विचार / लेख

बीमारी, इलाज और उम्मीद
24-Aug-2024 7:39 PM
बीमारी, इलाज और उम्मीद

-सचिन कुमार जैन

आप अपने परिवार के किसी सदस्य को उपचार के लिए कितने दिन अस्पताल में रखने की कल्पना कर सकते हैं?

संघर्ष। संघर्ष को कितना महिमा मंडित किया जाता है। क्या वास्तव में जिंदगी के संघर्ष से बड़ा कोई संघर्ष होता है? आज फिर एक संदेश आया। कोई शाम पांच बजे। संदेश अपने आप में जिंदगी की एक पूरी कहानी होते हैं। संदेश था - एम्स (अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी सरकारी अस्पताल) में एक 25 वर्षीय युवक को एस डी पी यानी प्लेटलेट्स की जरूरत है। मैंने सहमति दी तो कुछ ही मिनटों में युवक के परिजन का फोन आ गया।

बेहद विनम्रता के साथ बात की गई। मैंने कहा कि कब आना है? उस व्यक्ति ने कहा - वैसे तो आज ही जरूरत है, लेकिन अगर आज न आ सकें तो कल आ जाइए। मैं उस युवक की बात सुनते हुए, वही हुआ जा रहा था। फिर मैं उसी समय यानी शाम साढ़े पांच बजे एम्स के लिए निकल गया। मुझे पता था कि एसडीपी को निकालने में दो घंटे का समय लग जाता है। खैर, यह कम महत्वपूर्ण बातें हैं।

जब मेरे खून की जांच हो रही थी, तब मैं राम बहोर साकेत से बात कर रहा था। रीवा के गंगेव के एक गांव के राम बहोर साकेत के छोटे भाई 25 साल के सुरेंद्र को ब्लड कैंसर है। ढाई तीन साल पहले सुरेंद्र को बार-बार बुखार आता था। गांव में ही इलाज करवाते रहे। किसे कल्पना थी कि यह बुखार ब्लड कैंसर के कारण हो रहा है?

फिर रीवा के जिला अस्पताल में जांच हुई और खून के कैंसर का पता चला। और उन्हें भोपाल एम्स के लिए रेफर कर दिया गया।

मैंने पूछा - कितने दिन से हैं यहां? यानी अस्पताल में।

राम बहोर साकेत ने जो कहा, वह हिला देने वाली बात थी। राम बहोर अपने छोटे भाई के इलाज के लिए 23 अगस्त 2023 से एम्स में थे। कल सुरेंद्र और उन्हें एम्स में रहते हुए एक साल हो जाएगा।

मैं इस बात पर आसानी से विश्वास ही नहीं कर पाया। उनके पिता निर्माण कारीगर हैं। मंझला भाई काम करता है, उससे घर चलता है और राम बाहोर का खर्चा भी। वे केवल सामाजिक रूप से ही वंचित नहीं थे, बल्कि आर्थिक रूप से भी संकट में थे। अपने परिचितों और रिश्तेदारों से आर्थिक मदद लेकर सुरेंद्र का इलाज करवा रहे हैं।

इलाज से कितनी उम्मीद बंधती है?

राम बहोर ने कहा - सुरेंद्र की बोन मैरो थेरेपी नहीं हो सकती है, क्योंकि अब उतना खून ही नहीं बचा है। उसके घुटने में संक्रमण हो गया है। मवाद भरा है और इस रहा है। उसके कानों से खून बहता है। इतना खून बहा है कि कान की हड्डियां गल गईं हैं। वह बोलने की कोशिश करता है, लेकिन बोल नहीं पाता है क्योंकि उसके फेंफड़ों में आक्सीजन नहीं है। सांस फूल जाती है।

सुरेंद्र की इस स्थिति के बाद भी राम बहोर एक साल से उसका इलाज करवा रहे हैं।

कितनी उम्मीद है?

उन्होंने कहा - जब तक शरीर में जान है, तब तक तो उम्मीद है ही। डाक्टर कर रहे हैं कि जैसे ही संक्रमण ठीक होगा, ज्यादा बेहतर इलाज कर सकेंगे। अभी तो संक्रमण ठीक करवाना है।

लगभग हर हफ्ते खून चढ़ाया जाता है। और प्लेटलेट्स की भी जरूरत होती है। वह अकेले भोपाल में रह कर एक साल से ये सब व्यवस्था कर रहे हैं। वो खुद अपने भाई को खून नहीं दे सकते हैं, लेकिन रक्तदान करते रहे हैं।

फिर धीरे से कहते हैं - अब तो मेरा खून भी रिजेक्ट हो जाता है क्योंकि हीमोग्लोबिन कम हो गया है। लेकिन यहां ब्लड बैंक के सभी लोग बहुत मदद करते हैं। अब तो यहीं रिश्तेदारी बन गई है।

दो घंटे में मैं अपनी नसों से खून निकलते, मशीन में जाते और प्लेटलेट्स निकाल कर वापस अपने शरीर में जाते देखता रहा। इस दौरान मुझसे कई बार पूछा गया कि कोई तकलीफ तो नहीं हो रही है? मुंह पर झुनझुनी तो नहीं है? राम बहोर को देखते हुए कुछ और महसूस ही नहीं हुआ।

जरा सोचिए कि अगर यह सरकारी अस्पताल न होता, तो क्या सुरेंद्र के इलाज की उम्मीद बनी रहती? राम बहोर किसके भरोसे रहते? वास्तव में मुझे समझ आया कि व्यवस्था ही उम्मीद का एक पाया होती है। कहां एक साल तक सुरेंद्र का इलाज होता? कहां से दवाएं आतीं? कहां से ब्लड और एस डी पी मिलता कहां जांचें होती? बस यही है लोक स्वास्थ्य व्यवस्था होने का मतलब। अगर एम्स न होता, तो क्या होता?

इंसान की संवेदनाओं और उम्मीदों को अथाह माना जा सकता है। उसके प्रेम का अहसास कितना विस्तार लिए हुए है।

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