कि दलितों पर बलात्कार के मुकदमों में सजा का औसत क्या है, फैसलों का वक्त क्या है, और निचली अदालतों में मिली सजा का भविष्य ऊपर की अदालतों में क्या है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट में अभी एक महत्वपूर्ण मामला सुना गया, और अदालत ने उस पर कड़ा रूख दिखाते हुए एक हुक्म भी दिया। देश के सबसे साम्प्रदायिक-भडक़ाऊ चैनल, सुदर्शन टीवी को मुस्लिमों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए जाना जाता है। इसके तेवर किसी समाचार माध्यम से अलग, तलवार लेकर खड़ी हुई किसी फौज सरीखे दिखते हैं। जब इसने साम्प्रदायिकता उफनाते हुए एक कार्यक्रम प्रसारित करने की घोषणा की, तो वह घोषणा ही लोकतंत्र की बुनियादी समझ को हिला देने वाली थी। कुछ लोग इसके खिलाफ अदालत तक गए, और अदालत ने केन्द्र सरकार से भी जवाब-तलब किया। आज यहां लिखने का मुद्दा इसी जवाब को लेकर खड़ा हो रहा है जो कि केन्द्र ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने सुदर्शन टीवी नाम के इस हमलावर चैनल के इस कार्यक्रम पर रोक लगाते हुए इस पूरे मामले पर सरकार से जब जवाब मांगा तो सरकार ने इस मुद्दे को लात मार-मारकर किनारे नाली में गिरा दिया, और अपना पूरा जवाब डिजिटल मीडिया पर काबू करने के बारे में दिया। डिजिटल मीडिया सुप्रीम कोर्ट में मुद्दा ही नहीं था, मुद्दा था टीवी चैनल। सरकार ने कहा कि प्रिंट और इलेक्ट्र्रॉनिक मीडिया को नियंत्रित करने के लिए तो देश में बहुत से नियम पहले से हैं, आज उनसे अधिक जरूरत डिजिटल मीडिया को नियंत्रित करने की है। यह कुछ उसी किस्म का हुआ कि अदालत ने वेलेंटाइन डे पर बाग-बगीचों में दोस्त या प्रेमीजोड़ों पर होने वाले हमलों के बारे में पूछा, और सरकार ने बगीचे के पेड़ों पर लगे कीड़ों के बारे में जवाब दिया। केन्द्र सरकार की इस खास टीवी चैनल के लिए हमदर्दी कोई सुप्रीम कोर्ट पहुंचकर ही नहीं दिखती, जहां पर इसका नाम लिए बिना भी केन्द्र सरकार ने इसे बचाने के लिए कमर कस रखी दिखती थी। केन्द्र ने पूरी बहस को पटरी से उतारने की पूरी कोशिश की, और पता नहीं सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार की इस नीयत और हरकत पर कोई कड़ी टिप्पणी की है या नहीं। ऐसी कोई बात हमारे पढऩे में नहीं आई है, लेकिन हम अपने पढ़े हुए को ही सब कुछ मानकर इस बारे में कोई टिप्पणी करना नहीं चाहते।
देश के कई मीडियाकर्मियों ने केन्द्र सरकार की इस चतुराई को समझते हुए सवाल किया है कि जब मुद्दा एक टीवी चैनल को लेकर था, और केन्द्र सरकार टीवी चैनलों के लाइसेंस देने के लिए हजार किस्म के नियम लगाती है, बहुत कड़ी शर्तें रखती है, तब फिर किसी चैनल के ऐसे लगातार भडक़ाऊ और साम्प्रदायिक प्रसारण पर उसने उन नियमों के तहत क्या किया जिनका वह हवाला अपने हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट में दे रही थी? और मानो इस चैनल को कटघरे में अकेले छोडऩे के बजाय उसमें तमाम डिजिटल मीडिया को और ठेल दिया।
अब सवाल यह है कि जिस देश में एक टीवी चैनल शुरू करने के लिए लाइसेंस पाने को लोगों को बरसों लग रहे हैं, और सरकार खुफिया रिपोर्ट से लेकर पुलिस रिपोर्ट तक तमाम चीजें जुटाती हैं कि कोई गलत व्यक्ति टीवी चैनल का मालिक न हो जाए, उस देश में एक चैनल इस तरह लगातार हिंसक और साम्प्रदायिक, और शाब्दिक अर्थों में तस्वीरों और वीडियो के साथ तलवार और कटार लिए हुए चैनल संपादक को दिखाते हुए हमलावर बना हुआ है, और उस पर कोई कार्रवाई करने के बजाय केन्द्र सरकार उसके इर्द-गिर्द दूसरे लोगों को संदिग्ध बताते हुए भीड़ लगा दे रही है, यह बात पूरी तरह हैरान करने वाली है, या सच कहें तो हैरान नहीं भी करती है।
हिन्दुस्तान में मीडिया पर निगरानी रखने वाली तमाम संवैधानिक और निजी संस्थाएं पूरी तरह कागजी और बोगस साबित हो रही हैं। देश में पत्रकारिता के नीति-सिद्धांत तय करने और लागू करने का काम आखिरी बार श्रमजीवी पत्रकार आंदोलन के वक्त हुआ था, जहां वह आंदोलन खत्म हुआ, वहां नीति-सिद्धांत भी उसके साथ ही दफन हो गए। उस वक्त देश के शहरों में वही कर्मचारी-संघ काम करता था, आज वह गायब हो गया, और अब प्रेस क्लब नाम की एक संस्था देश भर के शहरों में हर जगह काबिज हो गई जिसका पेशेवर नीति-सिद्धांतों से कोई लेना-देना नहीं है, और जो पत्रकारों के अपने हित की बात करने वाली, उनके मनोरंजन का ख्याल रखने वाली संस्था रह गई है। हालत यह है कि सुप्रीम कोर्ट में इसी केस में जब टीवी समाचार चैनलों के खुद के संगठन न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन में हलफनामा दिया, तो उसने कहा कि वह सिर्फ अपने सदस्यों के कामकाज के लिए जवाबदेह संगठन हैं, और यह चैनल एसोसिएशन का सदस्य नहीं है, इसलिए इस संगठन के कोई नियम-कायदे उस पर लागू नहीं होते।
अब यहां पर दूसरा सवाल यह उठता है कि इस एक समाचार चैनल को निशाना बनाने के बजाय देश के बाकी समाचार चैनलों की बात की जाए, तो उनमें से बहुतायत निहायत गैरजिम्मेदार साबित हो रहे हैं, और अपने आपको एक-दूसरे से और अधिक गैरजिम्मेदार बनाने पर आमादा हैं। पिछले दिनों एक चैनल के जीवंत समाचार-बहस प्रसारण में एक रिटायर्ड फौजी जनरल ने दूसरे पैनलिस्ट को खुलकर मां की गाली दी, और उस पर आज तक कोई कार्रवाई सुनाई नहीं पड़ी है। अब केन्द्र सरकार जिन नियमों के तहत देश भर के इक्का-दुक्का चैनलों को साल भर में एक-दो दिन प्रसारण रोकने, या माफीनामा दिखाने का हुक्म दे दी है, हमें तो याद नहीं पड़ता कि इस फौजी जनरल की सबसे मोटी गाली के बाद भी उस चैनल का लाइसेंस सस्पेंड हुआ हो, या उसे माफीनामा दिखाना पड़ा हो। सरकार प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक के लिए जिस किसी नियम-कायदे की बात अपने हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट में कह चुकी है, वे भी नामौजूद और बेअसर से हैं।
देश में आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को लेकर लोगों के मन में बड़ा रंज है। इसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक हिस्सा बाकी हिस्से के खिलाफ लगातार कह भी रहा है, और सोशल मीडिया तो उबला पड़ा है। इस खेल में, दर्शक संख्या वाली टीआरपी के इस खेल में प्रिंट मीडिया के करने का कुछ है नहीं। ऐसे में हम हाल के बरसों में कई बार लिखी गई अपनी बात दुहराना चाहते हैं कि आज के हिन्दुस्तानी समाचार टीवी चैनलों को देखते हुए यहां के प्रिंट मीडिया को अपने आपको मीडिया नाम के दायरे से बाहर ले आना चाहिए, और पहले की तरह अपने आपको प्रेस ही कहना चाहिए। बाकी रह गए मीडिया, और मीडिया नाम का शब्द अपना क्या करना चाहते हैं, वे देखते रहें। प्रेस नाम का शब्द अखबारों के लिए अधिक इज्जत का था, और आज भी मीडिया नाम के शब्द के मुकाबले प्रेस नाम का शब्द अधिक ईमानदार, अधिक साख वाला, और अधिक इज्जतदार बना हुआ है। केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जिस तरह अप्रासंगिक बात कहते हुए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सुनवाई में सबको भागीदार बना दिया है, उसका विरोध कोई तभी कर सकेंगे जब वे मीडिया शब्द से बाहर आकर अपने पुराने नाम, प्रेस का इस्तेमाल शुरू करेंगे।
हिन्दुस्तानी क्रिकेट के एक बड़े नामी-गिरामी और इज्जतदार भूतपूर्व खिलाड़ी, वर्तमान कमेंटेटर सुनील गावस्कर अपनी एक लापरवाह एक टिप्पणी को लेकर ऐसे बुरे फंसे हैं कि उन्होंने कभी ऐसा सोचा भी नहीं होगा। गावस्कर का नाम तमाम विवादों से परे रहते आया है, और उनके बारे में यह कल्पना भी मुश्किल है कि वे किसी महिला पर ओछी बात कहेंगे या लिखेंगे, लेकिन उन्होंने ठीक यही किया है। अभी कमेंट्री करते हुए गावस्कर ने विराट कोहली के कमजोर खेल पर उन्होंने कहा- उन्होंने लॉकडाऊन में तो बस अनुष्का की गेंदों की प्रैक्टिस की है।
इस ओछी बात पर अनुष्का शर्मा ने गावस्कर की जमकर खबर ली है। सोशल मीडिया पर अपने अकाऊंट में अनुष्का ने लिखा- मिस्टर गावस्कर आपकी बात बड़ी विचलित करने वाली है, और बहुत बुरे टेस्ट की है, लेकिन मैं चाहूंगी कि आप मुझे यह बताएं कि आपने किसी के खेल के लिए उसकी पत्नी को जिम्मेदार ठहराने वाला ऐसा बयान क्यों दिया? मुझे भरोसा है कि बीते बरसों में आपने हर खिलाड़ी के खेल पर टिप्पणी करते हुए उसकी निजी जिंदगी का सम्मान किया होगा। आपको यह नहीं लगता कि मेरे लिए, और हमारे लिए आपको वैसा ही सम्मान दिखाना चाहिए था? मुझे पूरा भरोसा है कि मेरे पति के खेल-प्रदर्शन पर टिप्पणी करने के लिए आपके पास बहुत से दूसरे शब्द और वाक्य हो सकते थे, यह 2020 का साल चल रहा है, और मेरे लिए चीजें अभी तक बदली नहीं हैं। कब तक ऐसी टिप्पणियां करने के लिए मेरे नाम को क्रिकेट में घसीटा जाता रहेगा? सम्माननीय मिस्टर गावस्कर, आप एक महान व्यक्तित्व हैं जिनका नाम जेंटलमैन लोगों के इस खेल में बड़ा ऊंचा माना जाता है। मैं आपको महज यह बतलाना चाहती थी कि जब मैंने आपको यह कहते सुना, मैंने क्या महसूस किया।
यह मामला हालांकि गिने-चुने शब्दों का है, लेकिन इस पर लिखने की जरूरत इसलिए लग रही है कि गिने-चुने शब्द कितने घातक हो सकते हैं, कितने आत्मघाती हो सकते हैं, इसकी यह एक शानदार मिसाल है। गावस्कर को लेकर आमतौर पर इज्जत से ही बात होती है, और यह भी हो सकता है कि वे जिस अंग्रेजी जुबान में कमेंट्री करते हैं, उस जुबान में बोलचाल में इस तरह की छूट लेने का रिवाज रहा हो। यह भी हो सकता है कि खिलाड़ी भावना की उम्मीद के साथ उन्होंने यह मजाक किया हो, लेकिन मजाक तभी तक मजाक रहता है जब तक वह जिसके साथ किया गया हो वह भी उसे मजाक की तरह ले। अगर उसने उसे अपमान की तरह ले लिया, तो फिर वह मजाक नहीं रह जाता, वह अपमान ही हो जाता है।
हमारा ख्याल है कि गावस्कर इसमें बहुत बुरे फंसे हैं। क्रिकेट कमेंटेटर खेल के अलावा और भी बहुत सी मजाकिया बातें करते रहते हैं क्योंकि यह खेल हॉकी या फुटबॉल की तरह तेज रफ्तार नहीं होता जिसमें बोलते चले जाने पर भी वक्त कम पड़ता हो। क्रिकेट तो ऐसी मुर्दा रफ्तार का खेल है कि जिसमें आसमान के इन्द्रधनुष से लेकर दर्शकदीर्घा की सुंदरी की कान की बालियों तक कैमरे से दिखानी पड़ती है, और उसके बारे में बोला भी जाता है। ऐसे खेल में लगातार बोलते हुए इस एक चूक ने गावस्कर के लिए यह बड़ी शर्मिंदगी पैदा कर दी है।
लेकिन हम इसके साथ-साथ एक दूसरी बात की वजह से भी इस मुद्दे पर आज यहां लिख रहे हैं। वैसे तो अभिनेत्री अनुष्का शर्मा की जितनी उम्र होगी, उतने बरस गावस्कर को क्रिकेट खेले, और छोड़े हो चुके होंगे। लेकिन अनुष्का ने इस मुद्दे को उठाकर महिलाओं के अधिकारों को लेकर एक बड़ा बयान खड़ा किया है, जिसके बारे में सोचने की जरूरत है। हिन्दुस्तान का सोशल मीडिया, यहां का साहित्य, यहां के कार्टून, यहां के व्यंग्य, ये सब औरत और पत्नी को मजाक का सामान बनाकर चलते हैं। हम महिलाओं के साथ भाषा और समाज की सोच की ज्यादती पर अक्सर लिखते हैं। आज एक महिला ने जिस तरह गावस्कर की खबर ली है, उससे बहुत से और लापरवाह बड़बोले कुछ तो समझेंगे कि उनकी बेसमझी की बातें जरूरी नहीं हैं कि केवल लोगों को गुदगुदाकर शांत हो जाएं। वे बातें हो सकता है कि बूमरैंग की तरह घूमकर लौटें, और उसे चलाने वाले को ही जख्मी कर जाएं। गावस्कर की बात मजाक रहते हुए भी एक घटिया मजाक की तरह दोहरे मतलब वाली बात थी। उन्हें सुनने वाले तमाम लोगों ने उनके शब्दों से अनुष्का के बारे में क्या कल्पना की होगी, यह सोचना कोई मुश्किल काम नहीं है। इसलिए एक महिला ने, गावस्कर के मुकाबले बड़ी कमउम्र की महिला ने जिस तरह से उन्हें जवाब दिया है, वह भी बड़ा शानदार कदम है। लोगों को अपने अधिकार और अपने सम्मान के लिए ऐसे ही चौकन्ना रहना चाहिए। यह बात सिर्फ व्यक्ति और निजी स्तर की बात नहीं है, यह सार्वजनिक रूप से कही गई बात है, और महिलाओं के सारे तबके को अपमानित करने वाली बात है।
कुछ शब्दों से खड़े हुए इस विवाद को लेकर यह समझने की जरूरत है कि जब माईक पर लगातार बोलने के लिए ही दसियों लाख रूपए मिलते हों, तब भी चटपटी और गुदगुदी बात कहते हुए यह तौल लेना चाहिए कि वह कितनी घातक हो सकती है। दूसरी बात यह कि अगर आपके खिलाफ किसी बड़े ने भी ओछी बात कही है, तो उसका विरोध करना चाहिए, न कि बुजुर्गियत का सम्मान करते हुए मन मारकर चुप बैठ जाना चाहिए। आज सोशल मीडिया की मेहरबानी से समर्थन या विरोध करने के लिए लोग तुरंत जुट जाते हैं, और विराट कोहली और अनुष्का शर्मा के प्रशंसकों ने तुरंत ही गावस्कर को कमेंटरी से हटाने की मांग उठा दी है। लेकिन अपनी लड़ाई महज दूसरों के कंधों पर नहीं छोडऩी चाहिए, लोगों को खुद भी प्रतिकार करना चाहिए, और इतना हौसला दिखाने के लिए अनुष्का शर्मा बड़ी तारीफ की हकदार है।
देश में किसानों और मजदूरों के हितों के खिलाफ कहे जा रहे कानून थोक में बन रहे हैं, और संसद में उन्हें विपक्ष की गैरमौजूदगी में ध्वनिमत से इस तरह पारित किया जा रहा है कि मानो कपिल शर्मा के कॉमेडी शो में नामौजूद दर्शकों की रिकॉर्ड की हॅंसी और खिलखिलाहट बजाई जा रही हो। दूसरी तरफ देश के टीवी चैनलों पर किसानों और मजदूरों को कोई जगह न मिल जाए इसलिए कंगना और नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो मिलकर तमाम बुलेटिनों को भर दे रहे हैं, और मानो दीपिका पादुकोन का चेहरा काफी न रहा हो, उसके वॉट्सऐप की बातचीत भी एक-एक शब्द मीडिया में आ रही है। ऐसे चटपटे मौके पर भला मीडिया के अपने नीति और सिद्धांत की बात सोचकर भला किस चैनल को भूखे मरना है, चैनल वाले क्या किसानों के साथ टंग जाएं?
लेकिन अभी जो जानकारी सामने आ रही है, उसे कुछ और खबरों के साथ जोडक़र देखना जरूरी है। गुजरात के आकार पटेल नाम के एक पत्रकार या सामाजिक कार्यकर्ता के तीन ट्वीट को लेकर एक जुर्म दर्ज हुआ है कि उन्होंने जातिवादी नफरत फैलाने की कोशिश की है। उन्हें पुलिस ने अपना मोबाइल फोन जमा कराने के लिए कहा है। लोगों को याद होगा कि देश के एक और प्रमुख शांतिप्रिय लेखक, दिल्ली के प्राध्यापक अपूर्वानंद को भी पुलिस ने हिंसा भडक़ाने के आरोप में अपना फोन जमा कराने का नोटिस दिया है।
यहां हमारी फिक्र सिर्फ यह है कि आज सोशल मीडिया पर किसी की लिखी गई महज एक लाईन के खिलाफ देश में कहीं भी एक एफआईआर दर्ज की जा सकती है, उसके बाद वहां की पुलिस या जांच एजेंसी ऐसे मोबाइल को, लैपटॉप या कम्प्यूटर को जब्त कर सकती है। लेकिन जब्त करने के साथ ही उस व्यक्ति की पूरी निजी जिंदगी उस जांच एजेंसी के हाथ रहेगी, और उसकी जानकारी इसी तरह छांट-छांटकर मीडिया में लीक की जा सकेगी जिस तरह पिछले चार दिनों में संसद की खबरों के मुकाबले मोर्चे पर तैनात करने के लिए मुम्बई के नशे के संदेश खड़े किए जा रहे हैं।
लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि उनके फोन पर से मिटाई जा चुकी हर बात को वापिस हासिल किया जा सकता है, उनके हर संदेश, हर फोटो या वीडियो को वापिस लाया जा सकता है। बहुत से लोग इस धोखे में हैं कि वॉट्सऐप पर संदेश सुरक्षित रहते हैं। वे सुरक्षित तभी तक रहते हैं जब तक फोन या कम्प्यूटर पुलिस या जांच एजेंसी के हाथ न लग जाए। एक बार हाथ लगे उपकरण तमाम राज उगल देते हैं, मिटाए हुए भी, बंद किए हुए खातों के भी, और आपके साथ-साथ आपके आसपास के तमाम लोगों को एक मोबाइल फोन हमाम के तमाम नंगे बनाकर रख देता है।
आज फिक्र महज यह नहीं है कि आपको कोई जुर्म कर रहे हैं या नहीं, आज फिक्र यह भी है कि आपके खिलाफ कहीं कोई एक फर्जी रिपोर्ट लिखा दे, आपके फोन-कम्प्यूटर जब्त हो जाएं, आपके ई-मेल और सोशल मीडिया खाते जांच एजेंसी के हाथों खुल जाएं, और उनके सारे नए-पुराने संदेश, रखे हुए या मिटाए हुए फोटो-वीडियो, सब कुछ राजनीतिक ताकतों के हाथ लग जाएं। अभी कल ही छत्तीसगढ़ में भाजपा के एक प्रवक्ता की फेसबुक पोस्ट पर कांग्रेस के नेताओं ने पुलिस में शिकायत की है, और इस आदमी के फोन-कम्प्यूटर जब्ती से बस एक कदम दूर खड़े हैं।
अब हालत यह है कि लोगों की जासूसी करने के लिए लोगों के फोन सुनना, उनके कॉल डिटेल्स निकालना, ऐसे नाजुक काम करने का खतरा भी उठाने की जरूरत नहीं है। हिन्दुस्तान में तो इतने धर्म हैं और लोगों की धार्मिक भावनाएं कदम-कदम पर आहत होती रहती हैं, इतनी जातियां हैं कि लोग किसी भी बात को अपनी जाति के खिलाफ नफरत फैलाने की हरकत मान सकते हैं, इसके बाद लोगों के निजी फोन-कम्प्यूटर जब्त करना आसान बात हो जाती है।
हमने इस कॉलम में भी, और इस अखबार के दूसरे स्तंभों में भी एक अमरीकी फिल्म ‘एनेमी ऑफ द स्टेट’ का जिक्र किया है जो कि सन् 2000 में जारी हुई थी, और जिसमें एक नौजवान वकील के पीछे अमरीका की सरकार का एक ताकतवर मंत्री सरकार की तमाम एजेंसियों को लेकर टूट पड़ता है, और किस तरह उसकी जिंदगी का हर पल नंगा कर दिया जाता है, किस हद तक उसकी निगरानी होती है, किस तरह उसके घर के चप्पे-चप्पे पर माइक्रोफोन और कैमरे लगा दिए जाते हैं, उसका पीछा किया जाता है। यह कल्पना तो किसी ने 2000 के खासे पहले की होगी तभी 2000 में यह फिल्म बनकर जारी हो गई थी। आज के हिन्दुस्तान में अगर सरकार अपनी कानूनी और गैरकानूनी ताकत को लेकर किसी पर इस तरह टूट पड़े, तो सबसे आसान बात रहेगी उस व्यक्ति या उसके किसी करीबी के खिलाफ ऐसी रिपोर्ट दर्ज कराई जाए जिससे उसके फोन और कम्प्यूटर जब्त हो सकें।
हम यह बात लोकतंत्र को हांकने वाली सरकारों की जानकारी के लिए नहीं लिख रहे हैं, सरकारों को तो इसकी तमाम जानकारी है कि इस हथियार का कैसे इस्तेमाल किया जाए, हम इसे उन लोगों के लिए लिख रहे हैं जो अपने लिखने और बोलने की वजह से, सडक़ों पर आंदोलन करने की वजह से सरकारों की नजरों में खटकते हैं, और जिनके खिलाफ उनके फोन-कम्प्यूटर को खड़ा करना आसान काम है। लोगों को अपने औजारों से ज्यादा सरकारों की नीयत पर भरोसा होना चाहिए, और अपने तौर-तरीके एकदम से काबू में रखना चाहिए। जहां तक पिछली बातों को मिटाने का सवाल है, तो इंटरनेट पर इसके लिए कई किस्म की सलाह मौजूद है, और लोग अपने इतिहास को थोड़ा सा कम तो कर सकते हैं, पूरा चाहे न मिटा सकें। जो लोग फोन और कम्प्यूटर पर कुछ नाजुक बात करते हैं, काम करते हैं, उन्हें ऐसी किसी जब्ती के पहले एक स्वच्छता पखवाड़ा चलाना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
इन दिनों पत्रकारिता में एक नई शैली आगे बढ़ रही है, डाटा-जर्नलिज्म। आंकड़ों का विश्लेषण करके कोई नतीजा निकालना, और उसके आधार पर समाचार या रिपोर्ट तैयार करना, कोई विश्लेषण करना या विचार लिखना। डाटा-जर्नलिज्म के साथ दो चीजें जुड़ी रहती हैं जिनकी वजह से वह आम अखबारनवीसों या दूसरे किस्म के पत्रकारों के लिए, मीडियाकर्मियों के लिए कुछ मुश्किल होता है, उसके लिए गणित की जानकारी जरूरी है, और आंकड़ों के विश्लेषण के तरीके भी आने चाहिए। यह तो बुनियादी औजार हुए, इसके बाद फिर समाचार की एक समझ होनी चाहिए कि इन आंकड़ों से किया क्या जाए, इनसे कैसे नतीजे निकाले जा सकते हैं, इनके आधार पर कैसी तुलना हो सकती है। जिन लोगों को सांख्यिकी की समझ न हो, और अखबारनवीस की नजर न हो, उनके लिए आंकड़े ऊन का उलझा हुआ गोला रहते हैं जिन्हें सुलझाना उनके बस का नहीं रहता।
आज इस पर चर्चा की जरूरत इसलिए हो रही है कि दुनिया और देश-प्रदेश में कोरोना से जुड़े हुए आंकड़ों को लेकर रोजाना खूब सारे ग्राफ और चार्ट बन रहे हैं, विश्लेषण हो रहे हैं कि किस प्रदेश में कोरोना सबसे अधिक रफ्तार से बढ़ रहा है, कहां पर मौतें अधिक हो रही हैं। लेकिन लोग संख्याओं की तुलना करते हुए अधिकतर जगहों पर इस बात की तुलना नहीं करते कि ये आंकड़े आबादी के अनुपात में हैं या नहीं। होता यह है कि सबसे अधिक आबादी वाले यूपी-बिहार के आंकड़ों की तुलना अगर सीधे-सीधे सिक्किम-अरूणाचल के आंकड़ों से कर दी जाएगी, तो उन आंकड़ों से कोई मतलब नहीं निकलेगा। चाहे कोरोना पॉजिटिव का मामला हो, चाहे मौतों का, इन तमाम आंकड़ों को जब तक प्रति लाख या प्रति दस लाख आबादी के साथ जोडक़र उनकी तुलना नहीं की जाएगी, वे एक झूठी तस्वीर पेश करने वाले आंकड़े रहेंगे।
डाटा-जर्नलिज्म इसीलिए एक अपेक्षाकृत नई ब्रांच है, और वह लोगों के मन से लिखी जाने वाली बातों के मुकाबले अधिक वैज्ञानिक तथ्य सामने रखने वाली पत्रकारिता है। यह भी जरूरी है कि इस औजार के साथ-साथ सामाजिक जमीनी हकीकत की समझ भी हो, और उसे ध्यान में रखते हुए आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए। अब लगातार तरह-तरह के कोर्स हो रहे हैं कि डाटा-जर्नलिज्म कैसे हो। जो बड़े मीडिया हैं, उनमें रोज ही आंकड़ों के आधार पर चार्ट और ग्राफ, नक्शे और बक्से बनाए जाते हैं जिनसे एक नजर में लोग निष्कर्ष निकाल सकते हैं। इंफोग्राफिक नाम से बहुत से ऐसे सांख्यिकीय तुलनात्मक अध्ययन इन दिनों चलन में है जिनसे लंबे-लंबे लिखे हुए तथ्यों के मुकाबले बात अधिक आसानी से समझ में आ जाती है।
लेकिन डाटा-जर्नलिज्म का एक बड़ा खतरा यह है कि अगर कम समझ के साथ आंकड़ों से खिलवाड़ किया गया तो एक गलत तस्वीर निकलकर आ सकती है, और पाठकों में से तो बहुत ही कम लोग इतनी गहरी समझ वाले रहते हैं कि आंकड़ों के साथ-साथ देशों की आबादी, या प्रदेशों की आबादी के अनुपात में उन आंकड़ों को तौल सकें। इसलिए जहां कहीं कोई मीडिया आंकड़ों की अखबारनवीसी कर रहे हों, वहां उनमें एक गहरी समझ भी जरूरी है। आज तो हाल यह है कि भारत सरकार या प्रदेशों की सरकारें भी जिन आंकड़ों को सामने रख रही हैं, वे सही परिप्रेक्ष्य में नहीं तौले जाते हैं। अब जैसे प्रति दस लाख आबादी पर कोरोना के कितने टेस्ट हुए, यह बात तो इसी सही तरीके से इसलिए तौली जा रही है कि इसका एक अंतरराष्ट्रीय पैमाना चले आ रहा है, और बाकी दुनिया के आंकड़ों के विश्लेषण देखते हुए हिन्दुस्तान में भी आबादी और जांच का अनुपात देखा जा रहा है। लेकिन उससे परे जब प्रदेशों में मिलने वाले कोरोना के नए आंकड़े देखे जाएं, या होने वाली मौतों को लेकर प्रदेशों की तुलना हो, तो मामला गड़बड़ा जाता है। तीन करोड़ से कम आबादी वाला प्रदेश और दस करोड़ से अधिक आबादी वाला प्रदेश भी एक-एक प्रदेश ही गिनाते हैं, और उनमें मौतें भी अगल-बगल रखकर गिन दी जाती हैं, बिना यह देखे कि इनके आबादी का फर्क क्या है। छोटे अखबारों और दूसरे छोटे मीडिया कारोबार में सांख्यिकी के जानकार अलग से नहीं रखे जा सकते, इसलिए वहां तो दूर, बड़े-बड़े अखबारों में भी आंकड़ों की पकी-पकाई तुलना को परखने का काम कोई नहीं करते। कम से कम आम पाठक को इस बात के लिए जागरूक करना चाहिए कि वे बहुत से दूसरे पैमानों को ध्यान में रखते हुए ही पेश किए गए चुनिंदा आंकड़ों से कोई निष्कर्ष निकालें। पत्रकारिता की पढ़ाई में भी डाटा-जर्नलिज्म अनिवार्य रूप से पढ़ाना चाहिए क्योंकि अब कम्प्यूटरों के अधिक से अधिक इस्तेमाल के साथ यह काम बढ़ते जाना है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश में जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अपने शहर गोरखपुर में ऑक्सीजन की कमी से बड़ी संख्या में बच्चे मारे गए थे, तब खबरों में आए एक लोकप्रिय और समर्पित चिकित्सक डॉ. कफील खान को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अभी कुछ दिन पहले रिहा किया। उन्हें महीनों से योगी सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में डाल रखा था। हाईकोर्ट ने उन्हें हिरासत में लेने को पूरी तरह गैरकानूनी बताया। गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के शिशुरोग विशेषज्ञ डॉ.कफील खान को नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ एक प्रदर्शन में हिस्सा लेने पर छह महीने पहले योगी सरकार ने गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया था, और अभी फिर उनकी हिरासत को तीन महीने के लिए बढ़ा दिया था जिसे हाईकोर्ट ने पूरी तरह गैरकानूनी करार दिया है।
अब सवाल यह उठता है कि बाढ़ और पानी में घूम-घूमकर लोगों का इलाज करने वाले इस डॉक्टर के जो छह महीने जेल में गुजरे हैं, उनका क्या होगा? खासकर उस हालत में जब इसके पीछे सरकार की बदनीयत की बात पहले दिन से उठाई जा रही थी, और अदालत में एक किस्म से यह साबित भी हुई है। एक पेशेवर डॉक्टर मुसीबत के इन छह महीनों में मरीजों की सेवा करने के बजाय एक फर्जी मामले में जेल में रखा गया, क्या इस पर सरकार को सजा देने का कोई कानून नहीं होना चाहिए? क्योंकि लोकतंत्र में अगर सरकार ही बदनीयत हो जाए, उसकी मशीनरी बेईमानी और धोखे से, दबावपूर्वक या कपट से गवाह और सुबूत जुटाकर, या इसके भी बिना कोई कार्रवाई करे, तो उससे बड़ी अदालत से राहत मिलने के पहले तक तो और कोई बचाव नहीं हो सकता। ऐसा सिर्फ डॉ. कफील के केस में नहीं हुआ है, हमारे बहुत करीब छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी दर्जनों मामलों में ऐसा हुआ है जिनमें देश के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ताओं को, राजनीतिक नेताओं को झूठे मामलों में फंसाया गया, और कम से कम ऐसे एक मामले में तो अभी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने राज्य की रमन सरकार के वक्त दर्ज किए गए फर्जी मामलों पर देश के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ताओं को नगद मुआवजा भी दिलवाया है। एक तरफ तो कहां इन लोगों को रमन सरकार के बस्तर के आईजी कल्लूरी ने झूठे मामलों में उलझाया था, बरसों तक ये लोग मामला झेलते रहे, और अब उसका मुआवजा मिला है।
हमारा यह भी मानना है कि सरकार में बैठे लोग जब कोई कार्रवाई करते हुए बदनीयत के लिए पकड़े जाते हैं, तो उनके सर्विस रिकॉर्ड में ऐसे मामलों को दर्ज किया जाना चाहिए, उनकी पदोन्नति के वक्त उनकी ऐसी हरकतें आड़े आनी चाहिए, उन पर जुर्माना लगना चाहिए, और इन दिनों मोदी सरकार जिस तरह अफसरों को तीस बरस की नौकरी या पचास बरस की उम्र के बाद रिटायर करने की बात कर रही है, तो उसमें ऐसे अफसरों के बारे में अनिवार्य रूप से सोचने की एक प्रक्रिया लागू की जानी चाहिए। जिन अफसरों के खिलाफ महिला आयोग, मानवाधिकार आयोग, अदालतों ने टिप्पणियां की हैं, उन तमाम अफसरों के सर्विस रिकॉर्ड में, या जिसे सीआर कहा जाता है उसमें, ऐसे कागजात अनिवार्य रूप से लगाए जाने चाहिए, और इस बात की भी गारंटी करनी चाहिए कि जिस तरह के हालात में, जिस तरह के इलाकों में, जिस तरह के लोगों के साथ इन अफसरों ने ऐसा सुलूक किया है, उनके बीच इनकी कभी पोस्टिंग न हो। इस मामले में सामाजिक कार्यकर्ता भी एक काम कर सकते हैं कि वे सरकार और अदालत, या राजभवन जैसी संवैधानिक संस्था के पास लिखित शिकायत दे सकते हैं कि ऐसे अफसरों के रिकॉर्ड में इन बातों कों दर्ज किया जाए। सीआर देखने का काम ऐसे अफसरों के सीनियर ही करते हैं, और वे लोग आमतौर पर अपने साथी अफसर, अपने मातहत अफसर के साथ रहमदिली दिखाने का काम करते हैं। सरकार को इसके खिलाफ भी एक तंत्र बनाना चाहिए, और एक पारदर्शी जनभागीदारी शुरू करनी चाहिए जिसमें किसी कर्मचारी या अधिकारी के खिलाफ शिकायतें, भ्रष्टाचार के मामले, ज्यादती के मामले, गैरकानूनी बर्ताव के मामले लोग दर्ज करवा सकें, और सीआर लिखने वाले सीनियर पर यह बंदिश रहे कि वे उन्होंने देखने के बाद ही सीआर लिखें। आज बंद कमरे में, बंद फाईल में लिखी गई सीआर दो लोगों के बीच का एक आपसी सहमति का दस्तावेज भर रह जाता है।
छत्तीसगढ़ के बस्तर में ऐसे दर्जनों केस हुए हैं जिनमें सुरक्षाबलों ने गरीब और निहत्थे आदिवासियों की बस्तियां जला दीं, ये मामले अदालत या मानवाधिकार आयोग में भी गए, वहां इन ज्यादतियों की शिकायतों को सही भी पाया गया, लेकिन हुआ क्या? कुछ भी नहीं। इसी प्रदेश में कई बड़े-बड़े पुलिस अफसरों पर देह शोषण के आरोप लगे, मातहत के शोषण के आरोप लगे, लेकिन हुआ क्या? कुछ भी नहीं। पिछली रमन सरकार के रहते हुए ऐसे एक भी अफसर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई, हर किसी को बचाया गया, और आज भूपेश सरकार आने के बाद भी वही रूख जारी है।
हमारा ख्याल है कि जनता के बीच के लोग अगर राज्यपाल, हाईकोर्ट, और राज्य सरकार से लिखकर कहेंगे कि ऐसे लोगों के रिकॉर्ड में ये मामले दर्ज किए जाएं, और ऐसा न करने पर सरकार में बैठे लोग अपनी संवैधानिक या कानूनी जिम्मेदारी पूरी नहीं करेंगे, गुनाह में भागीदार रहेंगे, तो इन बातों का कुछ असर हो सकता है। बस्तर के जिस मामले में नंदिनी सुंदर से लेकर संजय पराते तक, बहुत से सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को अभी मुआवजा मिला है, उस मामले में झूठी तोहमतों में फंसाए गए ये तमाम लोग ऐसी पहल करने में सक्षम लोग हैं, और उन्हें हर स्तर पर कोशिश करनी चाहिए। हो सकता है कि इसी से एक ऐसी नजीर बन जाए जो आगे काम आए। लोकतंत्र में हर किस्म के अधिकार किसी न किसी एक मामले से शुरू होकर ही आगे बढ़ते हैं, सूचना का अधिकार भी ऐसे ही बना था, और दूसरे कई लोकतांत्रिक कानून भी। इसलिए सरकार में बैठे लोग जब गुंडागर्दी करते हैं, जब जुर्म करते हैं, तब उनको सजा मिलने का एक पुख्ता ढांचा तैयार करना चाहिए, और उनके मामले इकट्ठा करने के लिए जनभागीदारी को एक अहमियत की बात मानना चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट ने देश में देह बेचने वाले लोगों की मदद करने का एक हौसला दिखाया है। देश में लॉकडाऊन के लंबे महीनों के दौरान सेक्स का कारोबार बंद सरीखा रहा है। ऐसे में उनके बुनियादी नागरिक हकों के लिए एक याचिका दायर की गई थी जिस पर अदालत ने केन्द्र और तमाम राज्यों को सेक्स वर्करों को सभी बुनियादी सुविधाएं देने का निर्देश दिया है। अदालत ने कहा है कि सेक्स वर्करों को राशन कार्ड के बिना राशन दिया जाए, और बुनियादी जरूरतें मुहैया कराई जाएं। जस्टिस एल.नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि अधिकारी सेक्स वर्करों को राहत देने के लिए ऐसे कदम उठाने पर विचार कर सकते हैं जो ट्रांसजेंडर समुदाय की मदद के लिए उठाए गए हैं। देश भर में हजारों ट्रांसजेंडरों को केन्द्र सरकार की ओर से 15 सौ रूपए महीना गुजारा भत्ता दिया जा रहा है।
हम सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को इस मायने में बहुत क्रांतिकारी मान रहे हैं कि उन्होंने एक ऐसे तबके के मदद करने के लिए कहा है जिसको आज भी हिन्दुस्तान में मुजरिम माना जाता है। हम अपने आसपास आए दिन देखते हैं कि वेश्यावृत्ति में लगी हुई महिलाओं को किस तरह कभी उनके दलाल के साथ, तो कभी ग्राहकों के साथ गिरफ्तार किया जाता है। इसलिए आज अदालत अगर उनके मुजरिम होने का जिक्र किए बिना उनके बुनियादी नागरिक अधिकारों का जिक्र करते हुए उनकी मदद करना सरकार की जिम्मेदारी करार दे रही है तो यह एक हौसले का, और कल्याणकारी आदेश है। यह मुकदमे में आखिरी फैसला नहीं है, यह अगली सुनवाई तक का आदेश है। हमारा ख्याल है कि यह वेश्याओं को इंसान मानने का एक रूख है जिसे आगे बढ़ाना चाहिए।
इस देश में वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा देने की बात एक राजनीतिक फैसला होगी, और राजनीतिक दल देश की इस जमीनी हकीकत को अनदेखा करते हुए अपना सिर रेत में घुसाए रहेंगे कि मानो वेश्यावृत्ति इस देश में होती ही नहीं है। आज हालत यह है कि दसियों लाख महिलाएं इस देश में अपनी देह बेचकर ही जिंदा हैं। वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा न मिलने से यह एक जुर्म है, और जुर्म होने से इस पर पलने के लिए दलालों से लेकर सरकारी अमले तक बहुत से लोग मैदान में रहते हैं। इलाकों के मवाली, कई किस्म के नेता, पुलिस, और सरकार के दूसरे लोग अपने इलाकों में चलने वाले चकलों को एक दुधारू गाय की तरह दुहते रहते हैं। शायद यह भी एक वजह है कि कोई भी वयस्क वेश्यावृत्ति को जुर्म के दायरे से बाहर निकालना नहीं चाहते, क्योंकि जैसे ही लोगों को अपनी देह बेचने का कानूनी हक मिल जाएगा, उनसे अवैध उगाही बंद हो जाएगी।
हम आज जिंदा रहने के लिए जरूरी मदद वाले इस अदालती आदेश का ऐसा कोई क्रांतिकारी विस्तार नहीं देखते कि इससे वेश्यावृत्ति के कानूनी दर्जे तक बात जा पाएगी। अभी तो एक खतरा यह है कि जैसे ही कोई महिला या पुरूष अपने आपको सेक्स वर्कर बताते हुए सरकारी अनाज के लिए जाएंगे, वैसे ही सरकार के पास एक रजिस्टर बनते जाएगा कि अनाज देने के बाद आगे किन पर कार्रवाई करनी है। सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा आदेश से स्थानीय अधिकारियों के हाथ आगे उगाही का एक रजिस्टर लग जाएगा। आज का अदालती आदेश ऐसे किसी खतरे को देखते हुए नहीं दिया गया है, और अपने आपको सेक्स वर्कर घोषित किए बिना अनाज या कोई दूसरी मदद मिल भी नहीं सकती।
आज अदालत ने इस सिलसिले में आदेश देते हुए एक चूक भी की है कि किसी मदद के संदर्भ में उसने ट्रांसजेंडरों की मिसाल दी है। देश में ट्रांसजेंडरों से लोगों को जो परहेज है, उनमें से एक यह भी है कि उनमें से कुछ या कई लोग सेक्स वर्करों की तरह काम भी करते हैं। यह बात ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग भी मानते हैं कि उनके कुछ लोग देह सेवा बेचते हैं। अब आज अदालत ने सेक्स वर्करों के संदर्भ में ट्रांसजेंडरों की मिसाल देकर एक सामाजिक चूक की है और लोग इन दोनों तबकों को एक ही किस्म का मान बैठेंगे।
खैर, इन तमाम बातों से परे यह लिखने की जरूरत है कि जब सेक्स वर्कर को सेक्स वर्कर मानते हुए मदद का हकदार माना जा रहा है, तो फिर उस सेक्स-वर्क को जुर्म कैसे माना जाए? लोगों को याद है कि अंग्रेजों के वक्त से समलैंगिकता को जुर्म बनाने का सिलसिला अभी पिछले बरसों तक जारी था, और हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को जुर्म के दायरे से बाहर किया है। वेश्यावृत्ति के मामले में अगर देश की इन दसियों लाख महिलाओं और शायद हजारों पुरूषों को इंसानों की तरह रहने देना है, तो इसे कानूनी बनाना चाहिए ताकि इन्हें हिफाजत मिल सके, इनकी सेहत की जांच हो सके, और इनके ग्राहकों की सेहत भी बची रह सके। यह एक बड़ा मुद्दा है, और महिलाओं के कुछ हिमायती भी हमारी इस सोच के खिलाफ हैं, बहुत से महिला आंदोलनकारियों को यह कानूनी दर्जा महिलाओं को नुकसान पहुंचाने वाला लगता है, और इस पर एक व्यापक सार्वजनिक बहस होनी चाहिए। आज सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश की बड़ी छोटी सीमाओं के भीतर ही हमें ऐसी विस्तृत और विशाल बहस की संभावना दिखती है। सुप्रीम कोर्ट ने आज महज जिंदा रखने के लिए इनके पक्ष में यह आदेश दिया है, लेकिन यह सेक्स वर्करों को अपराधी के दर्जे से अलग करने की सोच दिखाता है। उसी को आगे बढ़ाने की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जब कभी यह लगने लगता है कि हैवानियत अब इससे अधिक कुछ नहीं हो सकती, कुछ नए मामले सामने आकर खड़े हो जाते हैं, और पूछने लगते हैं-हमारे बारे में नहीं सोचा था?
कल रात एक खबर आई कि एक नौजवान ने अपने बाप को गोली मार दी ताकि उसकी जायदाद पर कब्जा कर सके। दूसरी तरफ कल ही रात यह खबर आई कि एक पंडित ने एक गर्भवती महिला के बारे में जब यह भविष्यवाणी की कि उसकी छठीं संतान भी लडक़ी ही होने वाली है, तो उसके पति ने हंसिया लेकर पेट काटना शुरू कर दिया ताकि देख सके कि भीतर लडक़ा है या लडक़ी।
अपने आपको इंसानियत से भरपूर समझने वाले लोगों के भीतर खासा हिस्सा हैवानियत का होता है। और अपने भीतर के इस गोडसे वाले हिस्से को मारकर गांधी वाले हिस्से को बढ़ाने में कुछ लोग कामयाब हो पाते हैं, अधिक लोग नाकामयाब रहते हैं। लेकिन ये तमाम किस्म के इंसान अच्छी हरकतों को इंसानियत करार देते हैं, और भाषा भी अच्छे, रहमदिल को ही इंसानियत मान लेती है, और बुरे कामों को, बुरी नीयत को हैवानियत का लेबल लगा देती है, मानो वह इंसान के बाहर का कोई राक्षस हो। बातचीत में भी भाषा और शब्दों में भी इंसान यह मानने को तैयार नहीं होते कि हैवानियत कही जाने वाली चीज उनके भीतर की नहीं है। इसलिए पांच बेटियों के बाद छठवीं संतान भी बेटी तो नहीं है यह देखने के लिए बीवी का पेट काटने वाले इस इंसान की हरकत भी हैवानियत करार दे दी जाएगी ताकि बाकी इंसान अपने इंसान होने पर शर्मिंदगी न झेलें।
लेकिन भाषा से परे की दो बुनियादी बातों पर सोचने की जरूरत है। पहली तो यह कि हिन्दुस्तान में बेटों की चाह पहले तो छठवीं संतान तक ले जा रही है, और फिर बीवी का पेट काटकर जेल भी पहुंचा रही है। इस चाह को क्या नाम दें जिसके खिलाफ कड़े कानून बने हुए हों, और दुनिया भर में बेटियों ने यह साबित किया है कि मां-बाप की सेवा करने में भी वे बेटों से कहीं कम नहीं हैं। कल रात जब यह पेट कट रहा था, उसी वक्त एक बेटा जायदाद के लिए अपने बाप को गोली मारकर खुद भी मर गया। इसके बावजूद अभी दो दिन पहले छत्तीसगढ़ में मां-बाप की सेवा करने का एक सम्मान एक महिला सिपाही को दिया गया जिसका नाम श्रवण कुमार सम्मान था। सम्मान की हकदार एक युवती है, लेकिन सम्मान का नाम श्रवण कुमार के नाम पर रख दिया गया क्योंकि हिन्दुस्तानी समाज में सेवा करने वाली बेटी की कोई कहानी कभी प्रचलित नहीं की गई, महज श्रवण कुमार की कहानी प्रचलित की गई। आज मुद्दे की बात यह है कि बेटों की चाह में छठवीं संतान पैदा करने जा रहे लोगों को क्या कहा जाए? और खासकर यह मामला जिस तरह की पारिवारिक हिंसा का है उसमें यह साफ है कि यह परिवार मर्द के दबदबे वाला है, और इसमें महिला की कोई जुबान ही नहीं है। न परिवार के दूसरे लोगों ने, और न ही इस हिंसक मर्द ने खुद होकर यह सोचा कि दो बेटियों के बाद तीसरी संतान क्यों चाहिए थी, चौथी क्यों चाहिए थी, पांचवीं क्यों चाहिए थी, और अब छठवीं क्यों चाहिए? हिन्दुस्तान के अलग-अलग जातियों के समाजों को यह भी सोचना चाहिए कि किस धर्म के लोगों में बेटियों की हत्या आम हैं, भ्रूण हत्या आम हैं, और किन धर्मों में बेटे-बेटियों में फर्क नहीं किया जाता, गर्भपात का चलन नहीं है। समाज में सभी लोग हकीकत जानते हैं, और सबसे अहिंसक होने का दावा करने वाले धर्मालु लोग कन्या भ्रूण हत्या में अव्वल रहते हैं, और जिन जाति-धर्मों के लोग हिंसक माने जाते हैं, उनमें कन्या भ्रूण हत्या सुनी भी नहीं जाती है। इस सिलसिले को तोडऩे की जरूरत है। हकीकत के आंकड़े देखने हो तो केरल और हरियाणा, इन दो राज्यों में लडक़े-लड़कियों के अनुपात में फर्क देख लेना चाहिए, पढ़े-लिखे और कामकाजी केरल में लड़कियां लडक़ों से अधिक हैं, और दकियानूसी अंदाज में खाप पंचायतों के राज में जीने वाले हरियाणा में लडक़ों को शादी के लिए लड़कियां नहीं मिल रही हैं, जबकि हिन्दुस्तान मेें नौजवान और अधेड़ अपने से पांच-सात बरस छोटी लड़कियों से शादी पसंद करते हैं, जिसका एक मतलब यह भी होता है कि उन्हें लड़कियों की अधिक आबादी में से दुल्हन छांटना हासिल रहता है, ऐसे में भी अगर हरियाणा के कुंवारों को शादी के लिए लड़कियां नहीं मिल रही हैं तो वहां लडक़े-लड़कियों के अनुपात का फर्क आसानी से समझा जा सकता है।
इस देश में अधिक बच्चों के होने का मुद्दा संजय गांधी के आपातकाल से लेकर अब तक नाजुक बना हुआ है। बहुत से लोग दो बच्चों का कानून बनाने को मुस्लिमों पर हमले की तरह देखते हैं। सवाल यह है कि अगर ऐसा कानून बना दिया जाता है, तो उससे मुस्लिमों का भी भला होगा या बुरा होगा? क्या आज हिन्दुस्तान के मुस्लिमों का कोई बड़ा हिस्सा तीसरी और चौथी संतान का खर्च उठाने की हालत में हैं? क्या कम बच्चों पर पढ़ाई और इलाज का अधिक खर्च करना मुस्लिमों को नुकसान करेगा? और फिर एक बात यह भी है कि जो कट्टर हिन्दूवादी लोग दो बच्चों का कानून बनवाना चाहते हैं, उनके अपने हिन्दू धर्म के लोग क्या पहली दो लड़कियों के बाद तीसरी और चौथी संतान की तरफ नहीं बढ़ते हैं? इसलिए अगर अधिक संतान रोकी जा सकती है, तो उसमें क्या मुस्लिमविरोधी होगा, और क्या हिन्दूविरोधी होगा?
जिस दर्जे की निजी हिंसा इस परिवार में देखने मिली है, वह बहुत भयानक है। पेट में लडक़ी है या लडक़ा देखने के लिए अगर आदमी अपनी बीवी का पेट चीरकर अपनी ही संतान की जिंदगी खतरे में डाल रहा है, तो उसे हैवान कहना किसी बात का इलाज नहीं होगा। इस एक मामले में तो कानूनी कार्रवाई हो जाएगी क्योंकि यह खबरों में बहुत अधिक आ गया है, लेकिन इसके परे भी समझने की जरूरत है जहां बेटे की हसरत बढ़ते हुए पारिवारिक हिंसा की शक्ल में तब्दील हो जाती है, वहां पर यह भी समझना चाहिए कि पहले जो दो-तीन, चार या पांच लड़कियां हो चुकी हैं उनके साथ कैसा सुलूक रहता होगा? इसलिए अगर दो बच्चों की सीमा तय की जाती है, तो हो सकता है कि हिन्दुओं में भी ऐसी पारिवारिक हिंसा घट जाए क्योंकि आगे की संतान आने पर सरकारी नौकरी, मुफ्त इलाज या सरकारी योजनाओं का फायदा मिलना बंद हो सकता है। हमारी ऐसी सोच के खिलाफ हमारे ही पास एक तर्क यह है कि दो बच्चों की सीमा होने पर बेटों की हसरत में डूबे लोग पेट के बच्चे का सेक्स जानने के लिए जांच की तरफ और अधिक जाएंगे, कन्या भ्रूण हत्या और अधिक करेंगे क्योंकि दो से ज्यादा बच्चे तो वे पैदा नहीं कर पाएंगे। बच्चों पर रोक लगाना आज एक साम्प्रदायिक मामला भी समझा जाएगा, और बहुत सारे लोग इसे बुनियादी अधिकार कुचलना भी मानेंगे। लेकिन हमारा मानना है कि और किसी वजह से न सही तो कम से कम गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों में बच्चों की बेहतर देखरेख के लिए संतानों की सीमित संख्या जरूरी है।
इस एक घटना ने कुछ मुद्दों पर सोचने के लिए मजबूर किया है, और इन बातों को अनदेखा नहीं करना चाहिए। हिन्दू-मुस्लिम के खुश या नाराज होने के चक्कर में बच्चों की सीमा लागू करने की बात किनारे न धरी रह जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के कुछ जिलों में रोजाना सैकड़ों कोरोना पॉजिटिव मिल रहे हैं, और राजधानी रायपुर तो हर दिन पांच सौ से अधिक का आंकड़ा पेश कर रही है। ऐसे में अब तक रायपुर और उससे लगे हुए औद्योगिक जिले दुर्ग में लॉकडाऊन की घोषणा की गई है। आज जब यह घोषणा हो रही थी उस वक्त राजधानी की सडक़ों का हाल यह था कि उस पर से गुजर रहे लोगों में से आधे लोग भी मास्क लगाए हुए नहीं थे, और सडक़ किनारे फल-सब्जी और दूसरी चीजें बेचते हुए लोगों में से पांच फीसदी लोग भी मास्क लगाए नहीं दिख रहे थे। यह देश ऐसे गैरजिम्मेदार लोगों का देश हो गया है कि जो न अपने मरने की परवाह करते, न ही अपने आसपास के लोगों की मौत की। ऐसी ही गैरजिम्मेदारी लोगों में हेलमेट और सीट बेल्ट को लेकर दिखती है, लेकिन उसमें मौत उनकी अकेले की होती है, हेलमेट न पहनने से दूसरे नहीं मारे जाते, लेकिन मास्क न पहनने से जो संक्रमण फैल रहा है उससे दूसरे लोग भी मारे जा रहे हैं।
छत्तीसगढ़ जैसे बहुत से प्रदेश हैं जहां लोग इसी तरह गैरजिम्मेदार हैं। और ऐसे लोगों के बीच राज्य सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि महामारी कानून का कड़ा इस्तेमाल करके अराजक लोगों पर बड़ा जुर्माना लगाए, उनकी गाडिय़ां जब्त करे, गिरफ्तारी छोडक़र बाकी किस्म की सजा मिलने पर ही लोगों पर कोई असर हो सकता है। आज गिरफ्तारी की बात हम इसलिए नहीं सुझा रहे क्योंकि जेलें अपने आपमें खतरनाक जगह हो गई है, और सरकार को वहां की आबादी घटाना भी चाहिए। लेकिन लोगों पर मोटा जुर्माना लगे, उनकी गाडिय़ां जब्त हों, अगर बिना मास्क लगाए वे सामान बेच रहे हैं तो सामान जब्त हों, तो ही जाकर लोगों को कुछ अकल आ सकती है। महामारी को रोकने के लिए एक कड़ा कानून बना इसीलिए है कि नालायकों से संक्रमण बेकसूर और जिम्मेदार लोगों तक न पहुंचे, बीमारी और मौत पर काबू पाया जा सके।
हम लगातार इस मुद्दे पर लिख रहे हैं, और कल ही हमने इम्तिहानों के खिलाफ लिखा था, और स्कूल-कॉलेज खोलने के खिलाफ लिखा था। आज जिस प्रदेश में नौबत इतनी खराब है कि हर दिन आधा दर्जन से लेकर एक दर्जन तक जिलों में सौ-सौ से अधिक कोरोना पॉजिटिव निकल रहे हैं, वहां पर स्कूल-कॉलेज खोलने का फैसला एक आत्मघाती बेवकूफी के अलावा और कुछ नहीं हो सकता था। आज भी यह साफ नहीं है कि सरकार स्कूल-कॉलेज के बारे में भी कोई फैसले ले रही है, या नहीं। लेकिन जिस राजधानी में बाकी जिलों के मुकाबले बहुत अधिक पुलिस है, वहां हाल यह है कि लोगों के मास्क पहनने की निगरानी नहीं रखी जा रही है। आमतौर पर राजधानी प्रदेश में एक नमूना होती है कि जिसे देखकर बाकी जिलों के अफसर भी कुछ सोचें, लेकिन छत्तीसगढ़ में आज राजधानी में कोई अफसर किसी तरह की सख्ती बरतना नहीं चाह रहे हैं, सडक़ों पर मास्क लागू करवाने का काम भी नहीं हो रहा है। ऐसे गैरजिम्मेदार जिले में यह तो होना ही था कि कोरोना इस रफ्तार से बढ़ता। आज भी अगर राजधानी को देखकर बाकी जिलों के लोग सबक नहीं लेंगे, तो श्मशान पर जलने के लिए भी जगह नहीं मिलेगी।
शुरूआती महीनों में छत्तीसगढ़ सुरक्षित लगता था। उसकी एक वजह यह थी कि यहां न कोई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा था, और न ही किसी पड़ोसी देश की सरहद इस प्रदेश को छूती थी। यह महानगरों से बहुत दूर भी था, और आदिवासी इलाकों, ग्रामीण इलाकों का शहरों से संपर्क कम था इसलिए बीमारी यहां तेजी से नहीं फैली थी। लेकिन अब यह प्रदेश बेकाबू दिख रहा है, और यह अकेले स्वास्थ्य विभाग की जिम्मेदारी नहीं है, यह पूरे राज्य शासन की जिम्मेदारी है जो कि प्रशासन का उपयोग नहीं कर पा रहा है।
हमने कल इसी जगह दुकानों और बाजारों में भीडक़े बारे में लिखा था, दारू दुकानों में बेकाबू धक्का-मुक्की के बारे में लिखा था, और विश्वविद्यालय-कॉलेजों में छात्र-छात्राओं की धक्का-मुक्की वाली भीड़ के बारे में लिखा था। पूरी बात को यह दुहराना जगह की बर्बादी होगी लेकिन हम इतना जरूर कहना चाहते हैं कि जहां-जहां भीड़ लगती है, उन जगहों को अगर सरकार खुला रखना चाहती है, तो उन्हें रात-दिन पूरे वक्त के लिए खोल देना चाहिए। सीमित घंटों की खरीददारी में ऐसी ही मारामारी होना तय है। अभी फिर लॉकडाऊन के दौरान सीमित घंटों के लिए जरूरी सामानों की दुकानें खुलने देने का फैसला लिया गया है। ये सीमित घंटे ही कोरोना का संक्रमण बढ़ाएंगे, और जब तक भीड़ को शून्य करने का इंतजाम नहीं होगा, तब तक यह लॉकडाऊन बेअसर रहेगा। हम अफसरों की ऐसी सोच से बिल्कुल सहमत नहीं हैं कि किराना-सब्जी अगर रात-दिन खुले रखे जाएंगे, तो लोग इस बहाने घूमते रहेंगे। कोरोना लोगों की सडक़ों पर आवाजाही से नहीं फैल रहा है, भीड़ से फैल रहा है। ठेलों पर साथ में खाने से फैल रहा है, दारू दुकानों पर धक्का-मुक्की से फैल रहा है, कॉलेजों में उत्तरपुस्तिका के लिए धक्का-मुक्की से फैल रहा है। प्रदेश में जिलों का मैनेजमेंट कमजोर है क्योंकि अफसरों ने कभी ऐसी महामारी को काबू करना सीखा नहीं है। बेहतर यह होगा कि भीड़ और धक्का-मुक्की रोकने के बहुत आसान से मौजूद तरीके इस्तेमाल किए जाएं, न कि घंटों का प्रतिबंध लगाया जाए।
बड़े नेताओं को भी अपना चेहरा बिना मास्क के दिखाना बंद कर देना चाहिए। तस्वीरों में चेहरा दिखने का मौका आगे कई बरस रहेगा, लेकिन आज अगर बड़े लोग ही बिना मास्क दिखते हैं, तो आम जनता का लापरवाह होना स्वाभाविक लगता है। नेताओं को कैमरा देखकर मास्क हटाने की आदत रहती है, लेकिन आम जनता तक अगर मास्क का संदेश देना है, तो कैमरों के सामने भी नेताओं के चेहरों को अपने को काबू में रखना होगा। और देश के कुछ नेता जिस तरह कलफ लगाया हुआ, प्रेस करके तह जमाया हुआ गमछा मुंह के सामने लपेटकर कोरोना से बचाव का संदेश देते हैं, वह भी बेअसर है। ऐसा कोई कडक़ और तह किया हुआ गमछा कोई कोरोना नहीं रोक सकता।
आने वाले वक्त में कोरोना-महामारी कितनी बेकाबू हो सकती है यह अंदाज लगाना नामुमकिन है, इसलिए राज्य सरकार को जिलों के मार्फत सख्त फैसले लेने होंगे, और हमारा इतना अंदाज तो है कि हफ्ते भर का लॉकडाऊन काफी नहीं होगा। लॉकडाऊन आधी अधूरी इच्छाशक्ति से लागू नहीं होना चाहिए। जनता को भी इससे अधिक लंबे लॉकडाऊन के लिए तैयार रहना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केन्द्र सरकार के निर्देश पर देश भर में जगह-जगह विश्वविद्यालय अपने इम्तिहान की तैयारी कर रहे हैं। उसका एक नमूना कल छत्तीसगढ़ में देखने मिला जब यहां कॉलेजों में छात्र-छात्राओं को उत्तरपुस्तिकाएं लेने के लिए बुलाया गया, और वहां पर उनकी ऐसी भीड़ टूट पड़ी, उनकी ऐसी भयानक खतरनाक तस्वीरें सामने आईं कि रात होने तक सरकार को यह इंतजाम वापिस लेना पड़ा। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम इसी जगह पर पिछले महीनों में लगातार इस बात को लिखते आ रहे हैं कि स्कूल-कॉलेज खोलने में कोई हड़बड़ी नहीं करनी चाहिए और हमने यहां तक लिखा कि अगर सरकार स्कूल-कॉलेज जबर्दस्ती खोलती भी है तो भी लोगों को अपने बच्चे नहीं भेजना चाहिए, पढ़ाई तो होती रहेगी, गई जिंदगी तो लौटेगी नहीं।
इस देश में पढ़ाई को लेकर एक अजीब सा बावलापन चल रहा है कि कोरोना महामारी के इस दौर में, लॉकडाऊन के बीच, बीमारी के खतरे के बीच बिना तैयारी के दाखिला-इम्तिहान लिए जाएं, बिना कॉलेजों की पढ़ाई के, बिना किसी डिजिटल-ढांचे के इम्तिहान लिए जाएं। आज हालत यह है कि छत्तीसगढ़ में ही एक विश्वविद्यालय ने किसी किस्म की ऑनलाईन परीक्षा लेना शुरू किया, तो पहले ही दिन सारा इंतजाम चौपट हो गया। एक के बाद एक अलग-अलग विश्वविद्यालयों और अलग-अलग शहरों में यह बवाल देखने मिल रहा है, और आज जब कोरोना जंगल की आग की तरह आगे बढ़ रहा है, तब सरकार मानो बचे हुए पेड़ों पर पेट्रोल छिडक़ने का काम कर रही है।
छत्तीसगढ़ में जिस रफ्तार से कोरोना बढ़ रहा है, और जिस रफ्तार से अस्पतालों में मरीजों के लिए बिस्तर खत्म हो चुके हैं, उसे देखते हुए प्रदेश के कुछ शहरों में व्यापारियों के संगठनों ने लॉकडाऊन दुबारा करने की मांग की है, उसके लिए दबाव डाला है। ये वही संगठन है, यह वही बाजार है जो कि कुछ हफ्ते पहले खुलने के लिए बेताब था क्योंकि लोगों की रोजी-रोटी खत्म हो गई थी। लेकिन आज कोरोना की लपटें जब पड़ोस तक आ चुकी हैं, तो दुकानदार और बाजार भी बंद हो जाना चाहते हैं, राजधानी रायपुर से लगे हुए एक जिले में 20 से 30 सितंबर तक पूरी तरह का लॉकडाऊन बाजार की मांग पर ही घोषित किया है। आज पूरे प्रदेश को लेकर सरकार को यह तय करना चाहिए कि वह भीड़ कैसे-कैसे घटा सकती है, कैसे-कैसे गैरजरूरी काम बंद किए जा सकते हैं, और जिन लोगों की रोजी-रोटी छिन रही है उन्हें जिंदा रहने में कैसे मदद की जा सकती है। एक तरफ केन्द्र सरकार नई संसद और उसके आसपास का नया अहाता कोई 20 हजार करोड़ खर्च करके बनाने जा रही है, दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ में सरकार नई विधानसभा पर पौने 3 सौ करोड़ खर्च होने वाले हैं। कुल 90 निर्वाचित, और एक मनोनीत, इतने जनप्रतिनिधियों का काम फिलहाल मौजूदा विधानसभा से अच्छी तरह चल रहा है, और आज के माहौल में यह खर्च छत्तीसगढ़ की कांग्रेस पार्टी से मोदी के दिल्ली के 20 हजार करोड़ के खर्च की आलोचना करने का हक छीन चुका है।
आज कोरोना के खतरनाक माहौल को देखते हुए, और आगे मौजूद साल-छह महीने, या इससे भी लंबे चलने वाले खतरे को देखते हुए सरकारों को तमाम गैरजरूरी काम खत्म करने चाहिए, जिसमें हम स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई, और परीक्षाओं को भी गिन रहे हैं। कल जिस तरह की भीड़ कॉलेजों में लगी है, यह तय है कि छत्तीसगढ़ में उससे दसियों हजार लोगों तक संक्रमण बढ़ जाना तय है। कॉलेजों से ही हजारों छात्र-छात्राएं कोरोना का संक्रमण लेकर लौटे होंगे।
अभी हम जब यह लिख रहे हैं तभी छत्तीसगढ़ के एक जिले से खबर आ रही है कि वहां जंगल की जमीन पर कब्जे के आरोप में वन विभाग लोगों की गिरफ्तारी के लिए पहुंचा, और वहां से दर्जनों महिलाओं ने दर्जनों बच्चों सहित गिरफ्तारी दी और वे लोग कल से जिला अदालत में पेशी के लिए पड़े हुए हैं, कल उनकी बारी नहीं आई तो आज भी किसी एक भवन को जेल घोषित करके उन्हें वहां रखा गया है। यह कमअक्ल हमारी समझ से परे है कि आज ऐसे किसी मामले में गिरफ्तारी की जा रही है जो कि आज ही जरूरी नहीं है। आज तो अधिक से अधिक लोगों को जेलों से पैरोल पर छोड़ देना चाहिए ताकि एक सीमित जगह में असीमित भीड़ पर कोरोना का खतरा घट सके। लेकिन सरकारी अफसरों का मिजाज अधिक से अधिक प्रतिबंध, अधिक से अधिक कार्रवाई का रहता है, क्योंकि उन्हें इलाज का वही एक तरीका मालूम है। आज शहरों में जिन दुकानों पर खूब भीड़ लगती है, उनके खोलने का समय भी सीमित घंटों का रखा गया था, हमने बार-बार इसके खिलाफ लिखा भी था, लेकिन निर्वाचित नेता मानो अफसरों की सलाह से परे खुद कुछ नहीं सोच पा रहे हैं, उन्होंने अफसरों को हर कहीं ऐसी मनमानी की छूट दी, और दुकानों पर अंधाधुंध भीड़ लगी रही। आज कोरोना के तेजी से बढ़ते मामलों के बीच हम एक बार फिर यह सुझाव दे रहे हैं कि सरकारों को अपनी तमाम गैरजरूरी कार्रवाई अगले कई हफ्तों या महीनों के लिए रोक देनी चाहिए, स्कूल-कॉलेज और इम्तिहान इनको अगले कई हफ्तों के लिए रोक देना चाहिए, बाजार में जिन दुकानों और कारोबार को खोलने की छूट देना जरूरी है, उन्हें चौबीसों घंटे खुले रखने की छूट देनी चाहिए, ताकि उन पर कोई भीड़ न जुटे। छत्तीसगढ़ में शराब एक बड़ा मुद्दा है, और बाकी का बाजार बात-बात पर शराब की मिसाल भी देता है कि किराना बंद है, और शराब शुरू है। हम इस मौके पर कांग्रेस पार्टी की इस चुनावी घोषणा पर तुरंत अमल नहीं सुझा रहे कि प्रदेश में शराबबंदी की जाए। लेकिन अगर शराब बेचना है तो दुकानों को रात-दिन खोल देना चाहिए, ताकि जिनको पीना है उनकी भीड़ न लगे। आज भी दुकानों पर धक्का-मुक्की के बीच शराब लेने वाले लापरवाही से बीमारी भी ले-दे रहे हैं, और इस बात का हमारे पास कोई सुबूत तो नहीं हैं, लेकिन सामान्य समझ कहती है कि शराब की वजह से, शराबियों की भीड़ और धक्का-मुक्की के मार्फत कोरोना अधिक फैला है। इसलिए अगर दारू बेचना है तो उसे बिना भीड़, बिना धक्का-मुक्की, बिना समय के नियंत्रण के रात-दिन बेचना चाहिए, उसी तरह किराना, दूध, गैस, चौबीसों घंटे बिकना चाहिए जैसे कि पेट्रोल और डीजल बिकते हैं। किसी भी तरह का काबू जिससे भीड़ इक_ी हो सकती है, वह काबू नहीं आत्मघाती आदेश रहेगा। अभी पूरा प्रदेश एक और लॉकडाऊन के लायक हो चुका है क्योंकि शासन-प्रशासन ने बिना मास्क वाले लापरवाह लोगों पर कोई भी कार्रवाई नहीं की। ऐसी महामारी के बीच भी अगर अफसरों की हिम्मत कार्रवाई की नहीं हो रही है, तो यह बहुत ही शर्म की बात है, बहुत ही निराशा की बात है। सरकार को आज कमर कसकर बैठना चाहिए, और पूरे प्रदेश से किसी भी किस्म की भीड़ के मौके खत्म कर देना चाहिए, वरना श्मशान में लाशों और चिताओं की जो भीड़ बढ़ती चल रही है, उसकी गिनती होना मुश्किल हो चुका है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अखबार में काम करते हुए और रात-दिन खबरों से जूझते हुए यह मुमकिन नहीं रह जाता कि सोशल मीडिया से बचकर चल सकें। लेकिन सोशल मीडिया खबरों में मदद करता हो वहां तक तो ठीक है, जब वह खबरों पर सोचने-विचारने वाली समझ को तोडऩे-मरोडऩे लगता है, तो उसका खतरा समझ आता है।
आज एक औसत व्यक्ति ट्विटर या फेसबुक पर जिस तरह के पूर्वाग्रही, दुराग्रही, या आग्रही लोगों का सामना करने को मजबूर हो जाते हैं, वह एक फिक्र की बात है। जो लोग सोशल मीडिया को जानकारी और तर्क के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं, उनका खासा वक्त ऐसे ग्रहों से जूझने में बर्बाद होता है जिनके पास किसी बहस के लायक कोई तर्क नहीं होते, तथ्य नहीं होते, और महज जुमले, फतवे, नारे, या स्तुतियों की भरमार रहती है।
सोशल मीडिया पर किन लोगों को फॉलो करना है, किनकी दोस्ती छांटनी है, इस बारे में लोगों को बड़ी गंभीरता से सोचना-विचारना चाहिए। हम कई बार इस बात को लिख चुके हैं कि आज सोशल मीडिया पर रोज खासा वक्त गुजारने वाले लोग अपनी असल जिंदगी में उतने ही अच्छे हो पाते हैं जितने अच्छे उनके इर्द-गिर्द के लोग हैं। आपके आसपास के लोगों का औसत अच्छा, या औसत बुरा ही आपको बनाता है। इस बात को समझे बिना जो लोग महज सनसनी, नफरत, मोहब्बत, या अंधभक्ति के चलते हुए अपना दायरा तय करते हैं, वे जिंदगी के बहुत से फायदों से दूर रह जाते हैं, और घटिया लोगों के करीब रह जाते हैं। एक वक्त था जब लोगों के दोस्त असल जिंदगी में रहते थे, वह वक्त खत्म हो गया। अब असल जिंदगी के लोग बड़े कम रह गए हैं, और लोगों का अधिक वक्त ऑनलाईन दोस्तों, और वॉट्सऐप दोस्तों के साथ गुजरता है, और ऐसे में वे उसी तरह का नफा या नुकसान पाते हैं जिस तरह अच्छी या बुरी सोहबत की वजह से असल जिंदगी में पाते थे। असल जिंदगी में तो बुरे असर की एक सीमा रहती थी, लेकिन आज सोशल मीडिया, और ऐसी दूसरी जगहों पर ऐसी कोई सीमा नहीं रह गई है। नफरती लोग तेजी से एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं, झूठ बढ़ाते हैं, नफरत फैलाते हैं। इसलिए यह समझने की जरूरत है कि सोशल मीडिया पर जो लोग नफरत और हिंसा फैलाने वाले हैं, अंधभक्ति फैलाने वाले हैं, उनकी सोहबत से वक्त की बड़ी बर्बादी भी होती है, और अपने दिल-दिमाग की, अपने संस्कारों की भी।
आज मुम्बई की फिल्म इंडस्ट्री से शुरू हुई गंदगी का हाल यह है कि वह संसद के भीतर भी दाखिल हो रही है, और संसद के भीतर अगर कोई समझदारी की बात की जा रही है, तो उस पर भी संसद के बाहर गंदगी पोतने का काम हो रहा है। यह एक भयानक नौबत है जब हिन्दुस्तान के आम लोग, इस देश के बड़े छोटे से तबके वाले खास लोगों के गैरजरूरी मुद्दों को आम जिंदगी के जरूरी मुद्दों से ऊपर मानकर गंदगी की होड़ में शामिल हो गए हैं। यह कुछ उसी किस्म का है कि कई दिनों का भूखा कोई इंसान राह चलती किसी रईस बारात के बैंड की धुन पर नाचने लगे। यह नौबत बहुत खराब है जब देश के एक बड़े तबके को अपनी हकीकत का अहसास नहीं रह गया है, और वह अतिसंपन्न तबके की अफवाहों, उसकी गंदगी में उसी तरह शामिल हो गया है जिस तरह एक वक्त योरप के गरीब राजकुमारी डायना की जिंदगी से जुड़ी हुई अफवाहों में शामिल रहते थे। जनता के पैसों पर पलने वाला ब्रिटिश राजघराना जिस किस्म की सनसनीखेज सेक्स-चर्चाओं को जन्म देता था, शायद वही सनसनी जनता के टैक्स की भरपाई भी थी। आज हिन्दुस्तान में लोग फिल्म इंडस्ट्री से निकली हुई मुफ्त की सनसनी को अपनी जिंदगी के सच के ऊपर रखकर चल रहे हैं। नतीजा यह है कि ऐसी लापरवाह कौम को देश का मीडिया भी गंदगी परोस रहा है क्योंकि उसे जनता के टेस्ट की समझ हो गई है, या मीडिया ने एक सामूहिक साजिश के तहत जनता के टेस्ट को बर्बाद करने का काम जारी रखा है।
एक वक्त यह कहना भी कुछ अधिक कड़ी बात लगती थी कि लोगों को अखबार और टीवी छांटते हुए जिम्मेदारी से काम लेना चाहिए क्योंकि कोई व्यक्ति उतने ही अच्छे हो सकते हैं जितने अच्छे अखबार वे पढ़ते हैं, या जितने अच्छे टीवी चैनल वे देखते हैं। लेकिन अब ये दोनों किनारे हो गए हैं, और लोग अब उतने ही अच्छे रह पाते हैं जितने अच्छे लोगों को वे सोशल मीडिया पर फॉलो करते हैं, पढ़ते हैं, देखते हैं। इसलिए आज यहां इस मुद्दे पर लिखने का मकसद महज यह याद दिलाना है कि जिंदगी बहुत छोटी है, उसमें हर दिन सोशल मीडिया में झांकने के घंटे भी अमूमन सीमित रहते हैं, इसलिए उनका बहुत समझदारी से इस्तेमाल करना चाहिए, ऐसा न हो कि सोशल मीडिया पर लोग उन घंटों में अपनी बदनीयत के लिए आपको इस्तेमाल करते रहें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आन्ध्रप्रदेश हाईकोर्ट ने मीडिया और सोशल मीडिया पर एक रोक लगाई है कि राज्य के एक भूतपूर्व एडवोकेट जनरल के खिलाफ दर्ज एक एफआईआर को प्रकाशित या प्रसारित न किया जाए। अदालत ने यह भी कहा है कि इस एफआईआर के बारे में भी न छापा जाए, या सोशल मीडिया पर पोस्ट भी न किया जाए। इस बारे में कानूनी खबरों की एक वेबसाईट बारएंडबेंचडॉटकॉम में जानकारी दी है कि इस भूतपूर्व एजी ने अदालत में अपील की है कि राज्य सरकार उनके खिलाफ बदनीयत से ऐसा कर रही है। खबर में यह भी है कि पहले यह अपील जिस जज के पास गई थी उसने इसे सुनने से इंकार कर दिया था, और इसे मुख्य न्यायाधीश को भेजने कहा था। दूसरी तरफ कुछ पत्रकारों ने ट्विटर पर यह बात भी लिखी है कि आन्ध्र की इस बनने जा रही राजधानी अमरावती में सुप्रीम कोर्ट के एक मौजूदा जज की दो बेटियों द्वारा जमीन खरीदने में गड़बड़ी इस मामले में है, और इस वजह से इसकी खबरों का गला घोंटा जा रहा है। कुछ प्रमुख और भरोसेमंद वेबसाईटों ने इस एफआईआर के आधार पर जो खबरें छापी हैं, उनमें इस बात का खुलासा है।
किसी दर्ज एफआईआर की जानकारी के प्रकाशन पर रोक अपने आपमें कुछ अटपटी बात है। एक तो कुछ एफआईआर ऐसी होती हैं जिनमें खुद पुलिस या जांच एजेंसी उन्हें उजागर होने से रोकती हैं, और उसके लिए अलग कानूनी प्रावधान है। महिला और बच्चों से जुड़े हुए कुछ किस्म के मामले और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े हुए कुछ मामले इस तरह से रोके जाते हैं कि उनकी एफआईआर इंटरनेट पर अपलोड नहीं की जाती। लेकिन बाकी तमाम एफआईआर 24 घंटे के भीतर अपलोड करने की स्थायी व्यवस्था है, और यह जांच एजेंसियों का जिम्मा है। ऐसे में जमीन खरीदी के किसी मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों पर खुद सरकार द्वारा दर्ज की गई एफआईआर पर कोई खबर बनाने, या सोशल मीडिया पोस्ट बनाने पर रोक एक अजीब बात है, और पहली नजर में यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने वाला आदेश लगता है। खासकर तब जब यह एफआईआर एक राज्य शासन ने खुद दर्ज की है जो कि एक जवाबदेह संस्था है। अगर राज्य सरकार अपनी ही किसी योजना में जमीन खरीदी-बिक्री या आबंटन में गड़बड़ पा रही है, तो उसकी एफआईआर में ऐसा क्या गोपनीय है जिसे जनता के जानने के हक से ऊपर माना जा रहा है?
इस मामले की अधिक जानकारी पर चर्चा किए बिना हम इस अदालती सोच पर चर्चा कर रहे हैं जिसे लेकर जिम्मेदार मीडिया ने बड़ा साफ-साफ लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट के एक मौजूदा जज की दो बेटियों द्वारा वहां पर जमीन खरीदी के खिलाफ यह एफआईआर है। आज देश में अदालतों को लेकर आम जनता का क्या सोचना है यह प्रशांत भूषण के मामले में खुलकर सामने आ चुका है जिसमें जजों ने प्रशांत भूषण की सोशल मीडिय-टिप्पणियों को अदालत की अवमानना मानते हुए एक रूपए का जुर्माना सुनाया है, और प्रशांत भूषण अपनी बात पर कायम रहते हुए इसके खिलाफ अपील करने जा रहे हैं। लोगों को याद है कि प्रशांत भूषण ने कई बरस पहले सुप्रीम कोर्ट के कई मौजूदा और भूतपूर्व जजों के बारे में भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे, और उस अलग मामले में उनके खिलाफ अवमानना का पुराना केस खोलकर ताजा किया जा रहा है। पिछले कुछ महीनों में प्रशांत भूषण की वजह से, उनके मामले पर देश का जो रूख सामने आया है, उसे देश भर की बड़ी अदालतों को देखना चाहिए, और जनता की लोकतांत्रिक-उम्मीदों को समझना चाहिए। आज अगर न्यायपालिका अपने से जुड़े हुए लोगों की जानकारी सार्वजनिक होने से रोकने की कोशिश करती है, तो ऐसी राहत लोगों को सदमा जरूर देगी। न सिर्फ न्यायपालिका बल्कि निजी और सरकारी, अदालती और संसदीय, संवैधानिक या कारोबारी, किसी भी किस्म की ताकत की जगहों पर लोग जिस तरह से गलत कर भी रहे हैं, और अपने से जुड़ी जानकारियों को छुपाने में भी कामयाब हो रहे हैं, वह लोकतंत्र की एक बड़ी शिकस्त है। इस देश में बड़े ओहदों पर बैठे हुए लोगों की छोटी-छोटी सी डिग्रियां भी देने से मना किया जा रहा है, और लोकतंत्र की कोई व्यवस्था जनता के हक की मदद नहीं कर पा रही है। अब अगर किसी भूतपूर्व महाधिवक्ता, या वर्तमान जज की बेटियों की जमीन खरीदी-बिक्री के मामले को भी अगर जनता के जानने के हक से ऊपर करार दिया जा रहा है, तो यह बहुत ही निराशा की बात है, और आने वाले वक्त में इस रोक के खिलाफ जनमत तैयार होगा। ऐसी कोई रोक पूरी जिंदगी तो चल नहीं सकती क्योंकि सरकार ने अगर एफआईआर दर्ज की है तो सरकार तो आगे कार्रवाई भी करेगी, और उस पर तो अदालत अभी तक कोई रोक लगा नहीं पाई है। आगे की किस-किस कार्रवाई पर मीडिया के कवरेज या सोशल मीडिया पर टिप्पणियों को रोका जा सकेगा? यह सिलसिला न्यायपालिका की साख को घटाने के अलावा और कुछ नहीं कर रहा है। आज न्यायपालिका जिस तरह बहुत से अप्रिय विवादों से घिर गई है, उसके सामने विश्वसनीयता का एक संकट खड़ा हुआ है, जिस तरह आज सोशल मीडिया पर लोग कई बरस पहले की अरूण जेटली की संसद की एक टिप्पणी का वीडियो पोस्ट किए जा रहे हैं कि रिटायर होने के बाद दिल्ली के आलीशान इलाके में सरकारी बंगले में काबिज बने रहने के लिए सुप्रीम कोर्ट जजों के रिटायरमेंट के पहले के फैसले प्रभावित हो रहे हैं, उन्होंने काफी दम-खम के साथ यह बात कही थी, और लोग उनकी उस समय की बात को आज के संदर्भ में और अधिक सही पा रहे हैं, और अब तो मीडिया में रिटायर हुए कुछ जजों के फैसलों को लेकर लंबे-लंबे विश्लेषण भी हो रहे हैं कि किस तरह वे फैसले कुछ तबकों को सुहाने लगने वाले हैं।
अदालत को अपने आपको किसी परदे में रखने के किसी विशेषाधिकार का दावा बिल्कुल नहीं करना चाहिए। लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले जब सुप्रीम कोर्ट के जज इस बात पर अड़ गए थे, कि वे सूचना के अधिकार के तहत अपनी संपत्ति की घोषणा करने की बंदिश नहीं मानेंगे, तब दिल्ली हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट जजों के इस रूख के खिलाफ एक फैसला दिया था, और कहा था कि जजों को अपनी संपत्ति तो उजागर करनी ही होगी।
लोकतंत्र में जब-जब जनता के जानने के हक को कुचलने की कोशिश होती है, वह कुचलने वाले पैरों का ही चिथड़ा उड़ा देती है। आन्ध्र हाईकोर्ट का यह आदेश आने वाले दिनों में लंबे पोस्टमार्टम से गुजरेगा, और हमारा यह मानना है कि जानकारी छुपाने की अपील करने वाले लोगों का और बड़ा भांडाफोड़ होगा जब यह आदेश हटेगा, और सरकार कार्रवाई करेगी। न्यायपालिका को खबरों से अधिक अपनी साख की फिक्र करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कोरोना के मोर्चे पर अभी एक नया निष्कर्ष सामने आया है जो बताता है कि हिन्दुस्तान की हालत आज के सरकारी आंकड़ों के मुकाबले दोगुने से भी अधिक खराब है। सरकारी आंकड़े आज देश में 95 हजार से एक लाख नए कोरोना पॉजिटिव रोज मिलना बता रहे हैं, लेकिन एक वैज्ञानिक अनुमान यह आया है कि ये आंकड़े दो से ढाई लाख हर दिन हो सकते हैं क्योंकि आज के सरकारी आंकड़े एक ऐसे रैपिड टेस्ट के आधार पर हैं जिनमें बहुत से पॉजिटिव लोगों को निगेटिव पाया जाता है, बताया जाता है। यह वैज्ञानिक निष्कर्ष है कि जब अधिक भरोसेमंद पीसीआर टेस्ट किया जाता है, और उसे भी सही तरीके से किया जाता है तो रैपिट टेस्ट के मुकाबले दो से तीन गुना अधिक पॉजिटिव मिलते हैं। दिल्ली और महाराष्ट्र इन दो राज्यों में जांच अधिक अच्छे से हुई, तकनीक का ठीक इस्तेमाल हुआ, और वहां पीसीआर जांच में रैपिट टेस्ट के मुकाबले ढाई-तीन गुना अधिक पॉजिटिव मिले हैं। ये आंकड़े अगर देश में दहशत पैदा नहीं करते तो यह मान लेना चाहिए कि यह देश जिम्मेदारी से बरी हो चुका है, और यहां पर सब कुछ जनधारणा पर चल रहा है जिसे कि ढाला जा रहा है, और कुछ भी सच के आधार पर नहीं चल रहा।
आज लोकसभा में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने बयान दिया है कि चीन ने लद्दाख में हिन्दुस्तान की 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर अवैध कब्जा कर रखा है। अब अगर कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विपक्षी नेताओं के साथ चीन के मुद्दे पर ही हुई बातचीत को याद करें, तो उन्होंने बड़े साफ शब्दों में यह कहा था कि हिन्दुस्तान की जमीन पर न कोई विदेशी घुसे हैं, न यहां पर हैं। प्रधानमंत्री के उस बयान पर पहले भी बहुत हंगामा हो चुका है कि वह सच से परे का था क्योंकि उस वक्त भी भारत सरकार के बड़े-बड़े लोग हिन्दुस्तान में चीनी घुसपैठ, अवैध कब्जे, अवैध निर्माण की बातें कर चुके थे, लेकिन प्रधानमंत्री ने बहुत साफ शब्दों में इन सबका खंडन किया था। तब से लेकर अब तक इस देश के पास सरकारी स्तर पर और कोई जानकारी नहीं थी, आज संसद में राजनाथ सिंह ने साफ-साफ 38 हजार वर्ग किलोमीटर पर अवैध कब्जा कहा है। जाहिर है कि यह कब्जा प्रधानमंत्री के बयान के बाद तो नहीं हुआ है क्योंकि उसके बाद से रोज निगरानी की खबरें आ रही हैं। ऐसा शायद पहली ही बार हुआ कि देश की जमीन पर विदेशी अवैध कब्जे को लेकर केन्द्र सरकार ने प्रधानमंत्री की दी गई जानकारी पर ऐसा विवाद हो रहा है। इतिहास बताता है कि यह 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन अक्साईचिन का इलाका है जिस पर भारत 1962 की जंग के पहले से अपना हक जताते आया है, और हमेशा उसने इसे अपनी जमीन पर चीन का अवैध कब्जा, अवैध मौजूदगी माना है। भारत सरकार का यह रूख केन्द्र में किसी भी पार्टी की सरकार रहे, लगातार जारी रहा है। इस हिसाब से प्रधानमंत्री का सर्वदलीय बैठक का बयान सच से दो मायनों में परे था। इस 38 हजार वर्ग किलोमीटर पर चीन की मौजूदगी को वह बयान अनदेखा कर रहा था, और दूसरी बात यह भी कि आज राजनाथ सिंह ने संसद में जिन इलाकों में चीन की घुसपैठ की बात कही है, उन इलाकों के बारे में प्रधानमंत्री उस दिन सभी दलों से बात कर रहे थे, और उन्होंने इस घुसपैठ को भी अनदेखा करते हुए साफ शब्दों में कहा था कि भारत की जमीन पर न कोई आया है, न कोई है। यह बात आज के राजनाथ सिंह के बयान के साथ मिलाकर देखें, तो हकीकत समझ आती है।
देश में आज हकीकत की हालत इतनी खराब इसलिए है कि केन्द्र सरकार ने नोटबंदी के नफे-नुकसान का हिसाब देश को आज तक नहीं दिया है, देश के आर्थिक सर्वेक्षण, राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे के आंकड़े देश के सामने रखने से मना कर दिया, पीएम केयर्स नाम के बनाए गए एक खास फंड को सीएजी के ऑडिट से भी परे रखा गया, उसके बारे में कोई भी जानकारी देने से मना कर दिया गया। ऐसे बहुत से अलग-अलग मामले हैं जिनमें जानकारी देने से मना किया जा रहा है। अब सवाल यह उठता है कि जिस देश परंपरागत रूप से पंचवर्षीय योजनाओं से लेकर सालाना बजट तक देश के आंकड़ों के आधार पर बनते आए हैं, और इन्हें देश से कभी नहीं छुपाया गया, आज उनको क्यों छुपाया जा रहा है? लोगों को यह भी याद रखना चाहिए कि चीनी सरहद पर हिन्दुस्तानी सैनिकों की शहादत करीब आधी सदी बाद हुई, लेकिन प्रधानमंत्री ने इस सरहदी तनाव के बारे में जो कुछ भी कहा, उसमें चीन का नाम भी नहीं लिया गया, चीन शब्द भी नहीं कहा गया। यह पूरा सिलसिला बड़ा अटपटा है, और इस देश के प्रधानमंत्री के ओहदे की साख को भी घटाता है क्योंकि नरेन्द्र मोदी ही गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए शायद पांच बार चीन गए थे, प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने बहुत ही दोस्ताना और अनौपचारिक अंदाज में चीनी राष्ट्रपति की भारत में लीक से हटकर, परंपरा से आगे बढक़र खातिरी की थी। इसके बाद अगर आज भारत के चीन के साथ राष्ट्रप्रमुख के स्तर पर बातचीत के रिश्ते भी नहीं है, तो यह बहुत ही हैरानी की बात है, बहुत ही सदमे की बात भी है।
हम आज यहां पर कोरोना के आंकड़ों से लेकर भारतीय जमीन पर चीनी कब्जे के आंकड़ों तक कई बातों को देख रहे हैं, और इनमें एक ही बात साफ लग रही है कि जनता से सच बांटने में सरकार बिल्कुल भी साफ नहीं है। भारत जैसे लोकतंत्र में जहां बहुत सा काम भरोसे पर चलता है, जहां पर मुसीबत के वक्त सर्वदलीय बैठक भी सारे अधिकार प्रधानमंत्री को देते आई है, वैसे देश में जानकारी को छुपाकर रखना एक नया सिलसिला है, बहुत ही खतरनाक सिलसिला है। पहले तो चीनी कब्जे को लेकर यह बात साफ लग रही थी कि प्रधानमंत्री का कहा हुआ सच नहीं है। वे क्यों सच से परे कह रहे हैं, यह बात आज भी साफ नहीं है। खासकर तब जब उनकी सरकार और उनकी पार्टी आधी सदी से भी अधिक पहले नेहरू की चीन-नीति को रात-दिन कोसते आए हैं, ऐसे में मोदी को तो अपनी चीन-नीति को पारदर्शी रखने चाहिए था, संसद, देश, और सर्वदलीय बैठक में खुलकर साफ बात करनी थी। अगर चीन ने हिन्दुस्तानी जमीन पर कब्जा किया है तो उस बात को छुपाने की कोई वजह हमें समझ नहीं आती है। अगर सरहद पर किसी तरह की शिकस्त हुई है, या पड़ोस के देश ने इतना बड़ा कब्जा किया है, तो उसे देश से छुपाना नहीं था। अभी यह लिखते हुए भी संसद से रक्षामंत्री राजनाथ सिंह का बयान आ रहा है, और उनके बयान की यह जानकारी बार-बार टीवी की खबरों पर आ रही है कि चीनी कब्जा कितना बड़ा है। राजनाथ सिंह इस कब्जे का पुराना इतिहास नहीं बता रहे हैं, लेकिन वे भारत सरकार का हमेशा से स्थापित एक स्टैंड बता रहे हैं, जो कि हर प्रधानमंत्री के रहते लगातार जारी रहा है।
भारतीय लोकतंत्र में केन्द्र और राज्य सरकारों को जनता के साथ पारदर्शी तरीके से रहना चाहिए। जनता कभी भी सरकार की फौजी खुफिया जानकारी मांगने के चक्कर में नहीं रहती, लेकिन यह बात तो कई महीनों से दुनिया के कई देशों के उपग्रहों से खींची गई तस्वीरों के आधार पर दुनिया के कई विशेषज्ञ लिख चुके हैं कि हिन्दुस्तानी जमीन पर चीनी कब्जा है, चीन निर्माण कर रहा है।
आज कोरोना पर हिन्दुस्तान के लोग बहुत बुरी तरह लापरवाह दिख रहे हैं। और इतनी लापरवाही की एक वजह यह भी हो सकती है कि लोगों को खतरे की असलियत देखने नहीं मिल रही है, लोगों को खतरा घटाकर दिखाया जा रहा है। यह सिलसिला ठीक नहीं है। आज अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप पर यही तोहमत लग रही है कि उन्होंने अमरीका में कोरोना के खतरे को घटाकर दिखाया। और उसका नतीजा सामने है।
सरकार को तात्कालिक अलोकप्रियता से डरकर सच को छुपाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। लोकतंत्र में सरकार पर लोगों की आस्था इस बात पर भी टिकी रहती है कि सरकार की सच के मामले में क्या साथ। भारत का इतिहास बताता है कि नेहरू के मौत की आधी सदी बाद भी उन पर यह तोहमत लगती है कि उन्होंने चीनियों पर जरूरत से अधिक भरोसा किया था। आज राजनाथ सिंह बयान देखें, तो यह साफ लगता है कि सर्वदलीय बैठक में मोदी की कही बातें भी चीन पर जरूरत से अधिक भरोसे वाली थीं, या कम से कम वे चीन के ऐतिहासिक कब्जे के जिक्र के बिना थीं, या सरहद पर जिस ताजा घुसपैठ का जिक्र आज राजनाथ सिंह ने किया है, उनके भी जिक्र के बिना थीं। आने वाले दिनों में प्रधानमंत्री को अपने ही उस बयान को लेकर और सवालों का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन वे अपने आपको सवालों के घेरे से खासा दूर रखते हैं, इसलिए ऐसा कोई खतरा उन पर नहीं रहता। तो क्या आज मोदी व्यक्तिगत रूप से चीन पर अपनी बाकी सरकार के मुकाबले अधिक भरोसा करते हुए उसके आधी सदी अवैध कब्जे के भी जिक्र से बच रहे हैं, चीन की ताजा घुसपैठ को भी साफ-साफ शब्दों में नकार रहे हैं, और ऐसा करते हुए क्या वे नेहरू की वैसी ही चूक को दुहरा नहीं रहे हैं जैसी कि उनकी पार्टी हमेशा से नेहरू के नाम के साथ जोड़ती आई है?(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मुम्बई की जुबानी जंग दिमागी बीमारी की हद तक पहुंची हुई दिख रही है। अब अगर किसी को मानसिक बीमार कहलाने में दिक्कत हो, तो उन्हें हम नशे में होने के संदेह की छूट भी दे सकते हैं। ये दोनों बातें अगर किसी को पसंद नहीं है, तो फिर वे किसी बड़ी साजिश के भागीदार जरूर होंगे।
सुशांत राजपूत विवाद में बेगानी शवयात्रा में कंगना दीवानी के अंदाज में जो बहस चालू हुई, वह बढ़ते-बढ़ते अब सचमुच ही गांजे के नशे में डूबी हुई दिख रही है। यह अलग बात है कि देश में नशे का कारोबार पकडऩे के लिए बनाई गई राष्ट्रीय एजेंसी इस पर कार्रवाई नहीं करेगी, क्योंकि इस बकवास में पसंदीदा निशाने घेरे में नहीं आएंगे। पिछले दो दिनों में लोगों ने याद दिलाया है कि किस तरह भाजपा के राज वाले कर्नाटक में भाजपा का एक वर्दीधारी कार्यकर्ता गांजे के एक बहुत बड़े स्टॉक के साथ पकड़ाया है, लेकिन इस 12 सौ किलो गांजे पर कार्रवाई के बजाय एमसीबी नाम की एजेंसी मुम्बई में रिया के 59 ग्राम गांजा खरीदी पर पूरी ताकत झोंककर बैठी है। खैर, जब देश गांजे के धुएं से घिरा हो तो ऐसी कई बातें हो सकती हैं, होती हैं। अब जैसे अयोध्या में हनुमानगढ़ी के महंत राजूदास पिछले दिनों अचानक कंगना रनौत के इतने बड़े हिमायती बनकर सामने आए कि शायद कंगना खुद हैरान रह गई होगी कि यह दूसरा अब्दुल्ला दीवाना कहां से आ गया? और इस महंत का बयान कंगना के दफ्तर की तोडफ़ोड़ के खिलाफ आया था जिसमें उसने महाराष्ट्र की सरकार के अन्याय के खिलाफ चुप न बैठने का फतवा दिया था, और कहा था कि उद्धव ठाकरे को अयोध्या आने पर घुसने नहीं दिया जाएगा।
अब बाबरी मस्जिद गिराने के गर्व के अकेले सार्वजनिक दावेदार बालासाहब ठाकरे के उत्तराधिकारी और उनके बेटे को अयोध्या न घुसने देने का यह फतवा मुम्बई म्युनिसिपल द्वारा कंगना के दफ्तर को तोडऩे पर दिया गया! जाहिर है कि नशे का कारोबार देश भर में कई जगह फैला हुआ है, और उसका इस्तेमाल भी खूब जमकर होता है, और साधुओं के बीच भी उसका खूब चलन है। सुशांत राजपूत की मौत के मामले में जिस तरह कंगना नाम का धूमकेतु आसमान से गिरा था, उसी तरह यह दूसरा धूमकेतु कंगना के टूटे दफ्तर पर अयोध्या से जाकर गिरा है।
लेकिन गांजे के धुएं का असर दूर-दूर तक दिख रहा है। दो-चार दिन पहले अपने दफ्तर की तोडफ़ोड़ को लेकर कंगना का बयान आया था कि इस पर सोनिया गांधी की चुप्पी इतिहास अच्छी तरह दर्ज कर रहा है। अब मुम्बई में किसी एक दफ्तर के अवैध निर्माण पर वहां की म्युनिसिपल की कार्रवाई पर सोनिया के बयान की उम्मीद कोई सामान्य दिमागी हालत तो कर नहीं सकती। सामान्य दिमाग तो यह जरूर पूछ सकता था कि दिल्ली में जिन 48 हजार झुग्गियों को गिराने का हुक्म सुप्रीम कोर्ट ने दिया है, उन पर केन्द्र सरकार के किसी नेता ने कुछ कहा है क्या? जिनके पांवतले अपनी जमीन नहीं है, सिर पर पक्की छत नहीं है, उनकी फिक्र छोडक़र मुम्बई में एक अरबपति के अवैध निर्माण की फिक्र सोनिया गांधी से कोई असामान्य दिमाग, या नशे में डूबा दिमाग ही कर सकता है।
खैर, बात अगर यहीं खत्म हो गई रहती तो भी हमें इस बारे में कुछ लिखना नहीं पड़ता। आज मजबूरी यह है कि कंगना का ताजा बयान देखने लायक है जिसमें उसने अचानक ही अपनी पसंदीदा निशाना शिवसेना के लिए लिखा- आपके लिए ये बहुत अफसोस की बात है कि बीजेपी एक ऐसी व्यक्ति को बचा रही है जिसने ड्रग्स और माफिया रैकेट का भांडाफोड़ कर डाला है। इसका मतलब बीजेपी को शिवसेना के गुंडों को मेरा मुंह तोड़ देने, रेप करने, या लिंच करने से नहीं रोकना चाहिए संजयजी?
हिन्दुस्तानी मीडिया में रात-दिन कंगना नाम का यह कंगन खनक रहा है, लेकिन अभी तक किसी जगह भी कंगना को रेप की कोई धमकी किसी ने दी हो ऐसा नजर नहीं आया, ऐसा सुनाई नहीं पड़ा। ऐसे में शिवसेना पर अपने से रेप करने की तोहमत लगाना एक बार फिर सामान्य दिमाग का काम नहीं लग रहा है, या तो दिमाग में कोई नुक्स है, या किसी पदार्थ का असर है, या फिर यह किसी साजिश के तहत लिखी गई एक तेजाबी फिल्मी स्क्रिप्ट है जिसके पीछे बड़ी साफ राजनीतिक नीयत है।
ऐसा इसलिए भी लिखना पड़ रहा है कि अपने दफ्तर को तोडऩे को लेकर कंगना ने जिस अंदाज में उसे बाबर से जोड़ा है, उसे कश्मीरी पंडितों से जोड़ा है, वह गणित आर्यभट्ट को भी आसानी से समझ नहीं आया होता। अभी कल तक की बात है जब शिवसेना बाबरी मस्जिद गिराने की अकेली स्वघोषित दावेदार थी, जिसने कश्मीर में धारा 370 खत्म होने पर सार्वजनिक खुशी जाहिर की थी, तो अब इन दो मुद्दों को लेकर कंगना क्या शिवसेना से अधिक बड़ी हिन्दू बनने जा रही है?
यह पूरा सिलसिला गांजे के धुएं में धुंधला दिख रहा है, शायद धुंधला भी नहीं दिख रहा। बेगानी शादियों में अब्दुल्ला इस अंदाज में नाच रहे हैं, या नाच रही हैं कि समझ नहीं पड़ रहा कि दुल्हे के रिश्तेदार और दोस्त नाचने कहां जाएं? अयोध्या का एक महंत जिस अंदाज में बाबरी मस्जिद गिराने वाले परिवार के खिलाफ ताल ठोंकते हुए कंगना के साथ कूद पड़ा है, उससे हनुमानगढ़ी के हनुमान भी कुछ हैरान जरूर हुए होंगे।
कंगना के तरंगी बयानों में अब तक वेटिकन के खिलाफ, मक्का-मदीना के खिलाफ, और फिलीस्तीन के खिलाफ कुछ न आने पर भी इन तमाम जगहों में बड़ी निराशा है। और मुम्बई में कुछ महंगे किस्म की ग्रास बेचने वाले लोगों की साख चौपट हो रही है कि उनकी ग्रास बेअसर है। विवाद के चलते 10 दिन हो रहे हैं, और अब तक इतनी महत्वपूर्ण जगहों को कंगना के दफ्तर तोडऩे में कोई किरदार नहीं मिल पाया, यह छोटी समस्या नहीं है। देश और दुनिया को कंगना के दफ्तर के अवैध निर्माण टूटने को गंभीरता से लेना चाहिए, और बाबर के बाद के भी कई ऐसे लोग हैं जिनका हाथ इस तोडफ़ोड़ में हो सकता है। कश्मीरी पंडितों की बेदखली के अलावा फिलीस्तीनियों की बेदखली भी इस तोडफ़ोड़ के पीछे हो सकती है। दुनिया को कंगना के बयानों को गंभीरता से लेना चाहिए, और मुम्बई के मनोचिकित्सक यह भी जांचने की कोशिश कर सकते हैं कि कंगना के खिलाफ रेप का कोई बयान सामने न आने पर भी उसे शिवसैनिकों के हाथों रेप की बात कैसे, कहां से, और क्यों सूझ रही है। यह बात मनोविज्ञान और मनोचिकित्सा के लिए भी बड़ी चुनौती है, और कोरोना तो खैर आता-जाता रहता ही है, इस मन:स्थिति पर शोध पहले हो जाना चाहिए। दिल्ली में जो पार्टियां और जो नेता राजनीति करते हैं, उनको कांग्रेस की तरह की बेवकूफी नहीं करनी चाहिए कि 48 हजार झोपडिय़ों के लोगों को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट जाए। आज देश के इतिहास की सबसे बड़ी बेदखली, 3 लाख कश्मीरी पंडितों की बेदखली से भी बड़ी, कंगना के दफ्तर की तोडफ़ोड़ है, और देश को पहले उस पर ध्यान देना चाहिए। संसद आज से शुरू हुई है, और अगर संसद इस दफ्तर के तोडफ़ोड़ के अलावा किसी भी और मुद्दे पर चर्चा करती है, तो फिर इस संसद का होना न होना एक बराबर है। यह एक अलग बात है कि मुम्बई का धुआं दिल्ली तक पहुंचा है या नहीं, और उसका असर दिल्ली पर उसी तरह हो रहा है या नहीं जिस तरह अयोध्या की हनुमानगढ़ी के महंत पर हो रहा है। बेगानी शादी में अभी भी कुछ और लोगों के नाचने की जगह देश की संसद को निकालनी चाहिए, और राष्ट्रीय महत्व के इस मुद्दे पर चर्चा करनी चाहिए, क्योंकि चीन तो 1962 के पहले से भी समस्या बना हुआ है, और उस मोर्चे पर अभी हाल-फिलहाल तो कुछ दर्जन हिन्दुस्तानी सैनिक ही शहीद हुए हैं, इसलिए महत्व के हिसाब से संसद को भी फिलहाल सिर्फ कंगना के दफ्तर पर अपना फोकस बनाए रखना चाहिए।
हिन्दुस्तान में मेडिकल और डेंटल कॉलेजों में दाखिले के लिए राष्ट्रीय पात्रता और प्रवेश परीक्षा एनईईटी (नीट) के ठीक एक दिन पहले तमिलनाडू में तीन छात्रों ने आत्महत्या कर ली। इनका इम्तिहान अभी होना ही था, उसके पहले आत्महत्या से कुछ अलग-अलग सवाल उठते हैं। एक तो राष्ट्रीय स्तर का यह मुकाबला इतना बड़ा और इतना कड़ा है कि यह अच्छी खासी तैयारी करने वाले लोगों के मन में भी दहशत पैदा करता है। सिर्फ यही इम्तिहान नहीं, ऐसे बहुत से दाखिला इम्तिहान हैं जिनकी तैयारी करते हुए हर बरस कई छात्र-छात्राएं राजस्थान के कोटा में आत्महत्या करते हैं, और देश भर में शायद पढ़ाई के मुकाबलों में आत्महत्या करने वाले सैकड़ों में हो जाते हैं। आत्महत्या करने वाले तो पुलिस के रिकॉर्ड में आने की वजह से एक ठोस खबर बनते हैं, और दिखते हैं, लेकिन आत्महत्या की कगार पर पहुंचे हुए लोग जिस तरह के मानसिक अवसाद के शिकार होते हैं, उनकी कोई गिनती कभी सामने आती नहीं हैं। इस बरस कोरोना और लॉकडाऊन की वजह से, पढ़ाई न हो पाने की वजह से निराश छात्र-छात्राओं की संख्या काफी अधिक है, और सुप्रीम कोर्ट ने परीक्षाएं आगे बढ़ाने से इंकार करके एक बड़ा गलत फैसला दिया है जिससे संपन्न परिवारों के बच्चे तो तैयारी कर पाएंगे, लेकिन गरीब परिवारों के बच्चों की तैयारी पिछड़ जाना तय है।
अब देश कई अलग-अलग किस्म के दाखिला-इम्तिहानों से खिसकते हुए अब राष्ट्रीय स्तर की ऐसी कुछ परीक्षाओं पर पहुंच गया है जिनमें कई राज्यों के बच्चों का पिछड़ जाना तय है क्योंकि वहां विकसित राज्यों के मुकाबले पढ़ाई का स्तर नीचा है। लेकिन क्या हर राज्य के बच्चों का अलग-अलग अधिकार नहीं होना चाहिए? यह एक बुनियादी सवाल धरा रह जाता है जब दाखिला-इम्तिहान की सोच ही गड़बड़ लगती है। आज पूरे देश में बचपन से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई के नंबर धरे रह जाते हैं, और दाखिला-इम्तिहान ही मायने रखते हैं। नतीजा यह होता है कि बच्चे स्कूल-कॉलेज की नियमित पढ़ाई पर ध्यान नहीं देते, और सिर्फ मुकाबलों की तैयारी करने में लगे रहते हैं। मानो जिंदगी में मकसद पढ़ाई नहीं, मुकाबला है। इससे देश भर में पढ़ाई की ओर लोगों का रूझान घटते जा रहा है क्योंकि पढ़ाई के नंबर आगे के ऐसे किसी बड़े मुकाबले में काम नहीं आते, वहां पहुंचने पर कोटा जैसे दाखिला-उद्योग की सेवाएं खरीदना ही काम आता है। चूंकि यह पूरी व्यवस्था समाज की आर्थिक असमानता पर पूरी तरह टिकी हुई है, इसलिए भी बहुत से बच्चे आत्महत्या की कगार पर पहुंचते हैं, क्योंकि वे गरीब तबकों से आते हैं।
अब कुछ देर के लिए दाखिला-इम्तिहानों, और उन पर आधारित पढ़ाई को छोड़ दें, और यह चर्चा करें कि बरसों की तैयारी के बाद जो बच्चे इन इम्तिहानों में सीटों की गिनती तक नहीं पहुंच पाते, उनके लिए क्या बच जाता है? उनमें से बहुत से दूसरे छोटे इम्तिहानों से गुजरते हुए कम महत्वपूर्ण माने जाने वाले कॉलेजों तक पहुंचते हैं, कोई दूसरी पढ़ाई करते हैं, और बेरोजगार के कॉलम में किसी दूसरी केटेगरी में दर्ज हो जाते हैं।
क्या हिन्दुस्तान में सोच में एक बुनियादी फेरबदल की जरूरत नहीं है कि गिनी-चुनी सीटों के लिए देश की इतनी बड़ी आबादी को, नौजवान पीढ़ी के एक बड़े हिस्से को एक अंतहीन मुकाबले में न झोंका जाए, और उन्हें कोई दूसरी राह भी सुझाई जाए? क्या गिने-चुने अधिक लोकप्रिय कोर्स छोडक़र जिंदगी में स्वरोजगार की कोई ऐसी तैयारी करवाई जा सकती है जिससे लोग बिना किसी मुकाबले अपने-अपने दायरे में अपने-अपने हुनर, और अपनी-अपनी काबिलीयत का काम कर सकें, और गुजारा चला सकें? यह बात सोचना इसलिए भी जरूरी है कि कुछ चुनिंदा कॉलेज नौजवान बच्चों की महत्वाकांक्षा का केन्द्र बन जाते हैं, और वे उनसे परे कुछ नहीं देख पाते। होना तो यह चाहिए कि ग्रामीण उद्योग, कुटीर उद्योग, खेती पर आधारित कई दूसरे किस्म के काम, शहरों में सर्विस देने के कई तरह के मरम्मत के काम, इन सबके लिए हुनर सिखाने के आगे का इंतजाम भी करना चाहिए ताकि लोगों को हुनर सीखने के बाद काम मिल सके। आज हिन्दुस्तान में कौशल विकास की योजना की बड़ी चर्चा होती है, लेकिन कोई कौशल सीख लेने के बाद उससे रोजी-रोटी तक पहुंच पाना कम ही लोगों के लिए हो पा रहा है। दूसरी तरफ शहरी जिंदगी में ऐसे हुनरमंद लोगों की जरूरत हमेशा ही बनी रहती है जो कि संपन्न तबके या उच्च-मध्यम वर्ग के लिए तरह-तरह के काम कर सकें।
सरकारों को अलग-अलग अकेले हुनर की ट्रेनिंग से परे भी कई और बातें सोचनी चाहिए जिससे देश की गिनी-चुनी परीक्षाओं में लगने वाली अंतहीन भीड़ को घटाया जा सके। आज जिस डेंटल पढ़ाई के लिए देश भर में दसियों लाख बच्चे मुकाबला करते हैं, वे डेंटिस्ट महीने में 10-15 हजार रूपए भी नहीं कमा पाते जबकि एक मामूली बिजली मिस्त्री उनसे ज्यादा कमा लेता है। हिन्दुस्तान में हुनर की ट्रेनिंग, और हुनर की जरूरत के बीच एक रिश्ता बनाने की जरूरत है जो कि कुछेक मोबाइल एप्प कर भी रहे हैं। इस काम को और बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि लोग कमा सकें, और तरह-तरह के हुनर सीखने की तरफ जा सकें। आज औसत पढ़ाई वाले छात्र-छात्राओं को जब देश के सबसे कड़े मुकाबलों का सपना दिखाया जाता है, मां-बाप भी बच्चों से अपनी उम्मीदें ऐसी ही बड़ी पाल लेते हैं, तो फिर कुछ बच्चे आत्महत्या करते हैं, उनसे हजारों गुना बच्चे मानसिक अवसाद में जीते हैं, और वे अपनी काबिलीयत और समझ के किसी मुकाम तक पहुंच नहीं पाते।
इसलिए देश की सोच में इस फेरबदल की जरूरत है कि देश को इस पढ़ाई, ट्रेनिंग, और हुनर के कितने लोग चाहिए, और उस हिसाब से ही पढ़ाई, प्रशिक्षण, और मुकाबला होना चाहिए। इस मामले में केरल की मिसाल दी जानी चाहिए जो कि न केवल देश में बल्कि खाड़ी के देश और दूसरे देशों तक की जरूरतों के मुताबिक अपनी नौजवान पीढ़ी को तैयार करता है, और जहां के लोग सात समंदर पार जाकर भी आसानी से रोजगार पाते हैं, और कमाई भेजकर अपने प्रदेश को संपन्न भी करते हैं। हमारी बात समझने के लिए किसी अंतरिक्ष विज्ञान की जरूरत नहीं है, बाकी राज्य केरल को ही देख लें, तो वे अपने लोगों में बेरोजगारी खत्म कर सकते हैं, और लोग दाखिला-मुकाबलों के बजाय कुछ दूसरे रास्ते भी समझ सकते हैं। फिलहाल हमारी बात दाखिला-इम्तिहान से शुरू होकर स्वरोजगार की ट्रेनिंग की केरल मॉडल तक पहुंची है, लोग अपनी पसंद और जरूरत के पहलू यहां से उठाकर उन पर चर्चा कर सकते हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)