विचार / लेख

अंधी और बहरी सरकारें
26-Aug-2024 3:27 PM
अंधी और बहरी सरकारें

- डॉ. आर.के. पालीवाल

आजकल सरकार और सरकारी उडऩखटौलों और रथों में बैठे मंत्री और उसमें बैठे अधिकांश बड़े नौकरशाहों ने मिलकर एक ऐसा संगठित गिरोह सा बना लिया है जिसके आसपास जाना तो दूर अपनी समस्या या व्यथा पहुंचाना आम आदमी के लिए असंभव है। जब शासन के ऊंचे शिखरों तक जनता की पहुंच ही नहीं है तब उसके छोटे-छोटे काम संपन्न कराने के लिए दलालों का भ्रष्टाचार पथ ही एकमात्र विकल्प बचता है। पंचायत में बैठे पटवारी,थाने, पुलिस चौकी से लेकर हर विभाग के निचले स्तर के अधिकारी और कर्मचारी जानते हैं कि उनके जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक से लेकर चीफ सेक्रेटरी और डी जी पुलिस तक के उच्च अधिकारियों का अधिकांश वक्त राजनीतिक आकाओं की इच्छापूर्ति और जी हुजूरी में ही बीतता है, इसीलिए उन्हें ऊपर शिकायत होने का कोई डर नहीं है।

इधर निम्न श्रेणी के बहुतेरे अधिकारियों और कर्मचारियों ने भी अपने इलाके के मंत्री, सांसद और विधायक का संरक्षण हासिल कर लिया जिससे न किसी की शिकायत पर उनका तबादला हो सकता और न उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही संभव है। इसी सब के चलते जो बेहद असंवेदनशील वातावरण तैयार हुआ है उसी ने सरकार और शासन को अंधे बहरे की नकारात्मक उपाधि दी है।

शासन के उच्च अधिकारियों का व्यवहार भी नेताओं की अत्यधिक संगत में रहकर एक तरफा हो गया। वे भी जूनियर अधिकारियों की बैठक लेते वक्त केवल और केवल बोलते हैं नीचे वालों की फीडबैक और परेशानियां नहीं सुनते। बोलने के लिए शासन के शिखर पर सवार मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के कई कई मुंह हैं, मसलन उनका एक मुंह वह है जिससे वे कहीं न कहीं भाषण देते रहते हैं या अपने मातहदों को आदेश देते हैं, एक मुंह ट्विटर (जिसका नया नाम एक्स हो गया) है जिस पर वे घड़ी घड़ी विकास की फुलझड़ी छोड़ते रहते हैं, एक मुंह फेसबुक अकाउंट और विभागीय वेबसाइट है और एक मुंह मीडिया को जारी किए जाने वाले विज्ञापन  हैं जिनमें जमकर बड़े बड़े झूठ आकर्षक बनाकर परोसे जाते हैं।आप इन्हें किसी भी वक्त फोन कीजिए, इनके व्हाट्स ऐप नंबर पर मैसेज कीजिए , मेल भेजिए या चि_ी लिखिए या बारी बारी संवाद के यह सब साधन अपनाकर देख लीजिए वे आपके पत्र, मेल या मैसेज पर कोई संतोषजनक कार्यवाही तो दूर उसकी प्राप्ति की स्वीकृति तक नहीं देते।

मंत्रियों और उच्च अधिकारियों का फील्ड में उतरकर जनता की समस्याओं का देखना तो पूरी तरह बंद ही हो गया। जिन मंत्रियों को जिले की जिम्मेदारी दी जाती है वे जब तब सरकारी दौरे पर आते हैं और सर्किट हाउस के बंद कमरों में अपने चेले चपाटों से मिलकर कब निकल जाते हैं इसका पता अगले दिन के अखबार से मिलता है। मुख्यमंत्री और मंत्री राजधानी के बाहर निकलते हैं तो अपने परिचितों और रिश्तेदारों के निजी कार्यक्रमों में ज्यादा समय देते हैं जनता की समस्याओं पर नहीं के बराबर। लोकतंत्र विकृत होते होते राजशाही की तरह दो ध्रुवीय हो गया। जन प्रतिनिधि राजा और वजीर बन गए और प्रजा गुलाम बन गई। नौकरशाही का काम राजा और उनके वजीरों की बादशाहत बरकरार रखना और प्रजा को डरा धमकाकर भेड़ बकरी की तरह आज्ञाकारी बनाना हो गया।

आजादी के अठहत्तर साल से केवल दो बार आधी अधूरी बदलाव की लहर उठी है लेकिन दोनों बार यह लहर ज्वार में नहीं बदल पाई। आपातकाल के बाद लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में तत्कालीन केंद्र सरकार की तानाशाही के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन खड़ा हुआ था।

इस अहिंसक आंदोलन के पीछे जय प्रकाश नारायण के विराट व्यक्तित्व और जनता में उनके प्रति विश्वास का भाव था क्योंकि उन्होने न केवल आजादी के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की थी अपितु विनोबा भावे के साथ मिलकर गांधी की सर्वोदय सेवा परंपरा को आगे बढ़ाया था। दूसरा छोटा आंदोलन अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुआ था लेकिन वह दिल्ली तक सीमित रहा। उम्मीद की जानी चाहिए कि निकट भविष्य में कोई बड़ा जन आंदोलन हो जिससे अंधी बहरी सरकारों का अंधा और बहरापन हमेशा के लिए दूर हो।

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