विचार / लेख

कचौरी अमर रहे
12-Aug-2024 1:17 PM
कचौरी अमर रहे

-बादल सरोज

समोसा भले फारस से आया हो मगर कचौरी जिसे ( र को ड़ बोलने के आग्रही कचौड़ी भी बोलते हैं) शुद्ध जम्बूद्वीप की है । माना जाता है कि सदियों पहले यात्रा प्रेमी मारवाडिय़ों और चटोरे उत्तरप्रदेशियों ने इसकी ईजाद की थी । बाद में भारत-हिमालय से विंध्याचल के बीच का सारा देश-घूमते हुए इसने स्थानिकता के साथ राब्ता बनाया, स्वादों में कहीं हींग कहीं कोथमीर तो कहीं कहीं गरम मसाले का आभूषण घटाया जोड़ा, मगर अपना मूल स्वभाव नहीं छोड़ा । हाल के दौर में जंक फूड के कनखजूरों के भारतीय बाजार पर कब्जे की सारी सुनामियों के सामने भी छाती फुलाये डटी रही .... और लिखकर रख लीजिए, डटी रहेगी।

 तेज उबलते तेल में इठलाती और खुद ही खुद के समग्र सौंदर्य पर कुप्पा सी हुई, गरम गरम सांस उश्वांस लेती जब कड़ाही से निकलती है तो सुबह सुबह तैलीय नाश्ते से कतराने वालों का दिल भी धक धक करने लगता है और उनकी ना, हाँ में बदल जाती है । (आज सुबह रतलाम में यही हुआ । पोहे का भोग लगाते में एक दोस्त ने कचौरी ऑफर की, हमने पहले थोड़ा भाव खाया, फिर आधी कचौरी खाई और उसके बाद पछताये कि काहे आधी की बात की थी ।)

 कचौरी खुद्दार होती है ; किसी लाल, हरी, तीखी, मीठी, चटनी, सॉस के श्रृंगार, दही-वही के साथ, अलाद-सलाद की टॉपिंग की मोहताज नहीं होती । वह होती है तो बस वही होती है ; विद्यापति की कविता की तरह माथे पर गिरी पानी की बूंद की तरह शिख से पांव की कनिष्ठा के नाखून तक का सफर तय करती ; सिर्फ मुँह को ही नहीं मुखारविन्द को भी पानी पानी करती ।

कचौरियां कई प्रदेशों, नगरों, शहरों, कस्बों, गांवों की खाई हैं ; सभी लाजवाब होती हैं मगर रतलाम की कचौरियों की कुछ अलग ही ताब और सो भी बेहिसाब होती है । टांट्या मामा के जमाने के गराड़ू काट रतलामी जब तिलचट कचौरी (कचौरी के साथ एक छोटी कटोरी में गर्म तेल, दूसरी में लाल मिर्च) जीमते हैं तो सच मानिए समय ठहर जाता, सूर्य ठिठक जाता है, हवाएं भिन्न भिन्न करने लगती हैं ।

रतलामियों, जिन्हें हजारों स्वादों वाले सेव के लिए जाना जाता है, और कचौरी का कुछ ज्यादा ही पुराना साथ और गहरा लगाव है । कचौरी उनके लिए आहार नहीं है उनका गौरव है ; वे भरपेट लंच और डिनर के बाद कचौरी उसे पचाने के लिए कचौरी खा सकते हैं । भूख न होने पर दो चार कचौरी भूख जगाने के लिए कहा सकते हैं।

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