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सहमति से पनपने वाले संबंध और नैतिकता के द्वंद्व
21-Aug-2024 4:02 PM
सहमति से पनपने वाले संबंध और नैतिकता के द्वंद्व

- नासिरुद्दीन

अगर दो बालिग़ व्यक्ति अपने निजी दायरे में रज़ामंदी से किसी रिश्ते में हैं तो क्या यह गलत होगा?

अगर इनमें से एक शादीशुदा है या दोनों शादीशुदा हैं और शादी से अलग इनके रिश्ते हैं, तो क्या यह अपराध होगा? क्या ऐसे मामले में मर्द की ‘बेवफाई’ के लिए लडक़ी ही जि़म्मेदार होती है?

क्या इसकी सार्वजनिक तौर पर लानत-मलामत करने की इजाजत दी जा सकती है? क्या ऐसे मामले में हिंसा करना, उस हिंसा का वीडियो बनाना और उस वीडियो को सार्वजनिक करना सही है?

ऐसे कई सवाल बार-बार सामने आते हैं और पिछले दिनों सोशल मीडिया पर घूम रहे एक वीडियो को देखने के बाद जहन में उठते रहे हैं।

इसमें कुछ पुरुष और महिलाएँ एक मर्द और स्त्री को पकड़े हैं। उन पर चिल्ला रहे हैं। उनकी पिटाई कर रहे हैं।

पता चला कि जिन दो व्यक्तियों की पिटाई हो रही है, वे पुलिस विभाग से जुड़े हैं। मर्द शादीशुदा है। पिटाई करने वालों में उसकी पत्नी और उसके ससुराल के रिश्तेदार शामिल हैं।

ऐसा नहीं है कि इस तरह का यह कोई पहला वीडियो था या ऐसी कोई पहली घटना थी।

अगर इंटरनेट पर सर्च करें तो ऐसी अनेक घटनाएं मिल जाएंगी। इन सबका इस्तेमाल खबर के तौर पर मिल जाएगा। यह घटना चर्चा में ज्यादा रही क्योंकि दोनों पुलिस वाले हैं।

ऐसे मामले को देखने का कई नजरिया है। एक नज़रिया सामाजिक है तो दूसरा नैतिकता का है। तीसरा नज़रिया क़ानून का है। चौथा नज़रिया है कि सभ्य समाज में सार्वजनिक तौर पर ऐसे मामले को कैसे देखा जाना चाहिए।

समाज की नजर में

समाज की नजर में शादीशुदा व्यक्तियों का शादी से बाहर यौन रिश्ता गलत है। अनैतिक है। बेवफाई है। व्यभिचार है। जुर्म है। वैसे तो समाज ऐसे किसी भी यौन रिश्ते को सार्वजनिक तौर पर मंज़ूर नहीं करता, जो शादी के रिश्ते के बाहर हो। चाहे वह रिश्ता दो शादीशुदा व्यक्तियों के बीच हो या दोनों में से एक शादीशुदा हों या दोनों ही अविवाहित हों।

इसलिए वह शादी के रिश्ते में रह रहे व्यक्तियों का अन्य व्यक्तियों से आपसी रजामंदी से बनाए यौन रिश्ते को भी नामंजूर करता है। जरूरी नहीं कि ऐसा यौन रिश्ता बनाने वाले दोनों व्यक्ति शादीशुदा हों।

कुछ लोग इसे अनैतिक भी मानते हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि नैतिकता का तकाज़ा होना चाहिए कि अगर किसी को ऐसे रिश्ते में रहना है तो वह अपने पहले के रिश्ते से अलग हो जाए।

हालाँकि, यह कहना आसान है। किसी भी रिश्ते से निकलना कठिन।

कानून की नजर में रिश्ता

भारतीय कानून में ‘व्यभिचार’ बहस का मुद्दा रहा है। पहले यह भारतीय दंड संहिता में धारा 497 के तहत आता था। इसे भेदभाव वाला और स्त्रियों के खिलाफ भी माना गया।

पुराने कानून के तहत होता यह था कि अगर कोई शादीशुदा स्त्री-पुरुष, अपनी शादियों से इतर रजामंदी से यौन रिश्ते में रहते थे तो यह व्यभिचार का अपराध था। यह अपराध भी सशर्त था।

इसके तहत पुरुष ही दोषी माना जा सकता था। स्त्री नहीं। यह अपराध भी तब माना जाता था, जब स्त्री का पति दूसरे पुरुष के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराए।

इसमें स्त्री के खिलाफ मुकदमा दर्ज नहीं हो सकता था। अगर पति की सहमति से कोई दूसरा पुरुष स्त्री से संबंध बनाए तो वह व्यभिचार के अपराध के दायरे में नहीं आता था।

यही नहीं, अगर कोई शादीशुदा पुरुष किसी अविवाहित या ऐसी महिला से यौन संबंध बनाए, जिसका पति नहीं रहा, तो वह भी व्यभिचार के दायरे में नहीं आता था।

2018 में सुप्रीम कोर्ट की पाँच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने ‘व्यभिचार’ को अपराध नहीं माना। इसे असंवैधानिक बताया और इस धारा को रद्द कर दिया।

कोर्ट के मुताबिक, इसे अपराध मानना सही नहीं है। यह स्त्री की गरिमा के खिलाफ है। स्त्री, पुरुष की जायदाद नहीं है। यह शादीशुदा जिंदगी की निजता में दखलंदाजी होगी। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया था कि ‘व्यभिचार’ तलाक का आधार रहेगा।

भारतीय न्याय संहिता के तहत भी व्यभिचार यानी शादी से इतर यौन संबंध अपराध नहीं है। जब यह कानून बन रहा था तब जरूर मांग उठी थी कि इसे शामिल किया जाए और जेंडर निरपेक्ष बनाया जाए। यानी स्त्री-पुरुष दोनों पर मुकदमा दर्ज हो सके।

आखिरकार इसे शामिल नहीं किया गया।

सहमति को समझना जरूरी है

यौन रिश्ते में रजामंदी को समझना निहायत जरूरी है।

चाहे वह रिश्ता शादीशुदा दायरे में हो या उसके बाहर। अगर दो व्यक्ति बालिग हैं, तो उनके बीच रज़ामंदी से बनाया गया रिश्ता गलत नहीं हो सकताज् और असहमति से बनाया गया रिश्ता यानी जबरदस्ती बनाया गया रिश्ता गलत होगा। चाहे वह शादीशुदा रिश्ते में हो या उस दायरे से बाहर।

इसलिए ऐसे किसी मामले को जिसमें रजामंदी शामिल है, अपराध के तौर पर देखना या उसे अपराध की तरह निपटने का तरीका अपनाना सही नहीं है।

हमला लडक़ी पर ज़्यादा

यही नहीं, जब ऐसे मामले सामने आते हैं तो चर्चा के केन्द्र में लडक़ी होती है। उसे ही निशाना बनाया जाता है। उसे ही ऐसे रिश्ते के लिए जि़म्मेदार बनाया जाता है। पुरुष तो ‘बेचारा’ हो जाता है।

ज़्यादातर ऐसे मामलों में पत्नी ने और समाज ने पति को बेचारा माना और लडक़ी को जि़म्मेदार। यानी लडक़ी ने अपने ‘जाल’ में बेचारे मर्द को ‘फँसा’ लिया।

लडक़ी का चरित्रहनन भी होता है। कोई पूछ सकता है कि आखिर लडक़ी का अपराध क्या था?

ऐसे मामले पर प्रतिक्रिया कैसी हो

हालाँकि, ऐसे मामले पर बोलना दोधारी तलवार पर चलना है। आमतौर पर सामाजिक नज़रिया इसके खिलाफ में खड़ा होता है।

ऐसी घटनाओं पर बोलने को ऐसे रिश्तों की हिमायत के तौर पर देखा जा सकता है। मगर कई बार यह जोखिम उठाना जरूरी हो जाता है।

जिस तरह से सार्वजनिक तौर पर दोनों व्यक्तियों को पीटने, शर्मिंदा और बेइज़्ज़त करने का तरीका अपनाया गया, वह सभ्य समाज में नहीं होना चाहिए। यह भीड़ की सज़ा है। भीड़ कभी इंसाफ नहीं करती। यह एक संवेदनशील मुद्दे का अमानवीयकरण है।

यह किसी की निजता में दखलंदाजी भी है। जो लोग, इस मामले से सीधे नहीं जुड़े हैं, वे ऐसी घटनाओं का मजा ही लेते हैं। जैसे- दो लोग पिट रहे हैं और कुछ लोग खड़े होकर वीडियो बना रहे हैं।

इस घटना में भी जहाँ यह वीडियो साझा हो रहा था, उसके साथ की टिप्पणियाँ बताती हैं कि लोग मजा ले रहे थे। उनमें से किसी की दिलचस्पी इस बात पर नहीं थी कि किसी दुखी के दुख को कम करें।

हाँ, इससे किसी को बेइज़्जत करेंगे, यह सोच जरूर रही होगी।

कुछ लोगों को लग सकता है कि व्यभिचार का कानून रहता तो ऐसा न होता। वे भ्रम में हैं। पुराना कानून भी रहता तो भी वह महिला ‘व्यभिचार’ का मुकदमा दर्ज नहीं करा पाती।

क्योंकि वह कानून स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को मानता ही नहीं था। वह कानून स्त्री के खिलाफ था।

कुछ सवाल-जरूरी जवाब

अब सवाल है, सभ्य समाज में ऐसे रिश्ते को कैसे देखना चाहिए?

ऐसी स्थिति से कैसे निपटना चाहिए? क्या इंसाफ का जिम्मा भीड़ को ले लेना चाहिए? क्या किसी की निजता को भंग करने की इजाजत दी जा सकती है?

क्या पिटाई और सार्वजनिक निंदा से कुछ हासिल होने वाला है? क्या पिटाई या निंदा से वह पति लौट आएगा?

क्या उन दोनों के बीच के रिश्ते सामान्य हो पाएँगे? क्या वह मोहब्बत से रहने लगेंगे?

उस पत्नी को कैसे राहत मिलेगी? पत्नी के पास क्या रास्ते हैं? क्या ऐसे रिश्ते इकतरफ़ा होते हैं? क्या इसके लिए लडक़ी को दोषी ठहराया जा सकता है?

हमें ठहरकर इन सवालों पर तनिक सोचना चाहिए। वृहद समाज का नजरिया सही ही हो, यह जरूरी नहीं है। समाज बहुत सारे मामले में दकियानूसी, सामंती और पितृसत्तात्मक सोच रखता है।

रिश्तों के मामले में ऐसा ज़्यादा होता है। उसने कुछ रिश्तों की ही इजाजत दी है। कानून का नजरिया भी कई बार समाज के नजरिये को ही आगे बढ़ाता है।

मगर संविधान के मूल्यों के आधार पर तय कानून, ही हमारा नजरिया होना चाहिए। ऐसे मामले को देखने का तरीका भी इसी तरह निकलेगा। वीडियो बनाकर वायरल करने से टूटते रिश्ते नहीं जुड़ते।(bbc.com/hindi)

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