संपादकीय
![‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : धर्मोन्माद न भी हो तो भी शेरनी को सीता नाम देना परले दर्जे की बेदिमागी.. ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : धर्मोन्माद न भी हो तो भी शेरनी को सीता नाम देना परले दर्जे की बेदिमागी..](https://dailychhattisgarh.com/uploads/article/1708258386DIT_PHOTO.jpg)
तृणमूल कांग्रेस की ममता बैनर्जी के राज वाले पश्चिम बंगाल में एक नया बखेड़ा खड़ा हो गया है। यहां विश्व हिन्दू परिषद कलकत्ता हाईकोर्ट की एक बैंच पहुंच गई है, और उसने सिलीगुड़ी सफारी पार्क में रखे गए एक शेर और शेरनी के नामों से अपनी धार्मिक भावनाएं आहत होना बताया है। अभी त्रिपुरा के सिपाहीजाला जूलॉजिकल पार्क से आठ जानवर बंगाल लाए गए थे, जिसमें यह जोड़ा भी था, और इनके नाम अकबर और सीता हैं। विश्व हिन्दू परिषद का कहना है कि त्रिपुरा से यहां आने के बाद उनको ये नाम दिए गए हैं। बंगाल के अफसरों और मंत्री-विधायक का कहना है कि यहां उनको कोई नाम नहीं दिए गए हैं और हो सकता है कि त्रिपुरा में उनके रहते हुए ही वहां उनका यह नाम रखा गया हो। बंगाल के वनमंत्री ने कहा कि अभी 12 फरवरी को ये 8 जानवर लाए गए हैं, और औपचारिक रूप से मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी इनके नाम रखेंगी। उल्लेखनीय है कि जिस त्रिपुरा से इन्हें लाया गया है वहां पर अभी भाजपा की सरकार है, और बंगाल में भाजपा प्रमुख विपक्षी दल है जो कि सत्ता में आने की संभावनाएं रखता है, और वहां पर तृणमूल कांग्रेस के साथ उसके सांप-नेवले जैसे संबंध हैं। दोनों ही पार्टियों के बीच परले दर्जे की कटुता है, और दोनों एक-दूसरे पर हमले का कोई भी मौका नहीं छोड़ते।
अब हम कुछ देर के लिए तृणमूल या भाजपा सरकारों के बीच फर्क को अलग रखकर यह बात करें कि जानवरों के नाम किस तरह के रखे जाने चाहिए? भारत जैसे देश में जहां पर धर्म अब खेती से भी बड़ा कारोबार हो चुका है, और एक वक्त का कृषि प्रधान देश आज धर्म प्रधान देश बन चुका है, वहां पर जानवरों के, दुकानों और जगहों के, और तो और अपने बच्चों के नाम कैसे रखे जाएं, यह एक धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता, और धार्मिक कट्टरता का मुद्दा बड़ी आसानी से बन जाता है। इतिहास और उसके पहले की धर्म कथाओं में सीता नाम का पहला या सबसे चर्चित जिक्र रामकथा में राम की पत्नी सीता की ही है। हो सकता है कि किसी वक्त हिन्दुस्तान में सीता और गीता जैसे नाम वाली फिल्म भी बन गई हो, जिसे लेकर कोई बखेड़ा खड़ा न हुआ हो, लेकिन अब आज के हिन्दुस्तान में यह मुमकिन नहीं है। धार्मिक भावनाओं के कोई तर्क नहीं होते हैं, वे किसी तथ्य पर टिकी नहीं रहती हैं, किसी भी देश और काल के मुताबिक धार्मिक भावनाएं अलग-अलग शक्ल लेती हैं, और इन दिनों का हिन्दुस्तान अपनी भावनाओं को बदन के चमड़ी के भी ऊपर रखकर चलता है। किसी की धार्मिक भावना आहत होने के लिए किसी बात का उनके दिल तक पहुंचना जरूरी नहीं होता, उनकी चमड़ी भी आहत हो सकती है। ऐसे हिन्दुस्तान में चिडिय़ाघर या जंगल के किसी प्राणी का नाम सीता रखना अपने आपमें बेदिमागी का काम है। न सिर्फ सीता बल्कि हजारों किस्म के धार्मिक नाम ऐसे हो सकते हैं जिनमें से कोई भी नाम किसी जानवर को देने पर एक दंगा हो सकता है। फिर यह बात भी समझना जरूरी है कि इस देश में सिर्फ हिन्दू भावनाओं के फटाफट आहत हो जाने की तोहमत भी जायज नहीं होगी। देश के किसी भी धर्म से जुड़े हुए धार्मिक चरित्र का नाम किसी जानवर को दे देने पर बखेड़ा खड़ा हो सकता है, और दंगों में जानें जा सकती हैं। आज जिस तरह से हिन्दुस्तान राममय हो गया है, वैसे माहौल में सीता महज एक नाम नहीं है, वह राम की पत्नी भी है जिनका जिक्र पूरी रामकथा में बिखरा हुआ है। अगर यह पूरा बखेड़ा झूठा नहीं है, और अगर त्रिपुरा या बंगाल सरकार में किसी ने शेरनी का नाम सीता रखा था, तो वह अपने आपमें गलत फैसला था, और अकबर नाम के किसी शेर के साथ उसका जोड़ा बनाए बिना भी उसका नाम सीता रखा जाना बेदिमागी का काम था।
जब देश में लोगों की धार्मिक भावनाएं एक पैर पर खड़े होकर आहत होने के लिए तैयार रहती हैं, तो बाकी लोगों को अभिव्यक्ति की ऐसी स्वतंत्रता का कोई दावा नहीं करना चाहिए जिससे सिवाय नुकसान कुछ हासिल न हों। अभी पिछले पखवाड़े ही हमने पुणे विश्वविद्यालय के एक नाटक के बारे में लिखा था कि वहां रामलीला करने वाले कलाकार मंच के पीछे कैसा बर्ताव करते हैं, इस कथानक पर एक नाटक लिखा गया था, और उसे मंच पर खेला गया था। इसमें सीता का किरदार करने वाला नौजवान सिगरेट पी रहा था, और गंदी जुबान बोल रहा था। वैसे तो इस नाटक की कहानी यही थी कि रामलीला करने वाले कलाकार मंच के पीछे कैसा बेझिझक बर्ताव करते हैं, लेकिन जब यह कहानी मंच पर खेली गई, तो धार्मिक भावनाएं आहत होने की रिपोर्ट लिखाई गई, और पांच छात्रों सहित विश्वविद्यालय के एक विभागाध्यक्ष को भी गिरफ्तार किया गया। उस वक्त भी हमने यह बात लिखी थी कि हिन्दुस्तान में आज धार्मिक भावनाएं बारूद के ढेर पर बैठी हुई हैं, और ऐसे में समझदारी तो यही है कि अभिव्यक्ति की किसी स्वतंत्रता के तहत धार्मिक मुद्दों को न छुआ जाए। आज कला की आजादी का दावा करने का वक्त नहीं है, आज धर्म पर किसी गंभीर व्याख्या और विश्लेषण का भी वक्त नहीं है, और खतरा झेलकर ही वैसा किया जा सकता है। अदालतों का रूख भी धार्मिक भावनाओं का हिमायती दिख रहा है, ऐसे में हर किसी को अपनी खाल बचाकर चलना चाहिए। दस-बीस बरस पहले तक जितने हास्य और व्यंग्य धार्मिक किरदारों को लेकर खप जाते थे, आज उसका वक्त नहीं रह गया है। और ऐसा करने पर कट्टर धर्मान्धता को तो आगे आने का मौका मिलता ही है, ऐसी धार्मिक एकजुटता साम्प्रदायिक होने का खतरा भी खड़ा करती है। धर्म के नाम पर बोलने, लिखने, और कलात्मक आजादी लेने वाले लोग किसी मासूमियत का दावा नहीं कर सकते, क्योंकि देश में आज हवा का रूख दिखाने वाला कपड़ा सारे वक्त फडफड़़ाते रहता है। आज सबको मालूम है कि कौन सी बातों को लेकर एक गैरजरूरी बवाल खड़ा हो सकता है, इसलिए धार्मिक चरित्रों के नाम के ऐसे इस्तेमाल की बेवकूफी नहीं करना चाहिए। हिन्दुस्तान का कोई भी धर्म अपने धर्म से जुड़े नामों को जानवरों को देना भी पसंद नहीं करेगा, और किसी दूसरे धर्म के नाम वाले जानवर के साथ अपने धर्म के नाम वाले जानवर का जोड़ा बनाना तो और भी बर्दाश्त नहीं करेगा।
हिन्दुस्तान जैसे देश में नामों की कोई कमी तो है नहीं कि धर्मोन्माद और साम्प्रदायिकता खड़ा करने का खतरा लेकर भी धार्मिक नाम रखे जाएं। और बात महज जानवरों के नाम की नहीं है, किसी शराबखाने या किसी गोश्त के दुकान का नाम भी किसी धार्मिक चरित्र के नाम पर रखना दंगा खड़ा कर सकता है। धर्म से थोड़े दूर से ही गले मिलना चाहिए।