राजपथ - जनपथ

राजपथ-जनपथ : पास के लिए खूब लगवाए चक्कर
12-Jun-2024 5:19 PM
राजपथ-जनपथ : पास के लिए खूब लगवाए चक्कर

पास के लिए खूब लगवाए चक्कर
सच्चाई से हर खास ओ आम का सामना होता है । राजनीति में हो तो नजर आ ही जाता है । 

विधायक रहे दो चर्चित भाजपा नेताओं को एक अदद पास के लिए दिल्ली में चक्कर काटने पड़े। कभी  उनके पीछे घूमने वाले,नए नवेले महामंत्री ने रायसीना हिल्स के शपथ समारोह के एंट्री पास के लिए दिन भर नई दिल्ली के चक्कर कटवाए। बेचारे सुबह 6.30 से कभी छत्तीसगढ़ भवन,तो कभी राष्ट्रीय मुख्यालय घुमाए जाते रहे। जब-जब महामंत्री ने बुलाया,जाना पड़ा । 

महामंत्री हर बार कहते पास नहीं आए हैं, जबकि उनकी जेब में थे। छत्तीसगढ़ के नाम 200 पास दिए गए थे। लेकिन वहां पहुंच थे 266 नेता । अब 66 अतिरिक्त में किसी न किसी की कुर्बानी देनी ही थी। महामंत्री ऐसे ही नेताओं को काटते चले गए। लेकिन उन्हें क्या पता था कि दोनों पूर्व विधायक हैं जुगाड़ तो कर ही लेंगे। हुआ ऐसा ही। दोनों को राष्ट्रपति भवन प्रांगण में देखते ही महामंत्री भौंचक रह गए। दरअसल दोनों ने हिमाचल भवन के रास्ते एंट्री पा ली। राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सौदान सिंह से संपर्क करते ही हो गई इनकी बल्ले-बल्ले।  

वैसे किरण सिंह देव की टीम में महामंत्री बने इन नेताजी को कुछ ही महीने हुए हैं। पहले ये 77 किमी दूर पड़ोस के जिलाध्यक्ष हुआ करते थे। और तब से इनके कृतित्व की चर्चा चहुंओर है। वन विभाग ने कैंपा मद से इनके लिए स्कार्पियो गिफ्ट किया है। बहरहाल दोनों पूर्व विधायकों को पलटवार के मौक़े का इंतजार है। ऐसे ही नेताओं के लिए कहा गया है कि सब दिन होत न एक समान।

ब्राह्मण अब किंग मेकर बने
पिछले तीन चुनाव अंचल के ब्राह्मण नेताओं के अनुकूल नहीं रहे। ये कभी साहू,कभी कुर्मी नेताओं से हारते रहे हैं। यह देख 13,18,24 के नतीजों  साथ एक स्वतंत्र लेखक, एक पराजित ब्राह्मण नेता से बतिया रहे थे । लेखक ने तपाक से कह दिया भैया अब आप लोगों को चुनाव नहीं लडऩा चाहिए। क्योंकि छत्तीसगढ़ अब अगड़ों खासकर ब्राह्मणों के लिए सुरक्षित नहीं रहा। बल्कि मैं तो कहता हूं दावेदारी भी नहीं करनी चाहिए। तीन नतीजे देखें आप स्वयं विधानसभा, लोकसभा हारे। आप से पहले बाद में सत्यनारायण शर्मा, फिर विकास उपाध्याय पंकज शर्मा। 
दुर्ग और आसपास में सरोज पांडेय, प्रेम प्रकाश पांडे, शिवरतन शर्मा, रविंद्र चौबे, अमितेश शुक्ल, शैलेष नितिन त्रिवेदी और अन्य । जीते तो दो-तीन ही जो इनमें नहीं, और वह भी मोदी लहर में। इसलिए अब ब्राह्मणों को संगठन में काम करना चाहिए। आप लोग किंगमेकर बनें। छत्तीसगढ़ अब आदिवासी, और पिछड़ों का हो गया है। तोखन साहू के केंद्र में मंत्री बनने से मुहर लग गई। इतना सुनकर, लेखक के आगे के विश्लेषण को यह कहते हुए रोका कि रहने दो कुछ भी कहते हो। उसके बाद नि:संदेह, नेताजी विश्लेषण तो कर ही रहे होंगे।

एक और राज्य से आदिवासी सीएम
छत्तीसगढ़ से सटे ओडिशा में एक समान बात होने जा रही है। दिसंबर 2023 में विधानसभा चुनाव का नतीजा आने के बाद केंद्रीय नेतृत्व ने आदिवासी वर्ग के विष्णुदेव साय को प्रदेश का नेतृत्व सौंपा। हालांकि कई वरिष्ठ नेता विधायक चुने गए थे और उन्होंने भी उम्मीद पाल रखी थी। अब ओडिशा में भी ऐसा ही हुआ। केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान सहित ओडिशा के कई पुराने दिग्गजों के समर्थक सोचकर चल रहे थे कि उनके नेता को मौका मिलेगा। पर केंद्रीय पर्यवेक्षक राजनाथ सिंह ने मोहन मांझी को नेतृत्व सौंपने की घोषणा की। जिस तरह छत्तीसगढ़ में दो उप-मुख्यमंत्री ओबीसी और सामान्य वर्ग से लिए गए, उसी तरह ओडिशा में भी प्रवती परिदा और केवी सिंह देव को लिया गया है। क्षेत्रीय व जातीय समीकरण का छत्तीसगढ़ की तरह ओडिशा में भी ध्यान रखा गया।

छत्तीसगढ़ और ओडिशा दोनों ही माइनिंग स्टेट हैं। क्योंझर, जहां से मोहन मांझी विधायक हैं, वहां तो बॉक्साइट का विशाल भंडार है। एक तथ्य यह है कि खनिज उत्खनन से राज्य के राजस्व में वृद्धि होती है और विकास को गति मिलती है। दूसरी तरफ आदिवासी समुदाय अपनी जमीन छिन जाने, बेदखल हो जाने को लेकर चिंतित रहता है। यह माहौल छत्तीसगढ़ और ओडिशा में एक जैसा है। भाजपा जो इस समय तीसरी बार केंद्र में एनडीए गठबंधन के साथ लौटी है, उसका यह मानना हो सकता है कि आदिवासी मुख्यमंत्री खनन प्रभावित ग्रामीणों के साथ अच्छा तालमेल बिठा सकते हैं और उनकी जरूरतों को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। पर्यावरण, विस्थापन और आजीविका की समस्या को समझ सकते हैं।

इसके राजनीतिक कारणों का अनुमान भी लगाया जा सकता है। झारखंड में इसी साल 2024 के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं। वहां इस समय झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस गठबंधन की सरकार है। यहां हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर जेल जाना पड़ा। इसके बावजूद लोकसभा चुनाव में दिल्ली की तरह फैसला भाजपा के पक्ष में नहीं आया, जहां केजरीवाल को कोर्ट ने प्रचार के लिए अंतरिम जमानत दी थी लेकिन भाजपा ने सभी 7 सीटों पर जीत हासिल कर ली। लोकसभा में भाजपा ने झारखंड में तीन सीटें गंवाई। पहले 11 थी, अब 8 रह गई। गंवाई हुई तीन सीटें झामुमो, कांग्रेस और ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन में बंट गई। उसके सामने अब विधानसभा में बेहतर प्रदर्शन करने की चुनौती है।

जिस तरह जशपुर झारखंड से सटा हुआ है, ओडिशा में मुख्यमंत्री बन रहे मोहन मांझी का क्षेत्र क्योंझर भी झारखंड की सीमा में ही है। आदिवासी बाहुल्य झारखंड के बगल के दो राज्यों में आदिवासी मुख्यमंत्री देकर भाजपा अब विधानसभा चुनाव में शायद झामुमो-कांग्रेस को बेदखल कर दे। लोकसभा चुनाव के दौरान छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री साय ने झारखंड में कई चुनावी सभाएं ली थीं। ओडिशा में सीएम देने के बाद, झारखंड के मतदाताओं पर भाजपा की छवि एक आदिवासी हितैषी दल की बन सकती है। वहां के लिए अगले चुनाव में दो –दो आदिवासी सीएम स्टार प्रचारक होंगे।

वर्मी खाद में लुटने से बचे किसान
मानसून करीब आते ही सहकारी समिति के गोदामों में खाद पहुंच चुका है। किसान इसे अपनी जरूरत के हिसाब से उठाने लगे हैं। पिछले तीन-चार से किसान खाद की कीमत बढ़ जाने की वजह से परेशान थे। ऊपर से उनको वर्मी खाद खरीदने के लिए बाध्य किया जाता था। किसानों पर यह दोहरा बोझ था। रासायनिक खाद की कीमतों में जो बढ़ोतरी पिछले सालों में हुई वह यथावत है लेकिन इस बार वे वर्मी खाद खरीदने की बाध्यता से मुक्त हो चुके हैं। रासायनिक खाद खरीदने के दौरान जबरदस्ती वर्मी खाद का पैकेट थमाया जाता था। तत्कालीन सरकार की महत्वाकांक्षी योजना किसानों की जेब ढीली करके सफल बनाई जा रही थी, जो वैसे भी कृषि की लागत बढ़ जाने के कारण परेशान हैं। जब से भाजपा की सरकार आई, अधिकांश गौठानों में गोबर की खरीदी बंद हो गई। वर्मी खाद इसी से तैयार होता है। ऐसा नहीं है कि किसानों को जैविक खाद से कोई परहेज था। इसका वे सब्जी भाजी में उपयोग कर लेते, मगर ज्यादातर दुकानों में जो वर्मी खाद थमाई जाती थी, उसकी गुणवत्ता को लेकर शिकायत थी। कई किसानों ने पाया कि इसमें मिट्टी, कंकड़, गिट्टी के अलावा कुछ नहीं है। भाजपा सरकार ने गौठानों को आत्मनिर्भर बनाने की घोषणा की है। गौठानों से अलग गौ-अभयारण्य बनाने की घोषणा कर रखी है। देखना होगा, इसमें वर्मी खाद के निर्माण व बिक्री से संबंधित क्या योजना लाई जाती है।

 

सरई के फूल..
छत्तीसगढ़ के कई वन क्षेत्र सघन सरई या साल के पेड़ों से आच्छादित है। भीषण गर्मी में भी इसकी हरियाली खत्म नहीं होती। सौ साल टिके रहते हैं। मजबूत इतने कि जब तक धातु की रेल पांत नहीं बनी, इसी से पटरियां तैयार होती थी। मानसून के पहले इन साल वृक्षों पर फूलों की बहार है। ये सडक़ों पर भी बिछी हुई हैं। कबीरधाम जिले के पंडरिया की एक सडक़ पर बिखरे कुछ फूल।  

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