संपादकीय
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक अजय यादव को कल देर रात जिस तरह तबादला करके पुलिस मुख्यालय भेजा गया है, उससे भी कल दिन में एक सांप्रदायिक तनाव की घटना की गंभीरता साबित होती है। रायपुर के एक इलाके में कल इतवार को एक ईसाई परिवार में प्रार्थना सभा चल रही थी, और आसपास के कुछ हिंदू संगठनों के लोगों ने इस पर आपत्ति की। तनाव बढ़ा और दोनों पक्षों को पुलिस ने थाने बुला लिया। वहां पर थानेदार के कमरे में ईसाई प्रार्थना सभा वाले पास्टर पर हिंदू संगठनों के लोगों ने जिस तरह से हमला किया और उसे जिस तरह जूतों से पीटा, उसके वीडियो हक्का-बक्का करते हैं। पुलिस थाने में मौजूद थी, और उसकी मौजूदगी में एक अल्पसंख्यक तबके के गिनती के मौजूद लोगों पर वहां बहुसंख्यक समुदाय के हमलावर लोगों ने जिस तरह का हमला किया है, उसकी कोई मिसाल छत्तीसगढ़ में याद नहीं पड़ती है। इसके पहले भी कभी किसी चर्च पर छोटा-मोटा हमला हुआ या कहीं किसी पादरी को पीटा गया, ऐसा तो हुआ था लेकिन थाने में पुलिस की मौजूदगी में ऐसा हो, और वह भी इसलिए साबित हो पा रहा है कि उसके वीडियो मौजूद हैं, तो यह बहुत ही गंभीर बात थी, और मुख्यमंत्री ने भारी नाराजगी के साथ जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को तुरंत हटाया है।
प्रदेश में भाजपा ने पिछले कुछ महीनों से धर्मांतरण में बढ़ोतरी का आरोप लगाते हुए इसके खिलाफ प्रदर्शन करना शुरू किया है। भाजपा के बाकी मंत्रियों और नेताओं के मुकाबले इस बार भूतपूर्व मंत्री और राजधानी के एक भाजपा विधायक बृजमोहन अग्रवाल इस मोर्चे पर आगे हैं, वे लगातार बयान दे रहे हैं, और अभी एक प्रदर्शन में भी राजधानी में उन्हें सबसे आगे देखा गया था। भाजपा के भीतर बहुत से लोगों की दिक्कत यह है कि उन्हें अभी पार्टी के भीतर राज्य की अगुवाई के लिए अपने अस्तित्व की लड़ाई लडऩी पड़ रही है। ऐसे में जाहिर है कि कुछ मुद्दे अधिक प्रमुखता पा रहे हैं क्योंकि उन मुद्दों को उठाकर कुछ लोग अधिक प्रमुखता पा सकते हैं। लेकिन यह बड़ी हैरानी की बात है कि राजधानी में इतनी पुलिस मौजूदगी के बावजूद, पूरे शासन-प्रशासन की यहीं पर मौजूदगी के बावजूद, घंटों तक एक इलाके में यह सांप्रदायिक हमला चलते रहा और थानेदार के कमरे में उसकी मौजूदगी में पास्टर को जूतों से पीटा गया। यह बात बिल्कुल भी बर्दाश्त करने लायक नहीं है कि पुलिस का इंतजाम और प्रशासन इस तरह चौपट हो जाएं। सांप्रदायिक घटनाएं गहरे जख्म दे जाती हैं, जो कि लंबे समय तक रहते हैं। फिर यह भी है कि एक जगह सांप्रदायिक लोग जब ऐसी वारदात करते हैं तो वह दूसरी जगहों पर सक्रिय सांप्रदायिक लोगों के लिए एक चुनौती भी रहती है, कि वे भी कुछ कर दिखाएँ। फिर यह भी है कि आज जो लोग अल्पसंख्यक हैं, वे कल अगर आक्रामक होकर कोई जवाब देने लगे तो हिंदुस्तान में कई प्रदेशों में वैसे टकराव भी देखने मिलते हैं। यह सिलसिला बिल्कुल भी आगे नहीं बढऩे देना चाहिए।
कल ही एक दूसरी और महत्वपूर्ण घटना हुई है कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के पिता नंद कुमार बघेल के खिलाफ पुलिस ने एक जुर्म दर्ज किया है। नंद कुमार बघेल लगातार ब्राह्मणों के खिलाफ अपनी सामाजिक नाराजगी निकालते रहते हैं और वे दलित आदिवासी और ओबीसी तबकों के और अधिक अधिकारों के लिए लगातार संघर्ष करते हैं। नंद कुमार बघेल ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया है, और वह हिंदू धर्म के ब्राह्मणवाद के खिलाफ उस वक्त से सामाजिक आंदोलन करते आए हैं, जब भूपेश बघेल राजनीति में कुछ भी नहीं थे। पिता की बहुत सी बातें और उनके बहुत से मुद्दे भूपेश बघेल के लिए राजनीति असुविधा की बात पहले भी रहे हैं, और जब जोगी सरकार में भूपेश बघेल मंत्री थे उस वक्त भी नंद कुमार बघेल को उनकी एक विवादास्पद किताब के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। अभी फिर उनके खिलाफ जुर्म दर्ज हुआ है, उसे लेकर भूपेश बघेल ने एक सार्वजनिक बयान भी दिया और कहा कि वे उनके पिता जरूर हैं लेकिन अगर उनके बयानों से सामाजिक समरसता खराब होती है, तो कानून अपना काम करेगा और मुख्यमंत्री के बयान के साथ ही उनके पिता के खिलाफ जुर्म कायम हुआ है।
छत्तीसगढ़ देश के दूसरे बहुत से राज्यों के मुकाबले सांप्रदायिक शांति और सद्भाव का केंद्र रहा हुआ है। यहां पर हालात बिगडऩे नहीं देना चाहिए। चाहे जाति को लेकर आक्रामक बातें हों या फिर धर्म को लेकर सांप्रदायिक हमले हों, इन दोनों को कड़ाई से रोकने की जरूरत है। कल एक दिन में ही भूपेश बघेल ने इन दोनों मामलों में कड़ा रुख दिखाया है। कल सुबह जब उन्होंने अपने पिता के खिलाफ एक बयान जारी किया और पुलिस ने शायद उनके निर्देश पर ही यह जुर्म दर्ज किया, तब राजधानी के एक मोहल्ले में ईसाई प्रार्थना सभा पर हमले की बात सामने भी नहीं आई थी। बाद में यह बात सामने आई और इस पर पुलिस को कड़ी कार्यवाही इसलिए करना चाहिए कि अगर सांप्रदायिक हिंसा का यह संक्रमण छत्तीसगढ़ में दूसरी जगहों पर फैला तो ईसाई तो बहुत गिनी-चुनी संख्या में प्रदेश के हजारों गांवों में हैं। इसलिए अगर कुछ उत्साही सांप्रदायिक संगठन रायपुर की घटना को एक इशारा मानकर दूसरी जगहों पर जुट जाएंगे तो राज्य की पुलिस इस नौबत पर काबू पाने में कम साबित होगी।
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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बुधवार को एक निर्णय में कहा कि वैज्ञानिक मानते हैं कि गाय ही एकमात्र पशु है जो ऑक्सीजन लेती और छोड़ती है, तथा गाय के दूध, उससे तैयार दही तथा घी, उसके मूत्र और गोबर से तैयार पंचगव्य कई असाध्य रोगों में लाभकारी है। हिंदी में लिखे अपने आदेश में जस्टिस शेखर कुमार यादव ने दावा किया है, ‘भारत में यह परंपरा है कि गाय के दूध से बना हुआ घी यज्ञ में इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इससे सूर्य की किरणों को विशेष ऊर्जा मिलती है जो अंतत: बारिश का कारण बनती है।’ कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा, ‘‘हिंदू धर्म के अनुसार, गाय में 33 कोटि देवी देवताओं का वास है। ऋगवेद में गाय को अघन्या, यजुर्वेद में गौर अनुपमेय और अथर्वेद में संपत्तियों का घर कहा गया है। भगवान कृष्ण को सारा ज्ञान गौचरणों से ही प्राप्त हुआ।’’ फैसले में लिखा गया है कि गाय को सरकार राष्ट्रीय पशु घोषित करे और हर हिन्दू को उसकी रक्षा का अधिकार रहे।
हिंदुस्तान बड़ी दिलचस्प जगह बनते जा रहा है। यहां पर बड़ी-बड़ी अदालतें अवैज्ञानिक बातों को विज्ञान कहकर उसे लगातार बढ़ावा दे रही हैं, और संविधान की मूल भावना में अच्छी तरह साफ-साफ लिखी गई इस बात के खिलाफ काम कर रही हैं कि देश में एक वैज्ञानिक सोच विकसित की जानी है। भारतीय संविधान की धारा 51-ए यह कहती है कि हर नागरिक की यह बुनियादी जिम्मेदारी है कि वे वैज्ञानिक सोच विकसित करें। संविधान कहता है कि वैज्ञानिक सोच लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद, और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना विकसित करते हैं।
देश के सबसे बड़े इस हाई कोर्ट के इस जज ने तमाम किस्म की अवैज्ञानिक बातों को लिखकर यह लिख दिया है कि वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं। अब इस फैसले के खिलाफ जब तक सुप्रीम कोर्ट से कोई आदेश नहीं आता है, तब तक इस देश में गाय के नाम पर पाखंड फैलाने वाले धर्मांध लोगों के हाथ एक बड़ा हथियार लग गया है। गाय के ऑक्सीजन छोडऩे को भाजपा के एक मुख्यमंत्री और ढेर सारे दूसरे मंत्रियों और नेताओं के साथ-साथ अब एक हाई कोर्ट जज ने भी सर्टिफिकेट दे दिया है। लोगों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले एक-दूसरे हाई कोर्ट, राजस्थान के जज महेश चंद्र शर्मा ने यह कहा था कि मोर सेक्स नहीं करते और मोर के आंसुओं को पीकर मोरनी गर्भवती हो जाती है। कुछ साल हुए हैं जब एक हाईकोर्ट जज ने यह लिखा था कि गीता को भारत का राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करना चाहिए। लोगों को राजस्थान से निकलकर आने वाले एक हाई कोर्ट जज का वह फैसला याद है जिसमें उन्होंने सती प्रथा का समर्थन किया था। अलग-अलग समय पर इस केस में के फैसले लिखने वाले लोग जब हाईकोर्ट में बैठे हुए दिखते हैं तो लगता है कि बाकी मामलों में इनका राजनीतिक रुझान इनकी धार्मिक मान्यताएं इनके सांस्कृतिक पूर्वाग्रह इनके फैसलों को किस तरह प्रभावित करते होंगे। जो साधारण जानकारी है उसके मुताबिक सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के किसी जज को हटाने के लिए संसद की एक लंबी कार्रवाई की जरूरत पड़ती है और वह आसान नहीं होती है। जज को हटाने के लिए एक महाभियोग चलाना पड़ता है जिसके लिए बहुत सारे सांसदों की जरूरत पड़ती है। और आज तो यह सारे जज जिस भाषा को बोल रहे हैं, जैसे विचार सामने रख रहे हैं, वह तो संसद में सबसे बड़े गठबंधन की भाषा है, तो फिर वहां पर इनके खिलाफ क्या हो सकता है? लेकिन सोशल मीडिया पर, सार्वजनिक जीवन में जजों के ऐसे पूर्वाग्रहों के खिलाफ लगातार लिखे जाने की जरूरत है, और उन्हें संविधान की वैज्ञानिक जिम्मेदारी याद दिलाने की जरूरत है, ताकि अगली बार कोई दूसरा जज इस तरह का कुछ लिखते हुए चार बार सोच तो ले।
अभी-अभी हमने अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के बारे में लिखा था कि किस तरह एक बहुत ही दकियानूसी कानून को बनाने वाले राज्य में उसे रोकने से सुप्रीम कोर्ट ने मना कर दिया क्योंकि जजों का बहुमत बहुत ही संकीर्णतावादी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बनाए हुए लोगों का था। भारत में जिस तरह सामाजिक हकीकत को अनदेखा करके, सर्वधर्म समभाव को अनदेखा करके कुछ जज जिस तरह कट्टरता की बात को बढ़ावा देते हैं, जिस तरह वे वैज्ञानिकता और पाखंड को बढ़ाते हैं, वह बहुत भयानक है। जाहिर है कि ऐसे जज बहुत से मामलों में अपनी इसी विचारधारा के चलते हुए किसी नेता, या किसी सरकार, या किसी नीति के पक्ष में अनुपातहीन ढंग से झुके हुए भी रहेंगे। भारत में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने अपने आपको अवमानना का एक कानून बनाकर जिस तरह एक फौलादी कवच के भीतर सुरक्षित रखा हुआ है, उस गैरजरूरी हिफाजत को भी खत्म करने की जरूरत है। अवमानना के कानून के चलते अगर किसी जज या उसके फैसले की कोई आलोचना होती है, तो छुईमुई के पत्तों की तरह संवेदनशील न्यायपालिका तुरंत ही उसके खिलाफ कार्रवाई शुरू कर देती है। इस बारे में भी देश के जागरूक तबके ने लगातार इस मुद्दे को उठाया है कि अवमानना का यह कानून खत्म किया जाना चाहिए ताकि अदालत के फैसले, उसकी सोच के बारे में जनता के बीच एक खुली चर्चा हो सके।
अदालत का अपने आपको जनचर्चा से इस तरह ऊपर रखना अलोकतांत्रिक रवैया है। अब तो सोशल मीडिया की मेहरबानी से बहुत से लोग बिना डरे-सहमे और शायद अवमानना के कानून से अनजान रहते हुए कई बातें लिख भी देते हैं। और यह लोकतांत्रिक सिलसिला आगे बढऩा चाहिए क्योंकि हो सकता है कि किसी दिन ऐसे किसी मामले को अवमानना के तहत कटघरे में खड़ा किया जाए तो उस पर होने वाली बहस इस कानून की संवैधानिकता को खत्म करने के काम आ जाए। फिलहाल हमारा ख्याल है कि सुप्रीम कोर्ट को खुद होकर किसी हाईकोर्ट के ऐसे फैसले का नोटिस लेना चाहिए, और उसे खारिज करने के लिए किसी अपील का इंतजार नहीं करना चाहिए, खुद होकर यह काम करना चाहिए। देश में सरकार से लेकर न्यायपालिका तक और सांसदों तक पर वैज्ञानिक सोच को विकसित करने की संवैधानिक जिम्मेदारी है, लेकिन यह तीनों ही संस्थाएं लगातार अवैज्ञानिक बातों को बढ़ावा देने में लगी हुई हैं। इन तीनों को संवैधानिक जिम्मा याद दिलाते हुए लोगों के बीच बहस छिडऩी चाहिए और इन पर खुलकर लिखा जाना चाहिए।
हिंदुस्तान के सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के बीच इन दिनों कई किस्म की लिस्ट घूम रही हैं। सुप्रीम कोर्ट में कितने जज बनाना है, या देश के बहुत से हाईकोर्ट में खाली पड़ी हुई कुर्सियों में निचली अदालतों के किन जजों को, या हाई कोर्ट के किन वकीलों को जज बनाना है, इस पर केंद्र सरकार के साथ सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम की बनाई लिस्ट पर चर्चा चल रही है, और सरकार की पसंद-नापसंद पर सुप्रीम कोर्ट अपनी असहमति भी जता रहा है। दरअसल किसी भी लोकतंत्र में जब सरकार के पास यह अधिकार रहता है कि वह किसी को जज बना सके या किसी का जज बनना रोक सके तो फिर हिंदुस्तान की तरह का सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम रहने पर भी केंद्र सरकार कुछ लोगों के नाम तो रोक ही सकती है। और दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट से जुड़े हुए बहुत से लोगों का यह मानना है कि केंद्र सरकार अपने प्रभाव और दबाव का इस्तेमाल करके सुप्रीम कोर्ट के सर्वशक्तिमान कॉलेजियम से भी अपनी पसंद के लोगों के नाम आगे बढ़वा लेती है और फिर उन्हें तुरंत मंजूरी भी दे देती है। इससे दो बातें होती हैं एक तो केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी की जो विचारधारा है, उस पर जब अदालतों में किसी मामले में बहस होती है, तो ऐसे मनोनीत जज उसमें सरकार के काम आते हैं। सरकार की विचारधारा के काम आते हैं और कई मामलों में तो सरकार के फैसलों को भी सही ठहराने में उनकी भूमिका बहुत से लोगों को समझ आ जाती है। सुप्रीम कोर्ट के जजों में तो कई बार ऐसा साफ दिखने लगता है कि कौन-कौन से जज सरकार समर्थक हैं, और कौन-कौन से जज जनता के हितों की बात करते हैं। तो कहने के लिए तो हिंदुस्तान जैसे लोकतंत्र में कार्यपालिका और न्यायपालिका की बिल्कुल अलग-अलग भूमिका है और न्यायपालिका का एक किस्म से कार्यपालिका पर काबू भी रहता है, लेकिन जजों को बनाने के मामले में सरकार अपनी ताकत और प्रभाव का इस्तेमाल करके अपनी पसंद के लोगों को बिठा लेती है। ये लोग सरकार के बड़े लोगों को बड़े-बड़े जुर्म के बाद भी बचाने में काम आते हैं।
लेकिन यह बात महज हिंदुस्तान में हो ऐसा भी नहीं है। अमेरिका में तो सुप्रीम कोर्ट के जज रिटायर होते नहीं हैं, और उनके मरने पर ही कोई कुर्सी खाली होती है। ऐसे में किसी राष्ट्रपति को 4 बरस के अपने कार्यकाल में कितने जजों को मनोनीत करने का मौका मिला है, इस बात को बड़ा ही महत्वपूर्ण माना जाता है। पिछले रिपब्लिकन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को ऐसे कई मनोनयन का मौका मिला, और उन्होंने अपनी पार्टी की सोच के मुताबिक संकीर्णतावादी जजों को तैनात करवाया, जिससे उनके सामने किसी मामले के जाने पर वह रिपब्लिकन पार्टी की सोच, संकीर्ण सोच के मुताबिक सोचे सकें, और फैसला दें। इसका एक बड़ा सुबूत अभी 3 दिन पहले सामने आया जब अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने वहां के एक राज्य टेक्सास के बनाए हुए एक नए कानून पर अमल रोकने से बहुमत से इंकार कर दिया। जितने जज इस फैसले में शामिल थे, उनमें अधिक ऐसे थे जिन्होंने तुरंत कोई दखल देने से मना कर दिया, और नतीजा यह हुआ कि आधी रात तक चले इस मामले में, तारीख बदलते ही टेक्सास में यह विवादास्पद कानून लागू हो गया।
रिपब्लिकन पार्टी के बहुमत वाले इस राज्य ने एक कानून बनाया है जिसके तहत 6 हफ्ते से अधिक की गर्भवती महिला का गर्भपात नहीं किया जा सकेगा। चिकित्सा विज्ञान बताता है कि अधिकतर गर्भवती महिलाओं को 6 हफ्ते में तो यह पता भी नहीं चलता है कि वे गर्भवती हैं। ऐसी महिलाओं की जांच में भी 6 हफ्ते के बाद ही पेट के बच्चे की धडक़न का पता लगता है। इस राज्य ने जो कानून बनाया है उसके मुताबिक अब तकरीबन कोई भी महिला गर्भपात नहीं करा सकेगी क्योंकि अधिकतर गर्भपात तो इन छह हफ्तों के बाद ही होते हैं। इस राज्य की सरकार ने इस कानून को लिखते हुए इस धूर्तता के साथ इसे बनाया कि इसमें सुप्रीम कोर्ट भी कोई दखल ना दे सके। अदालत में किसी मामले को, किसी कानून को चुनौती देते हुए ऐसे लोगों को नोटिस देना होता है जिन पर उस कानून को लागू करने की जिम्मेदारी रहती है। सरकार के बनाए हुए कानून के खिलाफ अदालतों में पहुंचे हुए लोग आमतौर पर सरकार के नुमाइंदों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करते हैं। लेकिन इस कानून को लिखते हुए टेक्सास की सरकार ने यह होशियारी दिखाई कि इसे लागू करने का जिम्मा उसने जनता पर डाल दिया। जनता में से कोई भी व्यक्ति अगर अदालत में यह साबित कर सके कि किसी महिला ने 6 हफ्तों के बाद गर्भपात करवाया है तो उस महिला सहित उसके सारे मददगार, डॉक्टर क्लीनिक, नर्स, और तो और उसे क्लीनिक तक ले जाने वाले टैक्सी ड्राइवर तक के खिलाफ मुकदमा दर्ज हो सकता है, और अगर यह मुकदमा साबित हो गया, तो इन तमाम लोगों पर दस-दस हजार डॉलर का जुर्माना हो सकता है, और मुकदमा करने वाले व्यक्ति को दस हजार डॉलर मिलेंगे और वकील का खर्च भी मिलेगा। इस तरह टैक्सास की सरकार ने इस कानून को लागू करवाने का जिम्मा आम जनता को दे दिया है कि वही शिकायत करके इसे लागू करवा सकती है, वहीं अदालत में जाकर किसी के खिलाफ केस कर सकती है।
अमेरिका के कानून के विश्लेषक यह मान रहे हैं कि बहुत ही धूर्तता के साथ ऐसा कानून बनाया गया है कि जिस पर अदालत का कोई बस ना चले और अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट भी अपने पुराने फैसलों के रहते हुए भी इस कानून पर रोक न लगा सके। नतीजा यह हुआ है कि अमेरिकी संविधान में और सुप्रीम कोर्ट के कई दशक पहले के फैसलों में पूरी तरह से स्थापित यह बात धरी रह गई कि गर्भपात महिला का अधिकार है, महिला का शरीर उसका अधिकार है। अब दूसरा खतरा यह आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट के संकीर्णतावादी जजों के बहुमत ने जब इस कानून में दखल देने से मना कर दिया है, किसी तरह का स्थगन देने से मना कर दिया है, तो अब रिपब्लिकन सरकारों वाले एक दर्जन दूसरे राज्य भी ठीक ऐसा ही कानून बना सकते हैं, और उससे उनका बहुत पुराना राजनीतिक मुद्दा लागू हो सकता है कि किसी भी तरह के गर्भपात पर पूरी तरह रोक लगाई जाए।
यह समझने की जरूरत है कि जब सुप्रीम कोर्ट में जज अपनी विचारधारा के बना दिए जाएं, और सरकार कानून ऐसा बना दे कि उसमें कोर्ट का दखल नामुमकिन सा हो जाए तो फिर सरकार अदालत के काबू से बाहर अपनी मनमानी कर सकती है। अमेरिका में आज यही हो रहा है और असहमति दर्ज कराने वाले जज संख्या में कम पड़ रहे हैं, और वे एक राज्य सरकार की इस हरकत पर अपना आक्रोश, अपनी निराशा दर्ज भी कर रहे हैं कि एक सरकार ने एक ऐसा कानून बना दिया है कि जिसमें अदालत दखल ना दे सके, और अदालत के कुछ जज या जजों का बहुमत उस कानून को स्थगित करने का काम भी नहीं कर रहा है। जजों के बीच बहुत गहरे मतभेद इसे लेकर हुए हैं, और आज हालत यह है कि टेक्सास में किसी महिला का अपने बदन पर कोई अधिकार नहीं बच गया है। बाकी देश में भी जहां-जहां रिपब्लिकन पार्टी की सरकारें हैं, इसी की कार्बन कॉपी लागू होने का खतरा हो गया है। दुनिया के बाकी लोकतंत्रों को भी इस बात से सबक लेना चाहिए कि अगर जजों की नियुक्ति सत्तारूढ़ लोग अपनी मर्जी से कर सकते हैं तो फिर वह अपनी मर्जी से कुछ भी कर सकते हैं और अदालतें मूक दर्शक बनी बैठी रह सकती हैं।
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जिन लोगों की अफगानिस्तान के ताजा हाल में दिलचस्पी है, और जो अंतरराष्ट्रीय मामलों में विदेश नीति में दिलचस्पी रखते हैं, वे लोग भारत को लेकर हमारी तरह कुछ फिक्रमंद भी हैं कि आज पाकिस्तान और चीन, अफगानिस्तान के तालिबान के एकदम करीब हैं, और हिंदुस्तान अलग-थलग पड़ गया है, क्योंकि यह पिछली अफगान सरकार के साथ इतना अधिक जुड़ा हुआ था कि वह तालिबान से दूर चला गया था। जब पिछले बरस अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तालिबान के साथ एक लिखित समझौता किया था और अमेरिका की फौज को अफगानिस्तान से वापस बुला लेना तय किया था, उस वक्त भी भारत पीछे रह गया। उसने मौके को समझा नहीं और अफगानिस्तान के साथ अपने रिश्तों को उसने वहां की मौजूदा सरकार के साथ रिश्तों तक सीमित रखा। उसे यह सूझा ही नहीं कि बाकी कई देश तालिबान को सम्भावना मानकर उसके साथ भी रिश्ते बना रहे थे। खैर जो हो गया सो हो गया, अब भारत सरकार ने अफगानिस्तान से बाहर तालिबान से बातचीत शुरू की है। हमारे पाठकों को याद होगा कि हमने करीब 10 दिन पहले ही इसी जगह इस बात को लिखा था कि भारत को तालिबान के साथ बात शुरू करनी चाहिए, क्योंकि और कोई रास्ता नहीं है।
जिन लोगों को यह लग रहा है कि पाकिस्तान आज तालिबान के करीब है और इस नाते भारत, पाकिस्तान, चीन के इस तनावपूर्ण त्रिकोण में वह भारत के मुकाबले बेहतर हालत में है, उन्हें तस्वीर के बाकी पहलुओं को भी देखना चाहिए। पाकिस्तान की जमीन पर बरसों से 14 लाख से अधिक अफगान शरणार्थी चले आ रहे हैं। और इसके भी पहले से अमेरिका की मदद के तलबगार पाकिस्तान को अपनी जमीन पर अफगान शरणार्थियों के बीच मदरसों का जाल बिछाने की इजाजत देनी पड़ी थी, और पाकिस्तान की जमीन पर ही अफगानिस्तान में मौजूद रूसी फौजियों से लडऩे के लिए हथियारबंद दस्ते तैयार हो रहे थे। पाकिस्तान की जमीन पर धर्मांध और कट्टर लड़ाके तैयार करने वाले मदरसों का नुकसान खुद पाकिस्तान को अपनी जमीन पर अपने लोगों के बीच कम नहीं हुआ है। पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरता और धर्मांधता फैलने के पीछे जो वजहें हैं उनमें से एक यह भी है कि उसकी जमीन पर अफगान शरणार्थियों के बीच अफगान लड़ाके तैयार किए जा रहे थे। इसलिए आज अगर अफगानिस्तान में इस्लामी कट्टरता के साथ अगर कोई सरकार बन रही है और उसका पाकिस्तान से बड़ा गहरा रिश्ता रहा है, तो यह रिश्ता कोई दौलत नहीं है, यह रिश्ता एक किस्म से एक बोझ भी है।
आज अफगानिस्तान के पास अड़ोस-पड़ोस के देशों को देने के लिए कुछ नहीं है, और उनसे मदद लेने के लिए उसकी जरूरतें अंतहीन हैं। ऐसे में पाकिस्तान और चीन के अलावा ईरान और रूस से भी अफगानिस्तान की तालिबान सरकार की बड़ी उम्मीदें रहेंगी। यह भी समझने की जरूरत है कि संयुक्त राष्ट्र का अंदाज यह है कि अफगानिस्तान में दसियों लाख लोगों के भूखे रहने का एक बहुत बड़ा खतरा आ खड़ा हुआ है। खबरें बताती हैं कि किस तरह आज अफगानिस्तान के लोग वहां की बेरोजगारी, भुखमरी और वहां पर हिंसा के खतरे को देखते हुए पाकिस्तानी सरहद पर इक_ा हैं, और पाकिस्तान के भीतर जाना चाहते हैं, क्योंकि इस जमीन पर पहले के आए हुए अफगान शरणार्थी बसे हुए हैं, और उन्हें धर्म के नाम पर, जुबान के नाम पर, पाकिस्तान में हमदर्दी और सिर छुपाने की जगह मिलने की उम्मीद है। यह नौबत किसी भी देश के लिए एक बहुत बड़ा बोझ रहती है और पाकिस्तान पहले से यह बात कहते आया है कि वह और अधिक अफगान शरणार्थियों का बोझ नहीं उठा सकता, उसकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है। फिर एक बात यह भी है कि आज अफगानिस्तान से जो लोग देश छोडक़र पाकिस्तान आ रहे हैं, ऐसे लोगों के बारे में तालिबान सरकार का क्या रुख रहेगा यह भी अभी साफ नहीं है। अमेरिकी सरकार वहां के अपने मददगार रहे जिन लोगों को अफगानिस्तान से ले जाना चाहती थी, उन्हें भी नहीं ले जा पाई है क्योंकि समझौते के तहत 31 अगस्त तक ही अमेरिका को वहां से हट जाना था। एक अंदाज यह है कि पिछले 20 वर्षों में अफगानिस्तान में अमेरिका की मदद करने वाले करीब 3 लाख अफगान ऐसे हैं जिन्हें अमेरिका खतरे में छोडक़र चले गया है, क्योंकि उसके पास भी और कोई चारा नहीं बचा था। इसलिए पाकिस्तान के आज अफगानिस्तान के साथ बहुत ही करीबी रिश्ते से उसे हासिल कम होना है, इन रिश्तों का बोझ ही उस पर अधिक रहेगा। आज पाकिस्तान की अपनी आर्थिक हालत ऐसी नहीं है कि वह अफगानिस्तान की किसी तरह से मदद कर सके। चीन और रूस जैसे दो बड़े और सक्षम देशों को अफगानिस्तान की जो मदद करनी होगी वह वहां की तालिबान सरकार को वे सीधे देना चाहेंगे, उसमें पाकिस्तान कहीं तस्वीर में नहीं आता है। इसलिए 15 लाख शरणार्थियों की संख्या और अगर बढ़ती चली जाती है तो यह पाकिस्तान पर बड़ी तकलीफ की बात रहेगी।
इसलिए अफगानिस्तान से जुड़े हुए अलग-अलग देशों के बारे में आज जो खबरें आ रही हैं, वे उन्हें अफगानिस्तान की नई तालिबान सरकार के साथ बड़े गहरे रिश्ते वाली बतला रही हैं, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि इन तमाम देशों के साथ अपनी घरेलू दिक्कतें ऐसी हैं कि जिनके चलते हुए तालिबान के साथ बेहतर रिश्ते रखना इनकी मजबूरी भी है। चीन के भीतर उईगर मुस्लिमों की एक बड़ी आबादी ऐसी है जो कि चीन की सरकार से बहुत बुरी तरह प्रताडि़त है। चीन पर यह आरोप लगते रहे हैं कि वह इन मुस्लिम समुदायों के लोगों को बहुत बुरी हालत में रखता है, उनके मानवाधिकार कुचलता है। ऐसे में इस्लामी राज कायम करने वाले तालिबान पर यह नैतिक बोझ भी रहेगा कि वह चीन में मौजूद बड़ी संख्या में ऐसे मुस्लिम क़ैदियों के बारे में क्या करता है, क्या रुख रखता है। इसलिए भी चीन तालिबान के साथ अपने रिश्ते ठीक रखना चाहता है कि कहीं अफगान जमीन से चीन के खिलाफ ऐसी बगावत खड़ी ना होने लगे जो कि चीन में मौजूद उईगर मुस्लिमों को आतंकी बनाने का काम करे। दूसरी तरफ रूस में 50 लाख से अधिक मुस्लिम रहते हैं और उसकी दिक्कत यह है कि वह अपनी इस बड़ी मुस्लिम आबादी के बीच किसी किस्म की राजनीतिक बेचैनी या बगावत देखना नहीं चाहता। अगर पड़ोस के अफगानिस्तान के मुस्लिम हथियारबंद लोगों के हाथों अमेरिका के हार जाने का कोई असर रूस में बसे हुए मुस्लिम समुदाय पर होगा, तो उनके भीतर एक अलग राजनीतिक चेतना आ सकती है, उनमें से कुछ बागी तेवरों वाले भी हो सकते हैं। इसलिए रूस की अपनी जरूरत यह है कि अफगानिस्तान की जमीन से कोई ऐसे हथियारबंद भडक़ाऊ या उकसाऊ काम न हों जो कि रूस में मुस्लिम लोगों को भडक़ायें।
खुद पाकिस्तान आज ऐसी नौबत में खड़ा हुआ है कि अफगान जमीन से पाकिस्तान के कई आतंकी समूहों को मदद मिल रही है, और इस बात को पाकिस्तान ने अभी-अभी औपचारिक रूप से तालिबान के सामने रखा भी है। पाकिस्तान में मौजूद तालिबान समूहों को लेकर अभी अफगान-तालिबान ने यह साफ भी कर दिया है कि उनसे अफगान-तालिबान का कोई लेना देना नहीं है। इसलिए रूस, पाकिस्तान और चीन, इनके बारे में सीधे-सीधे ऐसा मान लेना ठीक नहीं होगा कि इन तीनों ने अमेरिका का विरोध करने के लिए अफगान-तालिबान का साथ दिया है, और आगे देते रहेंगे। इन सबकी घरेलू मजबूरियां भी हैं, जिनके चलते ये तालिबान के साथ अपने रिश्ते ठीक रखना चाहते हैं। भारत की जो सरकार तालिबान को आतंकी मानती थी उसने रातों-रात एक तीसरे देश में तालिबान से औपचारिक राजनयिक बैठक की है, और संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए तालिबान को आतंकियों की एक सूची से बाहर भी करवाया है। ऐसा इसलिए भी है कि भारत पर एक खतरा यह है कि कश्मीर में तालिबान समर्थित समूह आतंकी वारदात कर सकते हैं और भारत तालिबान को कश्मीर को महज एक मुस्लिम मुद्दा मानकर उसमें दखल देने से दूर रखना चाहता है। आज हिंदुस्तान में भारत सरकार के तालिबान से बैठक करने के बारे में व्यंग्य से काफी कुछ लिखा जा रहा है। ऐसा लिखा हुआ पढक़र ही हम इस मुद्दे पर लिखने की सोच रहे थे कि विदेश नीति के मामलों को और देश के राष्ट्रीय हित के मामलों का अतिसरलीकरण, नहीं करना चाहिए। एशिया के इस पूरे हिस्से के जो मिले-जुले हित हैं या जो मिले-जुले खतरे हैं, उनको भी देखते हुए बाकी देश तालिबान के साथ तालमेल बिठाने में लगे हुए हैं, और बदले हुए इस हालात में खुद तालिबान ने यह कहा है कि वह अमेरिका सहित तमाम यूरोपीय देशों के साथ अपने रिश्ते ठीक रखना चाहता है। वह चाहता है कि अमेरिकी फौजों की वापसी के बाद, अमेरिका और यूरोप के देश लौटें, और तालिबान को अफगानिस्तान बेहतर बनाने में मदद करें। लोगों को यह बात भी कुछ अटपटी लग सकती है, लेकिन जमीनी हकीकत यही रहती है कि तालिबान का राज्य अफगानिस्तान में एक आतंकी राज्य न बन सके, और वह लोकतंत्र के जितने करीब लाया जा सके, उसके लिए दुनिया के देशों को तालिबान से अपना पुराना परहेज छोडक़र उससे बातचीत करनी ही होगी, जो कि भारत ने भी शुरू कर दी है। भारत के इस बातचीत शुरू करने के 10 दिन पहले हमने इस बात का सुझाव दिया भी था। आगे-आगे देखना है कि क्या होता है।
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सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया, वेब पोर्टल और निजी टीवी चैनलों के एक वर्ग में झूठी ख़बरों को चलाने, और उन्हें सांप्रदायिक लहज़े में पेश करने को लेकर चिंता जताते हुए कहा है कि इससे देश का नाम खऱाब हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने जमीयत उलेमा-ए-हिंद की ओर से दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए ये कहा। इस पीठ की अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना कर रहे थे। इन याचिकाओं में पिछले वर्ष निज़ामुद्दीन मरकज़ में हुई एक धार्मिक सभा को लेकर ‘फेक न्यूज’ के प्रसारण पर रोक लगाने के लिए केंद्र को निर्देश देने और इसके जि़म्मेदार लोगों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करने की माँग की गई है। सुनवाई करते हुए अदालत ने पूछा, ‘निजी समाचार चैनलों के एक वर्ग में जो भी दिखाया जा रहा है उसका लहजा सांप्रदायिक है। आखऱिकार इससे देश का नाम खराब होगा। आपने कभी इन निजी चैनलों के नियमन की कोशिश की है?’ उन्होंने कहा, ‘फेक न्यूज और वेब पोर्टल तथा यूट्यूब चैनलों पर लांछन लगाने को लेकर कोई नियंत्रण नहीं है। अगर आप यूट्यूब पर जाएँ तो वहाँ देखेंगे कि किसी आसानी से फेक न्यूज को चलाया जा रहा है और कोई भी यूट्यूब पर चैनल शुरू कर सकता है।’
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का कोई लिखित आदेश या फैसला नहीं आया है लेकिन भरोसेमंद मीडिया में जो खबरें आई हैं उनमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और दो और जजों की जुबानी टिप्पणियां लिखी गई हैं। अगर उन्होंने केवल इतना कहा है तो हमें इससे थोड़ी सी निराशा भी हो रही है क्योंकि सोशल मीडिया, वेबसाइट, और निजी टीवी चैनलों में जिस तरह से सांप्रदायिकता को भडक़ाया जा रहा है, उससे खतरा केवल दुनिया में देश का नाम खराब होने का नहीं है, इससे देश के भीतर लोगों के बीच माहौल खराब हो रहा है, बहुत हद तक हो चुका है। यह खतरा हिंदुस्तान की बदनामी का नहीं है, यह खतरा यहां की आबादी के बीच नफरत की एक खाई खुद जाने का है।
यह बात सही है कि आज बिना किसी काबू के इंटरनेट और सोशल मीडिया पर कोई भी व्यक्ति कुछ भी पोस्ट कर सकते हैं, फेक न्यूज़ फैला सकते हैं, यूट्यूब चैनल पर जो चाहे वह पोस्ट कर सकते हैं, और बाकी सोशल मीडिया का भी ऐसा ही इस्तेमाल चल रहा है। लेकिन आज जितना खतरा इससे है, उतने का उतना खतरा इस बात से भी है कि फेक न्यूज या नफरत को रोकने के नाम पर केंद्र सरकार उसे नापसंद सभी चीजों को रोकने का काम कर सकती है, और झूठ को रोकना तो नाम रह जाएगा, असल में कड़वे सच को रोकने का काम भी होने लगेगा। इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कभी-कभी झूठ फैलाने के भी काम आती है, कभी कभी नफरत फैलाने के भी काम आती है, लेकिन इन वजहों से उस स्वतंत्रता को कम करना कोई इलाज नहीं है। और जहां तक सरकारों का बस चले, तो वे अपने को नापसंद तमाम चीजों को रोकने के लिए सोशल मीडिया, इंटरनेट, मैसेंजर सर्विसों, सभी पर एक कड़ा काबू बनाने की कोशिश में लगी ही रहती हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की यह बात सही है कि निजी समाचार चैनलों के एक तबके में जो भी दिखाया जा रहा है उसका लहजा सांप्रदायिक है और यह बात भी सच है कि केंद्र सरकार ने इन चैनलों को काबू में रखने के लिए, इनकी नफरत पर इनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए, कुछ भी नहीं किया है। इसलिए महज टेक्नोलॉजी या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिर पर तोहमत का घड़ा फोड़ देना ठीक नहीं होगा। जहां सरकार को कार्रवाई करनी चाहिए वहां कार्रवाई न करके कानून को नाकाफी बताना, संचार कंपनियों पर काबू को बढ़ाने की बात करना, सोशल मीडिया और मैसेंजर सर्विसों पर अधिक पकड़ बनाने की बात करना, यह जायज नहीं है। देश में पहले से मौजूद कानूनों का इस्तेमाल न करके नए-नए कानून बनाना या नई-नई ताकत हासिल करना जरा भी न्याय संगत नहीं है।
हर युग में टेक्नोलॉजी आजादी की नई संभावनाएं लेकर आती है। जिस वक्त छपाई चालू हुई उस वक्त भी मौजूदा शासकों को अखबार नापसंद होने लगे क्योंकि उनके तेवर सरकार के हिमायती नहीं रहते थे, और उन में सत्तारूढ़ लोगों की आलोचना भी रहती थी। सरकार को यह लगता था कि यह टेक्नोलॉजी अराजक है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बेजा इस्तेमाल हो रहा है। दुनिया के वे देश जहां लोकतंत्र परिपच् था, और जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अधिक महत्व दिया जाता था, वहां तो काम चल गया था क्योंकि वहां सत्तारूढ़ लोगों को मालूम था कि इस स्वतंत्रता को अधिक कुचलना नामुमकिन नहीं है। लेकिन कई देशों में सरकारें ऐसी कोशिश कर रही हैं कि उसे नापसंद छापने या दिखाने वाले लोगों के खिलाफ तरह-तरह की कार्यवाही की जाए। यह सिलसिला लोकतंत्र को कमजोर और बेअसर बनाने की नीयत वाला है, और राजनीतिक ताकतें जब तक सत्ता पर नहीं पहुंचती हैं, तब तक तो वे आजादी की हिमायती रहती हैं, और सत्ता पर आते ही उन्हें वह आजादी अराजक लगने लगती है। सुप्रीम कोर्ट अब इस मामले की सुनवाई कर रहा है और कई राज्यों की हाईकोर्ट में इससे जुड़े हुए जो मामले चल रहे हैं, उन्हें भी एक साथ जोड़ रहा है। ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने जहां-जहां अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं कर रही हैं, वह भी अदालत के सामने आएगा, और अदालत के मार्फत देश के सामने साफ होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान के जिन लोगों के सिर से अब पेगासस की दहशत हट चुकी है और लोग मान चुके हैं कि अब उन्हें सरकार या किसी गैर सरकारी एजेंसी की जासूसी का खतरा नहीं है, उनके लिए एक खबर है जिससे उनकी सारी तसल्ली धरी रह जाएगी। एप्पल कंपनी ने अभी एक ऐसी टेक्नोलॉजी विकसित करने की घोषणा की है जिससे वह अमेरिका के अपने तमाम आईफोन में तस्वीरों, वीडियो, और टाइप किए हुए संदेशों में झांक सकती है। उसने यह काम बच्चों की पॉर्नोग्राफी को रोकने की अमेरिकी सरकार की मुहिम के तहत अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के लिए किया है. इस टेक्नोलॉजी से एप्पल अमेरिका के अपने हर आईफोन, और आईफोन से जुड़े हुए आईक्लाउड अकाउंट में अपने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वाले कंप्यूटरों से झांक सकेगी, झांकेगी, और देख सकेगी कि वहां चाइल्ड पॉर्नोग्राफी का कुछ सामान तो नहीं है। अगर उसे किसी एक फोन पर ऐसे 30 से अधिक फोटो या वीडियो मिलेंगे तो एप्पल का आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस उसके कर्मचारियों को सतर्क करेगा। उसके बाद वे कर्मचारी खुद इन तस्वीरों को देखेंगे, और अगर उन्हें चाइल्ड पॉर्नोग्राफी देखेगी तो वे ऐसा फोन इस्तेमाल करने वाले की जानकारी सबूत सहित अमरीकी जांच अधिकारियों को दे देंगे। इसमें कंपनी द्वारा की गई घोषणा में ही बतलाया गया है कि 13 साल से कम उम्र के जो बच्चे एप्पल आईफोन इस्तेमाल करते हैं, उनके फोन की अलग से जांच होगी, और उनमें से कोई बच्चे अगर अपनी खुद की या किसी और बच्चे की नंगी तस्वीर किसी को भेज रहे हैं, या किसी से पा रहे हैं, तो इसकी जानकारी एप्पल के कंप्यूटर तुरंत ही कंपनी के कर्मचारियों को देंगे, और नाबालिग बच्चों के मां-बाप को इसकी खबर की जाएगी। अगर कोई व्यक्ति बच्चों से ऐसी फोटो मांगने के संदेश भी भेजेंगे तो वैसे संदेश भी यह कंपनी पढ़ सकेगी। एप्पल के पहले फेसबुक और गूगल जैसी कंपनियों ने यह तकनीक विकसित की है, जिससे फेसबुक पर आने जाने वाली तस्वीरों में बच्चों की नंगी तस्वीरें को रोकने का इंतजाम है, और गूगल ने अपने यूट्यूब जैसे चैनल पर चाइल्ड पॉर्नोग्राफी को रोकने के कई इंतजाम किए हुए हैं। एप्पल इस मुहिम में पीछे था, लेकिन अभी उसने जो घोषणा की है, उसमें वह खासी बड़ी कार्यवाही करने जा रहा है।
लेकिन अमेरिका में निजता के हिमायती लोग इस बात को लेकर बड़े फिक्रमंद हैं कि कंपनी ने एक ऐसी तकनीक विकसित कर ली है जिससे वह लोगों के फोन में घुसपैठ कर सकती है, वहां पर फोटो, वीडियो और संदेश, सबको अपने कंप्यूटरों के मार्फत पढ़ सकती हैं, और शक होने पर उसके कर्मचारी भी इन तस्वीरों और वीडियो को देख सकते हैं। आजादी के हिमायती संगठनों का यह कहना है कि कुछ बरस पहले जब अमेरिका में एक आतंकी के आईफोन का लॉक खोलना अमेरिकी खुफिया एजेंसियों से भी नहीं हुआ तो अमेरिकी सरकार ने एप्पल से अनुरोध किया था कि वह इसका लॉक खोल दे ताकि आतंक के खतरे की जानकारी मिल सके। इसके बाद अमेरिका की बड़ी अदालत ने भी एप्पल को इसका हुक्म दिया था और कंपनी ने अदालत में यह कहा था कि उसके पास ऐसी तकनीक ही नहीं है कि वह बिना पासवर्ड के अपने फोन को खोल सके। उसने कहा था कि ऐसी तकनीक विकसित करना कैंसर विकसित करने जैसा खतरनाक काम होगा और कंपनी ऐसा नहीं करने वाली है। अदालत के आदेश के बाद भी एप्पल ने ऐसा नहीं किया था।
अब चाइल्ड पॉर्नोग्राफी को रोकने के लिए इस कंपनी ने काफी दूर तक घुसपैठ करने वाली ऐसी तकनीक के इस्तेमाल की घोषणा कर दी है तो लोग चौकन्ने हो गए हैं। मानवाधिकार संगठनों और निजता के समर्थकों का यह मानना है कि अब एप्पल के पास अमेरिकी सरकार या अमेरिकी अदालत में यह तर्क देने की गुंजाइश खत्म हो चुकी है कि उसके पास ऐसी तकनीक ही नहीं है. अब जब वह तकनीक बना चुकी है, तो यह महज वक्त की बात है कि चाइल्ड पॉर्नोग्राफी के बाद सरकार और किस अपराध को रोकने के लिए इस कंपनी पर घुसपैठ का दबाव डालेगी, और धीरे-धीरे सरकार निजता को पूरी तरह से खत्म कर सकेगी क्योंकि कंपनी ने ऐसी तकनीक विकसित कर ली है। अमेरिकी निजता संगठनों का यह भी कहना है कि दुनिया के बहुत से दूसरे देश भी कंप्यूटर और टेलीफोन कंपनियों पर लगातार दबाव डाल रहे हैं कि वे सरकार को घुसपैठ का रास्ता बनाकर दे। एप्पल के मामले में ही अमेरिका में जो बहस चल रही है उसमें यह गिनाया जा रहा है कि चीन में वहां की सरकार ने इस कंपनी पर दबाव डालकर यह इंतजाम कर लिया है कि इसके ग्राहकों की सारी जानकारी चीन में ही इसके सरवर पर रहेगी। लोगों का मानना है कि इससे चीन में आईफोन इस्तेमाल करने वाले लोगों पर सरकार की एक पकड़ बन गई है। अमेरिका में इस पर चल रही बहस के दौरान हिंदुस्तान की सरकार का जिक्र भी किया जा रहा है कि किस तरह वह व्हाट्सएप के पीछे लगी हुई है कि उसे घुसपैठ की इजाजत दी जाए, किस तरह व ट्विटर या फेसबुक पर अपने को नापसंद सामग्री को मिटाने का इंतजाम कर रही है. डिजिटल घुसपैठ के लिए पेगासस जैसे खुफिया हैकिंग सॉफ्टवेयर का भारत में भी इस्तेमाल किए जाने की खबरें तो पिछले कुछ महीनों से चल ही रही हैं, जो कि सुप्रीम कोर्ट में एक गंभीर कगार तक आ पहुंची हैं।
लोग इस बात को लेकर फिक्रमंद हैं कि मोबाइल फोन जैसा निजी सामान अगर किसी कंपनी की बिल्कुल ही आम इस्तेमाल की तकनीक से घुसपैठ के लायक रह जाएगा तो लोगों की व्यक्तिगत जिंदगी कुछ भी नहीं बचेगी, उसमें व्यक्तिगत कुछ भी नहीं रह पाएगा। आज बात एप्पल के कंप्यूटरों की है, और कल हो सकता है कि एप्पल के कोई कर्मचारी कंपनी की नीतियों से बगावत करके इसमें घुसपैठ करें, और वहां की जानकारी को लेकर बाहर निकल जाएं। एप्पल को खुद भी अंदाज है कि उसकी इस मुहिम से उसके ग्राहक बिदक सकते हैं, तो उसने अपने बिक्री करने वाले कर्मचारियों की एक अलग से ट्रेनिंग शुरू की है कि ग्राहकों की तमाम फिक्र को किस तरह सुलझाया जाए और उनका भरोसा किस तरह कायम रखा जाए। लेकिन कुल मिलाकर हकीकत यह है कि एप्पल ने ऐसी तकनीक ना केवल विकसित कर ली है बल्कि उसका इस्तेमाल शुरू करने की घोषणा की है और किसी भी सरकार की इस ताकत पर लार टपक सकती है कि वह लोगों के मोबाइल पर कुछ किस्म की फोटो कुछ किस्मों के वीडियो या कोई भी संदेश ढूंढ सकती हैं। इसके लिए कंपनी पर कब से कितना दबाव पड़ेगा या कंपनी के कंप्यूटरों में घुसपैठ करके सरकार या दूसरी हैकिंग एजेंसियां ऐसा कर पाएंगे, यह खतरा सामने खड़ा ही रहेगा। एप्पल तो दुनिया की एक सबसे बड़ी कंपनी है और इसने अभी कुछ वर्ष पहले तक अमेरिकी सरकार और अमेरिकी अदालत की, आतंक के एक मामले में भी कोई मदद करने से साफ मना कर दिया था। दूसरी तरफ मोबाइल फोन और कंप्यूटर बनाने वाली बहुत सी ऐसी चीनी कंपनियां हैं जिनके बारे में दुनिया भर में यह शक है कि वे चीन की सरकार या खुफिया एजेंसियों को तमाम जानकारियां पहुंचाती हैं। पश्चिम के कई देशों में चीन की ऐसी बदनाम कंपनियों के टेलीफोन एक्सचेंज से लेकर उनके मोबाइल फोन तक इस्तेमाल नहीं किए जा रहे हैं। भारत में भी शायद सरकार, फौज, और खुफिया एजेंसियां ऐसी कंपनियों के सामान इस्तेमाल करने से बचती हैं। अब सवाल यह है कि अगर चाइल्ड पॉर्नोग्राफी को रोकने के नाम पर भी, या शक का फायदा दिया जाए तो यह कह सकते हैं कि चाइल्ड पॉर्नोग्राफी को रोकने के लिए, अगर ऐसी तकनीक विकसित की जा रही है तो वह बेजा इस्तेमाल के लिए भी मौजूद रहेगी। सरकारी खुफिया एजेंसियां और हैकिंग कंपनियां ये सब इस नए रास्ते के कानूनी या गैर कानूनी इस्तेमाल की संभावनाएं ढूंढने में लग चुके होंगे। आज एक कंपनी ने ऐसा किया है, आगे चलकर दूसरी कंपनियां ऐसा करेंगी, और बात मोबाइल से कंप्यूटरों तक चली जाएगी और दुनिया में कुछ भी गोपनीय या निजी नहीं रह जाएगा।
हम शायद ऐसी नौबत को ध्यान में रखते हुए हमेशा से इस बात को लिखते हैं कि लोगों का अपना चाल-चलन ठीक रखना, गैर कानूनी काम से बचना ही अकेला रास्ता है। धीरे-धीरे ऐसी तकनीक भी बन सकती है कि लोगों के मन में कोई बात आए और कंप्यूटर या फोन उसको रिकॉर्ड कर ले, इसलिए लोगों को अपना मन भी साफ-सुथरा रखना सीख लेना चाहिए। आज लोगों के मन में कोई बात आए और कल वह पोस्टर की तरह छपकर सरकारों के पास पहुंच जाए, यह बहुत खतरनाक नौबत होगी। फिलहाल मुजरिमों को पकडऩे और निजी जिंदगी की निजता को खतरे में डालने के बीच एप्पल की यह नई तकनीक आई है, और देखना है कि इसके बेजा इस्तेमाल कबसे सामने आते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मीडिया में कुछ अलग-अलग खबरें हैं, और कुछ अपने आसपास सडक़ों पर बदलती हुई तस्वीर दिख रही है, इन दोनों को मिलाकर देखें तो लगता है कि आने वाला वक्त बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों का होने वाला है। और हो सकता है कि जिस शहरी प्रदूषण को लोग कभी कम ना होने वाला मानकर चल रहे थे, वह कम होने लगे और धीरे-धीरे हवा साफ होने लगे। आज की एक खबर यह है कि हिंदुस्तान की ही एक ऑटोमोबाइल कंपनी ने अभी अपनी एक दमदार इलेक्ट्रिक कार बाजार में उतारी है जो सिंगल चार्ज में 300 किलोमीटर से अधिक चलेगी। दूसरी खबर देश की राजधानी के पास के एक औद्योगिक क्षेत्र की है कि वहां किस तरह बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों को बनाने के बहुत सारे उद्योग लग रहे हैं और वह एक इलेक्ट्रिक सिटी कहला रही है। फिर हम अपने आसपास देख रहे हैं तो पिछले दो-तीन वर्षों में लगातार शहरों में बैटरी से चलने वाले ऑटो रिक्शा बढ़ते दिख रहे हैं और अभी डीजल से चलने वाले ऑटो रिक्शा जितना प्रदूषण फैलाते हुए चलते थे धुएं के साथ-साथ जितना शोर करते हुए चलते थे, वह पूरे का पूरा सिलसिला बैटरी वाले ऑटो रिक्शा में खत्म हो गया है, और बगल से गाड़ी निकलने पर आवाज तक नहीं आती है। दिल्ली की एक खबर यह है कि वहां की सरकार ने बैटरी से चलने वाली सैकड़ों बसें खरीदी हैं।
कुल मिलाकर मतलब यह है कि मौजूदा गाडिय़ां धीरे-धीरे कम होने वाली हैं क्योंकि 15 बरस के बाद किसी गाड़ी का दोबारा रजिस्ट्रेशन कराना बहुत महंगा पडऩे वाला है, और उसे बेचना सस्ता पडऩे वाला है। दूसरी तरफ ऐसे शहर बढ़ते चल रहे हैं जहां पर डीजल ऑटो रिक्शा के बजाय बैटरी ऑटो रिक्शा को केंद्र और राज्य सरकार बढ़ावा दे रही हैं उन पर सब्सिडी दे रही हैं। यह नई गाडिय़ां इतनी सहूलियत की हैं कि इन्हें बड़ी संख्या में महिलाएं भी चला रही हैं। परंपरागत मुसाफिर और सामान ढोने के अलावा बैटरी वाले ऑटो रिक्शा में फल और सब्जियां बेचने के लिए सैकड़ों लोग एक-एक शहर में रिहायशी इलाकों में घूम रहे हैं और वहां बिना शोर किए बिना धुआं फैलाए कारोबार कर रहे हैं।
लेकिन सडक़ों पर गाडिय़ां कई किस्म की रहती हैं। ऑटो रिक्शा से परे निजी कारें और निजी दुपहिया ऐसे हैं जिनमें खूब पेट्रोल लगता है और जो कि अब सौ रुपये लीटर से अधिक महंगा हो चुका है। ऐसे में हिंदुस्तान में बाजार में उतरने वाला एक नया दुपहिया जब बहुत मामूली बिजली खर्च पर चलने का वादा कर रहा है, और एक-एक करके कई कंपनियां बिजली से चार्ज होने वाली बैटरी से चलने वाली गाडिय़ां उतारते जा रही हैं, तो आने वाला वक्त एक बदली हुई तस्वीर रहना तय है। लेकिन बैटरी से चलने वाली गाडिय़ां कुछ किस्म की नई चुनौतियां लेकर आने वाली हैं। एक तो यह कि आज जिस तरह गाडिय़ों के निकले हुए, घिसे हुए टायर पहाड़ की तरह इकट्ठे होते जा रहे हैं, क्या गाडिय़ों की बैटरी उसी किस्म के नए पहाड़ बनेंगीं, या हिंदुस्तान की जुगाड़ तकनीक उन बैटरी के दोबारा इस्तेमाल जैसा कोई रास्ता निकाल सकेगी? बैटरी की जिंदगी बढ़ाना और बैटरी की उत्पादकता बढ़ाना इन दोनों पर पूरी दुनिया में खूब काम चल रहा है, और बैटरियों का बेहतर होना केवल वक्त की बात है इसलिए इनके पहाड़ बनने का खतरा धीरे-धीरे कम भी हो सकता है। अब दूसरी बात यह है कि जब लोगों को अपनी दुपहिया या चौपहिया को घर और दफ्तर से परे चार्ज करने की सहूलियत जब तक नहीं रहेगी, तब तक बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों का आगे बढऩा कुछ धीमा भी हो सकता है। केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर या अलग-अलग अपने चुनिंदा बड़े शहरों में बैटरी चार्ज करने के सेंटर बनाने चाहिए जो कि पेट्रोल और डीजल के पंपों की तरह जगह-जगह हों और उनके साथ कुछ घंटे लोगों के बैठने खाने-पीने आराम करने या नहाने जैसी सहूलियत भी जोडऩी चाहिए ताकि इस कारोबार के जिंदा रहने की गुंजाइश भी बढ़े और लोगों को एक जगह गाड़ी चार्ज होने तक इंटरनेट या मनोरंजन के साथ-साथ खाने-पीने, लेटने की सुविधा भी मिल सके। दरअसल बैटरी की गाडिय़ां अगर बढ़ जाएंगी और तब तक उनकी चार्जिंग का ढांचा विकसित नहीं होगा, तो इससे लोगों का उत्साह कम भी हो सकता है। इसलिए मौजूदा पेट्रोल पंप उनके ढांचे को भी बैटरी चार्जिंग स्टेशन की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है क्योंकि उनके आसपास खाने-पीने की कोई न कोई जगह रहती है। दूसरी तरफ स्थानीय संस्थाएं या राज्य सरकार ऐसे नए कारोबार भी विकसित कर सकती है जिनमें चार्जिंग स्टेशन एक बड़ा आकर्षक कारोबार हो सकता है।
हिंदुस्तान के बाजार और हिंदुस्तान की सरकार इन दोनों को मिलकर इस मौके का कई तरह का इस्तेमाल करना चाहिए। अभी हम बहुत तकनीकी जानकारी में नहीं जा रहे हैं, लेकिन यह संभावना भी देखनी चाहिए कि क्या सोलर पैनलों से भी बैटरी चार्ज हो सकती हैं? क्या चार्जिंग खो चुकी बैटरी की जगह तुरंत ही दूसरी बैटरी दी जा सकती है ताकि लोगों को चार्जिंग की राह देखते हुए अधिक वक्त तक रुकना ना पड़े? दुनिया के कई देशों में बैटरी की अदला-बदली एक बड़ा संगठित कारोबार बन गया है। छोटे से ताईवान में लाखों लोग बैटरी बदलकर चार्ज की हुई बैटरी देने वाली कंपनी के ग्राहक हैं। केंद्र सरकार और राज्य सरकार के शहरी विकास से जुड़े हुए विभागों को तुरंत ही अगले 10-20 बरस की ऐसी संभावनाओं को देखकर उसके हिसाब से क्षमता विकसित करनी चाहिए ताकि नया कारोबार भी पनपे, और लोगों को बैटरी की गाडिय़ां लेते हुए कोई आशंका भी ना रहे कि वह कहीं भी खड़ी हो जाएगी तो क्या होगा। आज जिस तरह कई कंपनियों की गाडिय़ों को खराब होने पर उठाकर ले जाने की सहूलियत उनकी कंपनियां देती हैं कुछ उसी तरह की बैटरी पहुंचाने की सुविधा भी रहनी चाहिए कि एक टेलीफोन करते ही कोई तकनीशियन आकर बैटरी बदल कर चले जाए। राज्य सरकारों को अपने स्तर पर भी कल्पनाशील होना चाहिए और आने वाले वक्त का अंदाज लगाकर सरकार की नीतियां बनाकर जमीन देनी चाहिए, सहूलियत देनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हरियाणा के एक शांतिपूर्ण किसान प्रदर्शन पर पुलिस की लाठियों से एक बुजुर्ग किसान का सिर फोड़ दिया गया और लहूलुहान कपड़ों में उसकी तस्वीरें देश के लोगों को दहला रही हैं। इस बुजुर्ग ने अपने कुर्ते पर सामने भगत सिंह का एक बिल्ला लगा रखा था, और लिखने वाले उसे भी देखकर उसका भी जिक्र कर रहे हैं। पुलिस के तो बहुत से ऐसे मामलों में लोग जख्मी होते हैं, उनकी तस्वीरें भी आती हैं, लेकिन यह मामला थोड़ा सा अलग इसलिए है कि हरियाणा के उस इलाके में एक नौजवान आईएएस अफसर एसडीएम था और उसने पुलिस को प्रदर्शनकारियों का सिर तोडऩे का निर्देश दिया था। इसके बाद भी अगर वीडियो कैमरे से इस अफसर की हिंसक बकवास रिकॉर्ड नहीं हुई होती तो भी यह मुद्दा नहीं बनता, क्योंकि पुलिस लाठियों से तो जख्मी होना और कभी-कभी मरना भी होते ही रहता है। लेकिन एक खासे पढ़े-लिखे और आईएएस अधिकारी की ऐसी जुबान को लेकर लोग बहुत विचलित हैं और उसकी बर्खास्तगी की मांग कर रहे हैं। इस सिलसिले में सबसे गंभीर बात तृणमूल कांग्रेस की लोकसभा सांसद महुआ मोइत्रा ने लिखी है उन्होंने कहां है कि जूते चाटने वाले ऐसे अफसर का नाम लेकर उन्हें धिक्कारना चाहिए क्योंकि ये लोग अगर ड्यूटी की बात कर रहे हैं, तो यह याद रखने की जरूरत है कि हिटलर के यहूदी जनसंहार शिविर पर जो नाज़ी सुरक्षा गार्ड तैनात थे, वे भी यह दावा करते थे कि वे अपनी ड्यूटी कर रहे हैं। देश में बहुत से अफसरों ने, राजनीतिक दलों के नेताओं ने, और खुद हरियाणा के डिप्टी सीएम दुष्यंत चौटाला ने इस अफसर की ऐसी हिंसक बात की निंदा की है, और चौटाला ने इसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने की घोषणा की है। अफसर ने वीडियो रिकॉर्डिंग में यह साफ-साफ कहा है कि अगर प्रदर्शनकारी आएं तो उनका सिर फूटा हुआ होना चाहिए, पुलिस को इसकी छूट है।
देश में सरकारी अफसरों की सोच का जो हाल है उसे लेकर हम बार-बार लिखते हैं लेकिन जिस दिन लिखते हैं उसके अगले ही दिन फिर ऐसी कोई बात सामने आती है, और दिल दहला जाती है। अदालतों तक ऐसे मामले जब पहुंचते हैं तो यह समझ पड़ता है कि इस देश की अदालत, इस देश की सरकार से ही लड़ रही है, या प्रदेश के हाई कोर्ट उस प्रदेश की सरकार से ही लड़ते रह जाते हैं। सरकारें कानून तोड़ते चलती है कानून कुचलते चलती हैं, तरह-तरह की हिंसा और बदमाशी करते चलती हैं, और अदालतों का शायद आधा वक्त सरकार की ज्यादतियों से जूझने में ही निकल जाता है। हर दिन हर एक राज्य के हाई कोर्ट से वहां की सरकारों के खिलाफ ढेर सारे नोटिस निकलते हैं, ढेर सारे आदेश निकलते हैं, और हर कुछ दिनों में कोई न कोई कड़ा फैसला सरकार के खिलाफ आता है। कुछ ऐसा ही सुप्रीम कोर्ट में अगर जज ईमानदार हैं, जैसा कि आज दिखाई पड़ता है, तो आए दिन सरकार कटघरे में खड़ी दिखती है, सरकार से जवाब देते नहीं बनता है। यह पूरा सिलसिला सरकार में बैठे हुए अफसरों और मंत्रियों की मनमानी की वजह से है जिनमें से भी जुल्मों के ऐसे सैकड़ों मामलों में से कोई एक-दो ही अदालत तक पहुंच पाते हैं, और निजी कार्रवाई तो शायद ही किसी मंत्री या अफसर पर होती हो।
हमें ऐसा लगता है कि आज देश में किसान आंदोलन जिस तरह खबरों में हैं और जिस तरह एक अफसर की वीडियो रिकॉर्डिंग सामने आई है तो यह मामला पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट के लिए एक माकूल मामला है जिसमें हरियाणा सरकार को कटघरे में खड़ा किया जाए कि इस अफसर को बर्खास्त क्यों न किया जाए? जिस अफसर की सोच इस तरह हिंसक है कि लोगों का सिर तोड़ दिया जाए और जिसके उकसावे पर पुलिस ने सचमुच ही एक बूढ़े किसान का सिर तोड़ दिया, तो ऐसे अफसर को बर्खास्त से कम कुछ नहीं करना चाहिए। हिंदुस्तान में बेरोजगारी बहुत है पढ़े-लिखे लोग भी बहुत हैं, और ऐसे अफसरों की बर्खास्तगी एक बार शुरू होगी तो उनकी जगह तो दूसरे लोग मिल जाएंगे, लेकिन तमाम लोगों को हिंसा से दूर रहने की नसीहत भी मिल जाएगी। बड़ी अदालतों को अपने इलाकों में होने वाली ऐसी हिंसा को अनदेखा नहीं करना चाहिए। किसी राज्य के हाईकोर्ट की यह संवैधानिक जिम्मेदारी होती है कि उसके सामने अगर ऐसा कोई मामला कोई लेकर ना भी आए, तो भी उसे खुद होकर जनहित में उसकी जानकारी में आये ऐसे मामले दर्ज करना चाहिए और सरकार को नोटिस देना चाहिए।
सरकार में बैठे हुए लोग अपनी राजनीतिक पसंद और नापसंद के मुताबिक प्रशासन और पुलिस का लगातार बेजा इस्तेमाल करते हैं, और उनकी चापलूसी करने वाले अफसर उन्हें खुश करने के लिए इस तरह की हिंसा करते हैं, कहीं बेकसूरों को फंसाते हैं, तो कहीं मुजरिमों को छोड़ते हैं। कल ही हमने इसी पेज पर इस बात को लिखा था कि सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस और सत्ता के बीच के गठजोड़ को लेकर किस तरह की फिक्र जाहिर की है। जिस वक्त हम इस बात को लिख रहे थे, उसी वक्त यह बुजुर्ग किसान अपने जख्मों को लेकर लहूलुहान बैठा हुआ था। यह खून बेकार नहीं जाना चाहिए और जिस बुजुर्ग किसान का सिर फोडक़र उसका खून बहाया गया है, और जो बहते हुए भगत सिंह की तस्वीर वाले बिल्ले पर भी गया है, तो इस मामले को एक नमूना मानकर, एक मिसाल मानकर, अदालत से इस अफसर की बर्खास्तगी करवानी चाहिए ताकि बाकी अफसरों को भी एक सबक मिल सके। आमतौर पर अखिल भारतीय सेवाओं से आए हुए अफसरों को कोई छूने की भी जुर्रत नहीं करते हैं लेकिन यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। इसी मामले से शुरुआत हो जाए। इसे बर्खास्त करके जेल भेजना चाहिए।
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अफगानिस्तान के ताजा हालात देखें तो अमेरिका पर तरस आता है। बीस बरस जिन तालिबान पर अमेरिका बम बरसाते रहा, जिनके खिलाफ उसने अपने सहयोगी देशों की भी फौज लेकर अफगानिस्तान पर कब्जा करके रखा, अपनी पिट्ठू सरकारों को वहां लाद कर रखा, आज उन्हीं तालिबान के रहमोकरम पर अमेरिका काबुल में जिंदा है। हालत यह है कि काबुल एयरपोर्ट के भीतर तालिबानी इजाजत से अमेरिकी फौजों का काबू है, और 31 अगस्त तक है। लेकिन इसी एयरपोर्ट के पास हुए बम धमाके में अभी 4 दिन पहले 1 दर्जन से अधिक अमेरिकी फौजियों सहित करीब डेढ़ सौ मौतें हुई हैं, और उसके बाद अमेरिकी फौज तालिबान की हिफाजत में वहां से लोगों को निकालने का काम कर रही है। एयरपोर्ट का नियंत्रण अमेरिका के हाथ है लेकिन एयरपोर्ट के बाहर सुरक्षा घेरा तालिबान का है।
किसने ऐसे दिन की कल्पना की होगी कि दुनिया का सबसे ताकतवर देश होने का दावा करने वाला अमेरिका आज अपनी फौज को अफगानिस्तान से निकालने के लिए तालिबान का मोहताज है। आज अमेरिका के सामने यह बहुत बड़ा खतरा है कि अगले तीन-चार दिनों में वह जैसे-जैसे अपनी फौज वहां से रवाना करेगा, वैसे-वैसे एयरपोर्ट पर मौजूद घटती चली जाने वाली अमेरिकी फौज पर खतरा बढ़ते चले जाएगा, क्योंकि किसी हमले से जूझने के लिए वहां अमेरिकी फौज कम संख्या में रह जाएगी। इस बारे में हमने इसी जगह लिखा भी था कि जिस तरह महाभारत में अभिमन्यु को चक्रव्यूह में घुसना तो मां के पेट से सीखने मिल गया था, लेकिन चक्रव्यूह को तोडक़र निकलना वह नहीं सीख पाया था, कुछ वैसी ही हालत काबुल में अमेरिका की हो रही है। दुनिया के बड़े-बड़े देश इस बात को लेकर अमेरिका से खफा हैं कि उसने 20 बरस के फौजी कब्जे में तो अगुवाई की, लेकिन आज अफगानिस्तान छोडऩे की नौबत आने पर दसियों हजार अफगान सहयोगियों को छोडक़र वहां से निकल रहा है, जिन्होंने इतने बरस राज्य चलाने के लिए अमेरिका के लिए काम किया था। अमेरिका इस नौबत को लेकर इस कदर हिला हुआ है कि पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के तालिबान के साथ किए गए समझौते पर अमल करते हुए भी मौजूदा राष्ट्रपति जो बाईडन के काबू में नौबत नहीं रह गई है, और अपने फौजियों के मरे जाने के बाद वे मीडिया से बात करते हुए थम गए थे। लंबे समय के बाद अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की इस तरह एक हमले में मौत हुई है, और इतनी बड़ी संख्या में हुई है।
अगले दो-तीन दिन अफगानिस्तान से किस तरह अमेरिकी फौज और अमेरिकी नागरिक खुद निकल पाते हैं इस पर दुनिया की नजरें हैं। दुनिया की नजरें इस पर भी हैं कि जितना अमरीकी फौजी सामान अफगानिस्तान में आज है, उसमें से कितना वह निकाल सकेगा। काबुल की जो खबरें हैं वे ये हैं कि एयरपोर्ट पर अमेरिका और तालिबान के बीच बातचीत भी चल रही है, अमेरिका मदद भी मांग रहा है, तालिबान बेरुखी से कुछ मदद कर भी रहा है, और उसी के तहत आईएस के आतंकी हमले के बाद अब ताजा हिफाजत तालिबान मुहैया करा रहा है जिसने कि एयरपोर्ट के पूरे इलाके को घेरकर रखा है, अपने कब्जे में रखा है। आज अमेरिकी फौजियों की हिफाजत उस एयरपोर्ट पर तालिबानियों की वजह से है और तालिबान के हाथ है।
अमेरिका और उसके सहयोगी देश अफगानिस्तान को जैसी बदहाली में छोडक़र निकल रहे हैं उसका ब्यौरा संयुक्त राष्ट्र के पास है जिसने कहा है कि अफगानिस्तान की जनता एक बहुत विशाल और विकराल मानवीय त्रासदी पेश कर रही है और दुनिया को इसके बारे में तुरंत सोचना पड़ेगा। लगे हुए पाकिस्तान और ईरान में लाखों की संख्या में अफगान शरणार्थी सरहद खटखटाते खड़े हैं, और उनके पास न खाना है इलाज का ठिकाना है। पाकिस्तान पहले ही अपने हाथ खड़े कर चुका है कि उसकी जमीन पर पहले से जो 15 लाख अफगान शरणार्थी मौजूद हैं, वह उनका ख्याल रखने की ताकत भी नहीं रखता है, और जो नया सैलाब अफगानिस्तान से अब पाकिस्तान सरहद पर पहुंचा हुआ है उसे जगह देने की ताकत पाकिस्तान में नहीं बची है। अब हैरानी इस बात को लेकर भी होती है कि दुनिया की सबसे ताकतवर अमेरिकी सरकार और उसकी फौज अफगानिस्तान में 20 बरस की अपनी मौजूदगी के बावजूद इस दिन की कल्पना नहीं कर पाई थी कि उसके बाहर निकलने पर अफगान जनता का क्या होगा। खैर, जिसे खुद के निकलने का तरीका नहीं पता, उससे अफग़़ान जनता का अंदाज लगाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
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हरियाणा के एक विख्यात तीर्थ स्थान माता मनसा देवी मंदिर में ट्रस्ट की सचिव ने एक जुबानी आदेश निकालकर सुरक्षाकर्मियों को कहा है कि छोटे कपड़े और जींस पहनकर आने वाले लोगों को मंदिर में इजाजत ना दी जाए। सचिव के पद पर काम कर रही इस महिला का तर्क यह है कि दूसरे श्रद्धालु और दर्शनार्थी कुछ लोगों को छोटे कपड़ों में देखकर आपत्ति करते थे और उनका कहना था कि मंदिर में मर्यादा का पालन होना चाहिए। दूसरी तरफ इस मंदिर ट्रस्ट के प्रशासक और पंचकूला जिले के कलेक्टर का कहना है कि उन्होंने ऐसा कोई नियम नहीं बनाया है और यह बोर्ड सचिव की निजी राय हो सकती है, ट्रस्ट ने ऐसा कोई फैसला नहीं लिया है। कुछ लोगों ने इस फैसले का स्वागत किया है, कुछ लोगों ने इसका विरोध किया है, कुछ लोगों ने इसे मौलिक अधिकारों का हनन, और तुगलकी फैसला बताया है, लेकिन कुछ लोगों ने यह भी कहा है कि हर धार्मिक स्थल की मर्यादा रहती है, इसलिए श्रद्धालुओं को यहां भी ध्यान रखना चाहिए। मनसा देवी के मंदिर में देशभर से लोग पहुंचते हैं और यह करीब पौने 200 साल पुराना मंदिर है।
हरियाणा का यह कैसा दिलचस्प मामला है जिसमें महिलाओं के कपड़ों को लेकर या जींस को लेकर लगाई गई रोक पर मिलीजुली प्रतिक्रिया रही है। इस राज्य में लड़कियों पर कई तरह की रोक खाप पंचायतों से लेकर मौजूदा भाजपा सरकार के मंत्रियों, मुख्यमंत्री तक की तरफ से लगती रही है, ऐसे में यह देखना दिलचस्प है कि इस राज्य में कई लोग खुलकर कपड़ों पर ऐसी रोक का विरोध भी कर रहे हैं। इस बारे में सोचने की जरूरत है कि क्या मंदिर में ऐसे किसी ड्रेस कोड को लागू करना चाहिए या नहीं? हम बहुत खुले ख्याल से इस जगह पर अपनी बात लिखते हैं लेकिन इस मुद्दे पर ऐसा लगता है कि मंदिर ट्रस्ट की सचिव ने जो जुबानी प्रतिबंध लगाया है, वह प्रतिबंध एक हिसाब से ठीक है। मंदिर में अगर लड़कियां और महिलाएं छोटे कपड़ों में पहुंचेंगे तो हो सकता है कि दूसरे श्रद्धालुओं और दर्शनार्थियों का ध्यान देवी की तरफ से हटकर इनकी तरफ चले जाए। मंदिर में जाने वाले लोग तपस्वी और सन्यासी तो होते नहीं कि छोटे कपड़ों में महिलाओं को देखकर भी उनकी नजरें उधर न जाएँ। फिर यह भी है कि एक मंदिर में जाने वाले लोग किसी मजबूरी में वहां नहीं जाते, अपनी मर्जी से जाते हैं और अपनी तैयारी से जाते हैं। ऐसे में अगर वहां जाते हुए लोग साधारण कपड़ों में वहां जाते हैं और छोटे कपड़े नहीं पहनते हैं, या जींस नहीं पहनते हैं, तो यह उनके लिए बहुत असुविधा की बात नहीं है। एक धर्मस्थल में लोगों का ध्यान धर्म और उपासना की तरफ ही केंद्रित रह सके, इसमें उससे मदद मिल सकती है। अब दूसरे धर्म स्थलों के बारे में बात करें तो देश में जहां कहीं भी गुरुद्वारे हैं या मस्जिदें हैं उन सबमें भीतर जाते हुए लोग पगड़ी-टोपी पहनते हैं या सर पर रुमाल बांधते हैं, उसके बिना वहां कोई दाखिला नहीं होता। आज तक किसी गुरुद्वारे जाने वाले ने ऐसी शिकायत नहीं की कि उन्हें सिर पर कुछ रखे बिना, सर ढंके बिना वहां जाने नहीं मिलता है। मस्जिदों में जितनी नमाज होती हैं उनमें भी लोग सिर पर रूमाल बांधे होते हैं, या टोपी लगाए होते हैं। जो दुनिया के सबसे उदार देश हैं उनमें भी बहुत सी जगहों पर चर्च पर यह नोटिस लगे होते हैं कि भीतर आने वाले लोगों के घुटने ढंके रहें। और ये चर्च किसी गांव या कस्बे के चर्च नहीं है, ये दुनिया के मशहूर पर्यटन केंद्रों के चर्च हैं, जहां पर दुनिया भर के सैलानी घूमने-फिरने के अंदाज में बिना किसी आस्था के भी इमारत को देखने के लिए पहुंच जाते हैं, और भीतर भी देखने जाते हैं। ऐसे देशों में चर्च पर भी ऐसे नोटिस लगे होते हैं और उन पर अमल भी करवाया जाता है।
हर धर्म के अपने रीति रिवाज रहते हैं और किसी भी धार्मिक स्थान पर वहां के लोग ऐसे साधारण नियम लागू भी कर सकते हैं जिन पर अमल करना बहुत बड़ी दिक्कत की बात ना हो। छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा के दंतेश्वरी मंदिर से लेकर हिंदुस्तान में बहुत सारे ऐसे मंदिर हैं जहां पर जाने वाले पुरुषों को धोती लपेट कर ही भीतर जाना होता है। केरल का एक प्रमुख तीर्थ स्थान ऐसा है जहां सारे पुरुष काले कपड़ों में जाते हैं। अलग-अलग तरह के धार्मिक अनुशासन रहते हैं और इन्हें लोगों की आजादी में खलल मानना ठीक नहीं है। हिंदुस्तान में किसी धार्मिक स्थल पर जाति के आधार पर दाखिला ना हो या महिलाओं के दाखिले पर रोक हो तो उसके खिलाफ तो संघर्ष करना ठीक बात है। लेकिन किसी मंदिर में छोटे कपड़े पहन कर ही जाने की जिद जायज नहीं लगती है क्योंकि छोटे कपड़ों में लड़कियों या महिलाओं को देखकर उस धर्म स्थल का माहौल गड़बड़ा सकता है। इसलिए पंचकूला के कलेक्टर ने चाहे मंदिर सचिव के इस जुबानी आदेश को अनधिकृत बतलाया हो, हमारे हिसाब से यह आदेश ठीक है और जिन लोगों को ऐसे कपड़ों में वहां पहुंचने की बात नाजायज लगती है, वे लोग वहां न जाएं। हर उपासना स्थल को अपने ड्रेस कोड तय करने का अधिकार रहता ही है, और उसके खिलाफ किसी को जिद करना नहीं चाहिए। निजी स्वतंत्रता जैसे बड़े-बड़े शब्दों को ऐसे मामले में बीच में लाना पूरी तरह से फिजूल की बात है, और जिनको किसी धर्म स्थल पर वहां के नियम नहीं मानने हैं वे वहां न जाएं। हम जाति के आधार पर या धर्म के आधार पर या औरत मर्द होने के आधार पर किसी के दाखिले पर रोक टोक के खिलाफ हैं। देश के धर्म स्थलों पर ऐसी रोक हो तो लोगों को वहां संघर्ष करना चाहिए और निजी स्वतंत्रता का दर्जा इतना गिरा भी नहीं देना चाहिए कि उसका इस्तेमाल मंदिर में छोटे कपड़े पहनने की जिद के लिए किया जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश की एक और अदालत ने शादीशुदा जोड़े के बीच बलात्कार के मामले में एक फैसला सुनाया है जिसमें उसने निचली अदालत द्वारा एक आदमी पर अपनी बीवी से बलात्कार करने का जुर्म दर्ज करके सुनवाई शुरू करने को खारिज किया है। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर हाई कोर्ट ने इस राज्य के एक मामले में शादीशुदा जोड़े के बीच बलात्कार पर मौजूदा कानून का हवाला देते हुए कहा है कि अगर यह सेक्स जोर जबरदस्ती से भी किया गया है, लेकिन पत्नी 18 वर्ष से अधिक उम्र की है, और साथ रहती है, तो इसे बलात्कार नहीं कहा जाएगा। भारत में बलात्कार के कानून के तहत बहुत से प्रदेशों में ऐसे फैसले आए हुए हैं, और महिला अधिकारों के आंदोलनकारी लगातार इस कानून के खिलाफ और अदालतों के ऐसे रुख के खिलाफ बोलते आए हैं, और यह मांग करते आए हैं कि हिंदुस्तान में शादीशुदा जोड़ों के बीच भी असहमति के बाद जबरदस्ती बनाए गए सेक्स संबंधों को बलात्कार गिना जाए। लेकिन आज कानून ऐसा नहीं है और हाई कोर्ट का यह फैसला मौजूदा बलात्कार कानून की तंग परिभाषाओं के भीतर ही लिखा गया है।
कुछ लोगों को यह शिकायत हो सकती है कि अगर हाई कोर्ट के जज चाहते तो वे मौजूदा कानूनों से अपनी असहमति जताते हुए या मौजूदा कानून की आलोचना करते हुए भी फैसला यही लिख सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। कानून के दायरे में कोई आदेश या फैसला लिखते हुए किसी जज पर यह बंदिश नहीं रहती कि वे उस कानून से अपनी असहमति को अनिवार्य रूप से दर्ज करें। दूसरी तरफ देश की बड़ी अदालतों के कई जज ऐसा करते भी आए हैं और उनके ऐसा करने से कानून बनाने वाली संसद और विधानसभाओं को कुछ सोचने का मौका भी मिलता है लेकिन यह अलग-अलग जज की अपनी अलग-अलग सोच पर निर्भर बात है कि वह कानून से परे अपनी राय कितनी देना चाहते हैं। फिलहाल क्योंकि मौजूदा कानून से देश के एक बड़े मुखर तबके की बड़ी कड़ी असहमति है, इसलिए इस पर चर्चा होनी चाहिए।
भारत में महिला अधिकारों के आंदोलनकारियों की इस बात को लेकर गहरी नाराजगी है कि इस देश में महिला को एक सामान की तरह देखा जाता है जिसका मालिक शादी के पहले उसका पिता होता है, और शादी के बाद उसका पति। महिला आंदोलनकारियों का यह भी कहना है कि भारत में बलात्कार को किसी महिला के शरीर पर हमले की तरह नहीं देखा जाता बल्कि उसके पिता या उसके पति के परिवार की इज्जत पर हमले की तरह देखा जाता है कि परिवार की इज्जत लुट गई या उस महिला की इज्जत लुट गई. यह नहीं देखा जाता कि उस महिला पर एक शारीरिक हमला भी हुआ है, इस हमले से उसका बड़ा नुकसान भी हुआ है जिसकी भरपाई हो सकता है कि बची पूरी जिंदगी पूरी ना हो. लेकिन हिंदुस्तान का पुरुष प्रधान नजरिया, मर्दाना नजरिया कानून को इस नजर से सोचने ही नहीं देता। आज दुनिया में कुल 36 ऐसे देश हैं जहां पर पति-पत्नी के बीच बलात्कार को बलात्कार नहीं गिना जाता। यह मान लिया जाता है कि पति-पत्नी के बीच में जो होता है, उसमें अगर असहमति भी है, तो भी वह जुर्म नहीं है। इस बात को लेकर भारत की महिलाओं में, और महिलाओं के हक की वकालत करने वाले पुरुषों में भी, बड़ी नाराजगी है और शादीशुदा जिंदगी के बलात्कार को एक जुर्म बनाने के लिए आंदोलन चल रहा है।
एक सांसद शशि थरूर ने 2018 में संसद में इस बारे में एक प्रस्ताव भी पेश किया था लेकिन किसी समर्थन के बिना वह विधेयक अपने-आप ही खत्म हो गया और उस पर कोई चर्चा भी नहीं हुई। आज इस बुनियादी बात पर संसद के भीतर और संसद के बाहर चर्चा की जरूरत है कि जब महिलाओं की दूसरे कई किस्म की हिंसा की शिकायत जुर्म के दायरे में आती हैं, और बिलासपुर हाईकोर्ट ने जिस मामले में इस रेप को जुर्म मानने से इनकार किया है, उस मामले में भी पत्नी के साथ पति द्वारा दूसरे किस्म की हिंसा के खिलाफ मामला चलाने की इजाजत दी है। अब सवाल यह उठता है कि एक शादीशुदा महिला से उसके पति द्वारा दूसरे किस्म की हिंसा तो जुर्म के दायरे में आ रही है लेकिन सेक्स की हिंसा को बाहर कर दिया गया है, और बलात्कार को भी सजा के लायक नहीं माना गया है। यह कानून भारत में चले आ रहे दूसरे सैकड़ों कानूनों की तरह पूरी तरह से नाजायज और खराब कानून हैं। आज पूरी दुनिया के सभी लोकतंत्रों में महिला के अधिकारों को लेकर जिस तरह की जागरूकता आई है, और जिस तरह से महिला अधिकारों के मुद्दे को उठाया जा रहा है उसे देखते हुए हिंदुस्तान को अपने इस कानून के बारे में फिर से सोचना चाहिए। एक महिला पर पति अगर हाथ हो उठा दे तो वह तो सजा के लायक है, जुर्म है, लेकिन अगर वह उसकी मर्जी के खिलाफ उससे बलपूर्वक बलात्कार करे, तो भी वह जुर्म नहीं है, यह बलात्कार की और शादीशुदा जोड़े के बीच हिंसा की एक बहुत ही खराब और बेइंसाफ परिभाषा है जिसे बदले जाने की जरूरत है. हिंदुस्तान में मर्दाना सोच इस तरह हावी है कि लोग यह मानते हैं कि शादीशुदा जोड़े के बीच अगर बलात्कार को सजा मान लिया जाएगा तो इससे शादीशुदा जिंदगी और विवाह नाम की संस्था खतरे में पड़ जाएंगे। लेकिन शादीशुदा जिंदगी और विवाह तो वैसे भी गैरसेक्स हिंसा के आधार पर खतरे में पड़ सकते हैं वे तलाक का भी पर्याप्त आधार बनते हैं, और सजा दिलाने के लायक भी हैं। ऐसे में यह सोचने की जरूरत है कि जब थप्पड़ मारना जुर्म के लायक है, तो बलात्कार को जुर्म के लायक न मानना एक बहुत ही घटिया किस्म की सोच का सबूत है।
कानून जिस वक्त बना होगा उस वक्त अंग्रेज या हिंदुस्तानी जो भी इसके लिए जिम्मेदार रहे होंगे, लेकिन आज संसद में इस कानून को बदलने की ताकत जिन लोगों के हाथ में है वे अगर इसे नहीं बदलते हैं, तो वे इस कानून के साथ हैं, वे इस हिंसा के साथ हैं, और वे ऐसे शादीशुदा बलात्कार के हिमायती हैं। हिंदुस्तान में शादीशुदा महिला के अधिकारों को दकियानूसी और गुफाकालीन सोच से बने हुए कानूनों से कुचलना ठीक नहीं है। इस कानून को बदलने के लिए न सिर्फ महिला अधिकारवादियों को, बल्कि देश के सभी मानवाधिकारवादियों को, लोकतंत्रवादियों को, और इंसाफपसंद लोगों को खुलकर आवाज उठानी चाहिए। जो बात हिंदुस्तान में आज फैशन में नहीं है, चलन में नहीं है वह भी शुरू होनी चाहिए कि अलग-अलग इलाकों के प्रतिनिधिमंडल जाकर अपने विधायकों और सांसदों से मिलें और उन्हें कानून में फेरबदल करने के लिए कहें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी के बाद जिस तरह का माहौल पूरी दुनिया में बन रहा है उसे देखते हुए लगता है कि 20 बरस की फौजी कवायद के बाद जितनी बड़ी शिकस्त अमेरिका को अफगानिस्तान में मिली है उसका कोई मुकाबला नहीं है। खुद अमेरिका को ऐसी शर्मिंदगी और इतना बड़ा नुकसान शायद इसके पहले कहीं देखने नहीं मिला होगा। लेकिन तालिबान के हाथों ऐसी हार की शर्मिंदगी तो एक बात है, इसकी वजह से आज पूरी दुनिया में जो तस्वीर बन रही है, उसमें अमेरिका आज दुनिया का सबसे अधिक नुकसान झेलने वाला देश दिख रहा है। इस बात को समझने के लिए यह देखना पड़ेगा कि पश्चिमी देशों के जिस फौजी संगठन को साथ लेकर अमेरिका ने 20 वर्ष पहले अफगानिस्तान पर हमला किया था, उसके बाद कब्जा किया था, और आज जिस तरह वहां से जान बचाकर उसे निकलना पड़ रहा है, तो इससे अपने साथी देशों के बीच अमेरिका की साख एकदम चौपट हुई है। आज जब अलग-अलग देशों के लोग वहां से नहीं निकल पा रहे हैं, और इन देशों की फौजों और सरकारों के साथ काम करने वाले स्थानीय अफगान नागरिक भी मुसीबत में फंसे हुए हैं, तो साथी देश अमेरिका को इस बात की तोहमत दे रहे हैं कि उसने तालिबान से बिना किसी शर्त के केवल जान बचाकर भाग निकलने का समझौता किया है और अपने साथियों की जान की परवाह भी नहीं की। अपने साथी देशों के बीच अमेरिका की इतनी थू थू पहले कभी नहीं हुई थी। और इससे एक बात और साफ हो जाती है कि आगे अगर अमेरिका इस तरह का कोई और फौजी दुस्साहस करेगा तो शायद कोई दूसरा देश उसके साथ इस हद तक शामिल नहीं होगा। दुनिया की सबसे बड़ी फौजी ताकत अमेरिका, तालिबान से हारकर अलग-थलग पड़ गया है।
अब एक दूसरी बात को देखें तो अब अफगानिस्तान की संभावित तालिबान सरकार की शक्ल में वहां एक ऐसी सरकार बनने जा रही है जो कि बगल के लगे हुए ईरान की तरह ही अमेरिका के खिलाफ बागी तेवर वाली सरकार है। आज के तालिबान का यह बयान सामने आया है कि न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की इमारतों पर विमानों से हमले में ओसामा बिन लादेन का कोई हाथ नहीं था। यह बयान अमेरिका के उस दावे को ही खारिज करता है जिस दावे के चलते अमेरिका ने अफगानिस्तान पर अलकायदा और ओसामा बिन लादेन को खत्म करने के लिए 2001 में हमले शुरू किए थे। लोगों को याद होगा कि जब इराक पर अमेरिका ने हमला किया था तो सद्दाम हुसैन के पास जनसंहार के हथियारों का जखीरा होने का दावा किया था। और दुनिया को सद्दाम से बचाने के नाम पर इस हमले को जायज ठहराने की कोशिश की थी। लेकिन अमेरिका की फौज ने पूरे इराक को खंगाल डाला था, वहां से कोई हथियार बरामद नहीं हुए थे। पूरी तरह से यह साबित हुआ था कि अमेरिका ने फर्जी खुफिया रिपोर्टों के हवाले से उस हमले की साजिश बनाई थी और उसमें ब्रिटेन जैसे दूसरे पश्चिमी देशों को साथ में लेकर वहां हमला किया था जिसमें बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे। अब अमेरिका से बागी तेवर वाली अफगान सरकार के साथी वे देश हैं जो खुद भी अमेरिका से एक सीधा टकराव रखते हैं। तालिबान सरकार के साथ चीन, पाकिस्तान, रूस, ईरान और टर्की जैसे देश खड़े हैं, जो सारे के सारे अमेरिका के खिलाफ हैं। इस हिसाब से अगर देखें तो एशिया के इस हिस्से में अफगानिस्तान, पाकिस्तान, और ईरान, चीन और टर्की यह तमाम लगे हुए, या करीबी देश जिस तरह अमेरिका के खिलाफ तेवरों वाले हैं, उससे न सिर्फ अमेरिका को फिक्र करने की जरूरत है, बल्कि अमेरिकी गिरोह के एक सबसे हमलावर और मुजरिम देश इजराइल को भी फिक्र करने की जरूरत है। अफगानिस्तान की शक्ल में एक ऐसी नौबत आकर खड़ी हो गई है जिसमें पाकिस्तान, चीन, रूस, टर्की, और ईरान, इन सबको एक साथ आने का मौका मिल रहा है और एक साथ आने की एक बड़ी वजह भी है कि अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को कामयाब किया जाए। आज अगर देखें तो एशिया के इस पूरे हिस्से में अमेरिका के पास अपने फौजी या खुफिया ठिकाने को बनाने के लिए भी इन तमाम देशों में कहीं पांव धरने की गुंजाइश नहीं है।
यह बात भी समझने की जरूरत है कि भारत जैसा देश जिसने अमेरिका के फेर में पिछले बरसों में ईरान से भी अपने संबंध खराब किए हैं, आज अफगानिस्तान की अगली सरकार के साथ अपने संबंध बनाए रखने के लिए उसे रूस, ईरान, या चीन की सरकारों के रास्ते अपने पांव धरने की कोई गुंजाइश निकालनी पड़ेगी। इनमें से चीन की कोई हमदर्दी भारत के साथ नहीं होगी लेकिन रणनीतिक रूप से यह बात उसके लिए अच्छी होगी कि भारत अपनी विदेश नीति के किसी एक हिस्से के लिए अमेरिका के बजाय चीन का मोहताज हो रहा है। इस तरह भारत कम से कम अफगानिस्तान के एक मामले में अमेरिका पर आश्रित रहने नहीं जा रहा है। इस नाते अमेरिका को पाकिस्तान से लगा हुआ एक और देश अपने प्रभामंडल से कुछ हद तक बाहर होते दिख सकता है। इसके अलावा इस बात को भी समझने की जरूरत है कि मुस्लिम आतंकी संगठनों से परे अगर अफगानिस्तान की सरकार बनती है, तो बहुत से दूसरे मुस्लिम देश भी उस सरकार को और अफगानिस्तान को मदद देने के लिए तैयार होंगे। इस तरह अमेरिका के खिलाफ मुस्लिम देशों का एक अलग जमघट हो सकता है, और यह बात भी इजराइल के लिए खतरनाक हो सकती है जो कि इन्हीं देशों के इलाके में ईरान के निशाने पर बना हुआ देश है।
खुद अमेरिका के भीतर आज वहां के लोग अपनी सरकार को धिक्कार रहे हैं कि किस तरह अमेरिकी सरकार का साथ देने वाले अफगान नागरिकों को छोडक़र, खतरे में डालकर अमेरिकी फौज अपनी जान बचाकर वहां से वहां से भाग निकल रही है। यह बात अमेरिका जैसी दुनिया की सबसे बड़ी फौजी ताकत के लिए बड़ी शर्मिंदगी की भी है और अमेरिकी नागरिक इस बात को अच्छी तरह समझ भी रहे हैं। वे इस बात से तो खुश हैं कि उनके लोग दूर के एक देश के आंतरिक झगड़ों को निपटाने के लिए अपनी शहादत देने का सिलसिला खत्म करके घर आ रहे हैं, लेकिन अमेरिका के एक तबके का यह भी मानना है कि एक देश के रूप में अफगानिस्तान से जैसी शर्मनाक शिकस्त लेकर अमेरिकी फौज घर आ रही है, वह अमेरिका की दुनिया भर में साख चौपट करने के लिए काफी है। फिर अमेरिका में मानवाधिकार की फिक्र करने वाले और उसके लिए लडऩे वाले जागरूक लोगों का भी एक तबका है और यह लोग यह सवाल भी कर रहे हैं कि जिन अफगान महिलाओं के बुनियादी अधिकारों को लेकर लडऩे की बात अमेरिकी सरकार इतने समय से करते आ रही थी, उन्हें तालिबान के भरोसे छोडक़र निकलने पर उनके अधिकारों का क्या होगा?
यह बात भी समझने की जरूरत है कि आज बहुत सारे देश तालिबान के रुख को देखने की बात तो कर रहे हैं और लगे हाथों में यह मुद्दा भी उठा रहे हैं कि महिलाओं के बारे में तालिबान की क्या सोच सामने आएगी यह देखना अभी बाकी है। लेकिन क्या सचमुच ही बाकी देशों को अफगान महिलाओं से इतनी हमदर्दी है? या फिर यह दुनिया की जन भावनाओं के सामने अपना एक नैतिक रुख दिखाने की ऐसी कोशिश है, जिसकी कूटनीति में या फौजी रणनीति में कोई जगह नहीं रहती। आज तालिबान जिस तरह की धर्मांधता, धार्मिक कट्टरता, और दकियानूसीपन पर खड़े हुए हैं, वे लोकतंत्र से जिस तरह कोसों दूर हैं, दुनिया के, सभ्य समाज के तौर तरीकों से जिस तरह कोसों दूर हैं, ऐसे में उनके साथ रिश्ते रखने की मजबूरी वाले देशों के सामने भी अपने नागरिकों और बाकी दुनिया के सामने यह दिखाने की एक मजबूरी रहती है कि वह अफगानिस्तान में मानवाधिकारों की भी फिक्र करेंगे। सच तो यह है कि तालिबान के साथ दूसरे देश एशिया के इस हिस्से में भौगोलिक मजबूरियों की वजह से रिश्ता रखना चाहते हैं, अपने-अपने फौजी मोर्चों को ध्यान में रखते हुए रिश्ता रखना चाहते हैं, और कारोबार की जरूरतों के लिए भी वे अगली तालिबान सरकार से जुडऩा चाहते हैं। अमेरिका सहित दुनिया का कोई भी देश अफगान महिलाओं के लिए किसी भी किस्म की फिक्र से पूरी तरह आजाद है। अफगानिस्तान में मानवाधिकार अफगान जनता के अलावा किसी की भी प्राथमिकता नहीं है, और दुनिया का कोई भी देश अगर अफगान लोगों के मानवाधिकार की बात करता भी है, तो वह देश केवल जुबानी जमा-खर्च कर रहा है। ऐसे देश तालिबान से किसी संबंध की संभावना नहीं रखते या इस बात की कोई फिक्र नहीं करते कि उनकी कही हुई बात तालिबान पर असर कर पाएगी या नहीं।
आज अमेरिका ने दसियों लाख अफगान लोगों की जिंदगी को खतरे में डाला है और इनमें से लाखों लोग देश छोडक़र निकलने की कोशिश कर रहे हैं जिन्हें दुनिया में किस देश में जगह मिलेगी इसका कोई ठिकाना नहीं है। फिर यह भी समझने की जरूरत है कि अफगानिस्तान से तमाम काबिल लोग तमाम अधिक पढ़े लिखे लोग और तमाम हुनरमंद लोग पहले बाहर निकल जाना चाहते हैं जिससे कि उस देश का अपना ढांचा एक नुकसान झेलने जा रहा है। इसलिए 20 बरस कब्जा जमाए रखने के बाद अमेरिका अफगान लोगों और अफगानिस्तान को एक बड़े खतरे और नुकसान में छोडक़र निकला है और इतिहास में इसे अच्छी तरह दर्ज किया जाएगा। एक आखरी बात यह कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने तालिबान के पूरे कब्जे के कुछ ही हफ्ते पहले जिस तरह के बड़े-बड़े दावे करके अफगानिस्तान में तालिबान के आने की किसी भी संभावना को पूरी तरह से खारिज कर दिया था, उससे यह साफ है कि अमेरिका की सारी खुफिया ताकत, वहां के फौजी विश्लेषक, सब बुरी तरह नाकामयाब साबित हुए हैं, और उन्होंने अपने राष्ट्रपति को एक मसखरा साबित होने दिया। यह नौबत दुनिया के सबसे ताकतवर माने जाने वाले इंसान के लिए अपने देश के भीतर भी एक बड़ी शर्मिंदगी की है, और इससे अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन पता नहीं कैसे उबरेंगे।
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इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने अभी एक फैसले में कहा है कि पुलिस में लोगों को दाढ़ी रखने का संवैधानिक अधिकार नहीं है अदालत का कहना है कि पुलिस की छवि सेक्युलर रहनी चाहिए और ऐसी छवि से राष्ट्रीय एकता को मजबूती मिलती है। एक मुस्लिम सिपाही को विभाग की इजाजत के बिना दाढ़ी रखने पर निलंबित किया गया था उसने इसके खिलाफ हाई कोर्ट में अपील की थी और वहां से फैसले में यह कहा गया है कि दाढ़ी रखने का धार्मिक स्वतंत्रता से कोई लेना देना नहीं है, और पुलिस में अनुशासन के लिए जो आदेश जारी किया गया है उसमें सिखों को छोडक़र किसी भी अन्य पुलिसकर्मी को बिना इजाजत दाढ़ी रखने की छूट नहीं है।
हाईकोर्ट के फैसले का यह हिस्सा बड़ा दिलचस्प है जिसमें जज पुलिस के लिए कह रहे हैं कि उनकी एक धर्मनिरपेक्ष छवि बनी रहनी चाहिए जिससे राष्ट्रीय एकता मजबूत होती है। आज लखनऊ हाई कोर्ट बेंच के ही इस प्रदेश, उत्तर प्रदेश में जिस तरह धर्मनिरपेक्षता खत्म की जा रही है, हो सकता है उसे लेकर जजों के दिमाग में फिक्र बैठी हुई हो और बाकी मामलों की चर्चा किए बिना उन्होंने इस मामले के बहाने इस जरूरत को गिनाया हो। उत्तर प्रदेश में शायद ही कोई हफ्ता ऐसा गुजर रहा है जब किसी शहर-मोहल्ले या किसी और जगह का नाम नहीं बदला जा रहा है। लगातार ऐसे फैसले हो रहे हैं, और उन पर अमल हो रहा है। और यह पूरा का पूरा सिलसिला एक किसी वक्त रखे गए मुस्लिम नामों को बदल कर उनके हिंदूकरण के बारे में है. ऐसा नहीं है कि किसी हिन्दू नाम को भी बदला गया है. उत्तर प्रदेश में सरकार जिस तरह एक धर्म राज्य कायम करने पर उतारू है, और जिस तरह वहां मुस्लिमों के खिलाफ तरह-तरह के केस दर्ज हो रहे हैं, और जिस तरह वहां के हज हाउस तक को भगवा रंग दिया गया था, तो ऐसी तमाम बातों को देखते हुए उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट को जो सचमुच की फिक्र होनी चाहिए वह फिक्र घटते-घटते एक मुस्लिम सिपाही की दाढ़ी तक आ गई। इस बात पर हैरानी होती है कि संविधान की व्याख्या करने तक का अधिकार जिन हाईकोर्ट को रहता है वे अपने दायरे में इस तरह के सरकारी कामकाज देखते हुए भी चुप रहते हैं, और धर्मनिरपेक्षता का तकाजा उन्हें एक मुस्लिम सिपाही की दाढ़ी में दिख रहा है।
खैर इस बात को छोड़ दें तो हाल के बरसों में हिंदुस्तान में सरकारों पर धर्म का जैसा साया दिखा है, वह भयानक है। मध्यप्रदेश में जब उमा भारती मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने मुख्यमंत्री कार्यालय में अपनी इमेज के ऊपर एक मंदिर सा बनवा लिया, और वहां पर प्रतिमा, फूल मालाएं, वह नजारा देखने लायक था। फिर शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री निवास में मंदिर बनवा लिया। देश भर के बहुत से प्रदेशों में तकरीबन हर थाने में बजरंगबली के मंदिर रहते हैं। सरकारी गाडिय़ों को देखें तो उनके भीतर देवी-देवताओं की छोटी प्रतिमाएं लगी रहती हैं, सरकारी दफ्तरों में मंत्री और अफसर अपनी आस्था के मुताबिक देवी-देवता, किसी दूसरे ईश्वर, या किसी गुरु की तस्वीरें टांग कर रखते हैं, मेजों पर कांच के नीचे तस्वीरें सजाकर रखते हैं। और सरकार की जो धर्मनिरपेक्ष छवि होनी चाहिए उसका कहीं अता-पता नहीं रहता। लेकिन बात महज अपने धर्म और अपने किसी आध्यात्मिक गुरु के प्रति आस्था दिखाने तक रहती, तब तक भी ठीक था. आज तो संविधान की शपथ लेकर मंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले लोग, और सरकारी सेवा के तहत काम करने वाले अफसर और कर्मचारी जिस तरीके से सांप्रदायिकता को लादते हुए दिख रहे हैं, सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देते हुए दिख रहे हैं, भीड़त्या करने वाले लोगों के जेल से छूटने पर केंद्रीय मंत्री उनको माला पहनाते दिख रहे हैं, तो ऐसे में किसी एक मुस्लिम सिपाही की दाढ़ी पता नहीं इस देश में सांप्रदायिकता कितना बढ़ा देगी और धर्मनिरपेक्षता को कितना घटा देगी?
हम तो ऐसी आदर्श स्थिति के पक्ष में हैं कि तमाम धार्मिक प्रतीकों को सरकार से बाहर कर दिया जाए, लोगों की तमाम आस्था को उनके घरों तक सीमित कर दिया जाए, और इसे सरकारी सेवा शर्तों में जोड़ दिया जाए, या मंत्री और जज जैसों के साथ इसे जोड़ दिया जाए कि वह किसी किस्म की धार्मिक आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं करेंगे। लेकिन एक तरफ सत्ता पर बैठे हुए लोग सांप्रदायिक हिंसा पर उतारू हैं लगातार सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं इस देश की बड़ी बड़ी अदालतें ऐसे उकसाऊ और भडक़ाऊ सांप्रदायिक कामों को अनदेखा करते हुए बैठी हैं, और ऐसे में जब एक मुस्लिम सिपाही की दाढ़ी से देश की धर्मनिरपेक्षता पर खतरा दिखता है, तो लगता है कि क्या बड़ी-बड़ी अदालतें भी इतने तंग नजरिए से काम नहीं कर रही हैं कि उन्हें एक छोटा सा उल्लंघन तो दिख रहा है, लेकिन देश के लोकतंत्र की बुनियादी समझ, धर्मनिरपेक्ष ढाँचे धर्मनिरपेक्ष पर लगातार होते वार नहीं दिख रहे ? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
तमिलनाडु के हाई कोर्ट से एक दिलचस्प सवाल निकलकर सामने आया है। मद्रास हाईकोर्ट की मदुरई पीठ ने एक जनहित याचिका पर केंद्र सरकार और राजनीतिक दलों को एक नोटिस जारी किया है, और उनसे पूछा है कि 1965 के बाद से तमिलनाडु में आबादी घटने की वजह से 2 लोकसभा सीटें कम कर दी गई थी, अदालत ने कहा है कि राज्य को इसका आर्थिक मुआवजा क्यों न दिया जाए? अदालत ने यह बुनियादी बात उठाई है कि तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश ने क्योंकि अपनी आबादी काबू में रखी और बाकी देश के मुकाबले कम की, इसलिए आबादी के अनुपात में लोकसभा की सीटें तय करते हुए इन दो राज्यों में 1967 के चुनाव से सीटें घटा दी गई थी। हाईकोर्ट ने यह सवाल उठाया है कि किसी राज्य को परिवार नियोजन और आबादी नियंत्रण को कामयाबी से लागू करने की वजह से क्या इस तरह की सजा दी जा सकती है कि लोकसभा में उसकी सीटें कम हो जाए? अदालत ने इस बात को भी याद दिलाया है कि किस तरह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार एक वोट की वजह से गिर गई थी, तो ऐसे एक सांसद का महत्व कितना होता है यह उस समय सामने आ चुका है। अदालत ने कहा है कि एक सांसद का 5 वर्ष के कार्यकाल में राज्य के लिए 200 करोड़ का योगदान माना जाना चाहिए इस हिसाब से केंद्र सरकार तमिलनाडु को 14 चुनावों में 2-2 सांसद कम होने का मुआवजा 5600 करोड़ रुपए क्यों न दे?
यह बड़ा ही दिलचस्प मामला है और बहुत से लोगों को यह बात ठीक से याद भी नहीं होगी कि आबादी के अनुपात में लोकसभा क्षेत्र तय करने का मामला इमरजेंसी के दौरान एक संविधान संशोधन करके रोक दिया गया था क्योंकि उत्तर भारत के बड़े-बड़े राज्य लगातार अपनी आबादी बढ़ाते चल रहे थे, और केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश जैसे दक्षिण भारतीय राज्य अपनी अधिक जागरूकता की वजह से आबादी घटा रहे थे और इस नाते उनकी सीटें भी कम होने जा रही थी। यह बुनियादी सवाल मदुरई हाई कोर्ट से परे भी पहले उठाया जा चुका है कि क्या किसी राज्य को उसकी जिम्मेदारी और जागरूकता के लिए सजा दिया जाना जायज है? लोगों को यह ठीक से याद नहीं होगा कि हिंदुस्तान में हर जनगणना के बाद लोकसभा सीटों में फेरबदल की एक नीति थी लेकिन बाद में जब यह पाया गया कि उत्तर और दक्षिण का एक बड़ा विभाजन इन राज्यों की जागरूकता और जिम्मेदारी को लेकर हो रहा है और अधिक जिम्मेदार राज्य को सजा मिल रही है तो फिर आपातकाल के दौरान 1976 में 42 वें संविधान संशोधन से लोकसभा सीटों में घट बढ़ की इस नीति को रोक दिया गया, और इसे 2001 तक न छेडऩा तय किया गया। लेकिन 2001 में भी यह पाया गया कि अभी भी उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच एक बड़ी विसंगति जारी है और अगर आबादी के अनुपात में सीटें तय होंगी तो संसद में दक्षिण का प्रतिनिधित्व घटते चले जाएगा और भीड़ भरे उत्तर भारत का प्रतिनिधित्व बढ़ते चले जाएगा इसलिए 2001 में इसे फिर 25 बरस के लिए टाल दिया गया और अब 2026 तक सीटों तक ऐसा फेरबदल नहीं होना है। यह एक अलग बात है कि उत्तर और दक्षिण में आबादी का फर्क, आबादी में बढ़ोतरी का फर्क, अभी तक जारी है और 2026 में भी ऐसे कोई आसार नहीं हैं कि आबादी के अनुपात में लोकसभा सीटें तय की जाएं। ऐसा होने पर जिम्मेदार राज्यों के साथ बड़ी बेइंसाफी होगी और गैरजिम्मेदार राज्यों को संसद में अधिक सांसद मिलने लगेंगे।
यह पूरा सिलसिला प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के भी खिलाफ है इसलिए कि किसी व्यक्ति किसी इलाके प्रदेश या लोकसभा सीट को अधिक जिम्मेदार होने की वजह से सजा देना किसी भी कोने से जायज नहीं है। दूसरी तरफ आबादी घटाने के राष्ट्रीय कार्यक्रम और सामाजिक जरूरत के खिलाफ जाकर लगातार आबादी बढ़ाने वाले राज्यों का आर्थिक पिछड़ापन जारी है, लेकिन वे पुराने कानून के हिसाब से देखें तो संसद में अधिक सदस्य भेजने के हकदार हो सकते थे, इसलिए इस सिलसिले को रोक देना ही ठीक था। 1976 के बाद से अभी तक सीटों को बढ़ाने या घटाने का सिलसिला तो थमा हुआ है, लेकिन तमिलनाडु के इस हाईकोर्ट ने एक नया सवाल उठाया है कि क्या राज्य से छीने गए 2 सांसदों के एवज में आर्थिक भरपाई नहीं की जानी चाहिए?
इस पर चर्चा होनी चाहिए क्योंकि आज तो यह मामला 2026 तक थमा हुआ है, लेकिन 2026 तक न तो राज्यों के बीच आबादी का अनुपात बहुत नाटकीय अंदाज से बदलने वाला है, और न ही 2026 में ऐसी नीति देश में लागू करना मुमकिन हो पाएगा। ऐसा करने पर उत्तर और दक्षिण के बीच एक बगावत जैसी नौबत आ जाएगी और देश टूटने की तरह हो जाएगा, जिसमें जिम्मेदार दक्षिण को लगेगा कि उसे उसकी जागरूकता की सजा दी जा रही है। इसलिए 2026 का वक्त आने के पहले देश में इस पर चर्चा होनी चाहिए, लोगों को बात करना चाहिए, दूसरे देशों की मिसालें भी देखनी चाहिए। अमरीका में काम कर रहे एक हिंदुस्तानी पत्रकार ने अभी लिखा है-‘अमरीकी संसद के उच्च सदन सेनेट (राज्यसभा) में सौ सदस्य होते हैं। अमेरिका में पचास राज्य हैं। हर राज्य से दो सदस्य सेनेट में चुनकर आते हैं। भारत में राज्यसभा सदस्य चुनने के लिए राज्यों के विधायक भी वोट डालते हैं, जबकि अमेरिकी सेनेट के सदस्य हर राज्य की पूरी जनता चुनती है। हर राज्य से दो सेनेटर होने का नियम बहुत ही जबरदस्त है। चार करोड़ की आबादी वाले कैलिफोर्निया के भी दो सेनेटर हैं और पौने छह लाख की आबादी वाले वायोमिंग राज्य के भी दो ही हैं। भारत में ऐसा होता तो राज्यसभा में मणिपुर और यूपी के बराबर सदस्य होते। इस तरह अमेरिकी सेनेट में कोई भी राज्य किसी से ऊपर या नीचे नहीं है।’
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अगले कुछ महीनों में हिंदुस्तान में घर से काम करने, ऑनलाइन क्लास लेने, और इंटरनेट के रास्ते सेमिनार में हिस्सा लेने के 2 बरस पूरे हो जाएंगे। इस डेढ़ बरस में बहुत से इम्तिहान नहीं लिए गए, और बच्चों को अगली क्लास में भेज दिया गया। जो स्कूल ऑनलाइन पढ़ा सकती थीं, वे इस कोशिश में लगी हुई हैं कि पढ़ाने वाले लोगों को दी जा रही पूरी या आधी तनख्वाह, कुछ हद तक बच्चों की फीस की शक्ल में वसूल हो सके। लेकिन यह मामला भी देशभर में बड़ा कमजोर सा चल रहा है और निजी स्कूलों को यह समझ नहीं आ रहा है कि वे कब तक इस तरह काम कर सकेंगी और अगर कोरोना महामारी की तीसरी लहर आएगी तो उसके बाद निजी स्कूलों और कॉलेजों का क्या होगा? सरकारों ने कोरोना से जूझने के तरीके तो कुछ या अधिक हद तक ढूंढ लिए हैं, लेकिन खुद सरकार का अपना काम जिस तरह वीडियो कांफे्रंस पर चल रहा है, और पढ़ाई-लिखाई जिस तरह कंप्यूटर या मोबाइल फोन पर चल रही है, उस बारे में काफी कुछ करने की जरूरत है। अब कोरोना का तीसरा दौर आता है या नहीं यह तो किसी के हाथ में नहीं है, लेकिन हो सकता है कि आने वाले वर्षों में कोई और महामारी आए या किसी और वजह से स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई को ऑनलाइन करना पड़े, सेमिनार और कान्फ्रेंस ऑनलाइन होने लगें, तो उस दिन के लिए राज्य सरकारों ने कोई बेहतर तैयारी की हो, ऐसी मिसालें भी सामने नहीं आ रही हैं।
हम अपने आसपास के जितने राज्यों के बारे में खबरें पढ़ते हैं, किसी राज्य से ऐसी खबर अभी तक नहीं आई है कि सरकार ने अपने प्रदेश के स्कूल-कॉलेज के ढांचे को डिजिटल कामकाज के लिए बेहतर तैयार करने पर मेहनत की हो। स्कूल-कॉलेज में काम करने वाले शिक्षक या प्राध्यापक कंप्यूटर और इंटरनेट पर अधिक का काम करने के आदी नहीं रहे हैं। पढ़ाने, इम्तिहान लेने का काम तो ऑनलाइन करने की किसी की आदत नहीं रही है, कोई तजुर्बा नहीं रहा है। ऐसे में सरकारों को चाहिए तो यह था कि वे मामूली तकनीकों के जानकार लोगों को लेकर प्रदेश के स्कूल-कॉलेज के शिक्षकों और छात्र-छात्राओं, सभी को एक डिजिटल तैयारी करवाते। आज मामूली निजी जानकारी से लोग किसी तरह काम चला रहे हैं, लेकिन एक तरफ तो पढ़ाई के ढांचे पर खर्च लगभग उतना ही हो रहा है, दूसरी तरफ छात्र-छात्राओं के एक के बाद एक बरस निकले चले जा रहे हैं। ऐसे में अगर काम को बेहतर बनाने पर मेहनत नहीं हो रही है, तो जाहिर है कि उत्पादकता और उत्कृष्टता दोनों ही कम और कमजोर रहेंगे। वही आज हो रहा है।
यह एक ऐसा मौका भारत जैसे देश के लिए सामने आया था, और आज भी खड़ा हुआ है कि अपने पढ़ाई के ढांचे का डिजिटलीकरण बेहतर तरीके से किया जाए, और कामचलाऊ अंदाज में औपचारिकता पूरी करने के बजाए अच्छी क्वालिटी का काम किया जाए। सरकार के स्कूल-कॉलेज के अधिकतर शिक्षक-शिक्षिकाओं की उम्र आसानी से सीखने की निकल चुकी है, अब अगर उनसे यह उम्मीद की जाए कि वे अपने घर-परिवार के बच्चों को पकडक़र उनसे कुछ सीख लें, तो इस उम्मीद से अधिक उम्मीद नहीं करनी चाहिए। सरकारों को अपने इतने संगठित ढांचे में योजनाबद्ध तरीके से अपने शिक्षक-शिक्षिकाओं को तकनीक के इस्तेमाल का प्रशिक्षण देना चाहिए था। इसके साथ ही स्कूल-कॉलेज के बच्चों को भी ऑनलाइन तकनीक का इस्तेमाल सिखाने पर मेहनत करनी थी।
यह तो सरकारों के हाथ में है कि वे एक और साल बिना इम्तिहान लिए बच्चों को अगली क्लास में भेज सकती हैं, लेकिन क्या इतना गुजरता जा रहा वक्त कभी लौटकर आएगा? क्योंकि सरकारों ने ऑनलाइन पढ़ाई जारी रखने का फैसला लिया है और स्कूल-कॉलेज में इसे लेकर खासा संघर्ष भी जारी है यह एक ऐसा मौका है जब राज्यों को अपनी कंप्यूटर से जुड़ी किसी एजेंसी को तुरंत ही ऐसे प्रशिक्षण की तैयारी करने कहना था और आज देश में जितनी बेरोजगारी है उसमें मामूली तकनीक सिखाने के लिए हुनरमंद लोग भी तुरंत मिल सकते थे। यह एक ऐसा मौका भी है जब स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालयों को तरह-तरह के लेक्चर तैयार करने के लिए कम से कम शहर के स्तर पर अच्छे स्टूडियो मुहैया कराए जा सकते थे जिनसे पढ़ाने की बेहतर सामग्री तैयार हो सकती थी। यह भी हो सकता था कि इस मौके के सही इस्तेमाल से कोरोना की दिक्कतें खत्म होने के बाद भी पढ़ाई को बेहतर करने की तैयारी हो चुकी रहती, लेकिन ऐसा कहीं होते दिख नहीं रहा है। इस महामारी ने लॉकडाउन और ऑनलाइन पढ़ाई ने यह मौका दिया है कि पढ़ाई का तेजी से कंप्यूटरीकरण हो सकता था, और दूर-दूर बसे हुए स्कूल-कॉलेज में पढ़ाने वालों की कमी भी ऐसी ऑनलाइन पढ़ाई से दूर हो सकती थी। लेकिन बजाए बेहतर तैयारी के, बजाए एक अच्छी योजना बनाने के, सरकार ने मोटे तौर पर अपने ढांचे को किसी तरह से इस नौबत से जूझने में लगा दिया।
सरकार का अपने पढ़ाई के ढांचे पर खासा खर्च होता है और उसका इस्तेमाल एक औपचारिकता निभाने के लिए, साल काटने के लिए नहीं करना चाहिए बल्कि उसकी उत्पादकता और उत्कृष्टता दोनों को लगातार बढ़ाते चलने की कोशिश करनी चाहिए। अभी भी वक्त है समझदार राज्य अपने स्तर पर एक अच्छी योजना बनाकर पढ़ाई के पूरे ढांचे के ऐसे प्रशिक्षण का काम कर सकते हैं जिससे सबका भला हो। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अफगानिस्तान लगातार खबरों में बना हुआ है, तकरीबन हर दिन वहां से हिंदुस्तानी लौट भी रहे हैं, और सैकड़ों हिंदुस्तानी वहां अभी भी बाकी है जिन्हें लाने की तैयारी चल रही है। इन बातों को देखें और अफगानिस्तान पर कुछ लिखने के पहले वहां के बारे में पढ़ें तो ऐसा लगता है कि अफग़़ानिस्तान का इतिहास उन इलाकों से परे भी दूसरे देशों को, दूसरे समुदायों को बहुत सी चीजें सिखा सकता है। अफगानिस्तान में एक वक्त, आज ऐसे करीब आज से करीब डेढ़ सौ बरस पहले, हिंदुस्तान पर काबिज अंग्रेज सरकार और कम्युनिस्ट सोवियत संघ के बीच अफगानिस्तान पर कब्जे की कोशिशें चलीं, और उसके बाद अभी इक्कीसवीं सदी में वहां अमेरिका ने यही काम किया। लेकिन अफगानिस्तान की स्थानीय जीवन शैली को समझे बिना जिस तरह इन विदेशी साम्राज्यवादी ताकतों ने वहां पर कब्जा करने की लंबी कोशिशें की और लंबी मुंह की खाई, उससे पूरी दुनिया को एक सबक लेना चाहिए कि जिस जगह जाकर कोई बड़ा काम करने का इरादा हो, उस जगह को पहले समझ लेना बेहतर होता है।
आज दुनिया के इतिहासकार और विश्लेषक लगातार इस बात को लिख रहे हैं कि अलग-अलग वक्त पर दुनिया की इन तीन बड़ी ताकतों ने अफग़़ानिस्तान पर कब्जे का सपना देखा, कोशिश की, और दशकों तक फौजी ताकत का इस्तेमाल किया, उनकी सबसे बड़ी चूक यह हुई कि वह वे वहां पर कब्जा करने के लिए आमादा तो हो गए लेकिन वहां से निकलना नहीं जाना। उन्हें यह समझ ही नहीं आया था कि कभी उन्हें अफगानिस्तान छोडक़र निकलना भी पड़ेगा। यह नौबत इन तीनों महाशक्तियों की शिकस्त की सबसे बड़ी वजह रही कि उन्होंने अफगानिस्तान जाने की योजना या साजिश तो बना ली थी। लेकिन वहां से निकलने के बारे में कुछ नहीं सोचा था। इसलिए आज अमेरिका के सबसे करीबी साथी भी अमेरिका को इस बात के लिए धिक्कार रहे हैं कि उसने न केवल अफगानिस्तान को मंझधार में छोडक़र चले जाना तय किया बल्कि अफगानिस्तान में मौजूद लाखों मददगारों और सहयोगियों को वहां छोडक़र अमेरिका निकल आया है और अब किसी तरह उनमें से कुछ लोगों को खतरे में निकालने की कोशिश कर रहा है।
हिंदुस्तान में देखें तो पौराणिक कहानियों में एक ऐसा जिक्र आता है कि महाभारत में अभिमन्यु ने युद्ध के घेरे में घुसना तो सीखा हुआ था मां के पेट से ही, लेकिन निकलना नहीं सीखा था और इसलिए वह चक्रव्यूह में फंस गया। अफगानिस्तान दुनिया की इन तीनों महाशक्तियों के लिए चक्रव्यूह ही साबित हुई जिसमें से कोई जिंदा या कामयाब बाहर नहीं निकल पाया। अफगानिस्तान के दसियों लाख लोगों को इन डेढ़ सौ बरसों में इन फौजी ताकतों ने मारा और खुद अपने भी लाखों सैनिक खोए। यह सिलसिला दुनिया को एक सबक दे जाता है। लेकिन अफगानिस्तान से दुनिया के लिए और भी बहुत से सबक निकल रहे हैं कि किस तरह वहां पर कट्टर, धर्मांध, और हिंसक तालिबान की बनाई हुई शरिया अदालतें पूरे अफगानिस्तान के लोगों के बीच लोकप्रिय थीं क्योंकि तथाकथित शहरी लोकतंत्र की बनाई हुई औपचारिक आधुनिक लोकतांत्रिक अदालतें इस कदर भ्रष्ट हो चुकी थी कि लोगों का उन पर से भरोसा उठ गया था, और किसी कमजोर और गरीब के लिए वहां इंसाफ पाना मुमकिन नहीं था। नतीजा यह था अफगान लोग शरिया अदालतों में जाने लगे थे वहां के इंसाफ पर उन्हें भरोसा भी था और उससे परे, वे अदालत ने भ्रष्टाचार से भी दूर थी।
अब आज दुनिया में तालिबान को जिस तरह से देखा जा रहा है, कौन इस बात को आसानी से मान सकते हैं कि उनकी बनाई हुई अदालतें शहरी लोकतंत्रों की अदालतों के मुकाबले बहुत अधिक ईमानदार थीं और भ्रष्टाचार से मुक्त थीं। अब यह बात हिंदुस्तान जैसे किसी देश के संदर्भ में सोचें तो जहां पर अदालतों को आमतौर पर भ्रष्ट मान लिया गया है, और लोगों को अदालतों पर कोई भरोसा नहीं है, तो लोकतंत्र की ऐसी असफलता क्या किसी किस्म के धार्मिक फतवों को बढ़ावा दे सकती है? क्या ऐसी नौबत आ सकती है जिसमें लोगों को अपने बाहुबल पर अधिक भरोसा हो या लोग मुंबई में किसी माफिया के पास, या उत्तर प्रदेश बिहार में किसी बड़े गुंडे के पास जाने लगें, कि वहां उनके झगड़ों का आसानी से ईमानदार निपटारा हो जाए? ऐसी तमाम बातें अफगानिस्तान से आज बाकी दुनिया के लिए सबक के रूप में निकल रही हैं।
अफगानिस्तान में 1980 के पहले जिस तरह से वहां स्थानीय कम्युनिस्ट पार्टी के जुल्म भरे राज को जारी रखने के लिए रूस ने दसियों हजार सैनिकों को वहां झोंक दिया था और अंधाधुंध कत्लेआम शुरू कर दिया था, वह भी एक वजह थी कि अफगान जनता कम्युनिज्म से नफरत करने लगी थी, फिर चाहे वह बराबरी के आर्थिक अधिकारों की बात करता था और महिलाओं के लिए बराबरी के अधिकार की बात भी करता था। लेकिन उसने जिस हद तक लोगों पर जुल्म ढहाना शुरू किया था उसी का नतीजा था कि कम्युनिस्टों को आखिर में जाकर अपने रूसी आकाओं के साथ सत्ता छोडऩी पड़ी थी, और रूस के आखिरी फौजी को भी अफगानिस्तान से जाना पड़ा था। लेकिन दूसरी तरफ बाहर से लाकर पश्चिमी अंदाज का लोकतंत्र लादने की अमेरिका की गुंडागर्दी की कोशिश ने जिस तरह के जुल्म किए थे और अमेरिकी सरगनाई में जिस तरह पश्चिमी फौजियों ने अफगान जनता पर जुल्म किए थे, उन्हीं का नतीजा था कि इन 20 वर्षों में धीरे-धीरे तालिबान को एक बार फिर जगह मिली और आज अमेरिका की वापिसी को तालिबान की जीत के जश्न के रूप में मनाया जा रहा है। फिर चाहे अमेरिका कहने के लिए एक संविधान से बंधा हुआ लोकतंत्र क्यों ना हो, उसने अफगानिस्तान में जितने जुल्म किये हैं, उन्हीं का नतीजा रहा कि तालिबान एक बार फिर लोगों की हमदर्दी पाकर सत्ता पर आ चुके हैं। हम ऐसी किसी भी बात का अतिसरलीकरण करना नहीं चाहते लेकिन मोटे तौर पर वहां की नौबत को समझाने के लिए इन बातों को कर रहे हैं कि किस तरह किसी के गलत काम दूसरे गलत लोगों के लिए एक जगह पैदा कर देते हैं। जैसे हिंदुस्तान में देश की सरकार हो या बिहार की सरकार हो, जब इन सरकारों ने खूब भ्रष्टाचार किया, तो इनकी धर्मनिरपेक्षता किनारे धरी रह गई और देश के सबसे सांप्रदायिक लोगों को भी जनता ने इनके ऊपर चुन लिया क्योंकि जनता भ्रष्टाचार से थक गई, और जनता शायद कुनबापरस्ती से भी थक गई थी। ऐसे में लोगों को लगा कि सांप्रदायिक होना इतनी बड़ी बुराई नहीं है जितनी बड़ी बुराई भ्रष्ट होना और कुनबापरस्त होना है।
अफगानिस्तान को आज देखें तो वहां 1840 के आसपास से अंग्रेजी फौजियों की जो दखल शुरू हुई थी वह 100 बरस बाद जाकर रूसी फौजियों की शक्ल में बदल गई और उसकी चौथाई सदी बाद वह अमेरिकी फौजों की शक्ल में बदल गई। इस दौरान अफगानिस्तान के भीतर स्थानीय तबकों में भी लोग अलग-अलग समय पर अलग-अलग किस्म की ताकतों को खारिज करते रहे, और अलग-अलग किस्म की ताकतों का साथ देते रहे। अफगानिस्तान का पूरा ताजा इतिहास बड़ा दिलचस्प है और यह बाकी दुनिया के लिए एक बड़ा सबक बन कर भी आया है कि सरकारों को क्या-क्या नहीं करना चाहिए देश के भीतर राज्य करने की हसरत रखने वाले राजनीतिक दलों और समुदायों को क्या-क्या नहीं करना चाहिए। फिर अफगानिस्तान इस बात का भी एक बहुत बड़ा सबूत है कि लोकतंत्र को अपने आपको इस हद तक नाकामयाब नहीं करना चाहिए कि कट्टरता और धर्मांधता भी बेहतर लगने लगे। हिंदुस्तान सहित बाकी दुनिया के लोकतंत्रों को भी अफगानिस्तान के बारे में पढक़र अपने खुद के बारे में भी सोचना चाहिए। यह भी सोचना चाहिए कि धर्मांधता और कट्टरता जब वह बढऩा शुरू होती हैं, तो वे इस हद तक बढ़ जाती हैं कि अमेरिका और तमाम पश्चिमी देशों के फौजी गठबंधन को भी नाकामयाब कर देती हैं। यह भी सोचना चाहिए कि जब देशों की सरकारें किसी एक धर्म की धर्मांधता को बढ़ावा देती हैं, तो पाकिस्तान, सऊदी अरब जैसे देश तालिबान को किस ऊंचाई तक पहुंचा सकते हैं, उसे कितनी ताकत दे सकते हैं। अफगानिस्तान का यह पूरा तजुर्बा दुनिया को बहुत कुछ सीखने का मौका दे रहा है और लोगों को अफगानिस्तान की फिक्र करने के बजाए अपने देश और अपने समाज की फिक्र करनी चाहिए, अपने धर्म की खामियों की फिक्र करनी चाहिए, हिंसा और कट्टरता की फिक्र करनी चाहिए और यह सोचना चाहिए कि कैसे-कैसे उनके साथ यह नौबत ना आए।
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सोनिया गांधी ने करीब डेढ़ दर्जन गैर-भाजपा, गैर-एनडीए पार्टियों से बात की और भाजपा के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा बनाने की चर्चा की। कोरोना के खतरे को देखते हुए यह पूरी चर्चा ऑनलाइन हुई लेकिन इसे महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि देश में आज यह चर्चा छिड़ चुकी है कि उत्तर प्रदेश, पंजाब जैसे राज्यों के चुनावों को देखते हुए और 2024 के आम चुनाव को देखते हुए जो कोई पार्टी मोदी से निपटना चाहती है, उसे दूसरे विपक्षी दलों के साथ एक तालमेल बैठाना ही पड़ेगा, उसके बिना मोदी से पार पाना मुमकिन नहीं है। एक वक्त हिंदुस्तान की राजनीति में कांग्रेस के खिलाफ बाकी सबको एक करने की जो मुहिम चलती थी, वह मुहिम अब मोदी के खिलाफ बाकी सब एक में बदल चुकी है क्योंकि आज वक्त की जरूरत वही है। आज यह आसान नहीं रह गया है कि मोदी से सिर्फ यूपीए अकेले पार पा सके।
ऐसे मौके पर मोदी विरोधियों के बीच जेल से छूटे हुए लालू यादव भी हैं, जिनके आने के बाद बिहार की राजनीति में बड़े फेरबदल होने की उम्मीद जताई जा रही थी। यह एक अलग बात है कि पिछले हफ्ते-दस दिन से लालू की पार्टी उनके बेटों के आपसी झगड़ों और पार्टी के भीतर चल रही टकराहट को लेकर खबरों में बनी हुई है। सोनिया गांधी ने कांग्रेस के अलावा डेढ़ दर्जन और पार्टियों को साथ लेकर जो एक संयुक्त बयान जारी किया है वह अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण तो है, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या सोनिया गांधी अगले चुनाव तक ऐसे किसी प्रस्तावित गठबंधन में उसके नेता के रूप में, या कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में सक्रिय रहेंगी, या फिर कांग्रेस पार्टी को कोई दूसरा अध्यक्ष मिलेगा? यह बात जरूरी इसलिए है कि विपक्ष की पार्टियों में कांग्रेस चाहे सबसे बड़ी पार्टी न भी रह गई हो, वह अकेली पार्टी है जिसकी पूरे हिंदुस्तान में मौजूदगी है। कांग्रेस के अलावा गैर-एनडीए पार्टियों में पूरे देश में पहुंचे रखने वाली कोई दूसरी पार्टी नहीं है। इसलिए कांग्रेस के जो घरेलू मामले हैं, उन मामलों में भी कांग्रेस के साथ जुडऩे वाली दूसरी पार्टियों की फिक्र जुड़ी हुई है, और उन्हें फिक्र करने का हक भी है। आज कोई भी पार्टी मोदी के मुकाबले एक किसी गठबंधन में कई किस्म की कुर्बानी देकर जुडऩे के लिए तैयार होती है तो उस गठबंधन की मुखिया पार्टी के बारे में उसके कुछ सवाल भी हो सकते हैं, और इनका जवाब दिए बिना बचा नहीं जा सकता।
आज मोदी के मुकाबले जो भी मोर्चा खड़ा होगा उसमें बिहार में लालू यादव की आरजेडी की भूमिका रहेगी ही रहेगी, और ऐसे में अगर आरजेडी के भीतर, लालू के जेल के बाहर रहते हुए भी गृहयुद्ध चल रहा है कि उनके दोनों बेटे मीडिया और सोशल मीडिया के रास्ते एक दूसरे पर हमले कर रहे हैं, तो इससे लालू यादव की किसी भी विपक्षी गठबंधन पर पकड़ कमजोर भी होती है। आज जिस तरह कांग्रेस के अगले अध्यक्ष को लेकर एक रहस्य, और रहस्य से भी बड़ा असमंजस फैला हुआ है, तो उससे भी किसी संभावित गठबंधन में कांग्रेस की बात का वजन घटता है। ऐसे किसी भाजपा विरोधी गठबंधन के बीच आज वैसे भी बहुत किस्म के विरोधाभास और विसंगतियां हैं, लेकिन जब बड़ी-बड़ी पार्टियों के भीतर का गृहयुद्ध या उनके भीतर का असंतोष इस तरह खुलकर सामने आएगा, तो ऐसे गठबंधन की संभावनाएं कमजोर ही होती हैं। एक तो भाजपा के मुकाबले दूसरी बहुत सी पार्टियों पर कुनबापरस्ती की जो तोहमत लगती है, उसका कोई आसान जवाब किसी के पास नहीं है। कांग्रेस पार्टी पर तो देश में राजनीति में कुनबापरस्ती को शुरू करने की ही तोहमत लगती है, लेकिन कांग्रेस से परे भी एनसीपी का पवार परिवार, शिवसेना का ठाकरे परिवार, टीएमसी का ममता परिवार, आरजेडी का लालू परिवार, समाजवादी पार्टी का मुलायम परिवार, कश्मीर की दोनों पार्टियों के अपने कुनबे, डीएमके का स्टालिन परिवार, और इस तरह के और कई पार्टियों के परिवारवाद के जलते-सुलगते मामले सामने हैं। इनके मुकाबले भाजपा एक अधिक वजन के साथ अपने-आपको कुनबापरस्ती से परे की पार्टी साबित करने में कामयाब होती है। मोदी तो अपने को परिवारमुक्त नेता साबित करके एक साख पा ही चुके हैं।
अब देखना यही है कि मोदी विरोधी यह नया मोर्चा अपने आंतरिक विरोधाभास और अपनी विसंगतियों से किस तरह उभरता है, और इसकी हिस्सेदार पार्टियां किस तरह अपने आपको जनता के बीच एक भरोसेमंद विकल्प की तरह पेश कर पाती हैं। आज तो जिस अंदाज में लालू यादव का कुनबा जिस तरह सडक़ पर लड़ रहा है और जिस तरह पार्टी पर उनका कुनबा हावी है, यह विपक्षी गठबंधन में लालू यादव की स्थिति को कमजोर बनाने वाली बात है। कांग्रेस को भी अपने भीतर के दो दर्जन असंतुष्ट नेताओं के बीच अपने घर को चलाना सीखना होगा, वरना उसकी बात का वजन भी कम रहेगा। आगे आगे देखें होता है क्या!
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एक के बाद दूसरे विकसित और संपन्न देशों ने अपने नागरिकों को कोरोना वैक्सीन के दो डोज के बाद तीसरा डोज लगाने की घोषणा की है और कुछ देशों ने यह शुरू भी कर दिया है। इजरायल जैसा छोटा देश जो कि अति संपन्न देशों में से है, उसने तीसरा डोज लोगों को लगा भी दिया है। अमेरिका और यूरोप के बहुत से देशों ने इसकी घोषणा कर दी है। इसे देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इन देशों को यह चेतावनी दी है कि जब दुनिया के गरीब देशों में लोगों को वैक्सीन की पहली खुराक भी नहीं लग पा रही है तब अगर कुछ देश अपनी संपन्नता की वजह से अपने नागरिकों को तीसरी खुराक लगा रहे हैं, तो इससे दुनिया के अमीर और गरीब देशों के बीच एक गहरी और चौड़ी खाई खुद रही है। एक अंतरराष्ट्रीय संगठन दुनिया में अपने आपको परिपच् लोकतंत्र करार देने वाले देशों को यह मामूली समझ की नसीहत दे रहा है, जो कि इन देशों को खुद ही समझ आनी चाहिए थी। वैसे भी दुनिया में विकसित और संपन्न देश अपनी कई किस्म की नीतियों को लादते हुए बाकी दुनिया को गरीब बनाए रखने की साजिश करते ही हैं। लेकिन एक महामारी जिसका असर दुनिया में कहीं से कहीं भी फैल रहा है, उसे काबू में करने के लिए भी विकसित देशों को यह बात समझ नहीं आ रही है कि उनके लोगों को तीसरी खुराक लगने के पहले गरीब देशों में स्वास्थ्य कर्मचारियों और दूसरे लोगों को पहली खुराक लग जाना अधिक जरूरी है, तभी यह दुनिया महामारी से बच सकेगी। संपन्नता लोगों को इस हद तक हिंसक बना देती है कि वे दुनिया को अलग-अलग टापुओं में बांटकर चलने लगते हैं और गरीब लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने संपन्न देशों की इस रणनीति पर तंज कसते हुए कहा है कि ये देश अपने लोगों को अतिरिक्त लाइफ जैकेट देने जा रहे हैं, जिनके पास पहले से लाइफ जैकेट हैं, जबकि बाकी लोगों को डूबने के लिए छोड़ दे रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय संगठनों के सामने हमेशा से ही यह बात चली आ रही है कि विकसित संपन्न और ताकतवर देश गरीब देशों की कोई फिक्र नहीं करते और गरीब देशों को अपना कबाड़ फेंकने के लिए, अपनी जरूरत के ऐसे सामान बनवाने के लिए इस्तेमाल करते हैं जिनसे उन गरीब देशों में चाहे जितना प्रदूषण हो जाए। गरीबों को मरने के लिए छोड़ देना अमीर समाज या अमीर देश की एक आम सोच हमेशा से चली आ रही है। दिलचस्प बात यह भी है कि कोरोना वैक्सीन की तीसरी डोज के बारे में अभी तक विश्व स्वास्थ्य संगठन को ऐसा कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं मिला है कि इस तीसरी डोज से लोगों पर खतरा कुछ घटेगा। फिर भी जो संपन्न देश वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों से मनमाना स्टॉक खरीद सकते हैं, वे अपने नागरिकों को 3-3 डोज लगाना शुरू कर चुके हैं।
आज दुनिया में देशों के बीच में ऐसा कोई तालमेल नहीं बचा है कि पूरी दुनिया की एक सामूहिक जिम्मेदारी अधिक ताकतवर और अधिक संपन्न देशों पर कुछ अधिक आए। दुनिया के देश अपनी सरहदों को अपनी जिम्मेदारी की सरहद भी मान लेते हैं, और सरहद के दूसरी तरफ के दूसरे देशों की कोई जिम्मेदारी भी अपने ऊपर नहीं मानते। तरह-तरह के फौजी झगड़ों के मौके पर संयुक्त राष्ट्र संघ किसी काम का नहीं रह गया है, उसी तरह तरह-तरह की महामारी और दूसरी बीमारियों से जूझने के लिए डब्ल्यूएचओ जैसे संगठनों के हाथ में कोई ताकत नहीं रह गई है, और ये संगठन संपन्न देशों से मिलने वाले आर्थिक अनुदान पर चल रहे हैं, उनको कुछ कहने की हालत में नहीं हैं। फिर यह भी है कि विकसित और संपन्न लोकतंत्रों के भीतर भी ऐसी कोई सामाजिक और सामूहिक चेतना नहीं रह गई है कि वहां के लोग अपनी सरकारों के ऐसे फैसलों के खिलाफ उठकर खड़े हों और एक जनमत तैयार करें कि पहले दुनिया के गरीब देशों को वैक्सीन का पहला डोज दिया जाए उसके बाद संपन्न देश अपने लोगों को तीसरा डोज देने की सोचें। यह सिलसिला बड़े-बड़े विकसित लोकतंत्र होने का दावा भरने वाले देशों की गैरजिम्मेदारी का एक बड़ा सबूत है, और यह बड़ी तकलीफदेह सच्चाई है कि दुनिया में स्वार्थ इस कदर हावी है कि लोग अपने से परे दूसरों की जरूरत, उनकी जिंदगी पर खतरे, के बारे में कुछ सोच भी नहीं रहे हैं। किसी लोकतंत्र, किसी राजनितिक चेतना, किसी धर्म का भी कोई दवाब नहीं दिखता कि गरीबों के भी जिन्दा रहने को एक बुनियादी हक माना जाये।
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हिंदुस्तान के भीतर नफरतजीवियों का एक तबका एक बार फिर बहुत सक्रिय हो गया है उसे अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी से एक बड़ा मुद्दा हाथ लगा है और हिंदुस्तान में ये लोग आज इस वक्त किसी भी वजह से अमेरिकी फौजों की वापिसी के बारे में कुछ कह रहे हैं या दुनिया भर में जाहिर की जा रही ऐसी संभावना पर चर्चा भी कर रहे हैं कि तालिबानियों का नया रुख देखना होगा कि क्या उनमें कोई फेरबदल आया है? ऐसे तमाम खुले दिमाग के लोगों के लिए नफरतजीवियों के पास एक ही फार्मूला है कि सेक्युलर लोग अफगानिस्तान चले जाएं वहां जाकर बसें। कुछ नफरतजीवियों जिन्होंने कुछ अधिक कल्पनाशीलता भी दिखाई है, और वे ऐसे इश्तहार बनाकर पोस्ट कर रहे हैं कि बहुत सस्ते में काबुल में एक बड़ा मकान किराए पर उपलब्ध है और लोग वहां जाकर उसमें रह सकते हैं। अगर अफगानिस्तान के बाद तालिबान से अधिक कट्टर कोई और इस्लामी संगठन दुनिया के किसी और देश में सक्रिय हो जाएगा तो हिंदुस्तान के ये नफरतजीवी यहां के अमनपसंद लोगों को ऐसे किसी देश भी भेज देंगे जहां अलकायदा का राज होगा, जहां तालिबानियों से अधिक कट्टर लोग होंगे।
दुनिया के जटिल मुद्दों की जब न समझ हो, न समझने की ताकत हो, और न समझने की इच्छा हो, तो कुछ इसी किस्म की बात की जाती है। अफगानिस्तान और तालिबान के मुद्दे पर आज दुनिया भर के विश्लेषकों को भी लिखने में दिक्कत जा रही है क्योंकि बहुत सी चीजें अभी भी लोगों की समझ से परे हैं बहुत अधिक जटिल हैं लेकिन जो लोग हिंदुस्तान के कुछ लोगों को अफगानिस्तान धकेलना चाहते हैं उनके लिए हालात का अतिसरलीकरण करना बड़ा आसान है, उसमें दिमाग के इस्तेमाल की जरूरत नहीं पड़ती। उसमें न जानकारी लगती, न कोई विश्लेषण लगता, उसमें सिर्फ एक नीयत लगती है कि कैसे अपने से असहमत लोगों को देश निकाला दिया जाए। यह लोग पहले पाकिस्तान भेजने की ट्रैवल एजेंसी चला रहे थे, अब उन्होंने अफगानिस्तान भेजने की ट्रैवल एजेंसी शुरू कर दी है। कुल मिलाकर हालत यह है कि हिंदुस्तान के जिन लोगों को और जितने लोगों को ये लोग पाकिस्तान भेज रहे थे, अब पाकिस्तान का पर्यटन उद्योग भूखा ही मर जाएगा, क्योंकि अब यह तमाम लोगों को अफगानिस्तान भेजने पर उतारू हैं।
हिंदुस्तान में अकल बिना, और नफरत से लबालब एक तबका ऐसा हो गया है जो दुनिया में कहीं भी होने वाली किसी धर्मांधता, कट्टरता, या सांप्रदायिकता को लेकर हिंदुस्तान के उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष, और अमनपसंद लोगों पर हमला करना शुरू कर देता है। ऐसा इसलिए होता है कि जब हिंदुस्तान में धार्मिक कट्टरता और धार्मिक हिंसा सिर चढक़र बोलती है, तो तालिबान सऱीखों की मिसाल देते हुए समझदार लोग यह नसीहत देते हैं कि तालिबान बनने की कोशिश ना करें, क्योंकि उसके बाद मुल्क का जो हाल होता है वह सबका देखा हुआ है। इस नसीहत को समझने के बजाय, क्योंकि समझने से तो धार्मिक हिंसा छोडऩी भी पड़ेगी, ऐसे धर्मांध और हिंसक लोग, अपने ही मुल्क के लोगों को अफगानिस्तान रवाना करने पर उतारू हैं। उन्हें तालिबान से परहेज नहीं है क्योंकि तालिबान के बहुत से तौर-तरीके तो उन्हें हिंदुस्तान में इस्तेमाल करने में भी मजा आ रहा है। लेकिन उन्हें हिंदुस्तान में आईना दिखाने वाले लोगों से दिक्कत है, और वे ऐसे अमनपसंद लोगों को धकेलकर देश के बाहर करना चाहते हैं।
इसमें कोई नई बात भी नहीं है। आईना दिखाने वालों का हर युग में यही हाल होते आया है। यह तो सैकड़ों बरस पहले कबीर के वक्त पर धर्मांधता और धार्मिक हिंसा आज सरीखी हावी नहीं थी इसलिए कबीर धार्मिक पाखंड के खिलाफ सौ किस्म की नसीहतें देकर भी जिंदा रह गए। आज का वक्त होता तो कबीर के हाथकरघे को आग लगा दी गई होती और कबीर की सडकों पर भीड़त्या कर दी गई होती। हिंदुस्तान का सोशल मीडिया इस बात का गवाह है कि आबादी का कम से कम एक तबका किसी भी किस्म की समझ से ठीक उसी तरह परहेज करता है, जिस तरह किसी धार्मिक उपवास के दिन कई चुनिंदा चीजों से परहेज किया जाता है। यह तबका न तो इतिहास को देखना चाहता है, क्योंकि इतिहास का सच उसके लिए बड़ी असुविधा का है, न वह वर्तमान को देखना चाहता है क्योंकि वर्तमान में उसकी खुद की हरकतें शर्मनाक हैं, और न वह भविष्य को देखना चाहता है क्योंकि बेहतर भविष्य के लिए तो मेहनत करनी पड़ती है।
ऐसे लोगों को तालिबान की वजह से अफगानिस्तान में हुए नुकसान से सबक लेने के बजाय हिंदुस्तान में तालिबानी हरकतें करने में मजा आता है और वे यह मानकर चलते हैं कि उनके बावजूद हिंदुस्तान में कोई नुकसान उन्हें नहीं होगा। लोगों को याद रखना चाहिए कि सोशल मीडिया पर अभी कुछ लोगों ने एक तंज कसा है जो कि सच के बहुत करीब भी है कि संसद भवन की नई इमारत बना देने से संसदीय व्यवस्था मजबूत नहीं हो जाती है, संसदीय लोकतंत्र मजबूत नहीं हो जाता है। अफगानिस्तान का संसद भवन तो भारत ने बनाकर दिया लेकिन क्या नतीजा निकला? नए और मजबूत संसद-भवन से अफग़़ान लोकतंत्र मजबूत तो नहीं हो गया? धर्मान्धता ने एक देश को खा लिया। दुनिया के 3 सबसे बड़े साम्राज्यवादी देशों ने अफगानिस्तान की डेढ़ सदी से ज्यादा का वक्त खत्म कर दिया, उस देश का भविष्य खत्म कर दिया, और किस तरह कट्टर धर्मान्ध तालिबानियों ने अपने देश की सारी संभावनाओं को खत्म कर दिया, अमेरिका जैसे साम्राज्यवादी देश को यह मौका दिया कि वह अलकायदा को खत्म करने का बहाना बनाकर अफगानिस्तान पर हमला करे, उसे कुचल डाले। इसलिए जिन लोगों को तालिबानी कट्टरता सुहाती है उन्हें याद रखना चाहिए कि ऐसी धर्मांध कट्टरता, ऐसी धर्मांध हिंसा किसी देश की संभावनाओं को तो खत्म करती ही है, उस देश के लोकतंत्र को भी खतरे में डाल देती है, और उसे बाहरी हमलों के लायक तैयार निशाना बना देती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट में आज़ादी की सालगिरह के मौके पर देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन वी रमना ने संसद की कार्यवाही पर नाराजगी जताई। संसद में हुए हंगामों का जिक्र करते हुए उन्होंने संसदीय बहसों पर चिंता जताई और कहा कि संसद में अब बहस नहीं होती। उन्होंने कहा कि संसद से ऐसे कई कानून पास हुए हैं, जिनमें काफी कमियां थीं। पहले के समय से इसकी तुलना करते हुए चीफ जस्टिस ने कहा कि तब संसद के दोनों सदन वकीलों से भरे हुए थे, मगर अब मौजूदा स्थिति अलग है। उन्होंने कानूनी बिरादरी के लोगों से भी सार्वजनिक सेवा के लिए अपना समय देने के लिए कहा। सीजेआई ने कहा कि अब बिना उचित बहस के कानून पास हो रहे हैं। अगर आप उन दिनों सदनों में होने वाली बहसों को देखें, तो वे बहुत बौद्धिक, रचनात्मक हुआ करते थे और वे जो भी कानून बनाया करते थे, उस पर बहस करते थे...मगर अब खेदजनक स्थिति है। हम कानून देखते हैं तो पता चलता है कि कानून बनाने में कई खामियां हैं और बहुत अस्पष्टता है। उन्होंने आगे कहा कि अभी के कानूनों में कोई स्पष्टता नहीं है। हम नहीं जानते कि कानून किस उद्देश्य से बनाए गए हैं। इससे बहुत सारी मुकदमेबाजी हो रही है, साथ ही जनता को भी असुविधा और नुकसान हो रहा है। अगर सदनों में बुद्धिजीवी और वकील जैसे पेशेवर न हों, तो ऐसा ही होता है। उन्होंने कहा, ‘आज की स्थिति देख कर दुख होता है। क़ानूनों में बहुत अस्पष्टता है। हमें नहीं पता कि किस कारण से ये बने थे। लेकिन इसकी वजह से कोर्ट के सामने अधिक मामले हैं और लोगों और कोर्ट को असुविधा हो रही है।’ चीफ़ जस्टिस ने कहा ‘आज़ादी की लड़ाई में वकीलों ने अग्रणी भूमिका निभाई थी और स्वतंत्र भारत के पहले नेता भी बने थे। उन्होंने कहा कि आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व करने वाले महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे नेता वकील थे। उन्होंने न केवल अपने काम की आहुति दी बल्कि आज़ादी की लड़ाई में अपना परिवार और संपत्ति का भी त्याग किया। उस दौर में संसद में सकारात्मक बहस होती थी। क़ानूनों के बारे में विस्तार से चर्चा होती थी उन पर बहस होती थी। लेकिन वक्त के साथ आप देख सकते हैं कि संसद में क्या हो रहा है। बहस की गुणवत्ता खऱाब हुई है और कोर्ट अब नए क़ानूनों का मकसद और उद्देश्य समझ पाने में असमर्थ है।’ उन्होंने अपील की कि वकील अपने काम को अपने घर या कोर्ट तक सीमित की बजाय सार्वजनिक हितों के काम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेकर संसद में बुद्धिजीवियों की कमी को पूरा कर सकते हैं।
देश के मुख्य न्यायाधीश के आजादी के सालगिरह पर दिए गए इस बयान को गंभीरता से लेने की जरूरत है क्योंकि अभी कुछ ही दिन पहले संसद के मानसून सत्र में जिस तरह सरकार ने अपने संसदीय बाहुबल से कानून बनवा लिए हैं, और विपक्ष केवल विरोध करते रह गया, वह नौबत मुख्य न्यायाधीश के इस बयान में खुलकर रखी गई है। इसके पहले भी यह देखा गया कि किसान कानूनों को बनवाते समय भी मोदी सरकार संसद में बहस से कतराती रही और नतीजा यह निकला है कि अपने ही बनवाए हुए कानून के खिलाफ महीनों से चले आ रहे आंदोलन में सरकार उलझी हुई है, और उसे कोई रास्ता समझ नहीं पड़ रहा है। यह सिलसिला ठीक नहीं है। लेकिन यह सिलसिला केवल मोदी सरकार के आने के बाद खराब हुआ हो ऐसा भी नहीं है। पिछली यूपीए सरकार के वक्त इस देश में सूचना के अधिकार का कानून बना और अटल सरकार के वक्त सूचना प्रौद्योगिकी कानून आईटी एक्ट बना। इन दोनों की गंभीरता को संसद में ना तो पार्टियां समझ पाई थीं, और ना ही सांसद समझ पाए थे। संसद के बाहर के लोगों ने मिलकर विधेयक तैयार किए थे, कानून की बारीकियां लिखी थीं, और उन पर न तो पर्याप्त चर्चा हुई थी, और न ही सांसदों ने उन्हें ठीक से समझा था, और उन्हें बहुमत से पारित कर दिया गया था। नतीजा यह निकला कि इन दोनों ही कानूनों में बार-बार कई तरह के फेरबदल की बात होती है, और इनसे कई तरह के खतरे भी सामने आ रहे हैं। अब तो संसद में मोदी सरकार का बहुमत इतना बड़ा है कि लोकसभा और राज्यसभा दोनों जगह अधिकतर कानूनों के लिए सरकार को विपक्ष की कोई जरूरत ही नहीं रह गई है, और सरकार अपनी उसी सोच के साथ वहां कानून बनवाते चल रही है।
भारतीय संसद में किसी प्रस्तावित कानून पर चर्चा को पिछली सरकार या इस सरकार जैसी बातों पर आंकना ठीक नहीं होगा। यह समझने की जरूरत है कि संसद में दलबदल विरोधी कानून के नाम पर वैचारिक विविधता को जिस तरह से खत्म कर दिया गया है, और किसी पार्टी के सचेतक अपनी पार्टी के सारे सांसदों को किसी एक वोट देने के मौके पर पूरी तरह से बेबस करके पार्टी की मर्जी का वोट डलवा सकते हैं। उसके भी पहले उस पर अगर कोई चर्चा होती है तो उस चर्चा में पार्टी की घोषित नीति से परे जाकर कोई सांसद कुछ नहीं बोल सकते, तो कुल मिलाकर जिस संसद में एक वक्त अलग-अलग बहुत से जागरूक और विद्वान वकीलों, और दूसरे बुद्धिजीवियों की चर्चा भारत के मुख्य न्यायाधीश ने अभी की है, उन सांसदों में जो वैचारिक विविधता बहस में सामने आती थी, और तरह-तरह की बातों पर विचार होता था, वह सिलसिला अब खत्म हो चुका है। अब कोई पार्टी या कोई गठबंधन एक गिरोह की तरह बर्ताव करते हैं, और किसी भी तरह की ईमानदार चर्चा की गुंजाइश अब खत्म सरीखी हो गई है। नतीजा यह है कि अलग-अलग सांसदों की निजी सोच, उनके निजी तजुर्बे के आधार पर प्रस्तावित कानूनों पर जो चर्चा होती थी, वह निजी हैसियत अब पूरी तरह खत्म हो गई है। अब तमाम लोग अपनी पार्टी की मशीन के पुर्जे की तरह बर्ताव करते हैं, पार्टियां ही अपने सांसदों को बताती हैं कि उन्हें किन-किन मुद्दों पर बोलना है, और क्या-क्या बोलना है। इसलिए आज भारतीय संसद किसी भी प्रस्तावित कानून पर चर्चा करते हुए वहां मौजूद प्रतिभाओं का पूरा इस्तेमाल करने की हालत में भी नहीं रह गई है, यह एक अलग बात है कि आज भारतीय संसद में प्रतिभाएं घटकर हाशिए पर चली गई हैं, और धर्म या जाति के नाम पर, क्षेत्रीयता के नाम पर, या गुटबाजी के नाम पर, वहां पर प्रतिभाहीन लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई है। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने बड़े हौसले का काम किया है जो उन्होंने संसद में मौजूद लोगों और संसद में चल रही बहस, इन दोनों के बारे में बहुत खुलकर कड़ी आलोचना की है। इसके बारे में देश के दूसरे तबकों को भी बोलना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश अकेले ही पूरे देश का प्रवक्ता बन जाए यह भी ठीक नहीं है, लोकतंत्र में बाकी तबकों को अपनी जिम्मेदारी भूल नहीं जाना चाहिए।
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अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बदल रहे हैं, उसे देखते हुए अफगान जनता जिस तरह के खतरे से घिरी है, और वहां की किसी भी सरहद को पार करके पड़ोस के किसी भी देश चले जाना चाह रही है, कुछ वैसा ही असमंजस भारत सरकार के सामने भी आ खड़ा हुआ है। भारत अफगानिस्तान में आज काबिज तालिबान से बात करे या ना करे, और बात करें तो कैसे करे? तालिबानियों की सरकार को लेकर पूरी दुनिया में आज यह आशंका है कि उसमें इस्लामी कानूनों के नाम पर एक बार फिर महिलाओं के खिलाफ जुल्म का दौर शुरू होगा, धार्मिक कट्टरता हावी होगी, और ऐसे तालिबानियों की सरकार को मान्यता देकर दुनिया के बहुत से देश क्या अपनी नीतियों और अपने सिद्धांतों के खिलाफ नहीं चले जाएंगे?
भारत के साथ यह एक दिक्कत है कि वह अपने देश से इतने करीब के अफगानिस्तान की नई सरकार के साथ रिश्ते कैसे रखे? खासकर तब जब तालिबानियों को पाकिस्तान, चीन, रूस, इन सबने खुलकर अपना समर्थन घोषित किया है। भारत को रूस से तो कोई दिक्कत नहीं है लेकिन पाकिस्तान और चीन के साथ भारत के दुश्मनी के रिश्ते चले आ रहे हैं, और भारत की तमाम फौज भी इन्हीं दोनों देशों को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई है। ऐसे में अगर पाकिस्तान और चीन तालिबान के सबसे बड़े हमदर्द बनकर उसे गले लगा रहे हैं, तो यह भारत के लिए विदेश नीति की एक चुनौती रहेगी। जानकार लोगों का यह कहना है कि भारत को तालिबानियों के आगे-पीछे बात तो करनी ही होगी क्योंकि उनकी घरेलू नीतियां चाहे जो रहें, दुनिया के अधिकतर देशों की नीतियां यह रहती हैं कि वे किसी देश में आज काबिज सरकार से बात करती ही हैं। भारत की सरकार एक वक्त इजराइल से परहेज करती थी क्योंकि उसका फिलिस्तीन पर ज्यादती का एक बड़ा लंबा इतिहास था। लेकिन वक्त बदला और कारोबारी दोस्तों ने भारत और इजरायल के रिश्ते बदल दिए।
जहां तक अफगानिस्तान में तालिबानियों की जोर-जबरदस्ती की बात है, तो कुछ उसी किस्म की जबरदस्ती सऊदी अरब में भी इस्लामी कानूनों के नाम पर महिलाओं के खिलाफ चलती आई है, और दुनिया भर के देशों ने सऊदी अरब से अपने रिश्ते रखे ही हैं। इसलिए अफगानिस्तान में आज तालिबानियों का राज एक ऐसी हकीकत है जिसे अनदेखा करके हिंदुस्तान चुप नहीं बैठे रह सकता, और उसे वक़्त आते ही इस ताकत से बातचीत का सिलसिला शुरू करना ही चाहिए। यह भी हो सकता है कि मानवाधिकार का जितना खात्मा तालिबान अफगानिस्तान में करने जा रहे हैं, बाहर के देश उससे संबंध रखके उसे एक बेहतर सरकार बनाने के लिए मजबूर भी कर सकते हैं। फिलहाल 20 वर्षों के अमेरिकी राज्य के बाद आज अफगानिस्तान अपने इतिहास के एक सबसे डांवाडोल दौर में पहुंचा हुआ है, और ऐसे में भारत उससे बातचीत न करके अपना ही नुकसान कर सकता है। यहां पर यह भी याद रखने की जरूरत है कि बीते दो दशक में भारत ने अफगानिस्तान की बहुत मदद की है और वहां की ढांचागत सुविधाओं को बनाने में भी अपना बहुत खर्च किया है। इसके अलावा भारत के फौजी हितों को देखते हुए भी उसे अफगानिस्तान की सरकार के साथ अच्छे रिश्ते रखने हैं क्योंकि चीन और पाकिस्तान दोनों अफगानिस्तान की आज की तालिबान सरकार के बड़े हिमायती होकर सामने आए हैं। लेकिन यह बात कहना आसान है और करना कुछ मुश्किल, क्योंकि इस्लामी कानूनों को लेकर तालिबान जिस किस्म की ज्यादतियां अफगानिस्तान में कर सकते हैं, उनके साथ अधिक दूरी तक चलना भारत की मौजूदा हिंदूवादी सरकार के लिए घरेलू दिक्कत का सामान भी हो सकता है। भारत में उदारवादी तबका भी तालिबानियों को लेकर खासे असमंजस में है कि वहां अमेरिका की पिट्ठू सरकार का खत्म होना जरूरी था, फिर तालिबानियों का वहां पर आना क्या उससे भी अधिक बड़ा खतरा रहेगा?
भारत के सामने ऐसी कई दिक्कतें हैं, और पिछले कुछ महीनों से ऐसी चर्चा चल भी रही थी कि अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार का साथ देते हुए भी भारत ने तालिबानियों से पर्दे के पीछे बातचीत का सिलसिला चला रखा था। यह भी याद रखने की जरूरत है कि पाकिस्तान ने कई महीनों से अफगानिस्तान की सरकार के खिलाफ भारी बगावती तेवर बना रखे थे और वह खुलकर तालिबानियों का साथ दे रही थी। यह बात भी याद रखने लायक है कि इसके बावजूद तालिबानियों ने कश्मीर को भारत का घरेलू मुद्दा माना था और दिल्ली सरकार के कश्मीर पर फैसलों के खिलाफ कुछ कहने से इंकार कर दिया था। आज जब अमेरिका अफगानिस्तान में अपना आखिरी पखवाड़ा गुजारते दिख रहा है, जिस तरह से वहां सरकार के नाम पर सिर्फ तालिबानी रह गए हैं, ऐसे में भारत सरकार को किसी न किसी स्तर पर तालिबानियों से बातचीत करनी होगी क्योंकि यह बिल्कुल पड़ोस का एक देश है. अमेरिका सहित पश्चिम के देशों ने तालिबानियों के राज को लेकर कई तरह के शक जाहिर किए हैं, और जाहिर है कि जो देश पिछले 20 बरस अफगानिस्तान में अमेरिकी कब्जे के हिमायती रहे हैं, एकाएक तालिबानियों से बातचीत भी शुरू नहीं कर सकते, लेकिन हिंदुस्तान की हालत उन देशों से अलग है और इस देश को अपने फौजी हितों को ध्यान में रखते हुए किसी न किसी स्तर पर तालिबान से बात करनी चाहिए। कम से कम रूस भारत का एक ऐसा दोस्त देश है जो कि इस मौके पर भारत के काम आ सकता है।
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20 बरस बाद अफगानिस्तान में एक बार फिर तालिबान का राज कायम हो गया है। अभी कुछ हफ्ते पहले की ही बात थी जब अमरीकी फौजियों की अफगानिस्तान से वापस ही शुरूआत हुई थी और नए अमेरिकी राष्ट्रपति डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बाइडन ने खुलकर पिछले रिपब्लिकन राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के इस फैसले पर अमल की बात कही थी कि अमेरिका 11 सितंबर 2021 तक अमेरिकी फौजियों को अफगानिस्तान से निकाल लेगा। अमेरिका और उसके फौजी-समुदाय में नाटो के बैनर तले अमेरिकी लीडरशिप में फौज अफग़़ानिस्तान में 20 बरस से काबिज थी, और उन्होंने वहां की सरकार को अपने कब्जे में कठपुतली की तरह चलाया हुआ था, क्योंकि असली काबू अमेरिकी फौजियों का था, वहां के बजट का 80 फीसदी हिस्सा विदेशी मदद से आ रहा था। लेकिन इस पूरे दौर में भी जब अमरीका ने यह पाया कि 20 बरस में भी तालिबान को कुचलना उसके लिए मुमकिन नहीं हो सका उसके लड़ाकू फौजी विमानों की बमबारी से भी तालिबान पूरी तरह खत्म नहीं हो रहे थे, तो पिछले 3 बरस में अमेरिका ने तालिबान से बातचीत का सिलसिला शुरू किया और अफगानिस्तान की जमीन से बाहर एक तीसरे देश में हुई बातचीत में यह तय हुआ कि अमेरिका एक तय समय में अफगानिस्तान छोडक़र निकल जाएगा, अब वहीं कुछ हफ्ते चल रहे हैं, जब अमेरिकी फौजी निकल रही हैं और तालिबान तकरीबन तमाम देश पर काबिज हो चुके हैं। अमेरिका की मदद से राष्ट्रपति बने हुए अशरफ़ गऩी देश छोडक़र दूसरे देश में शरण ले चुके हैं, और अफगानिस्तान में आज तालिबान का राज पूरी तरह से स्थापित हो चुका है।
अभी 2 दिन पहले की ही बात है कि अमेरिकी खुफिया विभाग की एक रिपोर्ट खबरों में आई कि अमेरिकी फौजों की अफगानिस्तान से वापसी पूरी तरह हो जाने के 6 महीनों के भीतर वहां की सरकार खतरे में आ सकती है, वहां तालिबान का राज लौट सकता है। लेकिन इस रिपोर्ट के आने के कुछ घंटों के भीतर ही 6 महीने तो दूर, अमेरिका की वापसी तो दूर, तालिबान का राज वैसे भी कायम हो चुका है। लेकिन आज का यह मौका तालिबान पर चर्चा का जितना है, उतना ही इस बात पर चर्चा का भी है कि तीसरे देश में जाकर 20 बरस पहले अमेरिका ने जिस तरह से वहां उस वक्त की सोवियत समर्थित सरकार को बेदखल करने का काम किया था, और उसके बाद वहां अपना राज एक बहुत महंगे दाम पर कायम रखा, उसके बारे में सोचने की जरूरत है।
अमेरिका के इतिहास को देखें तो उसने कुछ इसी अंदाज़ में, इतने ही वक्त 20-21 बरस तक वियतनाम के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी, और वियतनाम में अमेरिकी फौजियों को वहां की एक पूरी पीढ़ी को खत्म करने में झोंक दिया था। लेकिन उसके बाद बिना किसी नतीजे के अमेरिका को वियतनाम छोडऩा पड़ा था और अमेरिकी फौज की एक पूरी पीढ़ी वियतनाम युद्ध की त्रासदी को लेकर वहां आज तक मानसिक चिकित्सा करवाते हुए जी रही है। और कुछ उसी किस्म के 20 वर्ष का यह फौजी दौर अमेरिका ने अफगानिस्तान में चलाया है। यहां के हालात बिल्कुल अलग थे, यहां की वजह बिल्कुल अलग है, लेकिन 20 बरस के फौजी हमले जो वियतनाम पर चलते रहे, वैसे ही 20 बरस के फौजी हमले अफगानिस्तान पर चलते रहे। वियतनाम में अमेरिकी फौजियों ने अमेरिकी अंदाज के लोकतंत्र का जैसा नंगा नाच किया था, वैसा ही अफगानिस्तान में भी चलते रहा, और बेकसूरों को मारने का अमेरिकी फौज का अंदाज यह था कि वह वहां पर तालिबान होने के शक में अफगान नागरिकों की उंगलियां काट रही थी, उन्हें इकट्ठा करने का एक फौजी खेल खेला जाता था।
आज के वक्त की दिक्कत यह है कि आज अमेरिकी फौज की आलोचना करने का मतलब कई लोग धर्मांध, कट्टर और इस्लामिक राज्य कायम करने वाले तालिबान की तारीफ या तालिबान का समर्थन भी मान सकते हैं। लेकिन यह चर्चा आज जरूरी इसलिए है कि अमेरिका ने 20 वर्षों में अफगानिस्तान के पूरे ढांचे को अपने हिसाब से ढाला, अफगान नागरिकों को अपने हिसाब से जिंदगी जीने का एक मौका मुहैया कराया, उन्हें अमेरिका की मदद करने के काम में लगाया और आज रातों-रात अमेरिका उन तमाम लोगों को तालिबान के रहमोकरम पर छोडक़र जिस तरह से निकल जा रहा है, और जिस तरह से इन 20 वर्षों को मानो मिटाकर तालिबान के हवाले कर दिया जा रहा है वह एक अंतरराष्ट्रीय गैरजिम्मेदारी का ऐतिहासिक मामला है। इन 20 वर्षों में लाखों अफगान नागरिक अमेरिकी हमलों, तालिबानी हमलों, और इन दोनों तबकों के बीच की लड़ाई में मारे गए। आज की तारीख में भी लाखों अफगान औरत-बच्चे, आम नागरिक बेदखल हैं, शरण पाने के लिए दूसरे देशों की सरहदों पर जा रहे हैं, और आज अफगानिस्तान दुनिया का सबसे बड़ा बेदखल नागरिक समुदाय बन गया है, जिसकी कोई जिम्मेदारी अमेरिका आज उठाते नहीं दिख रहा है। अमेरिका की हालत यह है कि अफगानिस्तान पर कब्जा करने के वक्त ब्रिटिश फौज को उसने अपना सबसे बड़ा साथी बनाकर रखा हुआ था, वह ब्रिटिश सरकार भी आज अमेरिकी फौजियों की अफगान से वापिसी के खिलाफ है। लोगों को याद होगा कि चाहे इराक पर अमेरिकी हमला हो, चाहे अफगानिस्तान पर, इनमें ब्रिटिश सरकार उसकी सबसे बड़ी भागीदार रही है, और आज ब्रिटिश प्रतिरक्षामंत्री ने खुलकर अमेरिकी फौजियों की इस तरह से एकतरफा वापिसी के खिलाफ सार्वजनिक बयान दिया है।
यह पूरा सिलसिला एक विश्व समुदाय के रूप में दुनिया की नाकामयाबी का भी है कि आज संयुक्त राष्ट्र जैसे किसी अंतरराष्ट्रीय संगठन की बोलती ही अफगानिस्तान को लेकर बंद है, और वह महज एक शरणार्थी कार्यक्रम चलाकर अपनी जिम्मेदारी को पूरा मान रहा है। दूसरी तरफ पूरी दुनिया का सबसे बड़ा दादा बना घूम रहा अमेरिका किस तरह इराक पर हमले के बाद कुछ भी साबित नहीं कर सका कि इराक के पास जनसंहार के हथियार थे। अमेरिका ने इराक के उस वक्त के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को जिस अंदाज में फांसी चढ़ाया और अमेरिकी सरकार के सारे दावे झूठे साबित हुए कि इराक के पास पूरी दुनिया को खत्म करने के हिसाब से जनसंहार के हथियारों का जखीरा मौजूद था। इराक के पास से ऐसा एक हथियार भी अमेरिका बरामद करके नहीं दिखा सका। अब उसके बाद अफगानिस्तान में अमेरिकी रणनीति की ऐसी शिकस्त और शरणार्थियों की अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी से मुंह मोडऩे के अमेरिकी तौर-तरीकों को देखने की जरूरत है। हम अफगानिस्तान को एक धार्मिक कट्टरता में डुबा देने वाले तालिबानों के जुर्म कहीं से भी कम आंकने के हिमायती नहीं हैं। लेकिन तालिबान तो दुनिया के किसी लोकतंत्र के प्रति जवाबदेह नहीं थे, उन्होंने कभी किसी लोकतंत्र में भरोसा नहीं दिखाया था। दूसरी तरफ अफगानिस्तान में लोकतंत्र कायम करने, बचाने, के नाम पर अमेरिका ने अपने आपको दुनिया का एक सबसे ताकतवर लोकतंत्र साबित करते हुए जिस तरह की फौजी कार्रवाई 20 बरस अफगानिस्तान पर की, वह जरूर अधिक फिक्र की बात है। यह अधिक क्षेत्र की बात है कि 20 बरस पहले अफगानिस्तान जिस हाल में था, उस हाल से अधिक बदहाल उसे छोडक़र, तालिबान के रहमोकरम पर छोडक़र अमेरिका जिस गैरजिम्मेदारी के साथ वहां से बाहर निकला है, उससे दुनिया को यह भी सबक लेने की जरूरत है कि क्या दुनिया के इस गुंडे देश को इस तरह 20-20 बरस किसी इलाके पर फौजी हुकूमत चलाकर उस इलाके को एक अंधड़ के बीच में छोडक़र निकल जाने की इजाजत दी जानी चाहिए?
लेकिन सवाल यह है कि अमेरिका को रोकेगा कौन? सद्दाम हुसैन पर हमले के वक्त संयुक्त राष्ट्र में कुछ देशों ने यह बात तो उठाई थी लेकिन अमेरिका ने उस वक्त भी किसी की कोई बात नहीं सुनी। लोगों को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सोवियत कब्जे के खिलाफ, सोवियत फौजियों की मौजूदगी के खिलाफ अफगानिस्तान में तालिबानों को अमेरिका ने ही बढ़ाया था और पाकिस्तान के रास्ते इन तालिबानियों को फौजी ट्रेनिंग और फौजी हथियार दे-देकर अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट फौजियों को छोडऩे के लिए मजबूर कर दिया गया था। तालिबानियों के खिलाफ अमेरिका उस वक्त अधिक हमलावर हुआ जब उसे लगा कि न्यूयॉर्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर में हमला करने वाले ओसामा बिन लादेन को तालिबानी बचाकर रख रहे हैं। लेकिन हकीकत यह निकली ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान में, पाकिस्तानी सरकार की जानकारी में, शहर के बीच छुपा बैठा था और वहां घुसकर अमेरिका को उसे मारना पड़ा था। लेकिन फिर भी अमेरिका की पाकिस्तान पर मेहरबानियां कम नहीं हुई थीं और हिंदुस्तान जैसा देश बार-बार अमेरिका को यह याद दिला रहा था कि पाकिस्तान आतंकियों की पैदावार की जगह हो गई है, और वहां से आतंक की उपज आसपास के देशों में जा रही है।
आज भी जब तालिबानी अफगानिस्तान पर चारों तरफ कब्जा कर चुके हैं, तब भी बार-बार यह बात आ रही है कि पाकिस्तान की जमीन से तालिबानियों को साथ दिया जा रहा है। इसलिए अमेरिका की साजिश किसी कोने से खत्म होते नहीं दिखती है, वह खुद एक मोर्चे पर अपनी फौजों को तालिबानियों के खिलाफ झोंककर रख रहा है, और दूसरी तरफ उसी के पैसों से पाकिस्तान जैसे देश तालिबानियों की मदद करते आ रहे हैं। अमेरिका दुनिया का एक सबसे गैरजिम्मेदार देश से साबित हुआ है जिसने बिना किसी जरूरत दूसरे देशों पर जंग थोपी है और फिर वहां के लोगों को एक आंधी-तूफान के बीच में छोडक़र अपनी फौज सहित भाग निकला है। आज दुनिया के बाकी देशों को देखें तो अमेरिका के मुकाबले यूरोप के अधिकतर देश अधिक जिम्मेदार साबित हो रहे हैं जिन्होंने इराक और सीरिया और दूसरी जगहों के शरणार्थियों को अपने देश में जगह दी है, आज देखने की बात यह रहेगी कि अमेरिका अपने देश के लाखों मील के बंजर इलाकों में अफगानिस्तान के शरणार्थियों के लिए कितनी जगह निकालता है, या फिर उसके लिए अफगानिस्तान महज रूस के फौजियों को शिकस्त देने का एक मैदान था, और उस काम को पूरा करने के बाद वह अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों से मुंह चुराकर भाग निकला है। अमेरिका ने आज ना महज अफगानिस्तान को बेसहारा नहीं छोड़ा है, हिंदुस्तान जैसे देशों को भी एक चौराहे पर लाकर छोड़ दिया है। उसने हिंदुस्तान जैसे बहुत से देशों को भी खतरे में डाल दिया है जो कि अफगानिस्तान में एक निर्वाचित सरकार को देखना चाहते थे, और वहां ऐसी सरकार की मदद कर रहे थे। अब तालिबानियों ने हिंदुस्तान जैसी फ़ौज से यह साफ कर दिया है कि हिंदुस्तान वहां ना आए, हिंदुस्तान तालिबानियों से टकराव न ले। और दूसरी तरफ हिंदुस्तान के कुछ नेताओं ने इस बात को लेकर आशंका जाहिर की है भारत-पाकिस्तान सरहद पर पाकिस्तान की तरफ से होने वाले आतंकी हमलों में तालिबान भारत के खिलाफ जा सकते हैं। अमेरिका दुनिया को अस्थिरता में हिंसक धार्मिक कट्टर लड़ाकों के भरोसे छोडक़र भाग निकला है। उसके बुरे नतीजे दुनिया के बहुत से देश भुगतने जा रहे हैं, सबसे अधिक तो अफगानिस्तान के लोग जिनके पास आज जाने के लिए कोई देश भी नहीं बचा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान में गर्व करने के मौके बड़ी आसानी से आ जाते हैं। एक मौका टलता नहीं कि दूसरा खड़ा रहता है। अब जैसे कल आजादी की सालगिरह। जाहिर है कि किसी भी मुल्क को जब सैकड़ों बरस की गुलामी से आजादी मिली, एक के बाद दूसरे विदेशी हमलावर के कब्जे से छुटकारा मिला, तो मुल्क का अपने पर गर्व करना एक जायज हक की बात थी। यह एक अलग बात है कि करीब पौन सदी पहले जो आजादी मिली उस आजादी को खत्म करने में आज कोई कसर नहीं रखी गई है, और उस दिन 15 अगस्त 1947 को गर्व इस बात का था कि मुल्क आजाद हो रहा था, आज गर्व इस बात का है इस मुल्क के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जा रहे हैं, धर्म के नाम पर टुकड़े, जाति के नाम पर टुकड़े, पैसे के नाम पर टुकड़े, खानपान और पहनावे के नाम पर टुकड़े। और मजे की बात यह है कि इस पर भी गर्व है। पौन सदी पहले जो एक धर्मनिरपेक्ष देश बनाया गया था, उस देश में आज गर्व से यह कहने के लिए कि कोई एक तबका हिंदू है, लोगों को यही राष्ट्रीय गौरव हासिल हो गया है। दूसरे लोगों को मार-मारकर, सडक़ों पर भीड़ की शक्ल में पीटकर और मार डालकर भी अगर उनसे अपने ईश्वर का नाम लिवाया जा रहा है, तो अपनी इस आजादी पर, और दूसरों की उस बेबसी पर लोगों को गर्व है। और गर्व का यह सिलसिला थम नहीं रहा है। गर्व से कहो हम हिंदू हैं का यह गर्व बढ़ते-बढ़ते इतना खूनी हो गया है कि जिस ईश्वर को इस हिंदू धर्म का प्रतीक बना लिया गया है वह खुद ही शर्म से डूब रहा है कि यह किन लोगों के बीच वह फंस गया है। फिर भी उसे फंसाकर भी लोग गर्व से फूले नहीं समा रहे हैं और अपनी इस आजादी पर उन्हें खूब गर्व है। गर्व का यह सिलसिला अपनी आजादी का कम है और दूसरों की गुलामी पर कुछ अधिक है।
आज ऐसा नहीं कि लोगों की अपनी खुद की जिंदगी में तकलीफ कम है, लेकिन जब लोग देखते हैं कि जिन्हें उनका दुश्मन बताया जाता है, जिन्हें विधर्मी और विदेशी खून से उपजा हुआ बताया जाता है, वे जब अधिक तकलीफ में दिखते हैं, तो अपनी तकलीफ जाते रहती है। गर्व कुछ तो उनकी तकलीफ अधिक देखने का अधिक है। और फिर कुछ गर्व इन बातों का भी है कि अपना ईश्वर आज सब पर हावी है, अपना झंडा सबसे बड़े डंडे में लगा हुआ है। लोग गर्व करने के लिए दूसरों के खिलाफ नफरत को भी जोडऩे की एक बड़ी ताकत की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। नफरत ने लोगों को इतना जोड़ लिया है कि वह अपने इसी जोड़ पर फिदा है और दूसरों को सबक सिखाने पर आमादा है। यह कैसा गौरव है जिसे जिंदा रहने के लिए पड़ोस में कोई एक दुश्मन देश लगता है, क्योंकि दुश्मन के बिना यह गर्व जिंदा नहीं रह पाता। जिसे अपने देश के भीतर भी एक दुश्मन मजहब की जरूरत पड़ती है क्योंकि उसके बिना, उससे नफरत के बिना, अपना धर्म इतने बड़े गर्व का सामान नहीं बन पाता है, जितने बड़े गर्व की जरूरत लोगों को लग रही है। इसलिए एक दुश्मन देश और एक नापसंद धर्म, इन दो पर यह गर्व खड़े रह पाता है, लेकिन इनके बिना वह अदालत के कटघरे में एक मासूम गवाह की तरह फर्श पर बिछने लगता है।
यह सिलसिला देश के लोगों को अपनी तकलीफ भुलाने में मदद भी करता है। जब पेट्रोल-डीजल खरीदना अपने बस में नहीं रह गया, जब इलाज कराना और बच्चों को अच्छा पढ़ाना अपनी मर्जी में नहीं रह गया, अपने बस में नहीं रह गया, तो फिर वैसे में एक झूठा गर्व तमाम किस्म की तकलीफों पर मरहम की तरह लगाने के काम आता है। जब मन गर्व से भर जाता है तो उस फूलकर कुप्पा हुए जा रहे मन में किसी तकलीफ और मलाल की जगह ही नहीं रह जाती। गर्व ऐसे कई मौकों पर लोगों को तकलीफ भुलाने में मदद करता है, झूठी खुशी पाने में मदद करता है, दूसरों को नीचा दिखाने में मदद करता है, और अगर कोई दूसरी वजह ना रहे तो दूसरों के नीचे दिखने की वजह से अपने आपको ऊंचा पाने के एहसास में भी मदद करता है।
लोगों को आज हिंदुस्तान की हालत को देखते हुए बहुत सी बातें समझ में नहीं आ रही है, लेकिन फिर भी उन्हें यह लग रहा है क्यों उन्हें गर्व के साथ जीना है। यह सिलसिला किसी देश के इतिहास में रहा हो, या ना रहा हो, वैसे काल्पनिक इतिहास को याद कर-करके, उस पर गर्व करते हुए जीना बड़ा आसान काम रहता है। लोगों को याद होगा कि जब नोटबंदी हुई थी, और उसमें गर्व के लायक कुछ नहीं मिल रहा था, तो एटीएम पर लगी कतारों को कारगिल के बर्फ में 6 महीने ड्यूटी करने वाले सैनिकों से जोडक़र एक गर्व का सामान जुटा लिया गया था। आज हिंदुस्तान का भाला फेंकने वाला एक नौजवान ओलंपिक से गोल्ड मेडल लेकर लौटता है, उस पर गर्व करना तो जायज है, लेकिन उसकी मेहनत में जब देश के खेल संगठनों ने, और देश की सरकार ने हाथ नहीं जुटाया था, तो उस जिम्मेदारी को उठाना तो भारी-भरकम काम होगा, तुरंत ही उसके भाले को इतिहास के महाराणा प्रताप के भाले से जोड़ देना एक आसान काम रहता है। और महाराणा प्रताप के उस भाले की तारीफ में किसी कविता की चार लाइनें और ढूंढकर उस पर भी गर्व किया जा सकता है। यह एक और बात है कि इतिहास के इस दौर में हिंदुस्तान के राजाओं की कहां-कहां शिकस्त हुई थी, और कैसे-कैसे हिंदुस्तान के राजा मुगलों की शरण में जाकर बचे थे, या जिन्होंने अंग्रेजों के पिट्ठू बनकर रहना मंजूर किया था, उसे याद करेंगे तो आज के गर्व का दूध फट जाएगा। इसलिए खटास की वैसी बातों को याद करना बेकार रहता है, और इतिहास के टुकड़ों में से कुछ चुनिंदा कतरे छांटकर उन पर गर्व कर लेना ठीक रहता है। आज नीरज चोपड़ा की तैयारी में भारत सरकार ने खानपान तक की मदद नहीं की थी यह सोचने से देश को गर्व करने में कुछ दिक्कत हो सकती है। लेकिन राणा प्रताप के भाले पर लिखी गई कविता को याद करना बेहतर है क्योंकि राणा प्रताप भारत सरकार से कोई खानपान का भत्ता भी तो नहीं मानते !
इसलिए हिंदुस्तान में आज ताकत का मनमानी इस्तेमाल करने की इजाजत रखने वाले तमाम तबकों को गर्व करने की बहुत सी वजह हैं, और जिन लोगों को 1947 में मिली आजादी को आज खो देना पड़ा है, ऐसे तबकों को यह मान लेने की काफी वजह हैं कि उन्हें हिंदुस्तान में किसी बात पर गर्व करने का भी कोई हक हासिल नहीं है।
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अभी जब देश के सबसे बड़े खेल सम्मान का नाम राजीव गांधी के नाम से हटाकर मेजर ध्यानचंद के नाम पर किया गया तो सोशल मीडिया पर मोदी के आलोचकों ने काफी कुछ लिखा। अहमदाबाद के सरदार वल्लभभाई पटेल खेल कांप्लेक्स में जिस स्टेडियम का नाम पटेल के नाम पर चले आ रहा था, उसे पिछले बरस नरेंद्र मोदी के नाम पर किया गया, उस समय भी यह बात जमकर उठी थी लेकिन अभी तो लोगों ने और अधिक तल्खी से याद किया और कहा कि अगर मेजर ध्यानचंद के नाम पर कुछ रखना ही था तो उस स्टेडियम का नाम मोदी ने अपने नाम पर क्यों रखवाया जहां उनकी खुद की पार्टी की सरकार है, जहां का क्रिकेट एसोसिएशन उनके अपने कब्जे में हैं, उसी स्टेडियम का नाम मेजर ध्यानचंद के नाम पर रखवा दिया जाता। खैर, यह तो सरकार की अपनी मर्जी की बात होती है, लेकिन अब जब एक बार फिर ओलंपिक में भारतीय हॉकी खबरों में आई तो उस वक्त फिर मेजर ध्यानचंद का नाम चला। आधी सदी से यह मांग चली आ रही है कि मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न दिया जाए लेकिन इस मांग को किनारे रख दिया गया है। पिछले ही बरस की बात है, मेजर ध्यानचंद के जन्म की 115वीं सालगिरह थी और अनगिनत भूतपूर्व और मौजूदा हॉकी खिलाडिय़ों ने मिलकर यह मांग की थी कि उन्हें देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न दिया जाए, लेकिन मोदी सरकार चुप रही उसने ऐसा नहीं किया। और तोहमत के लिए तो कांग्रेस है ही, कि उसने इतने समय में मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न क्यों नहीं दिया था?
अधिक पुरानी बात न करें और हाल के बरसों को देखें जब एक गैरकांग्रेसी इंद्र कुमार गुजराल साल भर के लिए प्रधानमंत्री बने थे और उन्होंने इस एक साल में बहुत से लोगों को भारतरत्न दिया। इनमें गुलजारी लाल नंदा, अरूणा आसफ अली, एपीजे अब्दुल कलाम, एमएस सुब्बूलक्ष्मी, और चिदंबरम सुब्रमण्यम, इतने लोग थे। गुजराल के तुरंत बाद अटल बिहारी वाजपेई प्रधानमंत्री बने जो पूरी तरह से भाजपा के थे, और एनडीए सरकार के मुखिया थे, उन्होंने अपने कार्यकाल में जयप्रकाश नारायण, अमर्त्य सेन, गोपीनाथ बोर्दोलोई, रवि शंकर, लता मंगेशकर, और बिस्मिल्लाह खान को भारत रत्न से सम्मानित किया। इसके बाद एनडीए की दूसरी सरकार बनी, नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और इस कार्यकाल में मदन मोहन मालवीय, अटल बिहारी वाजपेई, प्रणब मुखर्जी, भूपेन हजारिका, और नानाजी देशमुख को भारत रत्न दिया गया। मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल भी आ गया, और यह सरकार तो बड़ी रफ्तार से बड़े-बड़े फैसले लेने को जानी जाती है, लेकिन ओलंपिक के दो वक्त में भी मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न देने की कोई चर्चा भी नहीं हुई बल्कि पिछले बरस खिलाडिय़ों की मांग पर भी सरकार का कोई रुख सामने नहीं आया। अब राजीव गांधी के नाम पर रखा गया खेल का सबसे बड़ा सम्मान उनके नाम से हटाकर मेजर ध्यानचंद के नाम पर कर दिया गया, लेकिन इसके बाद भी ऐसा नहीं हुआ कि इस मौके पर मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न की घोषणा हुई हो। कुल मिलकर देखें तो राजीव गाँधी का अपमान करने में मेजर ध्यानचंद को हथियार की तरह इस्तेमाल कर लिया गया।
हिंदुस्तान में जो नामकरण का सिलसिला अटपटा है और फिर नामों को बदलने का सिलसिला तो और भी बदमजा है। बहुत सी पार्टियों की सरकारें नाम बदलने का यह काम करती हैं और ऐसा इसलिए भी होता है कि नामकरण भी वैसी ही राजनीति दिखाते हुए किए जाते हैं, और बाद में उन्हें बदलना एक अलग किस्म की राजनीति रहती है। ऐसा भाजपा ने भी बहुत किया है, कांग्रेस ने भी बहुत किया है, इसलिए हर किसी की मिसालें बड़ी संख्या में मौजूद हैं। यह समझने की जरूरत है कि नाम रखते हुए भी सोचा जाना चाहिए और हटाते हुए भी सोचा जाना चाहिए। फिर भी हम आज यहां पर नामकरण और दोबारा नामकरण पर नहीं लिख रहे हैं, हम इस बात पर लिख रहे हैं कि राजीव गांधी का नाम हटाने की बात तो ठीक है लेकिन मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न क्यों नहीं दिया जा रहा है? यह तो मोदी सरकार के हाथ की बात थी और ओलंपिक में हॉकी के जिस खेल को मोदी ने रात-रात जागकर देखा है, टीवी के परदे के सामने खड़े रहकर देखा है, उस हॉकी के खेल के जादूगर कहे जाने वाले मेजर ध्यानचंद का सम्मान अगर इस सरकार को सचमुच ही करना है, तो राजीव गांधी का नाम मिटा कर क्यों किया गया? मोदी अपने नाम के स्टेडियम के नाम को ध्यानचंद के नाम पर रखते और उन्हें भारत रत्न देने की घोषणा करते? ऐसे में ही लोगों को याद पड़ता है कि अरुण जेटली के नाम पर भी दिल्ली के एक ऐतिहासिक स्टेडियम का नाम रख दिया गया। जैसा कि हमने हाल के बरसों में भारतरत्न पाने वालों के नाम गिनाए हैं कि अगर इच्छाशक्ति थी तो इंद्र कुमार गुजराल ने एक बरस के प्रधानमंत्री रहते हुए पांच भारतरत्न दे दिए, और अटल बिहारी वाजपेई ने 6 बरस प्रधानमंत्री रहते हुए पांच भारतरत्न दिए। देने के लिए तो मोदी ने भी पांच भारत रत्न अपने पिछले कार्यकाल में ही दे दिए हैं, लेकिन मेजर ध्यानचंद की बारी वहां पर नहीं आई। मेजर ध्यानचंद को मौका दिया गया तो राजीव गांधी की स्मृतियों को हटाकर उस कुर्सी को खाली करके ध्यानचंद को वहां बैठा दिया। क्या यह सचमुच यही मेजर ध्यानचंद का सम्मान हुआ है? जिस देश में सचिन तेंदुलकर जैसे कारोबारी खिलाड़ी को अभी कुछ ही बरस पहले, सबसे कम उम्र में भारत रत्न दे दिया गया, वहां पर मोदी के 6 वर्षों में भी भारतरत्न के लिए ध्यानचंद का नाम नहीं आया !
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गांधीवादी किफायती जिंदगी को अगर देखें तो यह लगेगा कि आज की अर्थव्यवस्था की बुनियाद उससे हिल जाएगी। लोग पैदल या साइकिल से चलने लगेंगे, छोटी-छोटी आवाजाही के लिए कारों का इस्तेमाल कम हो जाएगा, सडक़ों पर गाडिय़ों की भीड़ घटेगी, और पैदल चलने वाले या साइकिल चलाने वाले लोग प्रदूषण पैदा नहीं करेंगे तो हवा साफ करने वाली मशीनों की बिक्री घट जाएगी, गाडिय़ां कम चलेंगी तो ऑटोमोबाइल की कंपनियों का भट्टा बैठ जाएगा, पेट्रोलियम कम बिकेगा, और लोग सेहतमंद भी रहेंगे। सोशल मीडिया में पैदल और पैडल के फायदे गिनाते हुए लोग यह भी गिनाते हैं कि इससे नुकसान किस-किसका होगा। सेहतमंद लोग देश की अर्थव्यवस्था को चौपट करके रख देते हैं, न महँगे इलाज की जरूरत पड़ती, न बड़े अस्पतालों की, न कसरत की मशीनों की, और न उन्हें जिम जाना पड़ता। ऐसे लोग देश की अर्थव्यवस्था में कुछ भी नहीं जोड़ पाते, न किसी चीज की बर्बादी करते, ना खुद बर्बाद होते। दूसरी तरफ महज बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में चलने वाले लोग, रेस्तरां का फास्ट फूड खाने वाले लोग, कुल मिलाकर अस्पतालों को चलाते हैं, उनका खुद का आकार हर बरस बदल जाता है, तो उनकी वजह से फैशन उद्योग भी चलता है। और पैदल और पैडल में भी सबसे खतरनाक पैदल लोग रहते हैं क्योंकि वे तो साइकल तक नहीं खरीदते और साइकिल उद्योग भी नहीं चलता।
सोशल मीडिया पर हल्के फुल्के मिजाज में लिखी गई ऐसी गंभीर बातों के साथ-साथ एक दूसरी बात को भी समझने की जरूरत है। अभी दो दिन पहले ही यूरोप की सबसे चर्चित पर्यावरणवादी आंदोलनकारी किशोरी ग्रेटा थनबर्ग का एक बयान सामने आया है जिसमें उसने अंधाधुंध मार्केटिंग करने वाले फैशन उद्योग की आलोचना की है कि वह लोगों के बीच गैरजरूरी फैशन को बढ़ावा देता है। और ग्रेटा ने यह बात कहने के लिए एक फैशन मैगजीन वोग को दिए हुए एक इंटरव्यू का इस्तेमाल किया जिसमें उसने कहा कि पर्यावरण की बर्बादी के लिए और मौसम की तरह-तरह की इमरजेंसी आने के लिए फैशन उद्योग बहुत हद तक जिम्मेदार है। फैशन उद्योग हर कुछ महीनों में फैशन बदलकर लोगों को नए कपड़े और सामान खरीदने के लिए उकसाते रहता है। ग्रेट ने यह कहा कि वह कभी नए कपड़े नहीं खरीदती, अगर जरूरत भी रहती है तो पुराने कपड़ों के बाजार से इस्तेमाल होने के बाद बिकने वाले पुराने कपड़े ही खरीदती है, और जान-पहचान के करीबी लोगों से कपड़े उधार लेकर भी अपना काम चला लेती है 18 बरस की ग्रेटा थनबर्ग स्वीडन की एक किशोरी है और पर्यावरण को लेकर अपने आंदोलन की वजह से वह खबरों में भी रही। पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बावलेपन की हद तक जाकर ग्रेटा थनबर्ग पर हमला करते थे जिसका मजा लेते हुए ग्रेटा अमेरिका की पर्यावरण विरोधी नीतियों को उजागर करते रहती थी।
इन दो अलग-अलग बातों को अगर देखें तो इनका एक दूसरे से बहुत सीधा रिश्ता नहीं है, लेकिन दोनों ही बातें पर्यावरण को बचाने के लिए जरूरी हैं। एक तो यह कि लोग एक सेहतमंद जीवनशैली इस्तेमाल करें जिसमें वे पैदल और पैडल पर अधिक निर्भर करें। यह जरूरी है। इसके साथ ही यह भी समझने की जरूरत है कि हिंदुस्तान से हजारों मील दूर किस तरह एक संपन्न यूरोपियन देश स्वीडन में एक किशोरी उन्हीं जीवनमूल्यों को बढ़ावा दे रही है जिन्हें गांधी ने अपनी जिंदगी में इस गरीब हिंदुस्तान में बढ़ाया था. आज अगर यह सोचें कि क्या हिंदुस्तान में कोई लडक़ा या लडक़ी अपने किशोरावस्था में पर्यावरण को लेकर ऐसी जागरूकता की बात कर सकते हैं, तो गांधीवादी होने का दावा करने वाले परिवारों में भी ऐसे कोई बच्चे नहीं मिलेंगे। इसलिए गांधीवादी किफायत न सिर्फ धरती के पर्यावरण को बचाने के लिए जरूरी है, बल्कि गांधी के किस्म की आत्मनिर्भरता लोगों की सेहत के लिए भी जरूरी है। यह एक अलग बात है कि आज दुनिया की अर्थव्यवस्था जिस तरह से फिजूलखर्ची पर टिक गई है, वह अर्थव्यवस्था जरूर डांवाडोल होने लगेगी।
आज हिंदुस्तान में किसी संपन्न तबके के बच्चों को तो छोड़ ही दें, औसत दर्जे की कमाई वाले परिवारों में भी बच्चे धरती को बचाने के लिए बाजार से पुराने कपड़े खरीदें या यार दोस्तों से उधार में लेकर पहन लें ऐसा किसी ने देखा-सुना भी नहीं होगा। इसलिए ग्रेटा की बातों को ग्रेट मानना भी जरूरी है और उनको गांधी के नजरिए से देखना भी जरूरी है. यह भी समझना जरूरी है कि किस तरह आज का फैशन उद्योग लोगों को गैरजरूरी खरीदारी के तरफ धकेलता है और फैशन को बार-बार बदल कर लोगों को ग्राहक बनाए रखता है, समर्पित ग्राहक।
वैसे तो देश और दुनिया में चर्चित बहुत से फिल्मी और खिलाड़ी सितारों को देखें तो उनकी एक अपील भी गैरजरूरी फैशन खपत को घटा सकती है, लेकिन घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या? यही सारे फिल्म और क्रिकेट के सितारे ऐसे हैं, जो तमाम किस्म की फैशन के इश्तहार करते हैं, उनको बढ़ावा देते हैं। अब अगर अमिताभ बच्चन ही यह कहने लगें कि वे तो पिछले 15 वर्षों से एक ही पतलून पहन रहे हैं, या उन्होंने तो पिछले 5 बरस से कोई नया सूट सिलवाया नहीं है, तो उनके खुद के पेट पर लात पड़ेगी। इसलिए जो लोग मॉडलिंग और बिक्री को बढ़ावा देने के ऐसे धंधे की कमाई पर नहीं टिके हुए हैं, उन लोगों को खुलकर सादगी, और फैशन की बात करनी चाहिए। अब कनाडा का प्रधानमंत्री अगर किसी मौके पर अपने रंग-बिरंगे मोजों के रंग, या उन पर छपी हुई डिजाइन को लेकर अपने सामाजिक सरोकार के प्रदर्शन पर वाहवाही पाता है, तो दुनिया के और भी बहुत से नेता और दूसरे चर्चित व्यक्ति फैशन की बर्बादी घटाने के लिए इस तरह के बयान दे सकते हैं। बहुत छोटी-छोटी बातों को देखें तो फेसबुक कंपनी का नौजवान मालिक मार्क जुकरबर्ग अधिकतर वक्त सलेटी रंग की मामूली टी-शर्ट और जींस में ही दिखता है। उसे किसी मौके के लिए कपड़े छंाटने में भी अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती क्योंकि उसने इन्हीं रंगों के, ऐसे ही डिजाइन के यही कपड़े 4-6 जोड़ी रखे हुए हैं। ऐसे चर्चित लोग भी अगर किफायत को लेकर कोई आंदोलन शुरू करेंगे तो उसका धरती पर बड़ा असर पड़ सकता है लेकिन सवाल यह है कि जिस फेसबुक पर रात-दिन फैशन के इश्तहार आते हैं, क्या वहां पर धंधा मार नहीं खायेगा? इसलिए बहुत से लोग जो सीधे-सीधे मॉडलिंग से जुड़े हुए नहीं है वे लोग भी इश्तहार की कमाई से तो जुड़े हुए हैं। देखें इन्हीं के बीच से कोई रास्ता ऐसा निकल सकता है क्या, जिसमें चर्चित लोग गांधी या ग्रेटर थनवर्ग की तरह किफायत और सादगी को बढ़ावा दे सकें। जिस वक्त चीन में अकाल की नौबत थी और लोगों के पास काम नहीं था, खाना नहीं था, उस वक्त वहां औरत-मर्द सभी के लिए एक ही किस्म की पतलून और वैसा ही कोट, और वह भी एक ही रंग के, लागू कर दिए गए थे ताकि लोग फैशन में बर्बाद ना हों। आज भी सरकार और समाज में जिम्मेदार लोगों को यह देखना चाहिए कि जिंदगी कैसे अधिक किफायती हो सकती है, और कैसे हम धरती पर अधिक बड़ा बोझ बनने से बचें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)