राजपथ - जनपथ
97 फीसदी फस्र्ट क्लास की दिक्कतें...
10वीं बोर्ड एग्जाम हर एक दौर में घबराहट का सटीक उदाहरण रहा है। बचपन में मां-बाप ने इसी कक्षा के नतीजे पर या तो मोहल्ले भर में मिठाई बांटी या फिर जबरदस्त ठुकाई की। इधर कोविड ने समाज पर जो प्रलयंकारी असर बच्चों को जबरदस्त ‘लर्निंग लॉस’ के रूप में सामने आया है। कल जब 97 प्रतिशत बच्चे दसवीं बोर्ड में फर्स्ट डिवीजन में पास घोषित किये गये इसी नुकसान का प्रमाण पत्र भी साथ-साथ छप गया।
शायद कभी नहीं हुआ होगा कि प्रथम श्रेणी में पास होने के बावजूद बच्चों और अभिभावकों में जश्न मनाने की इच्छा नहीं हो रही हो। और जो बच्चे अब तक नीचे की कक्षाओं में टॉपर रहे होंगे, उनको इस नतीजे का कितना मलाल होगा? अपने राज्य में वैसे भी स्कूली शिक्षा की बहुत अच्छी स्थिति नहीं रही है। बहुत से प्रयोगों के बावजूद राष्ट्रीय स्तर की सर्वे टीमों ने पाया है कि पांचवी, आठवीं, दसवीं के बच्चों के शिक्षा का स्तर उनकी क्लास से तीन चार साल पीछे का है। अंग्रेजी की वर्णमाला, दस तक का पहाड़ा तक मिडिल स्कूल के बच्चे नहीं बता पाते। अब जब कोरोना की तीसरी लहर में सबसे ज्यादा असर बच्चों पर पडऩे की आशंका जताई जा रही है, कितना नुकसान हुआ है हम अंदाजा लगा सकते हैं। ऐसे तो पास हर साल किया नहीं जा सकता। पढ़ाई चलती रहे इसका क्या विकल्प हो सकता है। बीते सत्र में मोहल्ला क्लास, पढ़ई तुहर द्वारा, बुल्टू के गोठ जैसे कुछ वैकल्पिक तरीके अपनाये गये थे पर क्या संक्रमण के नये खतरों के बीच अगले सत्र में भी वह हो सकेगा? अब जरूरत है कि न केवल पढ़ाई बल्कि पूरे शारीरिक, मानसिक विकास पर कोरोना महामारी के चलते हो रहे नुकसान पर गंभीर चर्चा छिड़े।
हलवाई इंग्लैंड चला गया...
60 प्लस और फिर 45 प्लस वालों को जब टीके लगवाने की मंजूरी दी गई तो टीकाकरण केन्द्र खाली चल रहे थे। जैसे ही एक मई से 18 साल से 44 साल के लोगों को टीका लगाने का आह्वान प्रधानमंत्री ने किया ख़बरें चलने लगीं कि टीके हैं कहां? जिस टीके को मुफ्त में लगाने के लिये लोगों को समझाना-बुझाना पड़ रहा था, आज उसके लिये मारामारी मची है। इसी को लेकर एक लतीफा वाट्सएप और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर चल रहा है। आप भी पढ़ लीजिये-
अभी 45+ वालों की पंगत जीम ही रही थी कि 18+ वालों को लाकर बिठा दिया गया। 60+ वाले फूफाजी अलग नाराज हैं। उनको पत्तल में एक बार ही परोसा गया था, और लेना अभी बाकी है। इधर, पूड़ी निकल नहीं रही है, हलवाई इंग्लैड चला गया है...।
नदियां तो ये भी पवित्र हैं...
अपने देश में धार्मिक आस्थायें लचीली और व्यावहारिक हैं। पीढिय़ों से हिन्दू धर्म में परम्परा बनी हुई है कि पवित्र नदियों में अस्थियों के विसर्जन की और वहीं पिंड दान करने की। छत्तीसगढ़ में ज्यादातर लोग बनारस और प्रयागराज जाकर अस्थियां विसर्जित करते हैं। जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है वे भी यात्रा का प्रबंध करते हैं और प्रयास होता है कि अंतिम क्रिया वहीं पर पूरी की जाये। पर इस इन दिनों छत्तीसगढ़ की नदियों का महत्व बढ़ गया है। पवित्रता को लेकर तो पहले भी किसी को संदेह नहीं था पर उनका उसके महत्व के अनुसार प्रयोग भी हो रहा है। कोरोना के चलते यात्राओं में काफी बाधा है। लोग इलाहाबाद या बनारस नहीं जा पा रहे हैं तब नर्मदा नदी, महानदी, शिवनाथ आदि नदियों में लोग अस्थियां विसर्जित कर रहे हैं। अमरकंटक, शिवरीनारायण, राजिम में पिंडदान के लिये पंडित भी मिल रहे हैं। कई मामले ऐसे भी हैं जिनमें दशगात्र और तेरहवीं के लिये 10-12 दिन की प्रतीक्षा नहीं की जा रही है बल्कि तीन चार दिन में ही ऐसी क्रियायें पूरी कर ली जा रही हैं। मृत्यु भोज तो पूरी तरह बंद ही है। अब उम्मीद करनी करनी चाहिये कि इन नदियों को स्वच्छ रखने, प्रवाहमान बनाये रखने के लिये लोगों की चिंता कुछ बढ़ेगी।