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वर्तमान परिदृश्य में आरक्षण की आवश्यकता
21-Aug-2024 4:07 PM
वर्तमान परिदृश्य में आरक्षण की आवश्यकता

भारत जब स्वतंत्र हुआ, उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए अनुसूचित जाति एवं जनजाति के वर्गों के लिए लोकसभा तथा विधान सभाओं में 10 वर्ष के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था ताकि उक्त संवर्ग के लोगों को भी उनकी जनसंख्या के अनुपात में लोकसभा तथा विधान सभाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिले लेकिन प्रथम 10 वर्षों की समाप्ति पर पुन: संविधान संशोधन द्वारा, उक्त अवधि को हर 10 वर्ष की समाप्ति पर आगामी 10 वर्षों के लिए बढ़ाया जाता रहा है और अब तक इसमें 7 बार वृद्धि की गई है।

पहली बार जब प्रावधान किया गया था, तब संविधान सभा के सदस्यों का यह मत रहा होगा कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों के सर्वांगीण उत्थान के लिए यह प्रावधान आवश्यक है। लेकिन अब ऐसा लगता है कि इसको बढ़ाया जाना राजनैतिक मजबूरी है।

सन् 1950 में जब यह प्रावधान किया गया था, तब उक्त जाति के लोगों की सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति क्या थी और जब-जब इस अवधि में वृद्धि की गई है, तब-तब उनके सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति में क्या अंतर आया, कितनी प्रगति हुई, कितने लोगों की आर्थिक स्थिति में वृद्धि हुई, इसका कोई अध्ययन या अनुसंधान सरकारी स्तर पर हुआ होगा ऐसा मेरा मानना है और यदि उनके सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति में सुधार हुआ है तो इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि आरक्षण को किस सीमा तक, कितनी अवधि तक और किस स्वरूप में जारी रखना चाहिए और यदि कोई सुधार नहीं हुआ है तब तो उसे निरंतर जारी रखने में कोई दिक्कत नहीं है।

जब संविधान बना, उस समय अनुसूचित जाति एवं जनजाति में कौन-कौन सी जातियां शामिल होंगी, उसका उल्लेख एवं जाति को उक्त सूची में शामिल करने की प्रक्रिया का उल्?लेख, संविधान के अनुच्छेद 341 में कर दिया गया था।

जिस प्रकार लोकसभा एवं विधानसभाओं में उक्त जाति के लोगों को उनकी जनसंख्या के अनुरूप अवसर उपलब्ध कराने के लिए प्रावधान, संविधान में किया गया, ठीक उसी प्रकार अनुच्?छेद 15 (4) के तहत शासकीय सेवाओं में भी उन्हें पर्याप्त अवसर मिले इसलिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान किया गया। अनुसूचित जाति एवं जनजाति में वे जातियां शामिल की गई हैं, जो हजारों वर्षों में विभिन्न कारणों से सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से वंचित रहीं और इस कारण वे धीरे-धीरे विकास की ओर अग्रसर होने के बजाए पिछड़ती चली गई।

अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा, वर्ष 1979 में जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी, तब उन्होंने सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ों की पहचान करने हेतु ‘मंडल आयोग’ का गठन किया और मंडल आयोग की रिपोर्ट को विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने अगस्त, 1990 में लागू कर दिया। हालांकि संवैधानिक प्रावधान न होने के कारण लोकसभा एवं विधानसभाओं में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए स्थान आरक्षित नहीं है लेकिन शासकीय सेवाओं में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया गया जो अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए पूर्व में आरक्षित सीमा के अतिरिक्त थी।

अब सवाल यह उठता है कि जब देश को आजाद हुए 77 वर्ष हो गये हैं तो क्या जिन जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है, उनके शैक्षणिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्तर में सुधार हुआ है ? 

संभवत: इसका उत्तर नहीं है क्योंकि आरक्षण का लाभ जाति को देखकर दिया जाता है न कि जिस व्यक्ति को आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है, उसके सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्तर को देखकर। हो यह रहा है कि आरक्षण के कारण जिन लोगों को उसका लाभ मिल चुका है, उन्हें ही या उनकी पीढिय़ों को ही लगातार इसका लाभ मिल रहा है और जो वास्तव में उपेक्षित या पिछड़े हैं, उनके स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है और यही कारण है कि अभी हाल ही में दिनांक 1 अगस्त, 2024 को उच्चतम न्यायालय की 7 जजों की संविधानपीठ ने 6:1 के बहुमत से अनुसूचित जाति एवं जनजाति आरक्षण में जातियों को विभिन्न श्रेणियों में विभक्त करने का अधिकार राज्यों को दे दिया। न्यायालय का यह भी मत था कि एक ही जाति आरक्षण का अधिक लाभ उठायेगी तो बाकी कमजोर जातियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा जबकि आरक्षण का मकसद वंचित वर्गों को आगे बढ़ाना है। अपने फैसले में उच्चतम न्यायालय ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति कोटे में क्रीमीलेयर लागू करने पर भी जोर दिया हालांकि उसका सभी राजनैतिक दलों ने विरोध करना प्रारंभ कर दिया है और अनुसूचित जाति एवं जनजाति के सांसदों ने इस संबंध में प्रधानमंत्री जी से मुलाकात कर ज्ञापन सौंपा और प्रधानमंत्री जी ने भी इसे लागू न करने की घोषणा कर दी।

क्रीमीलेयर को लागू न करने के पीछे यह तर्क दिया कि संविधान में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के आरक्षण में क्रीमीलेयर का प्रावधान नहीं है। अब क्या केवल इस आधार पर कि संविधान में क्रीमीलेयर का प्रावधान नहीं है, आर्थिक रूप से अति वंचित दलितों के अधिकारों का हनन् नहीं होगा? संविधान में तो आरक्षण का प्रावधान भी केवल 10 वर्षों के लिए था फिर जब संविधान में संशोधन कर उसकी अवधि में वृद्धि की जा सकती है तो क्रीमीलेयर का प्रावधान शामिल करने में संसद को कौन रोक रहा है?

लेकिन इससे उन लोगों को अवसर नहीं मिलेगा जिन्हें आरक्षण के कारण बार बार अवसर मिलता रहता है और वे लोग पुन: वंचित रह जाते हैं जो वास्तव में आरक्षण के हकदार हैं।

कुल-मिलाकर जब तक न्यायालय के क्रीमीलेयर वाले फैसले के आधार पर जातियों के वर्गीकरण के फैसले को लागू नहीं किया जाता, तब तक अनुसूचित जाति एवं जनजाति में शामिल सभी जातियों का उत्थान संभव नहीं है। इसलिए यदि हम सभी का उत्थान चाहते हैं तो क्रीमीलेयर का प्रावधान लागू करना सामयिक एवं प्रासंगिक होगा और तभी डॉ भीमराव अंबेडकर का वह सपना साकार हो सकेगा कि प्रत्येक वंचित व्यक्ति को बराबरी का अवसर मिले। अन्यथा जिस प्रकार उपेक्षा के कारण अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग पिछड़े रह गये उसी प्रकार इन्ही जातियों के ऐसे लोग जिन्हें आगे बढऩे का अवसर नहीं मिला वे और भी पिछड़ते जाएँगे।

-चन्द्रशेखर गंगराड़े

 पूर्व प्रमुख सचिव

छत्तीसगढ़ विधानसभा

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