संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जोंक की तरह चिपक गए स्मार्टफोन दिल-दिमाग का लहू चूसते जा रहे हैं...
13-Feb-2024 6:36 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : जोंक की तरह चिपक गए स्मार्टफोन दिल-दिमाग का लहू चूसते जा रहे हैं...

फ्रांस से एक दिलचस्प खबर आई है कि वहां के एक गांव में स्मार्टफोन के लिए लोगों का बावलापन घटाने के लिए लोगों से रायशुमारी की, और 54 फीसदी लोगों ने स्मार्टफोन पर रोक लगाने की हिमायत की। अब वहां की म्युनिसिपल ने तय किया है कि अगर मां-बाप अपने बच्चों को 15 साल की उम्र के पहले स्मार्टफोन न देने पर हामी भरेंगे तो बच्चों को सिर्फ कॉल करने वाला एक साधारण फोन तोहफे में दिया जाएगा। इसी खबर में बताया गया है कि फ्रांस के राष्ट्रपति ने कुछ विशेषज्ञों से परामर्श चाहा है कि बच्चों का स्क्रीन टाईम कैसे घटाया जाए। आज बाकी विकसित और संपन्न दुनिया के साथ-साथ फ्रांस में भी स्मार्टफोन का अधिक इस्तेमाल लोगों की फिक्र बढ़ा रहा है। समाज में लोगों का आपस में बातचीत करना कम होते जा रहा है, और तमाम लोग अपने-अपने फोन पर जुटे रहते हैं। यह नौबत सिर्फ विकसित देशों की नहीं है। हिन्दुस्तान जैसे देश में गरीबों की इतनी आबादी होने के बावजूद सस्ता डेटा पैक एक सबसे बड़ा समाचार रहता है, और अधिकतर लोग अपने इंटरनेट पैकेज के लिए सबसे सस्ता तलाशते रहते हैं। सार्वजनिक जगहों पर हालत यह है कि जिन बाग-बगीचों या तालाब किनारे लोगों को कुदरत का मजा लेने बैठना चाहिए, या आपस में बात करते बैठना चाहिए, वहां पर कमअक्ल स्थानीय संस्थाएं मुफ्त का इंटरनेट उपलब्ध कराती हैं, और लोग कुछ देर के लिए भी चैन से एक-दूसरे के साथ नहीं बैठ पाते। 

भारत में आज हाल यह है कि लोगों ने मानो अपने मोबाइल फोन से शादी ही कर ली है। और सच तो यह है कि शादीशुदा जोड़े भी एक-दूसरे में इस तरह डूबे नहीं रहते, जिस तरह लोग हिन्दुस्तान में दुपहिया चलाते हुए भी सिर और कंधे के बीच मोबाइल दबाकर बात करते दिखते हैं। सार्वजनिक जगहों पर लोग इतना चीख-चीखकर बात करते हैं, कि आसपास के दूसरे लोगों का जीना हराम हो जाता है। घरों के बीच हाल यह है कि हर कोई अपने-अपने फोन या लैपटॉप पर, या अलग-अलग टीवी स्क्रीन के सामने जुटे रहते हैं, और एक साथ खाने के मौके भी मोबाइल फोन से दब चुके हैं। चूंकि घर के सभी बड़े लोग अपनी-अपनी स्क्रीन पर जुटे हुए हैं, इसलिए छोटे बच्चे भी किसी तरह का फोन या टीवी जुटाकर उस पर काम करना सीख लेते हैं, और यह साबित करने लगते हैं कि टीवी का नाम एक वक्त जिस किसी ने भी इडियट बॉक्स रखा था, सही ही रखा था। 

जिन लोगों को इस गंभीर बीमारी की गंभीरता समझ नहीं आ रही है, उन्हें यह बतला देना ठीक होगा कि आज अधिकतर लोग अपने फोन या कम्प्यूटर पर बार-बार सिर्फ यही देखते रहते हैं कि उनसे कुछ छूट तो नहीं जा रहा है, किसी खबर या संदेश के आए हुए कुछ मिनट गुजर तो नहीं चुके हैं? मानो कुछ मिनट देर से देखने पर कोई ट्रेन छूटने वाली है। यह बार-बार देखने का सिलसिला कुल मिलाकर यही देखने का साबित होता है कि पिछली बार देखने के बाद से अब तक कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं आया है। लोग स्मार्टफोन और कम्प्यूटरों पर सोशल मीडिया को पूरे ही वक्त देखते रहने की आदत के शिकार होकर बीमार सरीखे हो गए हैं। अंग्रेजी में इसके लिए 2004 से एक शब्द इस्तेमाल हो रहा है, फोमो, इसका मतलब है फीयर ऑफ मिसिंग आऊट। इसे मानसिक विशेषज्ञों ने बखान किया है कि लोग आजकल इस तनाव में रहते हैं कि वे सोशल मीडिया पर कोई ऐसी चीज छोड़ तो नहीं दे रहे हैं, जो कि दूसरे लोग देख रहे हैं, या वे दूसरों का लिखा या पोस्ट किया कुछ ऐसा तो नहीं अनदेखा कर रहे हैं, जिसे कि देखना चाहिए। इसके साथ-साथ यह फोमो बर्ताव लोगों को सोशल मीडिया पर लगातार एक-दूसरे से संपर्क करने के लिए भी मजबूर करते रहता है। इसे एक मानसिक बीमारी न सही, एक मानसिक समस्या मान लिया गया है, और इससे छुटकारा दिलाने के लिए विशेषज्ञ तरह-तरह के परामर्श का इस्तेमाल कर रहे हैं। 

दुनिया के कई संपन्न लेकिन अधिक समझदार देशों से ऐसी तस्वीरें आती हैं जिनमें किसी कैफे के बाहर लगा हुआ ऐसा ब्लैकबोर्ड या नोटिस दिखता है जो कहता है कि यहां पर वाईफाई नहीं है, यह सोचें कि आप वाईफाई के पहले के जमाने में जी रहे हैं, और अपने साथ के लोगों के साथ का आनंद उठाएं। कुछ गिने-चुने ऐसे रेस्त्रां भी दिखते हैं जहां पर खाने की मेज पर इकट्ठा लोगों के मोबाइल ले लिए जाते हैं, और उन्हें इसके एवज में बिल में कुछ रियायत दी जाती है। नौजवानों के कुछ ऐसे समूह भी दिखते हैं जो अपने फोन इकट्ठा करके रख देते हैं, और जो फोन सबसे पहले उठाए उस पर भुगतान करने का जिम्मा आता है। ऐसी बहुत सी तरकीबों को जगह-जगह ईजाद किया जा रहा है कि लोगों का स्क्रीन टाईम घटे। कुछ समझदार लोगों ने अपने दिन के कुछ घंटे तय कर रखे हैं कि जब वे कोई भी डिजिटल उपकरण नहीं देखेंगे। फ्रांस के राष्ट्रपति बच्चों के स्क्रीन टाईम पर सीमा लगाने के लिए भी लोगों से राय मांग रहे हैं। एक मोबाइल फोन ने, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के साथ मिलकर, और वॉट्सऐप जैसी मैसेंजर सर्विसों के साथ मिलकर लोगों की असल जिंदगी से सामाजिकता को घटा दिया है, और एक आभासी दुनिया को ही उनके लिए सब कुछ बना दिया है। शायद यह भी एक वजह है कि जापान में बहुत से लोग अपने घरों में कैद रह जाते हैं, और सोशल मीडिया पर चुनिंदा लोगों के साथ संबंध रखते हुए वे असल जिंदगी में किसी से भी संबंध रखना मुश्किल या नामुमकिन पाने लगते हैं, और शादी से कतराने लगे हैं, देश की आबादी गिरने लगी है, और डिजिटल उपकरण इस नौबत की एक वजह बताए जा रहे हैं। 

हिन्दुस्तान में अभी इस बात पर कोई चर्चा भी सुनाई नहीं पड़ रही है कि बच्चों के स्क्रीन टाईम को कम किया जाना चाहिए। जबकि टीवी और दूसरे उपकरण बनाने वाली कंपनियां कुछ मामूली इंतजाम करके ऐसी सीमा तय कर सकती हैं कि बच्चों के देखे जा रहे कार्यक्रम हर दिन के लिए तय वक्त के बाद बंद हो जाएं। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि पहले टीवी लोगों को जितना इडियट बनाता था, आज स्मार्टफोन, और लैपटॉप या टैबलेट उन बच्चों के हाथों में और अधिक आत्मघाती होते जा रहे हैं। जिन मां-बाप को इसके खतरे समझ नहीं आते, उन्हें जानना चाहिए कि बच्चों को सुनाई गई कहानियां उनकी कल्पना को सबसे अधिक उडऩे का मौका देती हैं, वे पंछी, पहाड़, तितली, परी, शेर, या नदी इन सबके रूप-रंग अपनी कल्पना से तय करते हैं, और इससे उनकी कल्पना शक्ति बढ़ती है। दूसरी तरफ जब कहानियों के साथ रंगीन तस्वीरें आने लगती हैं, तो आकार और रंग की कल्पना की उनकी अपनी संभावना खत्म होने लगती हैं, और जब वीडियो पर ऐसी चीजें आने लगती हैं, तो उनका दिमाग पैर पसारकर बैठ जाता है, और सिर्फ परोसी गई चीजों का आंख-कान के रास्ते मजा लेने लगता है। 

हमने कई जगह इस बात को लिखा भी है कि बच्चों को बर्बाद होने से बचाने के लिए उन्हें बैटरी या बिजली से चलने वाले उपकरणों, बाजार के डिब्बा या पैकेटबंद खाने-पीने, और धर्म से दूर रखना चाहिए। अब धर्म को लेकर बहस लंबी हो सकती है, इसलिए हम आज के इस मुख्य मुद्दे को पटरी से उतारना नहीं चाहते। खानपान की समझदारी इसी में है कि बच्चों को अधिक से अधिक घर का बना हुआ ही खिलाया जाए। लेकिन बच्चों से लेकर बड़ों तक सबके लिए आज फोन और कम्प्यूटर जैसे जरूरी औजार, अपने गैरजरूरी और बेदिमाग इस्तेमाल से बर्बादी का सामान भी बन गए हैं। हथौड़ी का एक इस्तेमाल होता है, लेकिन कोई हथौड़ी से अपने ही सिर को ठकठकाने की लत का शिकार हो जाए, तो इसमें उस औजार की गलती नहीं रहती है, उसके इस्तेमाल की इंसानी गलती रहती है। लोगों को अपने, अपने परिवार के लोगों के डिजिटल इस्तेमाल को घटाने के बारे में सोचना चाहिए, और कम से कम इसके गैरजरूरी हिस्से को तो खत्म करना ही चाहिए।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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